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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir महाराज छत्रसाल । ____ 'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग, जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ॥ विजय प्राप्त होनेसे संसारमें ऐहिक सुखकी प्राप्ति होती है और यदि वीरगति प्राप्त हो तौभी लोकमें यश और पर. लोकमें स्वर्ग मिलता है। अतः क्षत्रियके लिये धर्मयुद्धसे बढ़ कर कोई कर्तव्य नहीं है। __ 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥' जो क्षत्रिय अपने धर्मका परित्याग करता है, तुच्छ सुखोके लिये अपने प्राण बचानेका प्रयत्न करता है, स्वदेश और स्वधर्मकी गौरवग्लानिको देखता हुआ भी प्रात्मोत्सर्गसे जी चुराता है उसका जीवन अत्यन्त निन्द्य है। यह नितान्त अपकीर्ति और अपगतिका भाजन है। इन वाक्योंले बुंदेलोंमें फिर उत्साह पा गया। उनको अपने भागनेपर आप लज्जा अायी और अब उन्होंने न हटनेकी दृढ़ प्रतिज्ञा की। मनुष्यको कार्यसिद्धिके लिये सबसे बड़ी आवश्यकता इस प्रतिज्ञाकी ही होती है। जब एक बार किसी व्यक्तिमें यह भाव आ जाता है कि 'अर्थ वा साधयामि, देहँ वा पातयामि' अर्थात् यदि कार्य सिद्ध न होगा तो मैं प्राण देदूंगा तो उसे सफलता प्राप्त हो ही जाती है, प्रत्येक प्राणीके हृदयमें भगवतो आदिशक्तिका निवास है। जो मनुष्य किसी सत्कार्यके लिये दृढ़ प्रतिशा करता है वह मानो उस जगदाधारा देवीको आवाहन करता है और अन्त में उसकी जीत अवश्य होती है, क्योंकि देवी स्वयं विजयस्वरूपिणी है और फिर 'यतोधर्मस्तो जयः ।" निदान, बुंदेले लड़ने के लिये फिर प्रस्तुत हुए । मुग़ल भी For Private And Personal
SR No.020463
Book TitleMaharaj Chatrasal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand
PublisherGranth Prakashak Samiti
Publication Year1917
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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