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२०
महाराज छत्रसाल।
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नायक छत्रसाल थे। उस समय रावजी ऐसी अवस्थामें थे कि पुत्रजन्मका उत्सव मनाना तो दूर रहा, पुत्रकी रक्षा करना भी उनके लिये दुष्कर कार्य हो गया । इसीलिये जब बचा छः महीने का हुआ तो अपनी माताके साथ नानिहाल भेज दिया गया। वहीं इसका पालन चार वर्षतक हुअा। फिर चम्पत रायने दोनोंको बुला लिया और ये लोग कुछ कालतक जङ्गलों और पहाड़ोमें साथ साथ फिरते रहे।
यह जीवन कुछ बहुत सुखका न था। प्रतिक्षण शत्रुसे त्रास बना रहता था। शत्र भी साधारण न था। उसका बल अपेक्षया अतुल था और नित्यप्रति वृद्धि पा रहा था। इधर रावजीका बल, जो योंही अल्प था. नित्य प्रति क्षीण होता जाता था। न तो सुखसे स्वाना मिलता था न सोनेका प्रबन्ध था। जो कुछ सामग्री प्राप्त भी थी उसका उस अशान्तिपूर्णा परिस्थितिमें उपभोग नहीं हो सकता था। यदि चम्पत राय अकेले होते तो कदाचित् वे इतना दुःख स्वीकार ही न करते प्रत्युत् बाहर निकल कर शत्रुदलमें प्रवेश करके स्वर्गप्राप्ति करते; परन्तु रानी और पुत्रका ध्यान उनको रोकता था। इतना ही नहीं, उनको उन बीर पुरुषों और स्त्रियोका भी ध्यान था जो उनके अनुयायो बने हुए इन सब दुःखोंको चुपचाप सहन कर रहे थे। उनकी अवस्थाके लिये भी संसार मात्रकी दृष्टिमें उत्तरदायी राव चम्पत ही थे। इन्हीं सब क्लेशोसे उनका चित्त तप्त रहता था और इन चिन्ताओं को दूर करनेवाली प्राशाका कहीं पता न था। जिस कार्यको रावजीने इतने उत्साहस प्रारम्भ किया था, जिसके सम्पादनमें उनको दैवी सहायताकी आशा थी, वह सिद्धिसे कोसों दूर हो गया था और शालिवाहनकी मृत्युके
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