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अनवरखाँ और सदरुहीन ।
साथ उसपर चढ़ दौड़े; पर वह प्राण बचाकर भाग निकला। वहाँसे भाग कर उसने कुछ देहाती जमींदारोको भड़का कर विरोधपर खड़ा कियाः पर फिर हारना पड़ा
और इन मूखौको भी अपनी अदूरदर्शिताके लिये भारी पश्चात्ताप सहना पड़ा। बीरगढ़ व बगरोसा आदि कई स्थान छत्र. सालके हाथ आये। इनको अपने पूर्वजित स्थानोंका-नर. सिंहगढ़, एरिच, कालपी, प्रादिका एक बार फिर चक्कर लगाना पड़ा क्योंकि ज़मीदारोंके इस विद्रोहकी आग वहाँ मी कुछ कुछ फैल गयी थी। कोटलेके किलेके अफ़सर हमारे पूर्व परिचित सैयद लतीफ़ थे। इन्होंने कुछ दिनोंतक जम कर युद्ध किया। परन्तु सामग्रीके चूक जानेसे इनको भी शरण पाना पड़ा। एक लाख रुपया लेकर छत्रसालने इनको भी छोड़ दिया।
इस लड़ाई में भी, और विशेषतः हमीरखाँके साथ चित्रकूटके युद्धमें, छत्रसालको बहुत सामग्री हाथ लगी। राज्यका विस्तार भी बहुत बढ़ गया था और जो प्रान्त मुग़ल शासनमें होते हुए भी चौथ देते थे उनकी संख्या भी बहुत बढ़ गयी थी। इन सब बातोसे बुन्देलोका उत्साह बढ़ता जाता था और अन्य स्थानोंके भी हिन्दू आशापूर्ण दृष्टि इस भोर डाल रहे थे कि कदाचित् छत्रसालके द्वारा हमारा भी उद्धार हो।
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