Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सिद्धान्त ॥ (अनेकान्त सिद्धान्त दर्पण) लेखक श्री जैन मुनि उपाध्याय आत्मारामजी. Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P.BFBS SROR जैन सिद्धान्त || ( अनेकान्त सिद्धान्त दर्पण ) टेल AAR GOR लेखक श्री जैन मुनि उपाध्याय आत्मारामजी. प्रकाशक श्री जैन सभा - पञ्जाब की तरफसे बावु परमानंद प्लीडर, बी. ए. कसूर ( जिला - लाहौर) प्रथमावृत्ति. प्रत ५००.. वीर निर्वाण संवत् २४४१. ६० स० १९१५ अहमदाबादमें पांचकुएकी नजदीक आया हुआ थी सत्यविजय प्रिन्टीग में शाह सांकलचंद हरिलालने छापा. मूल्य रु.०-६-०, संस Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preface. I am Jain by birth and love Jain religion as Universal Religion. I was ignorant of its fundamental principles as the people of other religions generally are. Fortunately, I had a chance to see the author of this book and heard his updesh and had a talk with him which gave me much information about my religion. The author is a learned Jain Sadhu belonging to the Swetamber Sthanakwasi Sadhus of the Punjab. He is well versed in the Jain literature belonging to all branches of Jain. Though he is still about 30 years of age, yet his love for learning and teaching the others forced me to request him to write this book for the good of the public which he very kindly did here at my office as he is staying here with his Guru, great grand Guru & Chelas for their Chaturmas. I get this book printed for the public good as a token of gratitude for the obliga. tion the said Sadhu put me under by giving me the necessary information about my religion. The cost price only will be charged which will be given to the Punjab Jain Sabha. Kasur. 18-10-14 Devali day Sambat 1971 Vir Sambat 2441. Parmanand B. A. Pleader, Chief Court-PUNJAB, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम सर्ग . आत्मा और उनके लक्षण. द्वितीय सर्ग . प्रमाण चिवर्ण... नय विवर्ण तृतीय सर्ग . विषयानुक्रम. ... चतुर्थ सर्ग . 949 ... ... ... CHANC ... : ... Sea चारित्र वर्णन. (पंच महाव्रत, दशविध यतिधर्म और भावनाओंका वर्णन ) :: ... 940 ... : : ... 000 १६ १०५ गृहस्थ धर्म विषय. (धावक गुण वर्णन और व्यसन निषेध ) १४१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय ॥ नमो समणस्स भगवतो महावीरस्सणं ।। ॥ श्री जैन सिद्धान्त ॥ ( श्री अनेकान्त सिद्धान्त दर्पण) ॥ प्रथम सर्गः॥ प्रिय सुज्ञ पुरुषो ! मनुष्यभवको प्राप्त करके तत्त्व विद्याका विचार करना योग्य है, क्योंकि सिद्धान्तसे निर्णय किये विना कोई भी आत्मा पूर्ण दर्शनारूढ़ व चारित्रारूढ़ नहीं हो सक्ता है। सिद्धान्त शब्दका अथे ही वही है, जो सर्व प्रमाणोंद्वारा सिद्ध हो चुका हो, अपितु फिर वह सिद्धान्त ग्रहण करने योग्य होता है । तथा सिद्धान्त शब्द पूर्ण सम्यक् दर्शनका ही वाचक है, इसी वास्ते उमास्वातिजी तत्त्वार्थसूत्रकी आदिमें मुक्ति मार्गका वर्णन करते हुए यह सूत्र देते हैं: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ सो इस सूत्रमें यह सिद्ध किया है कि सम्यग् दर्शन से सम्यग् ज्ञान होता है, फिर सम्यग् ज्ञान से सम्यग् चारित्र प्रगट हो जाता है, किन्तु तीनोंके एकत्व होनेपर जीव मोक्षको प्राप्त होते हैं, तथा यह तीनों ही मोक्षके मार्ग हैं | इससे सिद्ध हुआ कि विना दर्शनके जीव मोक्षमें नहीं जा सक्ते हैं, क्योंकि दर्शनके बिना अन्य गुण भी सम्यक् प्रकारसे प्रादुर्भूत नहीं होते हैं ॥ यथा Savag मूल सूत्रम् ॥ नादंस पिस्स नाणं नाणेण विना न हुंति चरणगुणा अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि - मोक्खस्स निवाणं ॥ उत्तराध्ययन सू० अ० १७ गाथा ३० ॥ संस्कृत टीका - अदर्शनिनः सम्यक्तरहितस्य ज्ञानं नास्ति इत्यनेन सम्यक्तं विना सम्यक् ज्ञानं न स्यादित्यर्थः । ज्ञानंविना चारित्रगुणाश्चारित्रं पञ्चमहात्रतरूपं तस्य गुणाः पिण्डविशुद्धयादयः करण चरण सप्ततिरूपाः न भवति । अगुणिनः चारित्र Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणैः रहितस्य मोक्षः कर्मक्षयो नास्ति अमोक्षस्य कर्मक्षयरहितस्य निर्वाण मुक्तिसुखप्राप्तिास्ति ॥ भावार्थ:-उक्त सूत्रमें शृंखलाबद्ध लेख हैं जैसे कि सम्यक् दर्शनके विना सम्यग् ज्ञान नहीं, सम्यक् ज्ञानके बिना सम्यक् चारित्र नहीं, सम्यक् चारित्रके विना सकल गुण नहीं, गुणों के विना मोक्ष नहीं, मोक्षके विना पूर्ण सुख नहीं अर्थात् आत्मिक आनंद नहीं । सो मिय बंधुओ ! सम्यक् दर्शन सम्यक् सिद्धान्तका ही नाम है, क्योंकि सिद्धान्तके जाने विना कोई भी आत्मा आत्मिक गुणों में प्रवेश नहीं कर सकता; अपितु सम्यक् दुर्शन अर्हन् देवने जो प्रतिपादन किया है वही जीवोंको कल्याणरूप है। सो अहंत देवके कथन किये हुए पदार्थको माननेसे सम्पा दर्शन होता है, सम्यक् दर्शनको आहत मत कहो वा जैन दर्शन कहो किन्तु दोनों शब्दोंका एक ही अर्थ है ॥ प्रश्न:-जिन शब्द किस प्रकार बनता है, फिर जैन शब्द किस अर्थमें व्यवहत होता है ? उत्तर:-जि' जये धातु को नक् प्रत्ययान्त होकर जिन शब्द बन जाता है । यथा 'जि' जये धातु जय अर्थमें व्यवहृत है तब Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जि-ऐसे धातु रखा है। फिर उणादि सूत्रसे जिन शब्द इस प्रकारसे वना, जैसे कि इषिञ्जिदीडष्यविभ्योनक् । नणादि प्रकरण पाद ३ सू०२॥ ___ अथ उज्ज्वलदत्त टीका-इण्गतौ । पिवंधने । जि जये। दीङ् क्षये । उप दाहे । अवर क्षणे । एभ्यो नक् स्यात् ॥ इनोराज्ञिमभौसूर्ये ॥ इनः सूर्येनृपेपत्यौ । नान्ते ॥२॥ इति विश्वः ।। सह इनेन वर्तत इति सेना || सेनयाभियात्यभिपेणयति ।। सिनः काणः ॥ जिनो बुद्धः। जिनः स्यादतिद्धेऽपि बुद्धेचाहति जित्वरे विश्वेनान्त ॥ १॥ दीनोदुर्गतः ॥ उष्णमीपत्तप्तम् ॥ ज्वरत्वरेत्यूठ । उनमसम्पूर्णम् ॥ सर्वस्वे तु जनयत्तेरूनमिति साधितम् ।। इतिहत्ति ॥ इस सूत्रसे 'जि' धातुको नक् प्रत्यय हो गया तब जिन शब्द सिद्ध हुआ, अपितु हैमचन्द्राचार्य नाममाला वृत्तिमें लिखते हैं किजयत्यनिनवतिरागषादिशत्रून् इति जिनः।। इसमें यह वर्णन है कि जो विशेष करके रागद्वेषादि अं. तरंग शत्रुओंको जीतता है वही जिन है, अर्थात् जिसने राग Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) देपादि शत्रुओंको जीत लिया है वही जिन है। फिर, देवता ॥ शा० अ० २ पा० ४ । सू० २०६ ॥ __ प्रथमान्तात् साऽस्यदेवतेत्यस्मिन्नर्थे अणादयो नवंति ॥ इत्यण ॥ आईतः॥ एवं जैनः सौगतः शैवः वैष्णवः इत्यादि। भापार्थ:-इस तद्धितके सूत्रका यह आशय है कि प्रथमान्तसे देवार्थम अणादि प्रत्यय होजाते हैं यथा अर्हन् देवता अस्य आहेतः । जिनो देवताऽस्य जैनः (आरचोऽध्यादेः । शा० अ०२।३ । ८४) __इस सूत्रसे आदि अच्को आ-ऐ-औ-आर् येह हो जाते हैं। तब यह अर्थ हुआ कि जिन है जिनका देव वही है जैन अथवा ( जिनं वेत्तीति जैनः ) अर्थात् जो जिनके स्वरूपको जानता है वही जैन है ॥ तथा जिनानां राजः जिनराजः यह पष्ठीतत्पुरुष समास है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो सामान्य जिन हैं उनका जो राजा है वही जिनराज है अर्थात् तीर्थकर देव । इसी प्रकार जिनेन्द्र शब्द भी सिद्ध होता है । सो जो श्री जिनेन्द्र देवने Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) द्रव्योंका स्वरूप कथन किया है उसको जो सम्यक् प्रकारसे जानता है वा मानता है वही जैन है ।। प्रश्न-जिनेन्द्र देवने द्रव्य कितने प्रकारके वर्णन किये है ? उत्तर-पद् प्रकारके द्रव्य वर्णन किये हैं। प्रश्न-वे कौन कौनसे हैं ? उत्तर-जीव पुद्गल धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि । सद् द्रव्य लक्षणम् । उत्पाद् व्यय ध्रौव्य युक्तं सत् इति द्रव्या:। किन्तु सद जो है यह द्रव्यका लक्षण है क्योंकि, सीदति रवीयान् गुणपर्यायान् व्यामातीति सत् ।। अपने गुणपर्यायको जो व्याप्त होवे सो सत् है अथवा उत्पादन्ययधौव्ययुक्तं सत् । यह जो पूर्व वचन है अर्थात उत्पत्ति विनाश और स्थिरता, इन तीनों की संयुक्त होवे सो सत् है अथवा अर्थनियाजारि सद जो अर्थ क्रिया करनेवाला है सो सत् है ॥ यथा गुणाण मासओ दवं एगदवस्सिया गुणा लक्खणं पजवाणंतु उभयो अस्सियाभवे ॥ उ० अ० २८ गाथा ६॥ त्ति ॥ गुणानां रूपरसस्पर्शादीनां आश्रयः स्थान द्रव्यं यत्र गुणा उत्पचन्तेऽवतिष्ठते विलीयन्ते तव द्रव्यं इत्यनेन Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) रूपादि वस्तु द्रव्यात् सर्वथा अतिरिक्तं अपि नास्ति द्रव्ये एव रूपादि गुणा लभ्यन्ते इत्यर्थः ।। गुणा हि एक द्रव्याश्रिताः एकस्मिन् द्रव्ये आधारभूते आधेयत्वेनाश्रिता एक द्रव्याश्रितास्ते गुणा उच्यन्ते इत्यनेन ये केचित् द्रव्यं एव इच्छंति तद्व्यक्ति रिक्तान रूपादीन् इच्छंति तेषां मतं निराकृतं तस्माद रूपादीनां गुणानां मध्येभ्यो भेदोप्यस्ति तु पुनः पर्यायाणां नव पुरातनादि रूपाणां भावानां एतल्लक्षणं ज्ञेयं एतत् लक्षणं किं पयोया हि उभयाश्रिता भवेयुः उभयोव्यगुणयोराश्रिताः उभयाश्रिताः द्रव्येषु नवीन पर्यायाः नान्ना आकृत्या च भवंति गुणेष्वपि नद पुराणादि पर्यायाः प्रत्यक्ष दृश्यन्ते एव ॥ ___ भापार्थः-उक्त सूत्रमें यह वर्णन है कि द्रव्यके आश्रित गुण होते हैं, जैसे अग्निका प्रकाश वा उष्ण गुण है । अग्नि द्रव्य है तथा मूर्य द्रव्य प्रकाश गुण, जीव द्रव्य ज्ञान गुण, किन्तु नित्य गुणका आत्मासे अनादि अनंत सम्बन्ध है । यथा श्री आचारांगे__ "जे आया से विन्नाया जे विनाया से आया जेणविजाणइ से आया " इति वचनात् । अर्थात् जो आत्मा है वही ज्ञान है, जो Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) ज्ञान है वही आत्मा है तथा जिस करके जाना जाये वही ज्ञान है । क्योंकि यह अनादि अनंत सम्बन्ध है जो परगुण सम्बन्ध हैं, कोई + अनादि सान्त हैं, कोई सादि सान्त है, अपितु परगुणका सम्बन्ध सादि अनंत नही होता है, सो जब द्रव्य गुण एकत्व हुए फिर उस द्रव्यका लक्षण पर्याय भी हो जाता है, दीपक के प्रकाशवत्, अपितु स्वगुणोंमें सर्व द्रव्य अनादि अनंन हैं, परगुणों में पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त हैं, यथात्वाद् व्यय श्रौष युक्तं सत्, अर्थात् जो उक्त लक्षण करके युक्त है वही सद् द्रव्य है | पुनः द्रव्य विषय धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो एसलोगोत्ति पणत्तो जिणेहिंवर दंसिहिं ॥ उ० अ० २८ गाथा ७ ॥ वृत्ति-धर्म्य इति धर्मास्तिकाय ? अध इति अधर्मास्तिकाय २ आकाशमिति आकाशास्तिकायः ३ कालः समयादिरूपः ४ पुग्गलत्ति पुद्गलास्तिकाय: ५ जन्तव इति जीवाः + अभव्य आत्माओंका कर्मों के साथ अनादि अनंत सम्यन्ध भी है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) ६ । एनानि पद द्रव्याणि यानीति अन्वयः एपा इति सा. मान्य प्रकारेण इत्येवं रूपाः उक्त पद पात्मको लोको जिनः माप्तः कथितः कशमिनरदनिभिः सम्यक् यथास्थित वस्तुपीः ७ । जनयो जीवा अध्यनन्ता एव ८॥ भावार्थ:-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिका. य, और नीवास्तिकाय, काल (समय,) पुगास्तिकाय-यह पट म्यान्मा. मप यह लोक है अपितु इन द्रव्योग कालकी अस्ति नहीं है क्योंकि समयमा स्थिर गुण स्वभाव नहीं है और आकाश अस्तिकाय लोगालोग प्रमाण है इस लिये यही पर व्यापक रूप लोक है ॥ ७॥ पुनः द्रव्य विषय धम्मो अहम्मो श्रागासं दव्वं इकिक मादियं थानाणिय दवाणि कालोपुग्गल जंतवो ॥ उन० था २७ गा० ॥ . नि-धर्मादि भेदानाइ धर्मा १ अधर्म २ आकाश ३ द्रव्यं इति प्रत्येक योज्यं धर्मद्रय अधर्मद्रग आकाशद्रव्य इत्यर्थः एनन् द्रव्यं त्रयं एक इनि एकत्वं युक्तं एव तीर्थकरैः आख्यात अग्रे तनानि त्रीणि द्रव्याणि अनंतानि स्वकीय स्व Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) कीयानन्त भेदयुक्तानि भवति तानि त्रीणि द्रव्याणि कानि काल: समयादिरनंतः अतीतानागताचपेक्षया पुद्गा अपि अनंताः॥ ___ भावार्थ:-धर्म अधर्म आकाश यह तीन ही द्रव्य असंख्यात् प्रदेशरूप एकेक है अपितु आकाश द्रव्य लोकालोक अपेक्षा अनंत द्रव्य है, यह द्रव्य पूर्ण लोगमें व्याप्त है, अखंड रूप है, निज गुणापेक्षा और कालद्रव्य पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य यह तीन ही अनंत हैं क्योंकि कालद्रव्य इस लिये अनंत है कि पुद्गलकी अनंत पर्याय कालापेक्षा करके ही सद्रूप है तथा अनंते कालचक्र भूत भविष्यत काल अपेक्षा भी कालद्रव्य अनंत है और समय स्थिर रूपमें है। फिर असंख्यात शुद्ध प्रदेशरूप जीव द्रव्य है अर्थात् असंख्यात शुद्ध ज्ञानमय जो पात्यप्रदेश है वे ही नीवरूप हैं इसी प्रकार अनंत आत्मा है और उनके भी प्रदेश पूर्ववत् ही हैं, अपितु निज गुणापेक्षा शुद्धरूप हैं। कर्म मलापेक्षा व्यवहार नयके मतमें शुद्धआत्मा अशुद्धआत्मा इस प्रकारसे आत्म द्रव्यके दो भेद हैं अपि तु संग्रह नयके मतमें जीव द्रव्य एक ही है, जैसे श्री स्थानांग सूत्रके प्रथम स्थानमें यह सूत्र है कि (एगे आया) अर्थात् संग्रह नयके मतमें आत्म द्रव्य एक ही है क्योंकि अनंत आत्माका गुण एक है जैसे सहस्र Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) दीपकोंका प्रकाश रूप गुण एक है अपितु व्यवहार नयके म. - तमें सहस्र दीपक रूप द्रव्य है क्योंकि जिस दीपकको जो कोई उठाता है तब वह दीपक प्रकाश रूप स्वगुण साथ ही ले : जाता है । इस हेतुसे यही सिद्ध हुआ कि आत्म द्रव्य एक भी है और अनंत भी है। अथ पद द्रव्य लक्षण विषय___ गश् लस्खणोज धम्मो अहम्मोठाण लक्खपो नायणं सव्व दवाणं नहं श्रोग्गह लक्खणं ॥ उत्त० अ० २८ गाथा ए॥ त्ति-धम्मो धर्मास्तिकायो गति लक्षणो ज्ञेयः लक्ष्यते ज्ञायते अनेनेति लक्षणं एकस्माद्देशात् जीवपुद्गलयोदेशान्तरं प्रतिगमनं गतिर्गतिरेव लक्षणं यस्य स गतिलक्षणः अधर्मों अधम्मास्तिफायः स्थितिलक्षणो ज्ञेयः स्थितिः स्थानं गति निवृत्तिः सैव लक्षण अस्पैति स्थानलक्षणोऽधर्मास्तिकायो ज्ञेयः स्थिति परिणतानां जीव पुद्गलानां स्थिति लक्षण कार्य ज्ञायते म अधर्मास्तिकायः यत्पुनः सर्वद्रव्याणां जीवादीनां भाजनं आधाररूप नभः आकाशं उच्यते तत् च नमः अवगाहलक्षणं अवगाढं प्रवृत्तानां जीवानां पुद्गलानां आलम्बो भवति इति अव. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) गाहः अवकाशः स एव लक्षणं यस्य तत् अवगाहलक्षणं नम उच्यते ॥९॥ भावा:-धर्मास्तिकायका गमणरूप लक्षण है और जीव द्रव्य अजीव द्रव्यकी गति, यह द्रव्य साहायक भूत है; जैसे राजमार्ग चलने वालोंके लिये साहायक है क्योंकि, यदि पं. थीराज मार्गमें स्थित हो जावे तो मार्ग स्वयं उसको चलाने समर्थ नही होता है, किन्तु उदासीनता पूर्वक पंथीके चलते समय मार्ग साहायक है तथा जसे मत्सको जल साहायक है। वा अंधेको यष्टि (लाठी ) आधारभूत है इसी प्रकार जीव द्रव्य अजीव द्रव्यको गति करते समय धर्म द्रव्य साहायक है । और अधर्म द्रव्य जीव द्रव्य अजीव द्रव्यकी स्थिति करनेमें साहायक भूत होता है, जैसे उष्ण कालमें पंथीको वृक्षकी छाया आधारभूत है, तथा जैसे मही आधारभूत है इसी प्रकार जीव द्रव्य अजीव द्रव्यकी स्थिति करनेमें अधर्म है । और सर्व द्रव्योंका भाजनरूप एक आकाश द्रव्य है क्योंकि सर्व द्रव्योंका आधार भूत एक अंतरीक्ष ही है जैसे एक कोष्टकमें एक दीपक के प्रकाशमें सहस्र दीपकोंका प्रकाश भी वीचमें ही लीन हो जाता हैं। इसी प्रकार आकाश द्रव्यमें जीव द्रव्य अजीव द्रव्य स्थिति करते हैं । तथा जैसे एक कलश है जोकि पूर्ण दुग्धसे पूरित है, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि फिर भी उस कलशमें मत्संड्यादि द्रव्य प्रविष्ट करें तो प्रवेश हो जाते हैं उसी प्रकार आकाश द्रव्यमें जीव द्रव्य अजीब ठहरे हुए हैं। अपितु जैसे भूमिकामें नागदंत (कीला) को स्थान प्राप्त हो जाता है तद्वत् ही आकाश प्रदेशों में अनंत प्रदेशी स्कंध स्थिति करते हैं क्योंके आकाश द्रव्यका लक्षण है। अवकाश रूप है। अथ काल व जीवका लक्षण कहते हैं: वत्तणा लक्खणो कालो जीवो उवयोग लक्खणो नाणेणं दसणेणंच सुहेणय दुहेणय ॥ उत्त० अ० २० गाथा १०॥ वृत्ति-~-वर्तते अनवच्छिन्नत्वेन निरन्तरं भवति इति वर्तना सा वर्तना एव लक्षणं लिङ्गं यस्येति वर्तनालक्षणः काल उच्यते तथा उपयोगो मतिज्ञानादिकः स एव लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणो जीव उच्यते यतो हि ज्ञानादिभिरेव जीवो कक्ष्यते उक्त लक्षणत्वात् पुनर्विशेष लक्षणमाह ज्ञानेन विशेषाव. वोधेन च पुनदर्शनेन सामान्याववोधरूपेण च पुनः मुखेन च पु. नईखेन च ज्ञायते स जीव उच्यते ॥१०॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) भावार्थ:--समयका वर्तना लक्षण है इसी करके समय समय पर्याय उत्पन्न होता है, जैसेकि उपचारक नयके मतमें जीवकी व्यवस्थाका कारणभूत काल द्रव्य ही है। यथा-चाल १ युवा २ वृद्ध ३ अथवा उत्पन्न १ नाश २ ध्रुव ३ यह तीनों ही व्यवस्थाका कर्ता काल द्रव्य है ओर जो कुछ समय २ उत्पत्ति वा नाश पदार्थोंका है वे सर्व काल द्रव्यके ही स्वभावसे है अपितु द्रव्योंका उत्पन्न वा नाश यह उपचारक नयका वचन है किन्तु द्रव्याथिक नयापेक्षा सर्व द्रव्य नित्यरूप है । और पायोंका को काल द्रव्य है । जैसे सुवर्ण द्रव्यके नाना प्र। कारके आभूषणादि वनते हैं, फिर उनही आभूपणादिको ढाल कर अन्य मुद्रादि बनाये जाते हैं। इसी प्रकार जो जो द्रव्यका पर्याय परिवर्तन होता है उसका कर्ता काल द्रव्य ही है। इसी वास्ते सूत्रमें लिखा है 'वत्तणा लक्षणो कालो' अर्थात् कालका लक्षण वर्तना ही है सो कालके परिवर्तन से ही जीव द्रव्य अजीव द्रव्यका पर्याय उत्पन्न हो जाता है और जीव द्रव्यका उपयोगरूप लक्षण है सो उपयोग ज्ञान दर्शनमें ही होता है अथोत् जीव द्रव्यका लक्षण ज्ञान दर्शनमें उपयोगरूप है सो यह तो सामान्य प्रकारसे सर्व जीव द्रव्यमें यह लक्षण सतत विद्यमान है। अपितु विशेष लक्षण यह है कि मुख वा दुःखका अनुभव Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) करना क्योंकि सुख दुःखका अनुभव जीव द्रव्यको ही है न तु अन्य द्रव्यको ॥ पुनः सूत्र इस कथनको इस प्रकारसे लिखते हैं । नाणं च दसणं चेव चरितं च तवो तहा वीरियं जवओगोय एवं जीवस्स लक्खणं ॥ उ० सू० अ० २७ गा० ११ ॥ ___ वृत्ति--ज्ञानं ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं च पुनदृश्यते अनेनेति दर्शनं च पुनश्चरित्रं क्रियाचेष्टादिकं तथा तपो द्वादशविधं तथा वीर्य वीर्यान्तराय क्षयोपशमात् उत्पन्नं सामर्थं पुनरूपयोगो ज्ञानादिषु एकाग्रत्वं एतत् सर्व जीवस्य लक्षणं ॥ ११ ॥ भावार्थ:-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, तथा उपयोग यही जीवके लक्षण हैं, क्याकि ज्ञान दर्शनमय आत्मा अनंत शक्ति संपन्न है । पुनः चरित्र और तप यह भी आत्माके साध्य धर्म है क्योंकि आत्मा ही तपादि करके युक्त हो सकता है, न तु अनात्मा । प्रश्न--जब आत्मा द्रव्य अनंत वीर्य करके युक्त है तब सिद्धात्मा भी अनंत वीर्य करके युक्त हुए तो फिर उनका चीर्य सफलताको कैसे प्राप्त होता है ? Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) उत्तर-अंतराय कर्मके क्षय हो जानेके कारणसे सिद्धात्मा भी अनंत शक्ति युक्त हैं अपितु अकृतवीर्य हैं क्योंकि सिद्धात्माके सर्वे कार्य सिद्ध है। पुनः संसारी जीवोंका दो प्रकारका वीर्य है । जैसेकिवाल (अज्ञान)वीर्य १और पंडित वीर्य वाल वीर्य उसका नाम है जो अज्ञानतापूर्वक उद्यम किया जाय । और पण्डित वीर्य उसको कहते हैं जो ज्ञानपूर्वक परिश्रम हो । सो जिस समय आत्मा अकर्मक होता है तव अकृतवीर्य हो जाता है सो सिद्ध प्रभु अकृतवीर्य हैं ।।। पूर्वपक्ष:-जिस समय आत्मा सिद्ध गतिको प्राप्त होता है तव ही अकृतवीर्य हो जाता है सो इस कथनसे सिद्ध पद सादि ही सिद्ध हुआ। जब ऐसे है तव जैन मतकी मोक्ष अनादि न रही, अपितु सादि पद युक्त सिद्ध हुई । उत्तरपक्ष:-हे भव्य ! यह आपका कथन युक्ति वा सि. द्धान्त बाधित है क्योंकि जैन मतका नाम अनेकान्त मत है सो जब जैन मत संसारको अनादि मानता है तो भला मोक्षपद .सादि युक्त, कैसे मानेगा ? अर्थात् कदापि नही, क्योंकि संसार अनादि अनंत है उसी ही प्रकार मोक्षपद भी अनादि अनंत है, अपितु सिद्धापेक्षा सूत्रकार ऐसे कहते हैं । यथा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) एगत्तेयसाइया पज्जव सिया विय । पुहते पाईया पज्जवसियाविय ॥ उत्त० अ० ३६ गाथा ६७ ॥ वृत्ति - ते सिद्धा एकत्वेन एकस्य कस्यचित् नाम ग्रहणापेक्षया सादिकाः अमुको मुनिस्तदा सिद्धः इत्यादि सहिताः सिद्धाः भवंति च पुनस्ते सिद्धाः अपर्यवसिताः अन्तरहिताः मोक्षगमनादनन्तरं अत्रागमनाभावात् अन्तरहिताः ते सिद्धाः पृथक्त्वेन वहुः केन सामस्त्यापेक्षया अनादयो अनन्ताथ || भावार्थ:- एक सिद्ध अपेक्षा सादि अनंत है और बहुतों की अपेक्षा अनादि अनंत हैं, अर्थात् जिस समय कोई जीव मोक्षगत हुआ उस समयकी अपेक्षा सादि है अपुनरावृत्तिकी अपेक्षा अनंत हैं, फिर बहुत सिद्धोंकी अपेक्षा अनादि अनंत है, क्योंकि काळचक्र अनादि अनंत होनेसे तथा जैसे चेतनशक्ति अनादि है वैसे ही जड़ शक्ति भी अनादि है अपितु जड़ शक्तिकी अपेक्षा चेतन शक्ति रूप शब्द व्यवहृत है, ऐसे ही जड़ शक्ति चेतन शक्तिकी अपेक्षा सिद्ध है । इसी प्रकार संसार अपेक्षा सिद्ध पद है और सिद्धपद अपेक्षा संसारपद है, किन्तु यह दोनों अनादि अनंत है ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) तथा पुद्गलका स्वरूप इस प्रकारसे हैं । सद्धंधयार जजोओ पहा गया तवेइया। वएण रस गंध फासा पुग्ग लाणंतु लक्खणं ॥ उत्त० अ० २७ गाथा १३ ॥ वृत्ति-शब्दो ध्वनि रूप पौगलिकस्तथान्धकार तदपि पुद्गल रूपं तथा उद्योतोरत्नादीनां प्रकाशस्तथा प्रभा चन्द्रादीनां प्रकाशः तथा छेत्या वृक्षादीनां छाया शेत्यगुणा तथा आतपो रवरुष्णप्रकाश इति पुद्गलस्वरूपं वा शब्दः समुच्चये वर्णगंधरस स्पाः पुद्गलानां लक्षण ज्ञेयं वर्णाः शुक्लपीतहरितरक्तकृष्णादयो गंधो दुर्गन्धमुगन्धात्मको गुणः रसो पद तीक्ष्ण कटक कपायाम्ल मधुर लवणाद्या स्पोः शीतोष्ण खर मृदु, स्निग्ध रुक्ष वधुगुर्वोदयः एते सर्वेपि पुद्गलास्तिकाय स्कन्ध लक्षण,वाच्या क्षेयाः इत्यर्थः एभिलक्षणैरेष पुद्गला लक्ष्यन्ते इति भावः ॥ १२ ॥ ___ भावार्थ:-शब्दका होना, अन्धकारका होना, उद्योत, प्रमा, छाया (साया) वा तप्त, अथवा कृष्ण, नील, पीत. रक्तश्वेत, यह वर्ण और छः ही रस जैसेकि, कटुक, कपाय, तिक्त,खहा, मधुर और लवण, तथा दो गंध जैसेकि सुगंध, दुर्गंध, और अष्ट ही स्पर्श Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) जैसेकि कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष, यह आठ ही स्पर्श इत्यादि सर्व पुद्गल द्रव्यके लक्षण हैं,क्योंकि पुद्गल द्रव्य एक है उसके वर्ण गंध रस स्पर्श यह सर्व लक्षण हैं, इन्हींके द्वारा पुनल द्रव्यकी अस्तिरूप है। ____ अथ पुद्गल द्रव्यके पर्यायका वर्णन करते हैं:एगत्तं च पुहत्तं च संखा संठाण मेवय । संजोगाय विन्नागाय पजावाणंतु लक्खणं ॥ उत्त० अ० ज गाथा १३॥ वृत्ति-एतत् पर्यायाणां लक्षणं एतत् किं एकत्वं भिन्नेष्यपि यरमाण्वादिषु यत् एकोयं इति बुद्धया घटीयं इति प्रतीति हेतु: च पुनः पृथक्त्व अयं अस्मात् पृथक् घटा पटात् भिन्नः पटो घटादिन्नः इति प्रतीति हेतुः संख्या एको द्वौ बहव इत्यादि प्रतीति हेतुः च पुनः संस्थान एव वस्तूनां संस्थानं आकारश्चतुरस्र वत्लतित्रादि प्रतीति हेतुः च पुनः संयोगा अयं अङ्गाल्याः संयोग इत्यादि व्युपदेशहेतवो विभागा अयं अतो विभक्त इति बुद्धि • हेतवः एतत्पर्यायाणां लक्षणं ज्ञेयं संयोगा विभागा बहुवचनात् " नव पुराणत्वाद्यवस्था ज्ञेयाः लक्षणं त्वसाधारण रूप गुणानां लक्षणं रूपादि प्रतीतत्वानोक्तं ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) भावार्थ:- पुद्गल द्रव्यका यह स्वभाव है कि एकत्व हो जाना तथा पृथक् २ अर्थात् भिन्न होना तथा संख्यावद्ध वा संस्थान रुपमें रहना । संस्थानके ५ भेद है जैसेकि परिमंडल अर्थात गोलाकार १० वृत्ताकार २० साकार ३. चतुरंसाकार ४. दीर्घा - कार ५. और परस्पर पुगलोंका संयोग हो जाना, फिर वियोग होना, यह पुद्गल द्रव्यके स्वाभाविक लक्षण हैं । फिर संयोग वियोगके होने पर जो आकृति होती है उसको पर्याय कहते हैं । अपितु पृथक् वा एकत्व होनेके मुख्यतया दो कारण हैं, स्वाभाविक वा कृत्रिम । सो यह दो कारण ही मुख्यतया जगत्में विद्यमान हैं, जैसेकि जो कृत्रिम पुगल सम्बन्ध है उसके लिये सदैव काल जीव स्त्रः परिश्रमसे प्रायः यही कार्य करता दी - खता है । तथा काल स्वभाव नियति ३ कर्म, पुरुषार्थ अर्थात् समयके अनुसार स्वभाव होनहार कर्म पुरुषार्थका होना और उसीके द्वारा अशुभ पुद्गलोंका वियोग शुभ पुद्गलों का संयोग होता रहे और मोक्षका साधक जीव तो सदैव काल यही परिश्रम करता है कि मैं पुगलके बंधन से ही मुक्त हो जाऊँ ॥ जो स्वाभाविक पुगळका संयोग वियोग होता है, वह तो स्वः स्थिसिके अनुसार ही होता है । तथा जो वस्त्र, भाजन, तथा धानादि जो जो पदार्थ ग्रहण करनेमें आते हैं तथा जो जो प Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) दार्थ छोड़ने में आते हैं वह सब परिणामिक द्रव्य हैं, इस लिये उन्हें पर्याय कहते हैं ।। तथा बहुतसे अनभिज्ञ लोगोंने पुद्गलद्रव्य के स्वरूपको न जानते हुने ईश्वरकृत जगत् कल्पन कर लिया है अपितु उन लोगोंकी कल्पना युक्तिवाधित ही है । जैसे कि जब परमात्मामें सृष्टिकर्तृत्व गुण है, तब परलय कर्तृत्व गुण असंभव हो जायगा, क्योंकि एक पदार्थमें पक्ष प्रतिपक्ष रूप युग पत् समूह ठहरना न्याय विरुद्ध है । जैसे कि अग्निमें उष्ण वा प्रकाश गुण सदैव काळसे हैं वैसे ही शीत वा अन्धकार यह गुण अनि सर्वथा असंभव हैं, इसी प्रकार इश्वरमें भी नित्य गुण एक ही होना चाहिये परस्पर विरुद्ध होने के कारणसे || यदि यह कहोगे कि जैसे पुगलकी समय २ पर्याय परिवर्त्तन के कारणसे पुद्गल द्रव्य दो गुण भी रखनें समर्थ है, इसी प्रकार इश्वरमें भी दो गुण ठहर सक्ते हैं, सो यह भी कथन समीचीन नही हैं क्योंकि शुद्गल द्रव्यका जब पर्याय परिवर्तन होता हैं तब उसमें सादि सान्तपद कहा जाता है । फिर प्रथम पर्यायकी जो संज्ञा (नाम) हैं उसका नाश जो नूतन संज्ञा है उसकी उत्पचि हो जाती हैं तो क्या ईश्वरकी भी यही दशा है ? तथा जब परलय हुइ फिर आकाशका भी अभाव हो गया तब परमात्मा सर्व व्यापक रहा किम्वा न रहा । यदि रहा तव परळय न हुई, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि व्यापक शब्द ही सिद्ध करता है कि प्रथम कोई वस्तु व्याप्य है जिसमें वह व्यापक हो रहा है। यदि परमात्माकी भी परलय मानी जाये तब ईश्वरपद ही खंडित हो गया तो भला सृष्टिकर्तृत्व गुण कैसे सिद्ध होगा ?. सो इस विषयको मैं यहांपर इसलिये विस्तारपूर्वक लिखना नही चाहता हूं कि मैं सिद्धान्तको ही लिख रहा हूं न तु खंडन मंडन ॥ __ अव नव तत्त्वका विवर्ण किञ्चित् मात्र लिखता हूं:जीवाजीवाय बंधोय पुगणं पावा सवोतहा। संवरो निजारा मोक्खो संतेएतहिया नव ॥ उत्तर ० गाथा १४ ॥ वृत्ति-जीवाश्चेतनालक्षणाः अजीवा धर्माधर्माकाशकालपुद्गलरूपाः बन्धो जीव कर्मणोः संश्लेषः पुण्यं शुभप्रकृति रूपं पापं अशुभं मिथ्यात्वादि आस्रवः कर्मबंधहेतुः हिंसा मृषाऽदत्तैमथुनपरिग्रहरूपः तथा संवराः समिति गुप्त्यादिभिरालवद्वारनिरोधः निर्जरा तपसा पूर्वाजितानां कर्मणां परिशाटनं मोक्षः सकलकर्मक्षयात् आत्मस्वरूपेण आत्मनोऽव Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) स्थानं एते नव संख्याकास्तथ्याः अवितथाः भावाः संति इति सम्बन्धः नव संख्यात्वं हि एतेषां भावानां मध्यमापेक्षं जघन्यतो हि जीवाजीवयोरेव वन्धादीनां अन्तर्भावात् द्वयोरेव संख्यास्ति उत्कृष्टतस्तु तेषां उत्तरोत्तर भेदविवक्षया अनन्तत्वं स्यात् ॥ भावार्थ:- तत्व नव ही हैं जैसे कि जीवतत्त्व १ अजीवतश्व २ पुण्यतत्त्व ३ पापतत्त्व ४ आस्रवतच्च ५ संवरतत्त्व ६ निर्ज - रातच ७ वंधतत्त्व ८ मोक्षतत्व ९ । सो जीवतत्त्व ही इन का ज्ञाता है न तु अन्य || जीवतत्त्वमें चेतनशक्ति इस प्रकार अभिन्न भावसे विराजमान हैं कि जैसे सूर्य्यमें प्रकाश मत्संडी में मधुरभाव | अजीवतत्त्वमें जडशक्ति भी प्राग्वत् ही विद्यमान है किन्तु वह शून्यरूप शक्ति है | जैसे बहुतसे वादित्र गाना भी गाते हैं किन्तु स्वयम् उस गीतके ज्ञानशून्य ही हैं ॥ पुण्यतन्त्र जीवको पथ्य आहारके समान सुखरूप है जैसे कि रोगीको पथ्याहारसे नीरोगता होती है, और रोग नष्ट हो जाता हैं । इसी प्रकार आत्मामें जब शुभ पुण्यरूप परमाणु उदय होते हैं उस समय पापरूप अशुभ परमाणु आत्मामें उदयमें न्यून होते हैं किन्तु सर्वथा पापरूप परमाणु आत्मा से Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) संसारावस्थार्मे भिन्न नही होते क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नही है कि जिसके एक ही प्रकृति सर्वथा रही हो || पापतत्त्व रोगीको अपथ्य आहारकी नांइ है जैसे रोगीको अपथ्य भोजन बढ़ जाता है, उसी प्रकार उसकी नीरोगता भी घटती जाती है । इसी प्रकार आत्मा जब अशुभ परमाणुओं से व्याप्त होता है तब इसके पुण्यरूप परमाणुः भी मंद दशाको प्राप्त हो जाते हैं | आस्रवतत्व के दो भेद हैं । द्रव्यास्रव १ भावास्रव २ | द्रव्य आसव उसका नाम है जैसे कुंभकार चक्र करके घट उत्पन्न करता है, इसी प्रकार आत्मा मिध्यात्वादि करके कर्मरूप आस्रव ग्रहण करता है । भावास्रव उसका नाम हैं जैसे तड़ागके पाणी आनेके मार्ग हैं इसी प्रकार जीवके आस्रव है, तथा जैसे मंदिरका द्वार नावाका छिद्र है इसी प्रकार जीवको आस्रव है | किन्तु हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, यह पांच ही कर्मोंके प्रवेश करनेके मार्ग हैं सो इन्हीं के द्वारा कर्म आते हैं, इस लिये इन्हीं मार्गों का ही नाम भाव आस्रव है अपितु आस्रव जीव नहीं है जीवमें कर्म आनेके मार्ग हैं | सम्वरतत्त्व उसका नाम है जो जो कर्म आनेके मार्ग हैं उन्हीं के वशमें करे जैसे तड़ागके पाणी आनेके मार्ग हैं उनको Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) चंद किया जावे तव नूतन जळका आना बंद होजाता इसी प्रकार जो जो आस्रवके मार्ग हैं जब वह बंध हो गये तब नूतन कर्म आने भी बंद हुए क्योंकि शुद्धात्मा आस्रवरहित सम्वररूप है ॥ निर्जरातत्त्व उसको कहते हैं जब संवर करके कर्मों के आनेके मार्ग बंद किए जावें फिर पूर्व कर्म जो हैं उनको तपादि द्वारा शुष्क करना कर्मोसे आत्माको रहित करना उसकाही नाम निर्जरा हैं | जैसे तढ़ागके जलादिको दूर करना तथा मंदिर के द्वारादिके मार्ग से रजादिका निकालना अथवा नावाके जलको नावासे वाहिर करना | इसी प्रकार आत्मासे कर्मोंका भिन्न करना उसका नाम निर्जरा है । तप द्वादश प्रकारका निम्न सूत्रानुसार है । अनशनावमौदर्य वत्तिपरिसङ्ख्यानरसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः॥ तत्त्वार्थ सूत्र ० ० सू० १७ ॥ - अर्थ:- अनशन १ उनोदरी २ भिक्षाचरी ३ रसपरित्याग ४ विविक्त शय्यासन ५ कायक्लेश ६ यह पद प्रकारसे बाह्य तप है | तथा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ त० सू० अ० ८ सु० २०॥ अर्थः- प्रायश्चित ७ विनय ८ वैयावृत्य ९ स्वाध्याय १० व्युत्सर्ग १९ ध्यान १२ यह पट् प्रकार के अभ्यन्तर तप हैं । इनका उब्वाइ सूत्र, विवाहमज्ञप्ति सूत्र, प्रश्न व्याकरण सूत्र तथा नव तत्वादि ग्रंथोंसे पूर्ण स्वरूप जानना योग्य हैं | बंधतत्वका यह स्वरूप है कि आत्माके साथ कपका द्रव्यार्थिक नयापेक्षा अनादि सान्त सम्वन्ध है और अनादि अनंत भी है, क्योंकि जीवतन्त्र अर्हनके ज्ञानमें दो प्रकारके हैं, जैसेकि - भव्य १ अभव्य । सो यह भव्य अभव्य स्वाभाविक ही जीव द्रव्यके दो भेद हैं किन्तु परिणामिक भाव नही हैं, अपितु जीव द्रव्यमें कर्मोंका सम्बन्ध पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त है, किन्तु इनकी एकत्वता ऐसे हो रही है जैसे कि - तिलोंमें तैळ १ दुग्धमें घृत २ सुवर्णमें रज ३ इसी प्रकार जीव द्रव्यमें कमका सम्बन्ध है, जिसके प्रकृतिबंध १ स्थितिबंध २ अनुभागबंध‍ प्रदेशबंध ४ इत्यादि अनेक भेद हैं, अपितु यह कमका बंध आत्माके भावों पर ही निर्भर है || मोक्षतच्च उसको कहते हैं, जैसे तिलोंसे तैल पृथक् हो • Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) जाता है १ दुग्धसे घृत भिन्न होता है २ सुवर्णसे रज पृथक् हो जाती है ३ इसी प्रकार जीव कोंसे अलग हो जाता है अपितु फिर कर्मोंसे स्पर्शमान नहीं होता जैसे तिलोंसे तैल पृथक् हो कर फिर वह तैल तिलरूप नही बनता एसे ही घृत सुवर्ण इत्यादि । इसी प्रकार जीव द्रव्य जव कमोंसे मुक्त हो गया फिर उसका कर्मोंसे स्पर्श नही होता, किन्तु फिर वह सादि अनंत पदवाला हो जाता है । सो यह नव तत्व पदार्थ है। तथा च जीवाजीवात्रवन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥ तत्त्वार्थ के इस सूत्रसे सप्त तत्व सिद्ध है, जैसेकि जीवतत्व १ अजीवतत्त्व २ आसवतत्व ३ वन्धतत्व ४ सम्वरतत्व ५निर्जरातत्व मोक्षतत्व ७॥ किन्तु पुण्यतत्व, पापतत्त्व, यह दोनों ही तत्व आसवतच्च के ही अन्तरभूत है, क्योंकि वास्तवमें पुण्य पाप यह दोनो ही आस्त्रवसे आते हैं अपितु पुण्य शुभ प्रकृतिरूप आस्रव हैं, पाप अशुभ प्रकृतिरूप आस्रव है । काँका बंध जीवाजीवके एकल्प होने पर ही निर्भर हैं क्योंकि जीवाजीवके एकत्व होने पर ही योगोत्पत्ति है, सो योगोंसे ही काँका बंद है और पुण्य पापसे ही आस्रव है अर्थात् पुण्य पापका जो आवागमण है, वही Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यायको माारस श्रीजिन देवने दो जीव द्रव्य ( २८) आस्रव है। संवर निर्जरासे ही मोक्ष है, क्योंकि जब नूतन कर्मोंका संवर हो गया तब तपादि द्वारा प्राचीन काँकी निर्जरा हुई। जब आत्मा कर्मलेपसे सर्वथा रहित हो गया, सो तिस सम. यकी पर्यायको मोक्ष कहते हैं ।। . सो इस प्रकारसे श्रीजिनेन्द्र देवने तत्त्वोंका स्वरूप पतिपादन किया है तथा मुख्यतामें अईद् देवने दो ही द्रव्य कथन किये हैं जैसेकि, जीवद्रव्य १ अजीव २; किन्तु अजीव द्रव्यमें पंचद्रव्य गर्भित हैं जैसेकि-धर्मद्रव्य.१ अधर्मद्रव्य २ आकाश द्रव्य ३ कालद्रव्य ४ पुद्गलद्रव्य ५। सो यह पांच ही द्रव्य जड़ रूप हैं किन्तु जीवद्रव्य ही चेतनालक्षणयुक्त है।। और इनके ही अनेक लक्षण हैं जैसेकि-अस्तित्वं, वस्तुत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं, अगुरुलघुत्वं, प्रदेशत्वम् , चेतनत्वं, अचेतनत्वं, मूर्तत्वं, अमूर्तत्व।। यह दश समान गुण सर्व द्रव्योंके वीचमें हैं, किन्तु एकैक द्रव्य अष्टावष्टौ गुणा भवंति जीव द्रव्ये अचेतनत्वं मूर्तत्वं च नास्ति पुद्गल द्रव्ये चेतनत्वम् मूर्तत्वं च नास्ति।धर्माधर्माकाशकालद्रव्येषु चेतनत्वं मूर्तत्वं च नास्ति ॥ एवं द्विद्विगुणवर्जिते अष्टावष्टौगुणा: प्रत्येक द्रव्ये भवंति ॥ ___ दश सामान्य गुणोंका यह अर्थ है:-तीन कालमें जो स्वः चतुष्टय करि विद्यमान द्रव्य है जैसेकि स्वद्रव्य १ स्वाक्षेत्र १ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) स्वाकाल ३ स्वाभाव ४। उसका अस्ति स्वभाव है, जैसोक घेतनका तीन कालमें ज्ञानस्वरूप रहना, और पुद्गल द्रव्यमें अनादि कालसे जड़ता इत्यादि ।। सो इसी प्रकार वस्तु द्रव्यके प्रमेय, अगुरुलघु, प्रदेश, चेतन, अचेतन, मूत, अमूर्त इत्यादि यह दश सामान्य गुण एक एक द्रव्यमें आठ २ सामान्य गुण हैं जैसेकि जीव द्रव्यमें अचे. तनता और मूर्तिभाव नहीं है, और पुद्गल द्रव्यमें चेतनता अमूर्तिभाव नहीं है ॥ धर्म, अधर्म, आकाश, काल द्रव्यमें चेतनता मुर्तिभाव नही है। इसी प्रकार दो दो गुण वर्जके शेष अष्ट अष्ट गुण सर्व द्रव्योम हैं,और विशेष पोडश गुण हैं जैसेकि ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्याणि, स्पर्श, रस, गंध, वर्णाः, गतिहेतुत्वं, स्थितिहेतुत्वं, अवगाहनहेतुत्वम्, वर्तनाहेतुत्वं,चेतनहेतुत्वं,अचेतन हेतुत्वं, मूर्तत्वं, अमूर्तत्वं द्रव्याणां विशेषगुणाः पोडश विशेषगुणेषु जीव पुद्गलयोः पहिति॥ जीवस्य ज्ञान दर्शन मुख वीर्याणिचेतनत्व ममूर्तमिति पद ॥ पुद्गलस्य स्पर्श रस गंध वर्णाः मूर्त्तत्वमचेतन मिति पद । इतरेपां धर्माधर्माकाशकालानां प्रत्येकं त्रयो गुणा धर्म द्रव्ये गतिहेतुममूर्तत्वमचेतनत्वमेते त्रयो गुणाः । अधर्म द्रव्ये स्थितिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति । आकाश द्रव्ये अवगाहन Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) हेतुत्वममूर्त्तत्वमचेतनत्वमिति । काळ द्रव्ये वर्तना हेतुत्वममूतत्वमचेतनत्वमिति विशेषगुणा अन्तस्थाश्चत्वारो गुणाः स्वजात्यपेक्षया सामान्यविजात्यपेक्षया तएव विशेष गुणाः ॥ इति गुणाधिकारः ॥ भावार्थ:-इन षोडश गुणोमेंसे जीव द्रव्यमें पड् विशेष गुण हैं, जैसेकि जीव द्रव्यमें ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनता, अमूर्त्तिभाव यह षड् गुण हैं; और पुद्गल द्रव्यमें भी पड् गुण हैं, जैसे कि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, मूर्तिभाव, अचेतन भाव || अ पितु अन्य द्रव्योंमें उक्त विशेष गुणोंमेंसे तीन तीन गुण विद्यमान हैं जैसेकि धर्म द्रव्यमें गतिहेतुत्व ( चळण लक्षण ), अमूर्त्तत्व ( मूर्ति रहित ), अचेनत्व ( जड़ता ), यह तीन गुण हैं | और अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुत्व ( स्थिर लक्षण ), अमूर्त्तित्व, (मूर्ति रहित), अचेतनत्व ( जड़ ) यह तीन गुण हैं । और आकाश द्रव्यमें अवगाहनहेतुत्व ( अवकाश लक्षण ), अमूर्त्तत्व ( मूर्ति रहित ), अचेतनत्व ( शून्य )|| काल द्रव्यमें वर्त्त - नाहेतुत्व अमूर्त्तत्व अचेनत्व यह विशेष गुणोंमेंसे तीन १ गुण प्रति द्रव्य में हैं, क्योंकि द्रव्यत्व, क्षेत्रत्व, कालत्व, भावत्व, यह चारोंकी स्वजात्यपेक्षया विशेष गुण हैं और परगुणापेक्षा सामान्य गुण हैं ॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) फिर स्वभाव इस प्रकार से जानने चाहिये: यथा - स्वभावाः कथ्यन्ते । अस्तिस्वभावः नास्तिस्वभावः नित्य स्वभावः अनित्य स्वभाव; एक स्वभावः अनेक स्वभाषः भेद स्वभावः अभेदस्वभावःभव्य स्वभावः अभव्य स्वभावः परम स्वभावः द्रव्याणामेकादश सामान्यस्वभावाः चेतन स्वभावः अचेतन स्वभावः मूर्त स्वभावः अमूर्त्त स्वभावः एकमदेशस्वभावः अनेक प्रदेशस्वभावः विभावस्वभावः शुद्ध स्वभावः अशुद्ध स्वभावः उपचरित स्वभावः एते द्रव्याणां दशविशेपस्वभावाः । जीव पुद्गल्योरेकविंशतिः चेतन स्वभावः मूर्त्त स्वभावः विभाव स्वभावः एकप्रदेशस्वभावः शुद्ध स्वभाव एतैः पंचाभिः स्वभावैर्विनाधर्मादित्रयाणां पोढशस्वभावाः संति ॥ तत्र बहु प्रदेशं विना कालस्य पञ्चदश स्वभावाः एकविंशति भावाः स्युर्जीवपुद्गलयोर्मताः । धर्मादीनां पोडश स्युः काळे पञ्चदश स्मृताः ॥ १ ॥ अर्थ:- जो तीन कालमें विद्यमान पदार्थ हैं और अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव करके अस्तिरूप हैं तिनका नाम अस्ति स्वभाव है । और जो परगुण करके नास्तिरूप है सो नास्ति स्वभाव है | जैसेकि घट अपने गुण करके अस्ति स्वभाववाला है और पट अपेक्षा घट नास्तिरूप है ऐसे ही पट; क्योंकि घट 1 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने गुणमें अस्तिरूप है, पंट अपने गुणमें विद्यमान है, परंतु परगुणापेक्षा दोनों नास्तिरूप हैं सो नास्ति स्वभाव है ।जो द्रव्य गुण करके नित्यरूप है सो नित्य स्वभाव है जैसे चेतन स्वभाष ॥३॥ जो नाना प्रकारकी पोयों करके नाना प्रकारके रूप धारण करे सो अनित्य स्वभाव है जैसे पुद्गलका स्वभाव संयोग वियोग है ॥ ४ ॥ जो एक स्वभावमें रहे सो एक स्वभाव जैसे सिद्ध प्रभु एक अपने निज गुण शुद्ध स्वभावमें हैं, क्योंकि काँकी अपेक्षा जीवमें मलीनता है, अपितु निजगुणापेक्षा जीव एक शुद्ध स्वभाववाला है ॥ ५ ॥ जो अनेक पर्यायों करि अनेक रूप धारण करता है सो अनेक स्वभाविक है जैसे मु. वर्णके आभूषणादि ।।६।। जहां परगुण गुणीका भेद हो उसका नाम भेद स्वभाव है, अर्थात् जो द्रव्य विरुद्ध गुण धारण करे तिसका नाम भेद स्वभाव है ॥७॥ और गुण गुणीका भेद न होना सत्य गुण वा नित्य गुणयुक्त रहना तिसका नाम अभेद स्वभाव है ॥८॥ जिसकी भविष्यत कालमें स्वरूपाकार होनेकी शक्ति है, वा सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग् चारित्रद्वारा अपने निज स्वभाव प्रगट करनेकी शक्ति रखता है तिसका नाम भव्य स्वभाव है ॥ ९॥ जो तीन कालमें भी अपने निज स्वरूपको प्रगट करनेमें असमर्थ है, अनादि कालसे मिथ्यात्वमें ही मगन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) है उसका नाम अभव्य स्वभाव है ।। १० । जो गुणोंमें ही विराजमान है अर्थात् जो निज भावोंद्वारा निज सत्तामें स्थिति करता है उसका नाम परम स्वभाव है ॥ ११॥ यह तो ११ प्रकारके सामान्य स्वभाव है। विशेष भावोंका अर्थ लिखता हूँ। जो चेतना लक्षण करके युक्त है सुखदुःखका अनुभव करता है, ज्ञाता है, सो चेतन स्वभाव है।॥ १॥ जिसमें उक्त शक्तियें नहीं है शून्य रूप है उसका नाम अचेतन स्वभाव है ॥२॥ और जिसमें रूप रस गंध स्पर्श है उसका ही नाम मूर्तिमान है, क्योंकि मूर्तिमान् पदार्थ रूपादिकरके युक्त होता है ।। ३ ॥ जिसमें रूपरसगंधस्पर्श न होवे उसका नाम अमूतिमान है जैसे जीव ॥ ४ ॥ जैसे परमाणु पुद्गल आकाशादिकके एक प्रदेशमें ठहरता है सो एक प्रदेश स्वभाव है अर्थात् स्कंध देश प्रदेश परमाणु पुद्गल इस प्रकारसे पुद्गलास्तिकायके चार भेद किए हैं ॥५जो धर्मास्ति आदिकाय हैं वह अनेक प्रदेशी कही जाती है तिनका नाम अनेक प्रदेशी स्वभाव है ॥ ६ ॥ जो रूपसे रूपान्तर हो जावे जैसे पुद्गल द्रव्यके भेद हैं उसका नाम विभाव स्त्रभाव है ॥ ७॥ और जो अपने अनादि कालसे शुद्ध स्वभावमें पदार्थ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.