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महाराज छत्रलाल ।
क्रोध था । वह सीधे फिर दरबार गया और उसने बादशाह से छत्रसालको दण्ड देनेके लिये सहायता माँगी ।
श्रीरङ्गजेब उस समय उससे किसी कारण से कुछ रुष्ट था । उसने बदला लेनेका यह अच्छा अवसर पाया । सहायता देना एकमात्र अस्वीकार कर दिया और उसको समझा दिया कि यदि तुम अपनी जागीर वापस लेना चाहते हो तो श्राप जाकर प्रयत्न करो ।
ऐसा करना उसके लिये कोई नयी बात न थी । अपने अनुयायियों के साथ इस प्रकारका व्यवहार करना उसकी कुटिल और मदान्ध नीतिका एक साधारण अङ्ग था । जब वह अपने किसी सरदार या जागीरदारको दण्ड देना चाहता तो उसे किसी कठिन काममें लगाकर बीचमें सहायता देना बन्द कर देता था । कई बार सेनापतियोंको दूर दूर प्रान्तों में युद्धके लिये भेजकर, जिस समय उनको सहायता की आवश्यकता होती, उस समय सहायतासे हाथ खींच लिया करता था । यही कुत्सित आचार जोधपुरके महाराजा यशवन्त सिंहके साथ, जब वे काबुलकी ओर गये हुए थे. किया गया । इस युक्तिसे बादशाहकी इच्छाको कुछ सफलता तो प्राप्त होती थी. उस बिचारे सरदारको अपयश और अपमान पाने के साथ साथ कभी कभी प्राणसे भी हाथ धोना पड़ता था। कितने ही सरदार, जिनसे औरङ्गजेबको किसी प्रकारका स्वटका था, इस प्रकार ठराडे कर दिये गये । पर इसमें एक आपत्ति थी, उस सरदारके साथ ही मुग़ल साम्राज्यको भी हानि उठानी पड़ती थी । कितने ही योग्य पुरुषोंके प्राण व्यर्थ जाते थे। कितना ही धन मिट्टीमें मिल जाता था और शत्रुओंका उत्साह बढ़ता था। अपने शत्रुओंके हाथ अपने
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