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छत्रसालका लड़कपन ।
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करना था अत्यन्त आवश्यक शिक्षाकाल था । इसीमें इसके भावी चरित्रगठनकी नींव पड़नी थी। यहीं उसने अपने पिता और उनके साथियों को देखकर ऐहिक सुखोंको तुच्छ समझना और स्वधर्मसे प्रेम करना सीखा। यहीं उसको स्वार्थत्याग और स्वातंत्रनिष्ठाका प्रथम पाठ मिला ।।
वीर पुरुषों के साथ रहने और वोरोंके उपाख्यानोंके सुनने. से हृदयमें आप ही वीर भावका उद्रेक होता है। यहाँ छत्रसाल. ने पुस्तकों की तो कोई शिक्षा पायी नहीं; पर वीर-रस-प्रधान कथाएँ उनके मस्तिष्क में मर गयीं और वीरोचित कर्म करने. की तरङ्ग हृदयमें उठने लगी । __ अभी ये सात वर्ष के बालक थे, इसलिये ये भाव भी इनमें अङ्कर रूपसे ही वर्तमान थे; क्योंकि अभी इनके पुष्ट होने का समय नहीं था, पर आगे चल कर इस अमूल्य शिक्षाका फल देख पड़ा और जो भाव कि इस समयमें गुप्त रूपसे हृदयमें बैठे थे, अवसर पाकर उन्होंने अपना सिर उभाड़ा ।
परन्तु केवल-शिक्षा सामग्रीसे ही काम नहीं चला करता, शिक्षाका पात्र भी होना चाहिये। यह गुण छत्रसालमें था । वे स्वयं होनहार वालक थे। उनका भावी महत्त्व उनकी बाल्यावस्थामें ही झलकता था। उस समय की क्रीड़ा, बोल. चाल, शरीरादिकी चेष्टासे ही यह विदित होता था कि यह बालक धागे चलकर अलाधारण व्यक्ति होगा। होनहार बिरवानके, होत चीकने पात ।' यदि ऐसा न होता तो इस सब शिक्षाका उल्टा प्रभाव पड़ता। हमको स्वनामधन्य महाराणा प्रतापके पुत्र अमरसिंहका इतिहास ज्ञात है । उनको भी बाल्यावस्थामें ऐसे ही कष्ट उठाने पड़े थे। परन्तु उनके चरित्रदौर्बल्य और स्वाभाविक कार्पण्यने उनपर इस शिक्षा.
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