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छत्रसालका लड़कपन ।
उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा कभी विफल नहीं होती । यदि आरम्भमे पराजय भी हो जाय तो वह भावी विजयकी ही सूचक होती है। धर्मपथमें वीर पुरुषोंका रक्तपात होता है वह कदापि व्यर्थ नहीं होता ।
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अस्तु इस समय तो आर्य-द्रोहियोंकी जय हुई और मुगलों और उनके सहकारी बँदेलोको अपने राक्षली व्यापारमें सफलता प्राप्त करके कृतकृत्य माननेका दुरवसर प्राप्त हुआ ।
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४. छत्रसालका लड़कपन ।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, जिस समय राव चम्पत मुसलमानों द्वारा अत्यन्त कष्ट उठा रहे थे, उन्हीं दिनों जङ्गल में छत्रसालका जन्म हुआ । ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत् १७०६ (सन् १६४६ ) सोमवार के दिन इस वीर पुरुषने धरादर्शन किया था। बहुत लोग इनको रावजीके ज्येष्ठ पुत्र शालिवाहनका अवतार मानते हैं । वह समय ऐसा न था कि इनके माता पिता एक छोटे बच्चेकी समुचित सुश्रुषा कर सकते । प्राणरक्षातक करनी कठिन थी। एक बार यवनोंसे घर कर सब लोग तो इधर उधर निकल गये और बच्चा युद्धक्षेत्र में ही पड़ा रह गया । भाग्य प्रबल था, नहीं तो शस्त्र से या घोड़ोंके टापसे मर जाना क्या बड़ी बात थी !
ऐसी ही बातोंको सोचकर रावजीने इन्हें नानिहाल भेज दिया । ये वहाँ माता के साथ चार वर्ष रहे । तदुपरान्त फिर पितासे श्रा मिले और सात वर्षकी अवस्थातक फिर पिताके ही साथ रहे । रावजी उन दिनों किस प्रकार जीवन व्यतीत कर रहे थे, इसका कथन ऊपर कई बार आ चुका है।
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