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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सौजन्य और गुणग्राहकता। ११३ - नाम महाबली था। जब इनके वैभव-समयमें उससे फिर भेंट हुई तो उसे धनादिसे परितुष्ट करनेके अतिरिक्त इन्होंने सबके सामने उसको काका कह कर सम्बोधन किया, जिससे उस वृद्धके हर्षकी सीमा न रही। सच्चे सौजन्यका यही लक्षण है। जो अपनेसे बड़े हैं या बराबरके हैं उनके साथ सुशीलताका बर्ताव करना सहज बात है। इतना ही नहींलोकापवाद इत्यादिके डरसे भी मनुष्य उनके साथ सुशीलाचरण करनेके लिये बाधित हो जाता है। परन्तु, जो अपनेसे छोटे हैं उनके सम्बन्धमें इस प्रकारका कोई अनिवार्य प्रेरक नहीं होता । इसलिये, उनके साथ जो हमारा व्यवहार होता है वही हमारे स्वभावका परिचायक होता है। प्राणनाथजीके तो ये शिष्य ही थे। उनकी जो कुछ इन्होंने सेवा की वह उचित ही थी, क्योंकि भारतवर्ष में सदैवसे गुरूकी पदवी बड़ी ऊँची मानी गयी है, यहाँतक कि ईश्वरको भी गुरूसे बड़ा नहीं मानते । परन्तु छत्रसालजी इनके अतिरिक्त और साधुओंकी भी सेवा बड़ी श्रद्धासे करते थे। लालदास नामके एक साधुके परामर्शसे ही छत्रपुर बसाया गया था । इसमें सन्देह नहीं कि इन बातोंके अतिरिक्त और मी सब ही सद्गुण इनमें न्यूनाधिक रहे होंगे । यद्यपि निर्दोष तो कोई मनुष्य भी नहीं होता, तोभी जो लोग संसारके इतिहासमें कोई बड़ा काम कर जाते हैं उनमें प्रायः सद्गुण पाये जाते हैं। यदि ऐसा न हो तो वे समुदायके चित्तको अपनी ओर आकर्षित न कर सकें। उनके शरीरमें ही एक ऐसी आकर्षण-शक्ति होती है और उनकी बातें ऐसी रोचक होती हैं कि लोग हठात् उनकी ओर खिंच जाते हैं । जो मनुष्य झूठा या अभिमानी होता है वह कभी नेता नहीं हो सकता। जब एक बार For Private And Personal
SR No.020463
Book TitleMaharaj Chatrasal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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