SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org महाराज छत्रसाल। - तलवारने उलटकर चलानेवालेको हो काटा और प्रजाकी विजय हुई। यही बात इस समय हो रही थी। जहाँ जहाँ उपद्रव खड़ा हो गया था अन्त औरङ्गजेबकी हार ही होरही थी। पर वह हठी पुरुष था-कभी पराजय माननेके लिये प्रस्तुत न था। इसीसे, बुन्देलखण्डसे कमियोंक पराजयके कुसमा. चारको पाकर उसने तहवरखाँके सेनापतित्वमें एक दूसरी सेना भेजी। यह सेना संवत् १७३७ ( सन् १६८० )-के लगभग बुन्देलखण्ड आयी। इसी समय साबर ( या सँड़वा)-से इनकी लगन आयी। जिस समय ससुराल में भाँवरे फिर रही थीं तहवरखाँने आकर घर घेर लिया। पर छत्रसाल किसी न किसी प्रकार उसे धोखा देकर निकल गये और वह हाथ मलता रह गया। __ ज्येष्ठमें यह घटना हुई । चार महीनेके पश्चात् इन्होंने कालिञ्जरपर धावा मारा । यह बड़ा ही पुष्ट गढ़ है और बुन्देलखण्डमें उतनी ही लड़ाइयाँ देख चुका है जितनी कि राजपूतानेमें चित्तौरगढ़ । बलदिवानने गढ़को घेर लिया। छत्रसाल उस समय वहाँ न थे प्रत्युत् अपने एक मित्रके यहाँ अतिथि थे। अठारह दिनतक घोर संग्राम हुआ। दोनों दलवालोंकी भारी क्षति हुई पर किसीने हार न मानी । पर अब गढ़के भीतर सिपाहियोंके लिये खानेकी सामग्री कम हो गयी । इसलिये उन्होंने भीतर बन्द होकर मरनेको अच्छा न समझकर उन्नीसवे दिन फाटक खोल दिया और बाहर क्षेत्रमें निकल आये। कुछ देर युद्ध होनेके पश्चात् उनको पराजय स्वीकार करना पड़ा। उनका अफसर दैवात् बच गया और दिल्लीकी ओर भागा। इस युद्ध में छत्रसालके For Private And Personal
SR No.020463
Book TitleMaharaj Chatrasal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy