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प्रारम्भिक कार्यवाही।
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जाय जैसा कि मेरे पिताके साथ किया गया था। परन्तु छत्र, सालको ऐसे विचारोंने न रोका । जब किसी पुरुषके हृदयमें कोई दृढ़ सङ्कल्प घर कर लेता है तो वह अपनेको एक प्रकारसे अजेय और अमर समझने लगता है। और प्रायः देखा गया है कि वह बहुतसी ऐसो आपत्तियोंसे बच भी जाता है जो साधारण व्यक्तियोंको मारकर ही छोड़ती हैं।
ओरछावालोपर एक बड़ी विपत्ति आ पड़ी थी। मुसलमान धर्मके प्रचण्ड स्तम्भ सम्राट औरंगजेबकी कृपा-दृष्टि फिर बुन्देलखण्डकी ओर फिरी थी। उनको एकाएक स्मरण हुप्रा कि इस प्रान्तके हिन्दुओका स्वधर्माभिमान पूर्ण रीत्या चूर्ण नहीं हुआ है । जो प्रांत स्वालसा अर्थात् मुगलोके स्वशासित थे उनमें तो जजिया आदि निकृष्ट कर लग ही चुके थे। अब उन प्रांतोंमें जो हिंदू राजाओंके अधीन थे यह काम करना शेष रह गया था । राजपुतानेके राज्य प्रायः प्रबल थे। इसलिये उनमें एकाएक ऐसा आदेश चलाना उचित न प्रतीत हुआ और दक्षिणमें शिवाजीके मारे कुछ होने पाता ही न था। यही सब सोच बिचार कर बुन्देलखण्ड पहिले पहिल इस धर्मकार्यके लिये (!)चुनागया। ओरछाका राज्य मुगलोंका सहायक था और इसमें इतनी शक्ति न थी कि वह मुगलोंका विरोध कर सके। यही सब सोच कर ग्वालियरके सूबेदार फ़िदाईखाँके नाम फर्मान भेजा गया कि वह मंदिरोंके तोड़ने का कार्य प्रारम्भ कर दे । फिदाईखाँने ओरछा-नरेशको इस काममें योग देने के लिये लिखा और आदेश-खण्डनको अवस्थामें दण्ड-भय भी दिखलाया ।
अब महाराज सुजानसिंह बड़े धर्मसङ्कट में पड़े; यदि इस
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