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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराज छत्रसात। सुखोको लोकहितार्थ त्याग दें । इस परम दिव्य यश में श्रद्धालु पुरुषको स्वयं बलि-पशु बनना पड़ता है। तब ही यमपुरुष भगवान् प्रसन्न होते हैं। जो यह चाहता है कि इस कार्यमें मेरे शरीर, धन, सामाजिक पद आदिको कुछ भी क्षति न पहुँचे उसका प्रयत्न निष्फल है। देशके शत्रुओंमें उसका सत्कार हो सकता है, परन्तु देशसेवकोंकी श्रेणी में उसके लिये कहीं भी स्थान नहीं है । - छत्रसालके लिये अबभी समय था यदि वे चाहते तो मुगलोंके सम्मान-भाजन हो सकते थे। परन्तु 'न भवति पुनरुक्तं भाषितं सजनानाम्'-ये अपने व्रतमें दृढ़ थे। अस्तु, ऊपर लिखे विचारको धारण करके चैत्र शुक्ल एकादशी संवत् १७२८ ( सन् १६७१ ) के दिन इन्होंने मुगलसंरक्षित धंधेरा सरदार कुँअरसेनपर आक्रमण किया। कुमारसेनने भी बीरताके साथ इनका सामना किया, किन्तु अन्तमें उसकी हार हुई । युद्धक्षेत्रसे हटकर उसने सकरहरीकी गढ़ी. में आश्रय लिया। छत्रसालने वहाँ भी उसका पीछा किया और गढ़ीको घेरलिया। शीघ्र ही इनको गढ़ीमें घुसने का अवसर मिला और कुछ लड़ाईके उपरान्त कुमारसेन बन्दी हुअा। तब उसने इनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया और अपने भाई हिरदेसाहकी पुत्री दानकुमारीका इनके साथ विवाह कर दिया। युद्धमें सहायताके लिये उसने अपना एक सरदार केसरीसिंह पञ्चीस सिपाहियोंके साथ इनकी सेनामें सम्मिलित कर दिया। पास ही सिरौजका शाही थाना था; ज्योंही वहाँके थानेदार मुहम्मद हाशिमखाँको यह समाचार मिला, उन्होंने एक छोटी सी सेनाके साथ छत्रसालको रोकना चाहा, परन्तु सफल न For Private And Personal
SR No.020463
Book TitleMaharaj Chatrasal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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