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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराज छत्रसाल । मुगलसेनामें मानो फिरसे प्राणका सार हुश्रा; उसने फिरसे अपनी खोयी हुई शक्तिको पा लिया। इधर बँदेलों में भी परिवर्तन होरहा था । अब वह समय न था कि देशप्रेमियोको जङ्गलपहाड़ों में मुँह छिपा कर फिरने. की आवश्यकता हो या खाने कपड़ेतकका कष्ट सहन करना पड़ता हो। अब उनके पास एक विस्तृत राज्य था । सुखकी सामग्री इकट्ठी होजाती थी। अभीतक जितनी लड़ाइयाँ हुई थीं सबमें इनकी ही जीत हुई थी। वह औरंगजेब जिसके नामका सिक्का सारे भारतमें बैठा हुआ था इनके सामने कुछ न कर सका था। इसकी सारी युक्तियाँ उलटी पड़ी थीं। मुगलोंमें बुंदेलोंकी धाक जम गयी थी। दूर दूरके हिन्दू इनको अपना धर्मरक्षक और आश्रयदाता मानते थे। इन सब बातोंने बुंदेलोको अभिमानसे भर दिया था। वे अपने शत्रुओंको तुच्छ समझने लगे थे। उनको विश्वास था कि कोई मुगल सेना कभी उनके सामने नहीं ठहर सकती। शाहकुलीने शीघ्र ही उनके अभिमानको चूर्ण करके उनको निर्धम कर दिया। थोड़े ही दिनों में उसने चौराहट, कोटरा, जलालपुर और अन्य कई स्थानों को अपने हाथमें कर लिया और मऊकी ओर आगे बढ़ा। इस समय बुंदेलोंकी लग. भग वही दशा थी जो कि महाराज जयसिंहके सामने मरहठोकी हुई थी । ऐसा प्रतीत होता था कि बँदेलखण्डमें मुगलोका शासन पुनः स्थापित हो जायगा। मऊसे कुछ दूरपर दोनों सेनाएँ एक दूसरेके सामने आयी। शाहकुलीके लगातार विजयोंने मुग़लोका उत्साह द्विगुण कर दियाथा और उसी मात्रामें बुंदेलोका साहस घट चला था। जो बात उनकी समझमें अनहोनी थी वही होरही थी। वे हार रहे थे। For Private And Personal
SR No.020463
Book TitleMaharaj Chatrasal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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