३४ ) ठहरे हुए हैं जैसे षट् द्रव्य क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभाबको नहीं छोडता है और नाही किसीको अपना गुण देता है। अपने गुणों अपेक्षा वह शुद्ध स्वभाववाले हैं तथा जैसे सिद्ध जो शुद्ध खभावमें न रहे पर गुण अपेक्षा सो अशुद्ध स्वभाव है जैसे कर्मयुक्त जीव ॥९॥ उपचरित स्वभावके दो भेद हैं। जैसे जीवको मूर्तिमान् कहना सो काँकी अपेक्षा करके उपचरित स्वभावके मतसे जीवको मूर्तिमान कह सक्ते हैं अपितु जीव अमूर्तिमान् पदार्थ है क्योंकि शरीरका धारण करना काँसे सो शरीरधारी मूर्तिमान अवश्य होता है तथा जीवको जड़बुद्धि युक्त कहना सो भी कमौकी अपेक्षा है, इसका नाम उपचरित स्वभाव है ॥ द्वितीय । सिद्धोंको सर्वदर्शी मानना वा सर्वज्ञ अनंत शक्ति युक्त कहना सो निज गुणापेक्षा कमाँसे रहित होनेके कारणसे है यह भी उपचरित स्वभाव ही है ॥ १०॥ इस प्रकार अनेकान्त मतमें परस्परापेक्षा २१ स्वभाव हुए | उक्त स्वभावों से जीच पुद्गलके द्रव्यार्थिक नयापेक्षा और पर्यायार्थिक नयापेक्षा २१ स्वभाव हैं जैसोक-चेतन स्वभाव १ मूर्त स्वभाव २ विभाव स्वभाव ३ एक प्रदेश स्वभाव ४ अशुद्ध स्वभाव ५ इन पांचोंके बिना धमादि तीन द्रव्योंके षोडश स्व Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) भाव है । और वहु प्रदेश विना कालके १५ स्वभाव हैं, सो यह सर्व स्वभाव वा द्रव्यों का वर्णन प्रमाण द्वारा साधित है ॥ प्रश्न - जैन मतमें प्रमाण कितने माने हैं ? उत्तर-चार ॥ पूर्वपक्ष:-- सूत्रोक्त प्रमाण सह चार प्रमाणों का स्वरूप दिखलाईए || उत्तरपक्षः - हे भव्य इसका स्वरूप द्वितीय सर्ग में सूत्रपाठयुक्त लिखता हूं सो पढिए || i प्रथम सर्ग समाप्त, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) ॥ द्वितीय सर्गः ॥ reemer ॥ अथ प्रमाण विवर्ण ॥ मूलसूत्रम् ॥ सेकिंतं जीव गुणप्पमाणे १ तिविहे पएणते तं. नाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरित्नगुणप्पमाणे सोकतं नाणगुणप्पमाणे ५ चलविहे पं.तं. पञ्चक्खे अणुमाणे उवमे आगम॥ भावार्थ:-श्री गौतमप्रभुजी श्री भगवान से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् वह जीव गुण प्रमाण कौनसा है ? क्योंकि प्रमाण उसे कहते हैं जिसके द्वारा वस्तुके स्वरूपको जाना जाये । तव श्री भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! जीव गुणप्रमाण तीन प्रकारसे कथन किया गया है जैसे कि-ज्ञान गुण प्रमाण १ दर्शन गुण प्रमाण २ चारित्र गुण प्रमाण ३॥ फिर श्री गौतमजीने प्रश्न किया कि हे भगवन् ज्ञान गुण प्रमाण कितने प्रकारसे वर्णन किया गया है ? भगवान्ने फिर उचर दिया किं-हे गौतम ज्ञान गुण प्रमाण चार प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसे - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि-प्रत्यक्ष प्रमाण १ अनुमान प्रमाण २ उपमान प्रमाण ३ आ. गम प्रमाण (शास्त्र प्रमाण )४॥ मूल॥ सेकिंतं पञ्चक्खे ५ दुविहे पं. तं. इंदिय पञ्चक्खे नोइंदिय पञ्चक्खे सेकित दिय पञ्चक्खेर पंचविहे पं.तं.सोइंदिये पञ्चक्खे चक्खुइंदिय पचक्खे घाणिदिय पञ्चक्खे जिनिंदिय पञ्चक्खे फासिदिय पच्चक्खे सेतं इंदिय पञ्चक्खे ॥ भाषार्थ:-हे भगवन् प्रत्यक्ष प्रमाण कितने प्रकारसे वर्णन • किया है ? तव श्री भगवान्ने उत्तर दिया कि-हे गौतम ! पंच प्रकारसे कहा गया है जैसे कि श्रोतेंद्रिय प्रत्यक्ष १ चक्षुरिंद्रिय प्रत्यक्ष २ घ्राणेंद्रिय प्रत्यक्ष ३ जिह्वाइंद्रिय प्रत्यक्ष ४ स्पशझंद्रिय प्रत्यक्ष ५॥ यह इंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु निश्चय नयके मतमें यह परोक्ष ज्ञान हैं अपितु व्यवहारनयके मतसे यह इंद्रिय जन्य ज्ञान प्रत्यक्ष माने हैं जैसे कि-नयचक्रमें लिखा है कि सम्यग् ज्ञानं प्रमाणम् । तद्विधा प्रत्यो . तर भेदात् । अवधि मनःपर्यायवेकदेश प्रत्यदौ , केवलं सकल प्रत्यक्षं । मतिश्रुति परोदे इति - वचनात् ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) इसमें यह कथन है कि-सम्यग्ज्ञान प्रमाणभूत है किन्तु सम्यग्ज्ञान द्वि प्रकारसे है, प्रत्यक्ष और इतर । अपितु अवधि मनापर्यंचज्ञान यह देश प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष हैं, किन्तु मतिश्रुत परोक्ष ज्ञान हैं। इसी प्रकार श्री नंदीनी सूत्रमें भी कथन है कि मतिश्रुति परोक्ष ज्ञान हैं और अवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान यह प्रत्यक्षज्ञान हैं किन्तु व्यवहारनयके मतमे इंन्द्रियजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है।। प्रश्न:-नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान कौनसा है ? । उत्तर:-नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरूप लिखता हूँ, पढ़िये । मूल ॥ सेकिंतं नोइंदिय पञ्चक्खे २ तिविहे पं. तं.उदिनाण पञ्चक्खे मणपङावनाण पञ्चक्खे केवलनाण पञ्चश्खे सेतं नोदिय पञ्चक्खे ॥ __ भाषार्थः-हे भगवन् ! नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान कौनसा है ? भगवान् कहते हैं कि-हे गौतम ! नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसे कि अवधिज्ञान, मनःपर्यव ज्ञान, केवलज्ञान । यह तीन ही ज्ञान नोइंद्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान हैं, क्योंकि यह तीन ही ज्ञान इंद्रियजन्य पदार्थोके आश्रित नहीं है, अपितु अवधिज्ञान मनापर्यवज्ञान यह दोनों देशप्रत्यक्ष हैं और Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है || अवधि ज्ञानके पदभेद हैं जैसेकि अनुग्रामिक 1 (साथही रहनेवाला), अनानुग्रामिक 2 (साथ न रहनेवाला), वर्द्धमान (द्धि होनेवाला),हायमान 4 (हीन होनेवाला), प्रतिपातिक ५(गिरनेवाला),अपतिपातिकक्ष (न गिरनेवाला); और मनःपर्यवज्ञानके दो भेद है जैसे कि-ऋजुमति 1 और विपुलमति 2 / केवलज्ञानका एक ही भेद है क्योंकि यह सकस प्रत्यक्ष है। इसी वास्ते इस ज्ञानचालेको सर्वज्ञ वा सर्वदशी कहते हैं / इनका पूर्ण विवर्ण श्री नंदीजी सूत्रसें देखो / यह प्रत्यक्ष प्रमाणके भेद हुए अव अनुमान प्रमाणका स्वरूप लिखता हूं। __ मूल ॥सेकिंतं अणुमाणे 5 तिबिहे पं. तं. पुत्ववं सेसवं दिहि साहम्मवं सेकिंतं पुववं 5 मायापुत्तं जहाणष्टं जुवाणं पुणरागयंकाई प. चभि जाणिज्जा पुलिंगेण केणइतरक्खइयणवा वएणेणवा मसेणवा लंबणेणवा तिलएणवा सेतं पुत्ववं // भापार्थ:-शिष्यने गुरुसे प्रश्न कियाकि हे भगवन् अनु Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (40) मान् प्रमाण कितने प्रकारसे प्रतिपादन किया गया हैं ? तब गुरु पृछकको उत्तर देते हैं कि हे धर्मप्रिय ! अनुमान प्रमाण तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि पूर्ववत् 1 शेषवत् 2 दृष्टिसाधीवत् 3 // शिष्यने पुनः प्रश्न किया कि हे भगचन् पूर्ववत्का क्या लक्षण है ? तव गुरु इस प्रकारसे उत्तर देते हैं कि हे शिष्य जैसे किसी माताका पुत्र चालावस्थासे ही प्रदेशको चला गया किन्तु जुवान होकर वह वालक फिर उसी नगरमें आ गया तव उसकी माता पूर्व लक्षणों करके जोकि उसको निश्चित हो रहे हैं उन्हों लक्षणों करके जैसाकि जन्म समय पुत्रके शरीरमें क्षति किसी प्रकारसे हो गई हो उस करके अथवा वणे करके मषादि करके वा स्वस्तिकादि लक्षणों करके तथा शरीरमें पूर्व दृष्ट तिलादि करके अपने पुत्र होनेका निश्चय करती है। जबकि उसका पूर्व लक्षणों करके निश्चय हो गया तब वे अपने पुत्रसे प्रेम करती है सो यह पूर्ववत् अनुमान प्रमाण है / पुनः शेषवत् इस प्रकारसे है जौसिकि - मल // सेकिंतं सेस 2 पंचविहे पं. तं. कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसयणं सेकिंतं कज्जेणं 2 संक्खसद्देणं नेरितालियणं वसन्न / Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (41) ढकिएणं मोरंकंकाइएणं हयहसिएणं हत्थिगुलगुलाश्एणं रहंघणघणाश्एणं सेतं कन्जेणं // भाषार्थ:-श्री गौतम प्रभुजी श्री भगवान्से पूछते हैं कि, हे भगवन् ! वे कौनसा है शेपवत् अनुमान प्रमाण ! तव भगवान् प्रतिपादन करते हैं कि हे गौतम ! शेषवत् अनुमान प्रमाण पंच प्रकारसे कहा गया है जैसेकि कार्य करके 1 कारण करके 2 गुण करके 3 अवयव करके 4 आश्रय करके 5 // फिर गौतमजीने प्रश्न कियाकि हे भगवन् ! वे कौनसा है शेपवर अनुमान प्रमाण जो कार्य करके जाना जाता है ? तब भगवान्ने उत्तर दिया कि हे गौतम ! जैसे शंख (संख) शब्द करके जाना जाता है अर्थात् शंखके शब्द को सुनकर संखका ज्ञान हो जाता है कि यह शब्द शंखका हो रहा है, इसी प्रकार भेरी ताडने करके, पभ शब्द करके, मयूर (मोर) कंकारव करके, अश्व शब्द करके अर्थात् हिपन करके, हस्ति गुलगुलाट करके, रथ घण घण करके, यह कार्याधीन अनुमान प्रमाण है, क्योंकि उक्त वस्तुयें कार्य होने पर सिद्ध होती है अथोत कार्य होने पर उनका अनुमान प्रमाण द्वारा यथार्थ ज्ञान हो जाता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध कारण अनुमान प्रमाणका वर्णन करते हैं:-- मूल ॥ सोकतं कारणेणं तंतवो पमस्स कारणं नपमे तंतुकारणं एवं वीरणा कडस्स कारणं नकमो वारणा कारणं मयपिंडो घडस्स कारणं नघमो मयपिंडस्स कारणं सेतं कारणेणं ॥ ___ भाषार्थ:-पूर्वपक्षः-कारणका क्या लक्षण है ? उत्तर पक्ष:जैसे तंतु पटके कारण हैं किन्तु पट तंतुओंका कारण नहींहै तथा जैसे तृण पल्यंकादिका कारण है अपितु पल्यंक तृणादिका कारण नहीं है तथा मृत्तपिंड घटका कारण है न तु घट मृत्तपिंडका कारण, इसका नाम कारण अनुमान प्रमाण है, क्योंकि इस भेदके द्वारा कार्य कारणका पूर्ण ज्ञान हो जाता है और कारण के सदृश्य ही कार्य रहता है। जैसे मृत्तिकासे घट अपितु वह घट सदरूप मृत्तिकाही है न तु पटमय; इसी प्रकार अन्य भी कारण कार्य जान लेने || अथ गुण अनुमान प्रमाणका वर्णन किया जाता है मूल ॥ सोकिंतं गुणेणं २ । सुवनं निकसणं पुप्फंगंधेणं लवणं रसेणं मरंथासाश्णं वत्थंफा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) सेणं सेतं गुणेणं ॥ ___ भापार्थः-प्रश्न:-गुण अनुमान प्रमाणका क्या लक्षण है ? उत्तर:-जैसे सुवर्ण पापाणोपरि संघर्षण करनेसे शुद्ध प्रतीत होता है अर्थात सुवर्णकी परीक्षा कसोटीपर होती है, पुष्प गंध करके देखे जाते हैं, लवण रस करके वा मदिरा आस्वादन करके, वन स्पर्श करके निर्णय किए जाते हैं, तिसका नाम गुण अनुमान प्रमाण है, क्योंकि गुणके निर्णय होनेसे पदार्थोके शुद्ध वा अशुद्धका शीघ्र ही ज्ञान हो जाता है । अथ अवयव अनुमान प्रमाणके स्वरूपको लिखता हूं मूल ॥ सेकिंतं अवयवेणं २ महिसं सिंगणं कुक्कुडसिहायणं हत्थिविसाणेणं वाराहदाढाणं मोरंपिणं आसंक्खुरेणं वग्नहेणं चमरिवालग्गणं वानरंनंगूलेणं दुप्पयमणुस्समादि चप्पयंगवमादि बहुप्पयंगोमियामादि सीहंकेसरेणं वसहकुकुहेणं महिलंवलयबाहाहिं परियारबंधेणं नडंजाणेजा महिलियं निवसणेणं सित्येणं दोणपागं कविंचएकाएगाहाए सेतं अवयवेणं॥१॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) भाषार्थ : - ( प्रश्नः ) अवयव अनुमान प्रमाणके उदाहरण कौन २ से है अर्थात् जिन उदाहरणों के द्वारा अवयव अनुमान प्रमाणका बोध हो, क्योंकि अवयव अनुमान प्रमाण उसे कहते जिस पदार्थ एक अवयव मात्रके देखने से पूर्ण उस पदाके स्वरूपका ज्ञान हो जाये || ( उत्तरः ) जैसे महिप शंग करके, कुर्कुट शिखा करके, हस्ति दांतों करके, शूकर दाढ़ी करके, अश्व खुरकरके, मयूर पूछ करके, वाघ नख करके, चमरी गायवालो करके, वानर लांगुल ( पूछ ) करके, मनुष्य द्विपद करके, गवादि पशु चार पद करके, कानखरजुरादि बहुपदकरके, सिंह केसरकरके, वृषभ स्कंध करके, स्त्री भुजाओंके आभूषण करके शुभट राजचिन्हादि करके तथा स्त्री वेप करके, एक सित्थ मात्रके देखनेसें हांडी के तंडुलादिकी परीक्षा हो जाती है, कविकी परीक्षा एक गाथाके उच्चारणसे हो जाती है, इसका नाम, अवयव अनुमान प्रमाण है, क्योंकि एक अंश करके वोध हुआ सर्व अंशोका बोध हो जाता है जेसे कि, आगममें कहा है कि (जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ) जो एकको जानता है वह सर्वको जानता है जो सर्वको जानता है वह एकको भी जानता है ॥ अथ आश्रय अनुमान प्रमाण स्वरूप इस मकारसे कथन किया जाता है जैसेकि - Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) मूल ॥सेकिंतं आसयणं २ अग्गि धूमेणं सलिलं वलागेणं बुठि अन्न विकारेणं कुल पुत्तसील समायारेणं । सेतं आसयणं सेतं सेसवं॥ भाषार्थ:-श्री गौतमजीने पुनः प्रश्न कियाकि हे भगवन् ! आश्रय अनुमान प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? भगवान उत्तर देते है कि हे गौतम ! आश्रय अनुमान प्रमाण इस मकारसे कथन किया गया है कि जैसे अग्नि धूम करके जाना जाता है, जल वगलों करके निश्चय किया जाता है, वृष्टि बादलोंके विकारसे निर्णय की जाती है, कुल पुत्र शील समाचरणसे जाना जाता है, इसका नाम आश्रय अनुमान प्रमाण है और इसकेही द्वारा साध्य, सिद्ध, पक्ष, इत्यादि सिद्ध होते हैं। सो यह शेषवत् अनुमान प्रमाण पूर्ण हुआ ॥ अब दृष्टि साधर्म्यता का वर्णन किया जाता है मूल। सेकिंतं दिहिसाहम्मवं २ ऽविहे पं. तं. सामानदिडंच विसेस दिटंच सेकिंतं सामानदिलु २ जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) जहा वहवे पुरिसा तहा एगे पुरिसे जहा एगो करिसावणो तहा वहवे करिसावणो जहा व. हवे करिसावणो तहा एगे करिसावणो सेतं सामान्नदिई॥ भाषार्थ:-(प्रश्नः) दृष्ट साधर्म्यता किस प्रकारसे वर्णित है ?(उत्तर) दृष्ट साधर्म्यता द्वि प्रकारसे वर्णन की गइ है जैसेकिसामान्यदृष्ट १ विशेषदृष्ट २॥ (पूर्वपक्ष) सामान्य दृष्टके क्या २ लक्षण हैं ?(उत्तरपक्षा) जैसे किसीने एक पुरुषको देखा तो उसने अनुमान कियाकि अन्य पुरुष भी इसी प्रकारके होते हैं तथा जैसे किसीने पूर्वीय पुरुषके कृष्ण वर्णको देखकर अनुमान किया अन्य भी पूर्वीय प्रायः इसी वर्णके होंगे। इसी प्रकार युरोपमें गौर वर्णताका अनुमान करना। ऐसे ही सुवर्ण मुद्रादिका विचार करना क्योंकि जैसे एक मुद्रा होती है प्रायः अन्यभी उसी प्रकारकी होंगी, इस अनुमानका नाम सामान्य दृष्ट है ।। प्रायः शब्द इस लिये ग्रहण है कि आकृतिमें कुछ भिन्नता हो परंतु वास्तवमें भिन्नता न होवे, उसका नाम सामान्य दृष्ट है ।। अव विशेष दृष्टंका लक्षण वर्णन करते हैं ॥ . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) मूल ॥ सेकिंतं विसेसदि २से जहा नामए केइ पुरिस्से बहुणं मज्जेपुवं दिहं पुरिसं पञ्चनि जाऐका यं पुरिसे एवं करिसावणे || भाषार्थः - श्री गौतम प्रभुजी भगवान् से पृच्छा करते हैं कि - हे भगवन् ! विशेष दृष्ट अनुमान प्रमाण किस प्रकारस है ? भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम! विशेष दृष्ट अनुमान प्रमाण इस प्रकारसे है जैसे कि किसी पुरुषने किसी अमुक व्यक्ति को किसी अमुक सभायें बैठे हुएको देखा तो मनमें वि. चार किया कि यह पुरुष मेरे पूर्वदृष्ट है अर्थात् मैंने इसे कहीं पर देखा हुआ है, इस प्रकारसे विचार करते हुएने किसी लक्षणद्वारा निर्णय ही कर लिया कि यह वही पुरुष है जिसको मैंने अमुक स्थानोपरि देखा था । इसी प्रकार मुद्राकी भी परीक्षा करलो अर्थात् बहुत मुद्राओं से एक मुद्रा जो उसके पूर्व ह पृथी उसको जान लिया उसका ही नाम विशेष दृष्ट अनुमान प्रमाण है । अपितु - मूल || समास तिविदं गहणं नव इ तं. तीयकालग्गणं पष्पणकालग्गहणं - गागयकालग्गणं ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) भाषार्थ:- विशेष दृष्ट अनुमान प्रमाणद्वारा तीन काल ग्रहण होते हैं अर्थात् उक्त प्रमाणद्वारा तीन ही काळकी बातोंका निर्णय किया जाता है जैसेकि भूत कालकी वार्त्ता १ वर्त्तमान कालकी २ और भविष्यत कालमें होनेवाला भाव, यह तीन कालके भाव भी अनुमान प्रमाणद्वारा सिद्ध हो जाते हैं || मूल ॥ संकिंत्तं तीय कालग्गढ़ २ उत्तिणाई वलाई निष्पन्न सवसरसंवा मेईणि पुन्नाणि कुंक सर नदि ददसरण तलागाणि पासित्ता तें साहितइ जहा सुट्टी आसीसेतं तीयकालग्गहणं ॥ भाषार्थ - ( पूर्वपक्ष ) अनुमान प्रमाणके द्वारा भूतकालके पदार्थोंका बोध कैसे होता है । ( उत्तरपक्ष ) जैसे उत्पन्न हुए हैं वनों तृणादि, और पूर्ण प्रकारसे निष्पन्न हैं धान्न, फिर पृथिवीमें भली प्रकार से सुंदरताको प्राप्त हो रहे हैं और जलसे पूर्ण. भरे हुए हैं कुंड, सरोवर, नदी, द्रह, पानीके निज्झरण, सो इस प्रकार से भरे हुए तड़ागादिको देखकर अनुमान प्रमाणसे कहा जाता है कि इस स्थानोपरि पूर्व सुदृष्टि हुईथी क्योंकि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (89) टेक होनेपर ही यह लक्षण हो सक्ते हैं सो इसका नाम भूत अनुमान प्रमाण है क्योंकि इसके द्वारा भूत पदार्थोंका वोध भली प्रकारसे हो जाता है ॥ मूल ॥ सेकिंत्तं पप्पा कालग्गहणं २ साहु गोयरग्गगयं वितुमिय पर भत्तपाणं पासित्ता ते साहितइ जहा सुनिक्खं वट्टर सेतं पकुप्पन्न कालग्गदां ॥ भाषार्थ:- ( प्रश्न ) किस प्रकार से वर्तमान कालके पदांथका अनुमान प्रमाणके द्वारा बोध होता है ? ( उत्तर ) जैसे कोई साधु गौचरी ( भिक्षा) के वास्ते घरोंमें गया तब साधुने घरोंमें प्रचुर अन्नपानीको देखा अपितु इतना ही किन्तु अन्नादि बहुतसा परिष्टापना करते हुओंको अवलोकन किया तब साधु अनुमान प्रमाणके आश्रय होकर कहने लगा कि जहां पर सुभिक्ष ( सुकाळ ) वर्तता है, सो यह वर्तमानके पदार्थोंका बोध करानेवाला है - अनुमान प्रमाण है || मूल ॥ सेकिंतं णागय कालग्गहणं २ - नस्स निम्मलतं कसिणाय गिरिस विज्जु मेदा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) थपियवाउज्माणं संज्झानिघाघरताय वारुणं वामाहिंदंवा अन्नयरं पसत्थ मुप्पायं पासित्ता तेणं साहिङाइ जहा सुबुष्टि नविस्तर सेतं अणागय कालग्गहणं ॥ भापार्थ:-( पूर्वपक्ष) अनुमान प्रमाणके द्वारा अनागत (भविष्यत) कालके पदार्थोंका वोध किस प्रकारसे हो सकता है ? ( उत्तरपक्ष ) जैसे आकाश अत्यन्त निर्मल है, संपूर्ण पर्वत कृष्ण वर्णताको प्राप्त हो रहा है अर्थात् पर्वत रजादिकरके युक्त नहीं है, और विद्युत् (विजुली) के साथ ही मेघ है अर्थात् यदि दृष्टि होती है तब साथ ही विजुली होती है, वर्षाके अनुकुल ही वायु है, और सन्ध्या स्निग्ध है, वारुणी मंडलके नक्षत्रोंमें बहुत ही सुंदर उत्पात उत्पन्न हुए हैं, क्या चन्द्रादिका योग माहिन्द्र मंडलके नक्षत्रोंके साथ हो रहा है, इसी प्रकार अन्य भी सुंदर उत्पातोंको देखकर और अनुमान प्रमाणके आअय होकर कह सक्ते हैं कि सुदृष्टि होनेके चिन्ह दीखते हैं अर्थात् सुदृष्टी होगी । यह भविष्यत कालके पदार्थों के ज्ञान होनेवाला अनुमाण प्रमाण है क्योंकि इनके द्वारा अनागत कालके प्रदार्थों का बोध हो जाता है ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१ ) मूल ।। एएसिंविवजासेणंति विहंगदणं नवइ तं. तीयकालग्गहणं पमुप्पण कालग्गहणं अपागय कालग्गहणं सेकिंतं तीयकालग्गहणं णितएणवणाई अनिप्फणसरसंवा मेईणी सुकाणिय कुंड सर पदि दह तलागाणि पासित्ता तेणं साहिडाइ जहा कुवुट्टिासीसेतं तोयकालग्गहणं॥ भापार्थ:-जो पूर्व तीन कालके पदार्थीका अनुमान प्रमाणके द्वारा ज्ञान होना लिखा गया है उससे विपरीत भी तीन कालके पदायाका बोध निन्न कथनानुसार हो जाता है। जैसेकि तणसे रहित वर्ण है, पृथ्वीम धान्नादि भी उत्पन्न नही हुए हैं, और कुंड, सर, नदी, द्रह, तडागादि भी सर्व जलाशय शुष्क हुए दीखते हैं अर्थात् जलाशय शुके हुए हैं, तब अनुमान प्रमाणके द्वारा निश्चय किया जाता है कि जहांपर कुटष्टी है सुदृष्टी नहीं है, क्योंकि यदि मुष्टी होती तो यह जलाशय क्यों शुष्क होते सो इसका नाम भूतकाल अनुमान प्रमाण है । मूल ॥ सेकित्तं पमुप्पन्न कालग्गहणं २ सा CY Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) हु गोयरग्गगयं निक्खं अलभ्भमाणं पासित्ता तेणं साहिजर जहा दुनिखं वदृशःसेतं पमुष्पन्न कालग्गहणं ॥ __ भाषार्थ:-(पूर्वपक्षा) वर्तमानके पदार्थों का बोध करानेवाला अनुमान प्रमाणका क्या लक्षण है?(उत्तरपक्षः)जैसे साधु गोचरीको ग्राम वा नगरादिमें गया तव भिक्षाके न प्राप्त होनेपर वा घरोंमें प्रचुर अन्नादि न होनेपर अनुमान प्रमाणके द्वारा कहा जाता है कि जहाँपर दुर्भिक्ष वर्तता है, इसलिये इसका नाम वर्तमान अनुमान प्रमाण ग्रहण है ।। मूल || सेकित्तं श्रणागय कालग्गहणं धुमाउ तिदिसाउ संविय मेईणीअप्पमिवछावायानेरया खलु कुवुष्टि मेवं निवेयंति अग्गेयं वा वायवं वा अन्नयरं वा अप्पसत्थं उप्यायं पासित्ता तेणं साहिआश् कुहिनविस्सइ सेतं अणागय कालग्गहणं सेत्तं विसेसदि8 से दिछि साइम्मवं सेत्तं अनुमाणे॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) भापार्थः-(पूर्वपक्षः) अनागत कालके पदार्थों का बोधजन्य अनुमान प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? (उत्तरपक्षा) मैसेकि धूमसे दिशाओं आच्छादित हो रही हैं और रजादि करके मेदनी युक्त है अर्थात् पृथ्वीमें रज बहुत ही हो रही हैं, पुद्गक परस्पर अप्रतिवद्ध भावको प्राप्त हैं अर्थात् वर्षाके अनुकूल नही है, वायु नरतादि कूोंमें विद्यमान है और अग्निमंडळके नक्षत्र था व्यायवमंडळके नक्षत्रोंका योग हो रहा है, इसी प्रकार अन्य कोई अप्रशस्त उत्पातको देखकर अनुमान होता कि कुष्ठि होनेके चिन्ह दीखते है अर्थात् कुष्टि होवेगी। यही अनागतकाळ ग्रहण अनुमान प्रमाण है; इसीके द्वारा भविष्यत कालके पदार्थों का ___ अग्निमंडल के नक्षत्रों के निम्नलिखित नाम है || कृतिका १ विशाखा २ पूर्वमाद्रवपद ३ मघा ४ पुष्य ५ पूर्वाफाल्गुणी ६ मरणी ७॥ अथ व्यायव मंडलंके नक्षत्र लिखते हैं । जैसेकि-चित्रा १ हस्त २ स्वाति ३ मृगशिर ? पुनर्वसु ५ उतराफाल्गुणी ६ अश्वनी ७॥ अपितु वारुणी मंडलके नक्षत्र यह है-अश्लेपा १ मूल २ पूर्वापाड़ा ३ रेवती ४ शतमिशा ५ आर्द्रा ६ उत्तरामाद्रवपद ॥अथ माहेन्द्र मंडलके निम्न हैं-ज्येष्टा १ रोहणी २ अनुराधा ५ अवण ४ धनेष्टा ५ उतरापाड़ा ६ अभिजित ७ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) बोध हो सकता है । सो यह विशेष दृष्ट है और यही दृष्टि साधम्यत्वं अनुमान प्रमाण है सो यह अनुमान प्रमाणका स्वरूप संपूर्ण हुआ ॥ मूल ॥ लेकित्तं उवमे २ऽविहे पं. तं. साहम्मोवणीयए वेहम्मोवणीयए सोत्तं साहम्मो वणीयए तिविहे पं. तं, किंचिसाहम्मोवणीए पायसाहम्मोवणीए सबसाहम्मोवणीए ॥ ___ भाषार्थः-श्री गौतमप्रभुनी भगवान्से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् उपमान प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! उपमान प्रमाण द्वि प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि साधोपनीत १ वैधयोपनीत २॥ गौतमजीने पुनः पूर्वपक्ष कियाकि हे भगवन् साधम्र्योपनीत कितने प्रकारसे कथन किया गया है ? भगवान्ने फिर उत्तर दियाकि हे गौतम! साधम्योपनीत अनुमान प्रमाण तीन प्रकारसे कथन किया गया है जैसेकि किञ्चित साधम्र्योपनीत अनुमान प्रमाण १ प्रायः साधोपनीत अनुमान प्रमाण २ सर्व साधम्योपनीत अनुमान प्रमाण ३॥ इसी प्रकार गौतमजीने पूर्वपक्ष फिर किया । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) मूल ॥ सेकित्तं किंचि साहम्मोवणोए २ जहा मंदिरो तहा सरिसवो जहा सरिसवोतहा मंदिरो एवं समुद्दो २ गोप्पयं आश्च्चोखजोत्तो चंदोकुमुद्दो सेत्त किंचि साहम्मे ॥ भापार्थः- पूर्वपक्षः ) किंचित् साधोपनीत किस प्रकार प्रतिपादन किया है ? (उत्तरपक्षः) जैसे मेरुपर्वत वृत्त (गोल) है इसी प्रकार सरसवका वीज भी गोल है, सो यह किश्चित् मात्र साधर्म्यता है क्योंकि वृत्ताकारमें दोनोंकी साम्यता है परंतु अन्य प्रकारसे नही है। ऐसे ही अन्य भी उदाहरण जान लेनेजैसेकि समुद्र गोपाद, आदित्य (सूर्य) और खद्योत, चंद्र और कुमुद, सो यह किंचित् साधर्म्यता है ॥ ____ मूल ॥सेकित्तं पायसाहम्मोवणीय २ जहा गो तहा गवज जहा गवउ तहा गो सेनं पायपाय साम्मे ॥ भावार्थ:-(प्रश्नः ) वह कौनसा है प्रायः साधोपनीत उपमान प्रमाण ? ( उत्तरः) जैसे गो है वैसी ही आकृतियुक्त Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीलगाय है, केवल सानादि वर्जित है किन्तु शेष अवयव माय: साधयंतामें तुल्य हैं। इसी वास्ते इसका नाम मायः साधयोंपनीत अनुमान प्रमाण है ।। अथ सर्व साधोपनीतका वर्णन किया जाता है। मूल ॥सेकित्तं सव साहम्मोवमं नथि तहा वितस्स तेणेव उवमं कीर तंजहा अरिहंतेहिं अरिहंत सरिसं कयं एवं चक्कवहिणा चक्कवट्टी सरिसं कयं बलदेवेणं बलदेव सरिसं कयं वासु. देवेणं वासुदेव सरिसं कयं साहुणा साहु सरिसं कयं सेत्तं सब साहम्मे सेत्तं सब साहम्मोवर्षीय ॥ भाषार्थ:-(प्रश्ना) वह कौनसा है सर्व साधोपनीत उपमान प्रमाण ? (उत्तर) सर्व साधोपनीत उपमान प्रमाणकी कोई भी उपमा नही होती है परंतु तद्यपि उदाहरण मात्र उपमा करके दिखलाते हैं। जैसेकि अरिहंत (अईन)ने अरिहंतके सामान ही. कृत किया है इसी प्रकार चक्रवतीने चक्रवतीके तुल्य ही Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) कार्य कीया है, बलदेवने बलदेवके सामान, वासुदेवने वासुदेवके सामान कृत किये हैं तथा साधु साधुके सामान.व्रतादिको पालन करता है, यह सर्व साधोपनीत उपमान प्रमाण है ॥ ___ मूल ॥ सेकित्तं वेहम्मोवणीय २ तिविहे पं. तं. किंचिवेहम्मे पायवेहम्मे सबवेहम्मे सेकिंत्तं किंचिवेहम्मे जहा सामलेरो न तहा वाहुलेरो जहा वाहुलेरो न तहा सामलेरो से किंचिवेहम्मे ॥ भाषार्थ:-(प्रश्नः ) वह कौनसा है वैधोपनीत उपमान प्रमाण ? (उत्तरः ) वैधोपनीत उपमान प्रमाण तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है जैसेकि-किंचित् वैधोपनीत उपमान प्रमाण १ प्रायः वैधयत्व र सर्व वैधयंत्व ३॥(पूर्वपक्षः) किचित् वैधये उपमान प्रमाणका क्या उदाहरण है? (उतरपक्षः) जैसे श्याम गोका अपत्य है वैसी ही श्वेत गोका अपत्य नहीं है अर्थात् जैसे श्याम वर्णकी गोका वत्स है वैसे ही घेत गोका वत्स नहीं है, क्योंकि वर्णमें भिन्नता है इसका ही नाम किंचित् वैधय॑त्व उपमान है। सर्व अवयवादिमें एकत्वता सिद्ध होनेपर केवळ वर्णकी विभिन्नतामें किंचित् वैधर्म्यत्व उपमान प्रमाण सिद्ध हो गया ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) मूल ॥ सेकित्तं पायवेहम्मे जहा वायसो न तहा पायसो जहा पायसो न तहा वायसो से पाय वेहम्मे ॥ ___ भाषार्थः-(पूर्वपक्षः ) प्रायः वैधर्म्यताका भी उदाहरण दिखलाइये । (उत्तरपक्षः) जैसे काग है तैसे ही हंस नहीं है और जैसे हंस है वैसे काग नहीं है, क्योंकि काक-हंसकी पक्षी होने. पर ही साम्यता है किन्तु गुण कर्म स्वभाव एक नही है, इसीलिये मायः वैधर्म्यत्व उपमान प्रमाण सिद्ध हुआ है। मल ॥ सेकित्तं सबवेहम्मे २ नत्थि तस्स उवमं तहावितस्स तेणेव उवमं कीरइतं. नीचणं नीचसरिसं कयं दासणं दास सरिसं कयं कागेणं कागसरिसं कयं साणेणं साण सरिसं कयं पाणेणं पाणं सरिसं कयं सत्तं सब वेहम्मे सेत्तं विदम्मोवणीय सेत्तं उवमे ॥ १ वृत्तिमें वैधर्म्यकी उपमा-क्षीर और काकसे लिखी है कि वर्ण आदिकी वैधर्म्यता है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) भाषार्थः-( पूर्वपक्षः ) सर्व वैधयंताके उदाहरण किस प्रकारसे होते हैं ? ( उत्तरपक्ष: ) सर्व वैधय॑ताके उदाहरण नही होते हैं किन्तु फिर भी सुगमताके कारणसे दिखलाये जाते हैं, जैसे कि-नीचने नीचके सामान ही कार्य किया है, दासने दासके ही तुल्य काम कीया है, काकने काकवतही कृत किया है वा चांडालने चांडाल तुल्य ही क्रिया की है सो यह सर्व वैधर्म्यताके ही उदारण हैं। इसलिये जहांपर ही सर्व वैधोपनीत उपमान प्रमाण पूर्ण होता है इसका ही नाम उपमान प्रमाण है। इसके ही आधारसे सर्व पदार्थोंका यथायोग्य उपमान किया जाता है ।। अब आगम प्रमाणका वर्णन करते हैं । __ मूल ॥ सेकित्तं आगमे । दुविहे पं. तं. लोश्य लोगुत्तरिय सेकित्तं लोइय २ जन्नंइमं अन्नाणीहि मिच्छादिहीहिं सछंद बुद्धिमइ विगप्पियं तं नारदं रामायणं जाव चत्तारि क्या संगोवंगा सेत्तं लोश्य आगमे॥ भापार्थ:-श्री गौतम प्रभुजी भगवान से प्रश्न करते हैं कि हे प्रभो! आगम प्रमाण किस प्रकारसे वर्णन किया गया है ? Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब श्री भगवान् उत्तर देते हैं कि.हे गौतम ! आगम प्रमाण द्विविधसे प्रतिपादन किया है जैसेकि लौकीक आगम १ कोको. तर आगम २॥ श्री गौतमजी पुनः पूछते है कि हे भगवन् लोकीक आगम कौनसे हैं ? भगवनि उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! जसोक मिथ्यादृष्टि लोगोंने अज्ञानताके प्रयोगसे स्वछंदतासे कल्पना करलिये हैं भारत रामायण यावत् चतुर वेद सांगोपांग पूर्वक, यह सर्व लौकीक आगम है, क्योंकि इन आगमोंमें पदायौँका सत्य २ स्वरूप प्रतिपादन नही किया है अपितु परस्पर विरोधजन्य कथन है, इस लिये ही इनका नाम लौकीक मागम है ॥ __ मूल ॥ सेकित्तं लोगुतरिय आगमे २ जश्म अरिहंतेहिं नगवंतेहिं जावपणीय दुवालसंग तंजहा आयारो जावंदिठिवाओ सेनं लोगुत्तरिय आगमे॥ भाषार्थ:-(प्रश्नः) लोकोत्तर आगम कौनसे हैं ? (उत्तर) जो यह प्रत्यक्ष अरिहंत भगवंत कर करके प्रतिपादन किये गये हैं, द्वादशांग आगमरूप सूत्र समूह जैसेकि आचारांगसे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) हुआ दृष्टिवाद प्रयन्त आगम हैं, यह सर्व लोकोत्तर आगम हैं क्यों कि पदार्थों का सत्य २ स्वरूप द्वादशांगरूप आगममें प्रतिपादन किया हुआ है, क्योंकि स्याद्वाद मतमें पदार्थों का सप्त नयों के द्वारा यथावत् माना गया हैं जोकि एकान्त नय न माननेवाले उक्त सिद्धान्तसे स्खलित हो जाते हैं ॥ मूल || हवा यागमे तिविहे पं तं सुतागमेय त्यागमेय तडुभयागमे ॥ भाषार्थ :- अथवा आगम तीन प्रकारसे कथन किया गया । जैसेकि - सूत्रागम १ अर्थागम २ तदुभयागम ३ अर्थात् सूत्ररूप आगम १ अर्थरूप आगम २ सूत्र और अर्थरूप आगम ३ ॥ मूल || अदवा आगमे तिविद्दे पं. नं. - *' 'द्वादशाङ्ग आगमोंके निम्नलिखित नाम हैं । 'आचारांग सूत्र १ सूयगडांग सूत्र २ ठाणांगसूत्र ३ स्थानांग सूत्र ४ विवाह प्रज्ञप्ति सूत्र ५ ज्ञाता धर्म कथांग सूत्र ६ उपासक दशांग सूत्र ७ अंतकृत सूत्र ८ अनुत्रोववाइ सूत्र ९ प्रश्नव्याकरण सूत्र १० विपाकसूत्र ११ दृष्टिवाद सूत्र -१२ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) त्तागमे अणंत्तरागमे परंपरागमे तित्थगराणं अ. स्थस्स अत्तागमे गणहाणं सुत्तस्स अत्तागमे अत्थस्स थर्णचरागमे गणहर सीस्लाणं सुत्तस्स अणंत्तरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेण परं सुत्तस्सावि अत्यस्साव नोअत्तागमे नोअणंतरागमे परंपरागमे सेत्तं लोयुत्तरिय सेत्तं आगमे सेत्तं नाण गुणप्पमाणे॥ भाषार्थ:-अथवा आगम तीन प्रकारसे और भी कथन किया गया है जैसे कि आत्मागम १ अनंतरागम २ परंपरागम ३। किन्तु तीर्थंकर देवको अर्थ करके आत्मागम है और गणधरों को सूत्र करके आत्मागम है अपितु अर्थ करके अनंतरागम है २॥ परंतु गणधरके शिष्योंको सूत्र अनंतरागम है अर्थपरंपरागम है उसके पश्चात् सूत्रागम भी अर्थागम भी नही है आमागम नहीं है अनंतरागम केवल परंपरागम ही है। यही लोगोतर आगमके भेद हैं । इसका ही नाम ज्ञान गुण प्रमाण है ॥ अथ दर्शन गुण प्रमाणका स्वरूप लिखता हूँ॥ . Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) मूल ॥ सेकित्तं दंसण गुणप्पमाणे २ चउविहे पं. तं. चक्खु देसण गुणप्पमाणे अचक्खु दसण गुणप्पमाणे नहि दसण गुणप्पमाणे केवल दसण गुणप्पमाणे॥ भाषार्थ:-(प्रश्नः) दर्शन गुण प्रमाण किस प्रकारसे है ! (उत्तर) दर्शन गुण प्रमाण चतुर्विधसे प्रतिपादन किया गया है जैसेकि चक्षुः दर्शन गुण प्रमाण १ अचक्षुः दर्शन गुण प्रमाण २ अवधि दर्शन गुण प्रमाण ३ केवल दर्शन गुण प्रमाण ४॥ भव चार ही दर्शनोंके लक्षण वा साधनताको लिखते हैं। मूल ॥ चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स धरुपममाईसु अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स आयनावे हिदसणं अहिदंसणिस्स सब रूविदत्वेसुन पुण सव्वपज्जवेसु केवल दंसणं केवल दंसणिस्स सब दव्वेहिं सब पजावेहिं सेतं दसणगुणप्पमाणे॥ ___ भाषार्थः-दर्शनावणी कर्मके क्षयोपशम होनेसे जीवको चक्षु दर्शन घटपटादि पदार्थों में होता है, अर्थात् जव आत्मा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) का दर्शनावर्णी कर्म क्षयोपशम हो जाता है तब आत्मामें घट पट पदार्थों को देखनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसीका ही चक्षु दर्शन है क्योंकि चक्षुर्दशी जीव घटादि पदार्थोंको चक्षुओं द्वारा भली प्रकारसे देख सकता है दूरवर्ती होने पर भी। अचक्षु दर्शन जीवके आत्मा भावमें रहेता है क्योंकि चक्षुओंसे भिन्न श्रोतेंद्रियादि चतुरिंद्रियों द्वारा जो पदार्थोंका वोध होता है अथवा मनके द्वारा जो स्वमादि दर्शनोंका निर्णय किया नाता है उसका नाम अचक्षुदर्शन है और अवधि दर्शन युक्त जीवकी प्रवृत्ति सर्व रूपि द्रव्यों में होती है किन्तु सर्व पर्यायों में नही हैं क्योंकि अवधि दर्शन रूपि द्रव्योंको ही देखनेकी शक्ति रखता है न तु सर्व पर्यायोंकी, सो इसका नाम अवधिं दर्शन है । अपितुं केवल दर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायोंमें स्थित है क्योंकि सर्वज्ञ होने पर सर्व द्रव्योंको और सर्व पर्यायोंको केवळ दर्शन युक्त जीव सम्यक् प्रकारसे देखता है सो इसका ही नाम दर्शन गुण प्रमाण है ।। अथ चारित्र गुण प्रमाण वर्णनः ॥ मूल ॥ सेकित्तं चरित्त गुणप्पमाणे २ पंचविहे पं. तं. सामाइय चरित्त गुणप्पमाणे डेउवठाव Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) पिय चरित गुणप्पमाणे परिहार विसुद्धिय चरित्त गुणप्पमाणे सुहुमसंपराय चरित्त गुणप्पमाणे अहक्खाय चरित्त गुणप्पमाणे ॥ भापार्थ:- (शंका) चारित्र गुण प्रमाण कितने प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है ? (समाधान) पंचप्रकार से प्रतिपादन किया गया है - जैसे कि सामायिक चारित्र गुण प्रमाण । क्योंकि चारित्र उसे कहते हैं जो आचरण किया जाये सो सामायिक आत्मिक गुण है जैसे कि सम, आय, इक, संधि करनेसे होता है सामायिक, जिसका अर्थ है कि सर्व जीवोंसे समभाव करनेसे जो आत्माको लाभ होता है उसका ही नाम सामायिक है । इसके द्विभेद हैं स्तोक काल मुहूर्तादि प्रमाण आयु पर्यन्त साधुवृत्ति रूप, सावद्य योगोंका त्यागरूप सामायिक चारित्र प्रमाण है । इसी प्रकार छेदोपस्थापनीय चारित्र गुण प्रमाण है जो कि पूर्व पर्यायको छेदन करके संयममें स्थापन करना । परिहार विशुद्धि चारित्र गुण प्रमाण उसका नाम है जो संयममें वाधा करनेवाळे परिणाम हैं, उनका परित्याग करके सुंदर भावोंका धारण करना तथा नव मुनि गछसे वाहिर होकर १८ मास पर्यन्त तप करते हैं परिहार विशुद्धिके अर्थे उसका नाम परिहार Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशुद्धि है । सूक्ष्म संपराय चारित्र गुण प्रमाणका यह लक्षण है कि यह चारित्र दशम गुणस्थानवत्ती जीवको होता है क्यों. कि सूक्ष्म नाम तुच्छ मात्र संपराय नाम संसारका अर्थात् जिसका स्तोक मात्र रह गया है लोभ, उसका ही नाम सूक्ष्म संपराय चारित्र गुण प्रमाण है। यथाख्यात चारित्र उसका नाम है जो सर्व लोकमें प्रसिद्ध है कि यथावादी हैं वैसे ही करता है अर्थात् जिसका कथन जैसे होता है वैसे ही क्रिया करता है जोकि ११ गुणस्थानसे १४ गुणस्थानवी जीवोंको होता है, अपितु जो क्षपक श्रेणी वत्ती जीव है वे दशम स्थानसे द्वादशम गुणस्थानमें होता हुआ १३ वें गुणस्थानमें केवल ज्ञान करके युक्त हो जाता है फिर चतुर्दश गुणस्थानमें प्रवेश करके मोक्ष पदको ही प्राप्त हो जाता है ।। मूल ॥ सामाश्य चरित्त गुणप्पमाणे दु. विहे पं. तं. इतरियए आवकहियए डेउवगवणे सुविहे पं. तं. साश्यारेय निरश्यारेय परिहारे १ पंच चारित्रोंके मेद विवाहप्रज्ञप्ति इत्यादि सूत्रोंसे जानने । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुविहे पं. तं. निविस्समाणेय णिविठ्ठकाइय सुहुमसंपरायए दुविहे पं. तं. पमिवाश्य अप्पभिवाश्य अहक्खाय चरित्त गुणप्पमाणे विहे पं. तं. बनमत्थेय केवलीय सेत्तं चरित्त गुणप्पमाणे सेत्तं जीव गुणप्पमाणे सेत्तं गुणप्पमाणे ॥ भाषार्थः-(प्रश्नः) सामायिक चारित्र गुणप्रमाण कितने प्रकारसे वर्णन किया गया है ? ( उत्तरः) द्वि प्रकारसे, जैसे कि इत्वर् काल १ यावजीवपर्यन्त २ । ( प्रश्नः) छेदोपस्थापनी चारित्रके कितने भेद है ? ( उत्तरः) द्वि भेद है, जैसेकि सातिचार १ निरतिचार २।(प्रश्नः) परिहार विशुद्धि चा-' रित्र भी कितने वर्णन किया गया है ? (उत्तरः) इसके भी द्वि भेद है जैसेकि प्रवेशरूप १ निवृत्तिरूप २॥ (प्रश्नः) सूक्ष्म संपराय चारित्रके कितने भेद हैं ? ( उत्तरः)दो भेद हैं, जैसेकि प्रतिपाति १ अप्रतिपातिर। (प्रश्नः) यथाख्यात चारित्र भी कितने प्रकार वर्णन किया गया है? Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) ( उत्तरः ) दो प्रकारसे कथन किया गया है, जैसेकि छद्मस्थ यथाख्यात चारित्र १ केवली यथाख्यात चारित्र २ || सो यह चारित्र गुणप्रमाण पूर्ण होता हुआ जीव गुणप्रमाण भी पूर्ण हो गया, इसका ही नाम गुणप्रमाण है || सो प्रमाण पूवर्क जो पदार्ण सिद्ध हो गये हैं वे नययुक्त भी होते हैं क्योंकि अर्हन् देवका सिद्धान्त अनेक नयात्मिक हैं || ॥ अथ नय विवर्णः ॥ अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नयः ॥ १ ॥ सद्रूपताऽनतिक्रान्तं स्वस्वभात्रमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वे संगृह्णन् संग्रहो मतः || २ || व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिनः || ३ || तत्रर्जुसूत्रनीतिः स्याद् शुद्धपर्यायसंश्रिता । नश्वरस्यैव भावस्य भावात् स्थितिवियोगतः || ४ || विरोधिलिङ्ग संख्यादि भेदाद् भिन्नस्वभावताम् । तस्यैव मन्यमानोऽयं शब्दः प्रत्यवतिष्ठते ॥ ५ ॥ तथाविधस्य तस्याऽपि वस्तुनः क्षणवर्तिनः । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रूते समभिरूढस्तु संज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ ६॥ एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोपपद्यते । क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद एवंभूतोऽभिमन्यते ॥ ७॥ तथा हि नैगमनयदर्शनानुसारिणी नैयायिक-वैशेषिकौ । संग्रहाभिमायमसत्ताः सर्वेऽप्यद्वैतवादाः । सांख्यदर्शनं च । व्यवहारनयानुपाति प्रायश्चार्वाकदर्शनम्। ऋजुसूत्राऽऽकूतमत्तबुद्धयस्तथागता॥ शब्दादिनयावलम्विनौ वैयाकरणादयः । प्रश्न:-अईन् देवने नय कितने प्रकारसे वर्णन किये है, क्योंकि नय उसका नाम है जो वस्तुके स्वरूपको भली प्रकारसे प्राप्त करे ? अर्थात् पदार्थों के स्वरूपको पूर्ण प्रकारसे प्रगट करे।। उत्तरः-अर्हन देवने सप्त प्रकारसे नय वर्णन किये हैं। प्रश्न:-वे कौन २ से हैं ? उत्तर:-सुनिये ॥ नैगम १ संग्रह २ व्यवहार ३ ऋजुसूत्र ४ शब्द ५ समभिरूढ ६ एवंभूत ७॥ इनके स्वरूपको भी देखिये।। नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकाल भेदात् । अतीवे वर्तमानारोपणं यत्र सभूत नैगमो यथा-अद्य दीपोत्सवदिने श्री वर्द्धमा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) नस्वामी मोक्षं गतः । भाविनिभूतवत्कयनं यत्र स भावि नैगमो यथा अर्हन् सिद्ध एव कर्तुमारब्धमीपनिष्पन्नमनिष्पन्नं वा वस्तुनिष्पन्नवत कथ्यते यत्र स वर्तमाननगमो यथा ओदन: पच्यते ॥ इति नैगमस्त्रेधा ।। ___ भापार्थः-नगम नय तीन प्रकारसे वर्णन किया गया है, जैसेकि भूतनैगम ? भाविनैगम २ वर्तमाननगम ३। अतीत कालकी वार्ताको वर्तमान कालमें स्थापन करके कथन करना जैसेकि आज दीपमालाकी रात्रीको श्री भगवान् वर्द्धमानस्वामी मोक्षगत हुए हैं इसका नाम भूत नैगमनय है। अपितु भावि नैगम इस प्रकारसे है जैसेकि अर्हन् सिद्ध ही है क्योंकि वे निश्चय ही सिद्ध होंगे सो यह भावि नैगम है। और वर्तमान नैगम यह है कि जो वस्तु निष्पन्न हुई है वा नही हुई उसको वर्तमान नैगमऽपेक्षा इस प्रकारसे कहना जैसेकि तंडुल पक्कते हैं अर्थात् (ओदन: पच्यते ) चावल पक्क रहे हैं, सो इसीका नाम वर्तमान नैगम नय हैं । ॥ अथ संग्रह नय वर्णन ॥ संग्रहोपि द्विविधः सामान्यसंग्रहो यथा सर्वाणि द्रव्याणि परस्परमविराधीन । विशेषसंग्रहो यथा-सर्वे जीवाः परस्परमविरोधिनः इति सङ्ग्रहोऽपि विधा। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) भाषार्थ:--संग्रह नय भी द्विप्रकारसे वर्णन किया गया है जैसे कि-सामान्य संग्रह विशेष संग्रह; अपितु सामान्य संग्रह इस प्रकारसे है, जैसेकि सर्व द्रव्य परस्पर अविरोधी भावमें हैं अर्थात् सर्व द्रव्योंका परस्पर विरोध भाव नहीं हैं, अपितु विशेष संग्रहमें, यह विशेष है कि जैसेकि जीव द्रव्य परस्पर अविरोधी भावमें है क्योंकि जीव द्रव्यमें उपयोग लक्षण वा चेतन शक्ति एक सामान्य ही है सो सामान्य द्रव्यों से एक विशेष द्रव्यका वर्णन करना उसीका ही नाम संग्रह नय है । ॥ अथ व्यवहार नय वर्णन ॥ व्यवहारोऽपि द्विधा सामान्यसङ्ग्रहभेदको व्यवहारो यथा द्रव्याण जीवाजीवाः । विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा जीवा संसारिणो मुक्ताश्च इति व्यवहारोऽपि द्विधा ॥ भाषार्थ:--व्यवहार नय भी द्वि प्रकारसे ही कथन किया गया है जैसेकि सामान्य संग्रहरूप व्यवहार नय जैसेकि द्रव्य भी द्वि प्रकारका है यथा जीवं द्रव्य अजीव द्रव्य || अपितु विशेष संग्रहरूप व्यवहार इस प्रकारसे है जैसोक जीव संसारी १ और मोक्ष २ क्योंकि संसारी आत्मा काँसे युक्त हैं और मोक्ष आत्मा काँसे रहित हैं, इस लिये ही उनके Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) नाम अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परंपरागत, मुक्त इत्यादि हैं। जीव द्रव्य विभेद यह व्यवहार नयके मतसे ही है इसी प्रकार अन्य द्रव्योंके भी भेद जान लेने ॥ ॥अथ ऋजुसत्र नय ॥ ऋजुसूत्रोऽपि द्विधा सूक्ष्मणु सूत्रो यथा-एक समयावस्थायी पयायः । स्थूलर्जु सूत्रो यथा मनुप्यादि पर्यायास्तदायुः प्रमाण कालं तिष्ठंति इति ऋजुसूत्रोऽपि द्विधा । ___भाषार्थः--ऋजु सूत्र नय भी द्वि भेदसे कहा गया है यथा जो समय २ पदार्थोंका नूतन पर्याय होता है और पूर्व पर्याय व्यवच्छेद हो जाता है उसीका ही नाम सूक्ष्म ऋजुसूत्र नय है अपितु जो एक पर्याय आयु पर्यन्त रहता है उस पर्यायकी संज्ञाको लेकर शब्द ग्रहण करे जाते हैं उसका नाम स्थूल ऋजुसूत्र नय है जैसेकि-नर भव १ देव भव २ नारकी भव ३ तिर्यग् भव ४। यह भव यथा आयुप्रमाण रहते हैं इसी वास्ते मनुष्य १ देव २ तियग् ३ नारकी ४ यह शब्द व्यवहत करनेमें आते हैं। ॥ अथ शब्द समभिरूढ एवंभूत नय विवर्णः ॥ शाब्दसमभिरूडैर्वभूता नयाः प्रत्येकमकैका नयाः शब्दनयो यथा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) दारा भार्या कलत्रं जलं आपः । समभिरूढ नयो यथा गौः पशुः एवंभूतनयो यथा इंदतीति इन्द्रः ॥ इति नयभेदाः ॥ भापार्थ--शब्द, समभिरूढ, एवंभूत, यह तीन ही नय शुद्ध पदार्थोंका ही स्वीकार करते हैं यथा शब्द नयके मतमें एकार्थी हो वा अनेकार्थी हो, शब्द शुद्ध होने चाहिये, जैसकि-दारा, भार्या, कलत्र, अथवा जल, आप, यह सर्व शब्द एकार्थी पंचम नयके मतसे सिद्ध होते हैं अर्थात् शुद्ध शब्दोंका उच्चारण करना इस नयका मुख्य कर्तव्य है। और समभिरूढ नय विशेष शुद्ध वस्तुपर ही स्थित है जैसोक गौ अथवा पशु | जो पदार्थ जिस गुणवाला है उसको वैसे ही मानना यह समभिरूढ नयका मत है तथा जिस पदार्थमें जिस वस्तुकी सत्ता है उसके गुण कार्य ठीक २ मानने वे ही समभिरूढ है । और एवंभूत नयके मतमें जो पदार्थ शुद्ध गुण कर्म स्वभावको प्राप्त हो गये हैं उसको उसी प्रकारसे मानना उसीका ही नाम एवंभूत नय है जैसेकि-इन्दतीति इन्द्रः अर्थात् ऐश्वर्य करके जो युक्त है वही इन्द्र है, यही एवंभूत नय है ॥ ॥अथ सप्त नयोंका मुख्योदेश ॥ नैकं गलतीति निगमः निगमो विकल्पस्तत्र भवो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) नैगमः अन्नेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रहः । संग्रहेण गृहीतार्थस्य नेदरूपतया वस्तु व्यवहियत इति व्यवहारः।ऋजुप्रांजलं सू. त्रयतीति ऋजुसूत्रः । शब्दात् व्याकरणात् प्रकृति प्रत्ययहारेण सिकः शब्दः शब्दनयः । परस्परेणादि रूढाः समनिरूढाः। शब्दन्नेदेऽप्यर्थनेदो नास्ति यथा शक्र इन्डः पुरन्दर इत्यादयः समनिरूढाः । एवं क्रियाप्रधानत्वेन भूयत इत्येवंभूतः ॥ इति नयाः॥ __ भाषार्थ:-नैगम नयका एक प्रकार गमण नहीं है अपितु तीन प्रकारका विकल्प पूर्वे कहा गया है वे ही नैगम नय है शजो पदार्थोंको अभेदरूपसे ग्रहण किया जाता है वही संग्रह नय है २। जो अभेद रूपमें पदार्थों हैं उनको फिर भेदरूपसे वर्णन करना जैसेकि-गृहस्थ धर्म १ मुनिधर्म २ उसीका ही नाम व्यवहार नय है । जो समय २ पर्याय परिवर्तन होता है उस पर्यायको ही मुख्यं रखे पदार्थोंका वर्णन करना उसका ही नाम Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५ ) ऋजु सूत्र है क्योंकि यह नय सांपति कालको ही मानता है। शब्द नयसे शब्दोंकी व्याकरण द्वारा शुद्धि की जाती है जैसेकि प्रकृति, प्रत्यय, यथा धर्म शब्द प्रकृतिरूप है इसको स्वौजशं अमौट् शस् इत्यादि प्रत्ययों द्वारा सिद्ध करना तथा भू सत्तायां वर्त्तते इस घातुके रूप दश लकारोंसे वर्णन करने यह सर्व शब्द नयसे बनते हैं ५। जो पदार्थ स्वगुणों में आरूढ है वही समभिरूढ नय हैं तथा शब्दभेद हो अपितु अर्थभेद न हों जैसेकि शक इन्द्रः पुरंदर मघवन् इत्यादि । यह सर्व शब्द समभिरूढ नयके मतसे बनते हैं ६ । क्रिया प्रधान करके जो द्रव्य अभेद रूप हैं उनका उसी प्रकारसे वर्णन करना वही एवंभूत नय हैं ७॥ सो सम्यग्दृष्टि जीवोंको सप्त नय ही ग्राह्य है किन्तु मुख्य-- तया करके दोइ नय है ।। यथा पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयो द्वौ छौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयो अन्नेदविषयो व्यवहारलेदविषयः॥ भाषार्थ:-अपितु अध्यात्म भाषा करके नय दो ही हैं जैसे , कि निश्चय नय १ व्यवहार,नय २। सो निश्चय अभेद विषय है, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) व्यवहार भेद विषय है, किन्तु फिर भी निश्चय नय टैि प्रकारसे है जैसेकि शुद्ध निश्चय नय १ अशुद्ध निश्चय नय २। सो शुद्ध निश्चय नय निरुपाधि गुण करके अभेद विषय विषयक है जैसेकि केवल ज्ञान करके युक्त जीवको जीव मानना यह शुद्ध निश्चय एवंभूत नयं है १ । सोपाधिक विषय अशुद्ध निश्चय जैसे मतिज्ञानादि करके युक्त है जीव २॥ इसी प्रकार व्यवहार नय भी द्वि प्रकारसे प्रतिपादित है जैसोक-एक वस्तु विषय सद्भुत व्यवहार, भिन्न वस्तु विषय असद्भूत व्यवहार किन्तु स. भूत व्यवहार भी द्वि विधसे ही कहा गया है जैसेकि-उपचरित १ । अनुपचरित २। फिर सोपाधि गुण गुणिका भेद विषय उपचरित सद्भूत व्यवहार इस प्रकारसे है जैसेकि जीवका मतिज्ञानादि गुण है ॥ अपितु निरुपाधि गुणगुणिका भेद विषय अनुपचरित सद्भूत व्यवहारका यह लक्षण है कि-जीव केचल ज्ञानयुक्त है क्योंकि निज गुण जीवकी पूर्ण निर्मलता ही है तथा असद्भूत व्यवहार भी द्वि प्रकारसे ही वर्णन किया गया है जैसेकि उपचरित, अनुपचरित । फिर संश्लेपरहित वस्तु विषय उपचरित असदभूत व्यवहार जैसेकि देवदत्तका धन है, और संश्लेपरहित वस्तु संबन्ध विपय अनुपचरित Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) असद्भूत व्यवहार जैसे कि जीवका शरीर है यह अनुपचरित असभूत व्यवहार नय है सो यह नय सर्व पदार्थोंमें संघट्टित है इनके ही द्वारा वस्तुओंका यथार्थ वोध हो सक्ता है क्योंकि यह नय प्रमाण पदार्थों के सद्भावको प्रगट कर देता है || ॥ अथ सप्त नय दृष्टान्त वर्णनः ॥ अब सात ही नयोंको दृष्टान्तों द्वारा सिद्ध करते हैं, जैसेकि किसीने प्रश्न किया कि सात नयके मतसे जीव किस प्रकारसे सिद्ध होता है तो उसका उत्तर यह है कि सप्त नय जीव द्रव्यको निम्न प्रकारसे मानते हैं, जैसेकि - नैगम नयके मतमें गुणपर्याय युक्त जीव माना है और शरीरमें जो धर्मादि द्रव्य हैं वे भी जीव संज्ञक ही है ५ ॥ संग्रह नयके मतमें असंख्यात प्रदेशरूप जीव द्रव्य माना गया है जिसमें आकाश द्रव्यको वर्जके शेष द्रव्य जीव रूपमें ही माने गये हैं २ ॥ व्यवहार नयके मतसे जिसमें अभिलापा तृष्णा वासना है उसका ही नाम जीव है, इस नयने लेशा योग इन्द्रियें धर्म इत्यादि जो जीवसे भिन्न है इनको भी जीव माना है क्योंकि जीवके सहचारि होनेसे १ ॥ और ऋजु सूत्र नयके मतमें उपयोगयुक्त जीव माना गया है, इसने लेशा योगादिको दूर कर दिया है Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८) किन्तु उपयोग शुद्ध ( ज्ञानरूप ) अशुद्ध ( अज्ञान ) दोनोंको ही जीव मान लिया है क्योंकि मिथ्यात्व मोहनी कर्म पूर्वक जीव • सिद्ध कर दिया है ४ || और शब्द नयके मतमें जो तीन कालमें शुद्ध उपयोग पूर्वक है वही जीव है अपितु सम्यक्त्व मोहनी कर्मकी वर्गना इस नयने ग्रहण कर ली शुद्ध उपयोग अर्थे ५ ॥ समभिरूढ नयके मत में जिसकी शुद्धरूप सत्ता है और स्वगुणमें ही मन है क्षायक सम्यक्त्व पूर्वक जिसने आत्माको जान लिया है उसका नाम जीव है, इस नयके मतमें कर्म संयुक्त ही जीव है ६ ॥ एवंभूत नयके मत में शुद्ध आत्मा केवल ज्ञान केवल दर्शन संयुक्त सर्वथा कर्मरहित अजर अमर सिद्ध बुद्ध पारगत इत्यादि नाम युक्त सिद्ध आत्माको ही जीव माना है ७ ॥ इस प्रकार - सप्त नय जीवको मानते हैं । द्वितीय दृष्टान्तसे सप्त नयाँका माना हुआ धर्म शब्द सिद्ध करते हैं || नैगम नय एक अंश मात्र वस्तुके स्वरूपको देखकर सर्व वस्तुको ही स्वीकार करता है जैसेकि नैगम नय सर्व मतोंके धर्मोंको ठीक मानता है क्योंकि नैगम नयका मत है कि सर्व धर्म मुक्ति के साधन वास्ते ही है अपितु संग्रह नय जो पूर्वज पुरुषोंकी रूढि चली आती हैं उसको ही धर्म कहता है क्योंकि उसका मन्तव्य है कि पूर्व पुरुष हमारे Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञात नही थे इस लिये उन ही की परम्पराय उपर चलना हमारा धर्म है। इस नयके मतमें कुलाचारको ही धर्म माना गया है २ ।। व्यवहार नयके मतमें धर्मसे ही सुख उपलब्ध होते हैं और धर्म ही सुख करनहारा है इस प्रकारसे धर्म माना है क्योंकि व्यवहारनय वाहिर सुख पुन्यरूप करणीको धर्म मानता है ३ ।। और ऋजुसूत्र नय वैराग्यरूप भावोंको ही धर्म कहता है सो यह भाव मिथ्यात्वीको भी हो सक्ते हैं अभव्यवत् ४ ॥ अपितु शब्द नय शुद्ध धर्म सम्यक्त्व पूर्वक ही मानता है क्योंकि सम्यक्त्व ही धर्मका मूल है सो यह चतुर्थ गुणस्थानवी जीवोंको धर्मी कहता है ५ ॥ समभिरूढ नयके मतमें जो आत्मा सभ्यग् ज्ञान दर्शन चारित्र युक्त उपादेय वस्तुओं ग्रहण और हेय (त्यागने योग्य पदार्थों का) परिहार, ज्ञेय (जानने योग्य ) पदार्थोंको भली भकारसे जानता है, परगुणसे सदैव काल ही भिन्न रहनेवाला ऐसा आत्मा जो मुक्तिका साधक है उसको ही धर्मी कहता है ६॥ और एवंभूत नयके मतमें जो शुद्ध आत्मा काँसे रहित शुक्ल ध्यानपूर्वक जहां पर घातिये काँसे रहित आत्मा ऐसे जानना जोकि अघातियें कर्म नष्ट हो रहे हैं उसका ही नाम Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) ॥ अथ सप्त नयों द्वारा सिद्ध शब्दका वर्णन ॥ नैगम नयके मतमें जो आत्मा भव्य है वे सर्व ही सिद्ध है क्योंकि उनमें सिद्ध होनेकी सत्ता है १॥ संग्रह नयके मतमें सिद्ध संसारी जीवोंमें कुछ भी भेद नहीं हैं, केवल सिद्ध आत्मा काँसे रहित हैं, संसारी आत्मा काँसे युक्त हैं २ ॥ व्यवहार नयके मतमें जो विद्या सिद्ध हैं वा लब्धियुक्त हैं और लब्धि द्वारा अनेक कार्य सिद्ध करते हैं वे ही सिद्ध हैं ३ ।। ऋजुसूत्र नय जिसको सम्यक्त्व प्राप्त हैं और अपनी आत्माके स्वरूपको सम्यक् प्रकारसे देखता है उसका ही नाम सिद्ध है ४॥ शब्द नयके मतमें जो शुक्ल ध्यानमें आरूढ़ है ओर कष्टको सम्यक् प्रकारसे सहन करना गजमुखमालवत् उसका ही नाम सिद्ध है ५॥ समाभिरूढ़ नयके मतमें जो केवल ज्ञान केवल दर्शन संपन्न १३ वें वा १४ वें गुणस्थानवी जीव है उनका ही नाम सिद्ध है ६॥ एवंभूत नयके मतमें जिसने सर्व कर्मों को दूर कर दिया है केवल ज्ञान केवल दर्शन संयुक्त लोकाग्रमें विराजमान है ऐसे सिद्ध आत्माको ही सिद्ध माना गया है क्योंकि सकल कार्य उसी आत्माके सिद्ध हैं ७॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) अथ वस्तीके दृष्टान्त द्वारा सप्त नयोंका वर्णन ॥ फिर यह सप्त नय सर्व पदार्थों पर संघटित हैं जैसेकि किसी पुरुपने अमुक व्यक्तिको प्रश्न किया कि आप कहां पर वसते हैं ? तो उसने प्रत्युत्तरमें निवेदन किया कि मैं लोगों वसता हूँ। यह अशुद्ध नैगम नयका वचन है । इसी प्रकार प्रश्नोत्तर नीचे पढियें । पुरुषः-मिय महोदयवर ! लोक तो तीन है जैसेकि स्वर्ग मृत्य पाताल; आप कहां पर रहते हैं ? क्यों तीनों लोकोंमें ही वसते हैं ? व्यक्ति:-नहीजी, मैं तो मनुष्य लोगों वसता हूं ( यह शुद्ध नैगम नय है)॥ पुरुपः-मनुष्य लोगमें असंख्यात द्वीप समुद्र है, आप कौनसे द्वीपमें वसते हैं ? ___ व्यक्तिः-बूद्वीप नामक द्वीपमें वसता हूं ( यह विशुद्धतर नैगम नय है)। पुरुपः-महाशयजी ! जंबूद्वीपमें तो महाविदेह आदि अनेक क्षेत्र हैं, आप कौनसे क्षेत्रमें निवास करते हैं? व्यक्ति:-मैं भरतक्षेत्रमें वसता हूं ( यह अति शुद्ध नैगमः नय है)। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८२) पुरुषः-प्रियवर ! भरतक्षेत्रमें पट् खंड हैं, आप कौनसे खंडमें निवास करते हैं ? व्यक्तिा-मैं मध्य खंडमें वसता हूं (यह विशुद्ध नैगम नय पुरुष-मध्य खंडमें अनेक देश हैं, आप कौनसे देश में उहरते हैं ? व्यक्तिः-मैं मागध देशमें वसता हूं (यह अतिविशुद्ध नैगम नय है)। पुरुषः-मागध देशमें अनेक ग्राम नगर हैं, आप कौनसे आम वा नगरमें वसते हैं ? व्यक्तिः-मैं पाटलिपुत्रमें वसता हूं ( यह अतिविशुद्धतर नैगम नय है)॥ पुरुषः-महाशयजी ! पाटलिपुत्रमें अनेक रथ्या हैं (मुहल्ले) तो आप कौनसी प्रतोलीम वसते हैं ? व्यक्ति-मैं अमुक प्रतोलीमें वसता हूं (यह बहुलतर विशुद्ध नैगम नय है)। पुरुषः-एक मतोलीमें अनेक घर होते हैं, तो आप कौनसे घरमें वसते हैं ( एक मुहल्लेमें ) ? व्यक्तिः-मैं मध्य घर (गर्भ घर) में वसता हूं ? ( यह Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) विशुद्ध नय है )|| यह सर्व उत्तरोत्तर शुद्धरूप नैगम नयके ही वचन हैं। __ पुरुषः-मध्य घरमें तो महान् स्थान है, आप कौनसे स्थानमें वसते हैं ? व्यक्तिः -मैं स्वः शय्यामें वसता हूं (यह संग्रह नय है) विछावने प्रमाण ॥ पुरुषः-शय्यामें भी महान् स्थान है, आप कहांपर व्यक्तिः-असंख्यात प्रदेश अवगाह रूपमें वसता हूं (यह व्यवहार नय है)। पुरुष:-असंख्यात प्रदेश अवगाह रूपमें धर्म अधर्म आकाश पुद्गल इनके भी महान् प्रदेश हैं, आप क्या सर्वमें ही बसते है ? व्यक्ति नहीजी, मैं तो चेतनगुण (स्वभाव ) में वसता हूं ॥ यह जुसूत्र नयका वचन है ।। पुरुपा-चेतन गुणकी पर्याय अनंती है जैसोक ज्ञान चेतना अज्ञान चेतना, आप कौनसे पर्याय वसते हैं ? व्यक्ति-मैं तो ज्ञान चेतनामें वसता हूं ( यह शब्द 'नय है)। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) पुरुषः- ज्ञान चेतनाकी भी अनंत पर्याय हैं, आप कहीं पर बसते हैं ? व्यक्ति:- निज गुण परिणत निज स्वरूप शुक्ल ध्यानपूर्वक ऐसी निर्मल ज्ञान स्वरूप पर्याय में वसता हूं ( यह समभिरूढ नय है ) || पुरुषः- निज गुण परिणत निज स्वरूप शुक्ल ध्यानपूर्वक पर्याय में वर्धमान भावापेक्षा अनेक स्थान हैं, तो आप कहां पर बसते हैं ? व्यक्ति:-अनंत ज्ञान अनंत दर्शन शुद्ध स्वरूप निजरूपमें बसता हूँ || यह एवंभूत नयका वचन है || इस प्रकार यह सात ही नय वस्ती पर श्री अनुयोग द्वारजी सूत्रमें वर्णन किए गये हैं और श्री आवश्यक सूत्रमें सामायिक शब्दोपरि सप्त नय निम्न प्रकारसे लिखे हैं, जैसेकि - नैगम नयके मत में सामायिक करनेके जब परिणाम हुए तबी ही सामायिक हो गई || अपितु संग्रह नयके मतमें सामायिकका उपकरण लेकर स्थान प्रतिलेखन जव किया गया तब ही सामायिक हूई | और व्यवहार नयके मतमें सावध योगका जब परित्याग किया तब ही सामायिक हुई ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और ऋजु नयके मतमें जब मन वचन कायाके योग शुभ वर्तने लगे तव ही सामायिक हुई ऐसे माना जाता है ॥ शब्द नयके मतमें जव जीवको वा अजीवको सम्यक् प्रकारसे जान लिया फिर अजीवसे ममत्व भावको दूर कर दीया तव सामायिक होती है ।। एवंभूत नयके मतमें शुद्ध आत्माका नाम ही सामायिक है । यदुक्तं आया सामाइय आया सामाश्यस्त अहे। इति वचनात् अर्थात, आत्मा सामायिक है और आत्मा ही सामायिकका अर्थ है, सो एवंभूत नयके मतसे शुद्ध आत्मा शुद्ध उपयोगयुक्त सामायिकवाला होता है । सो इसी प्रकार जो पदार्थ हैं वे सप्त नयोंद्वारा भिन्न २ प्रकारसे सिद्ध होते हैं और उनको उसी प्रकार माना जाये तव आत्मा सम्यक्त्वयुक्त हो सक्ता है, क्योंके एकान्त नयके माननेसे मिथ्या ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है अपितु अनेकान्त मतका और एकान्त मतका हीऔर भी का ही विशेष है, जैसेकि-एकान्त नयवाले जव किसी पदार्थोंका वर्णन करते हैं तब-'ही' का ही प्रयोग करते हैं जैसेकि, यह पदार्थ ऐसे ही है । किन्तु अनेकान्त मत जब किसी पदार्थका वर्णन करता है तब 'भी' का ही प्रयोग ग्रहण Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) करता है जैसेकि-यह पदार्थ ऐसे 'भी' है । सो यह कथन अविसंवादित है अर्थात इसमें किसीको भी विवाद नहीं है जैसेकि-जीव सान्त भी है-अनंत भी है ॥ यदुक्तमागमे जेवियर्णते खंदया जाव सते जीवे अते अजीवे तस्सवियणं अयमठे एवं खलु जाव दवओणं एगे जीवे सअंते १ खेत्तनणं जीवे असंक्खेज पयसिए असंक्खेज पयसो गाढे अस्थि पुणसे अणंते २ कालणं जीवेण कयाश्नासि निच्चे णस्थि पुणसे श्रत्ते ३ नावउणं जीवे अर्णताणाण पजावा अणंत्ता दसण पजावा अणंत चरित्त पङवा अणंता गुरुय लहुय पजावा अणंत्ता अगुरुय लहुय पज्जवा एस्थि पुणसे अंते ४ सेत्तं दवर्ड जोवे सश्रते खेत्त जीवे सअंते काल जीवे अणंते ना. व जीवे अणंते ॥ भगवती सूत्र शतक २ उद्देश १॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) भाषार्थः - श्री भगवान् वर्द्धमान स्वामी स्कंधक संन्यासीको जीवका निम्न प्रकार से स्वरूप वर्णन करते हैं कि हे स्कंधक ! द्रव्यसे एक जीव सान्त है १ । क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशरूप जीव असंख्यात प्रदशों पर ही अवगहण हुआ आकाशापेक्षा सान्त है २ | कालसे अनादि अनंत है क्योंकि उत्पत्ति से रहित है इस लिये कालापेक्षा जीव नित्य है ३ । भावसे जीव नित्य अनंत ज्ञान पर्याय, अनंत दर्शन पर्याय, अनंत चारित्र पर्याय, अनंत गुरु लघु पर्याय, अनंत अगुरु लघु पर्याय युक्त अनंत है ४ । सो हे स्कंधक ! द्रव्यसे जीव सान्त, क्षेत्र से भी सान्त, अपितु काल भावसे जीव अनंत है, तथा द्रव्यार्थिक नयापेक्षा जीव अनादि अनंत है, पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त है, जैसेकि - जीव द्रव्य अनादि अनंत है पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादिसान्त है क्योंकि कभी नरक योनिमें जीव चला जाता है: कभी तिर्यग् योनिमें, कभी मनुष्य योनिमें, कभी देव योनिमें । जब पूर्व पर्याय व्यवच्छेद होता है तब नूतन पर्याय उत्पन्न हो जाता है । इसी अपेक्षासे जीव सादि सान्त है तथा जीव चतुर्भग भी युक्त है, यथा जीव द्रव्य स्वगुणापेक्षा वा द्रव्या Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) थिंक नयापेक्षा अनादि अनंत है । आर भव्यजीव कर्मापेक्षा अनादि सान्त है क्योंकि कर्मोकी आदि नहीं किस समय जीव कर्मों से बद्ध हुआ, इस लिये कर्म भव्य अपेक्षा अनादि सान्त है २ । और जो आत्मा मुक्त हुआ वे सादि अनंत है, क्योंकि वे संसारचक्र से ही मुक्त हो गया है और अपुनरावृत्ति करके युक्त है जैसे दग्धवीज अंकूर देनेमें समर्थ नहीं होता है, उसी प्रकार वे मुक्त आत्माओं के भी कमरूपि चीज दग्ध हो गये हैं | और प्रवाह अपेक्षा कर्म अनादि, पयार्यापेक्षा कर्म सादि सान्त है, जैसेकि पूर्व किये हुए भोगे गये अपितु नूतन और किये गये सो करनेके समय से भोगनेके समय पर्य्यन्त सादि सान्त भंग बन जाता है, परंतु प्रवाहसे कर्म अनादि ही चले आते हैं, जैसेकि घट उत्पत्तिमें सादि सान्त मृत्तिका रूपमें अनादि है क्योंकि पृथ्वी अनादि है । इसी प्रकार सर्व पदार्थों के स्वरूपको भी जानना चाहिये, वे पदार्थ द्रव्यसे अनादि अनंत है पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त भी है सादि अनंत भी है अथवा सर्व पदार्थों के जानने के वास्ते सप्त भंग १ मुक्त आत्मा एक जीव अपेक्षा सादि अनंत है और बहुत जीवोंको अपेक्षा अनादि अनंत है, क्योंकि मुक्ति भी अनादि है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी लिखे हैं जिनको लोग जैनोंका सप्तभंगी न्याय कहते हैं, जैसेकि १ स्यादस्त्येव घट:-कथंचित घट है स्वगुणों की अपेक्षा घट अस्तिरूप है। २ स्यानास्त्येव घट:-कथंचित् घट नहीं है। ३ स्यादस्ति नास्ति च घट:-कथंचित् घट है और कथंचित् घट नहीं है। · ४ स्यादवक्तव्य एव घट:-कथंचित् घट अवक्तव्य है । ५ स्यादस्ति चावक्तव्यश्च घटा-कथंचित् घट है और अबक्तव्य है। ६ स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च घट:-कथंचित् नहीं है तथा अवक्तव्य घट है। ७ स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च घट:-कथचित् है नही है. इस रूपसे अवक्तव्य घट है। मित्रवरो! यह सप्त भंग है । यह घटपटादि पदार्थों में पक्ष प्रतिपक्ष रूपसे सप्त ही सिद्ध होते हैं जैसोकि घट द्रव्य स्वगुण युक्त अस्तिरूपमें है। प्रत्येक द्रव्यमें स्वगुण चार चार होते है द्रव्यत्व क्षेत्रत्व कालत्व भावत्व । घटका द्रव्य मृत्तिका है, क्षेत्र जैसे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) पाटलिपुत्रका बना हुआ, कालसे वसंत ऋनुका, भावसे नील घट है, सो यह स्वगुणमें अस्तिरूपमें है । वे ही घट परद्रव्य (प• यादि ) अपेक्षा नास्तिरूप है क्योंकि पटका द्रव्य तंतु हैं, क्षेत्र| से वे कुशपुरका बना हुआ है, कालसे हेमेंत ऋतुमें बना हुआ, भाव से श्वेत वर्ण है, सो पटके गुण घटमें न होनेसे घट पटापेक्षा नास्तिरूप है । तृतीय भंग वे ही घट एक समय में दोनों गुणों करके युक्त है, स्वगुणमें अस्तिभावमें है, और परगुणकी अपेक्षा नास्ति रूपमें है, जैसे कोई पुरुष जिस समय उदात्त स्वरसे उच्चारण करता है उस समय मौन भावमें नही है, अपित जिस समय मौन भावमें है उसी समय उदात्त स्वरयुक्त नहीं है, सो प्रत्येक २ पदार्थ में अस्ति नास्तिरूप तृतीय भंग है । जबके एक समयमै दोनों गुण घटमें हैं तब घर अवक्तव्य रूप हो गया क्योंकि वचन योगके उच्चारण करनेमें असंख्यात समय व्यतीत होते हैं और वह गुण एक समय में प्रतिपादन किये गये हैं इस लिये घट अवक्तव्य है, अर्थात् वचन मात्रसे कहा नहीं जाता । यदि एक गुण कथन करके फिर द्वितीय गुण कथन करेंगे तो जिस समय हम अस्ति भावका वर्णन करेंगे वही समय उसी घटमें नास्ति भावका है, तो हमने विद्यमान भावको अविद्यमान सिद्ध किया जैसे जिस समय कोई पुरुष खड़ा है ऐसे हमने उच्चारण Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) किया तो वही समय उस पुरुषकी बैठनेकी क्रियाके निषेधका भी. है इस लिये यह अवक्तव्य धर्म है। इसी प्रकार अस्ति.अवक्तव्य रूप पंचम भंग भी घटमें सिद्ध है क्योंकि वे घट पर गुणकी अपेक्षा नास्तिरूप भी है इस लिये एक समयमें अस्ति अवक्तव्य धर्मवाला है। इसी प्रकार स्यात् नास्ति अवक्तव्यरूप षष्टम भंग भी एक समयकी अपेक्षा सिद्ध है । और स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्य रूप सप्तम भंग भी एक समयमें सिद्धरूप है किन्तु वचनगोचर नहीं है क्योंकि एक समयमें अस्ति नास्ति रूप. दोनों भाव विद्यमान हैं परंतु वचनसे अगोचर है अर्थात् कथन मात्र नहीं है ।। इसी प्रकार सर्व द्रव्य अनेकान्त मतमें माने गये हैं और नित्यअनित्य भी भंग इसी प्रकार वन जाते. है । यथा-१ स्यात् नित्य २ स्यात् आनित्य ३ स्यात् नित्यमनित्यम् ४. स्यात् अवक्तव्य ५ स्यात् नित्य अवक्तव्यम् ६ स्यात. अनित्य अवक्तव्यम् ७ स्यात् नित्यमनित्य युगपत् अवक्तव्यम् इत्यादि-।। इन पदार्थोंका पूर्ण स्वरूप जैन सूत्र वा जैन न्यायग्रंथोंसे देख लेवें । और संसारको भी जैन सूत्रोंमें सान्त और अनंतः निम्न प्रकारसे लिखा है । यदुक्तमागमे एवं खलु मए खंधया चविहे लोए पं. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) तंजहा दवयो खेत्तयो कालओ नावओो दवणंएगे लोय सांते खेत्तणं लोए - संखेज्जा योजोयण कोमा कोमीयो यायाम विक्खं नेणं असंखेजा खोजोयण कोमाकोमीओ परिखेवे पंत्थि पुसे ते काल लोया कयायिनासि न कदायि न भवति न कदायि न भविस्सति जुविसुय नवतिय विस्सति धुवेणितिय सासए अक्खए अवए अव डिए पिश्चे एत्थि पुसे अंते नावओो लोय - ता वरण पज्जवा गंध पज्जवा रस फास अत्ता पज्जवा संवाण पज्जवा अता गुरु लहुय पज्ज्वा अता अगुरु लहुय पज्जवा णत्थि पुणसे यं तं खंधगा दवतो लोगे सयंत १ खेत्ततो लोय सांते २ कालओ लोय ते ३ नावश्रो लोय ते ४ ॥ भगवती सू० श० १ उद्देश १ ॥ · Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थ:-श्री भगवान् वर्द्धमान स्वामी स्कंधक संन्यासीको लोगका स्वरूप निम्न प्रकारसे प्रतिपादन करते हैं कि हे स्कंधक ! द्रव्यसे लोक एक है इस लिये सान्त है १ । क्षेत्रसे लोक असंख्यात योजनोंका दीर्घ वा विस्तीर्ण है और असं. ख्यात योजनोंकी परिधिवाला है इस लीये क्षेत्रसे भी लोक सान्त है २ । कालसे लोग अनादि है अर्थात् किसी समयमें भी लोगका अभाव नहि था, अब नही है, नाही होगा अर्थात् उत्पत्ति रहिन है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है, किन्तु पंच भरत पंच ऐरवय क्षेत्रों में उत्सप्पिणि काल अवसाप्पिणि काल दो प्रकारका समय परिवर्तन होता रहता है और एक एक कालमें पद षट् समय होते हैं जिसमें पद् वृद्धिरूप पट हानीरूप होते हैं अपितु पदा. योका अभाव किसी भी समयमें नही होता, किन्तु किसी वस्तुकी वृद्धि किसीकी न्यूनता यह अवश्य ही दुआ करती है। इनका स्वरूप श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्तिसे जानना । अपितु कालसे लोग अ. नादि अनंत है क्योंकि जो लोग जीव प्रकृति ईश्वर यह तीनोंको अनादि मानते हैं और आकाशादिकी उत्पत्ति वा प्रलय सिद्ध करते हैं तो भला आधारके विना पदार्थ कैसे ठहर सकते हैं। इस लिये लोगके अनादि माननेमें कोई भी वाधा नही पड़ती Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९४) और भावसे लोकमें अनंत वर्गों की पर्याय अनंत ही गंध, रस, स्पर्शकी पर्यायें और अनंत ही संस्थानकी पर्याय, अनंत ही . गुरु लघु पयोय, अनंत ही अगुरु लधु पर्याय है इस वास्ते भावसे भी लोक अनंत हैं। सो द्रव्यसे लोक सान्त १ क्षेत्रसे भी सान्त २ कालसे लोक अनंत ३ भावसे भी लोक अनंत है ४॥ सो उक्त लोकमें अनंत आत्मायें स्थिति करते हैं और स्वः स्वः कर्मानुसार जन्म मरण मुख वा दुःख पा रहे हैं। अपितु लोक शब्द तीन प्रकारसे व्यवहत होता है जैसेकि-उर्च लोक १ तिर्यग् लोग २ अधोलोक ३ ॥ सो उर्ध्व लोकमें २६ स्वर्ग हैं, उपरि इषत् प्रभा पृथ्वी है और लोकाग्रमें सिद्ध भगवान् विरजमान है। और तिर्यग् लोकमें असंख्यात द्वीप समुद्र है और पाताल लोकमें सप्त नरक स्थान है वा भवनपत्यादि देव भी है किन्तु मोक्षके साधनके लिये केवल मनुष्य जाति ही है क्योंकि जांति शब्द पंच प्रकारसे ग्रहण किया गया है जैसेकि इकेंद्रिय शाति जिसके एक ही इंन्द्रिय हो जैसेकि पृथ्वीकाय १ आपकाय २ तेयुःकाय ३ वायुकाय ४ वनस्पतिकाय ५। इनके केवल एक स्पर्श ही इन्द्रिय होती है । और द्विइन्द्रिय जीव जैसेकि शीप शंखादि इनके केवल शरीर और जिहा यह दोई Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९५) इन्द्रियें होती हैं। और तेईन्द्रिय जाति कुंथु वा पिप्पलकादि इनके शरीर, मुख, घ्राण यह तीन इन्द्रिय होती हैं। और चतुरिन्द्रिय जातिके चार इन्द्रिय होती है जैसेकि-शरीर, मुख, घ्राण, चक्षु, मक्षिकादिये चतुरिंद्रिय जीव होते हैं। और पंचि.न्द्रिय जातिके पांच ही इन्द्रियें होती है जैसेकि शरीर, मुख, घ्राण, जीहा, चक्षु, श्रोत्र यह पांच ही इन्द्रिय नारकी, देव, मनुष्य, तिर्यचोंके होते हैं. जैसे जलचर, स्थलचर, खेचर अर्थात् जो संज्ञि होते हैं वे सर्व जीव पंचिंद्रिये होते हैं । अपितु मुक्तिके लिये केवल मनुष्य जाति ही कार्यसाधक है और कर्मानुसार ही मनुष्योंका वर्णभेद माना जाता है, यदुक्तमागमेकम्मुणा बनणो होइ कम्मुणा होश खत्तियो । वइस्सो कम्मुणा होश सुदो हवश् कम्मुणा ॥ उत्तराध्यायन सूत्र अ० २५ ॥ गाथा ३३ ॥ भाषार्थ:-ब्रह्मचर्यादि व्रतोंके धारण करनेसे ब्राह्मण होता है, और प्रजाकी न्यायसे रक्षा करनेसे क्षत्रिय वर्णयुक्त हो जाता है, व्यापारादि क्रियाओं द्वारा वैश्य होता है, सेवादि क्रियाओंके करनेसे शूद्र हो जाता है, अपितु कर्मसे ब्राह्मण १ . १. संज्ञि जीव मनवालोंका नाम हैं तथा जो गर्भसे उत्पन्न हों। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९६) कर्मसे क्षत्रिय २ कर्मसे वैश्य ३ कर्मसे शूद्र ४ जीव हो जाता • है। किन्तु मनुष्य जाति एक ही है, क्रियाभेद होनेसे वर्णभेद हो जाते हैं । सर्व योनियों में मनुष्य भव परम श्रेष्ठ है जिसमें सत्यासत्यका भली भांतिसे ज्ञान हो सकता है और सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रके द्वारा मुक्तिका कार्य सिद्ध कर सक्ता है। किन्तु सम्यग् ज्ञानके पंच भेद वर्णन किये गये हैं जैसेकिमतिज्ञान १ श्रुत ज्ञान २ अवधि ज्ञान ३ मनापर्यव ज्ञान ४ केवल ज्ञान ५, अपितु मति ज्ञानके चतुर भेद हैं जैसेकिअवग्रह १ ईहा ३ अवाय ३ धारणा ४॥ (१) इन्द्रिय और अर्थकी योग्य क्षेत्रमें प्राप्ति होने पर उत्पन्न होनेवाले महा सत्ता विषयक दर्शनके अनन्तर अवान्तर सत्ता जातिसे युक्त वस्तुको ग्रहण करनेवाला ज्ञानविशेष अग्रवह कहलाता है ।। (२) अवग्रहके द्वारा जाने हुए पदार्थमें होनेवाले संशयको दूर करनेवाले ज्ञानको ईहा कहते हैं, जैसेकि अवग्रहसे निश्चित पुरुष रूप अर्थमें इस प्रकार संशय होने पर कि "यह पुरुष दाक्षिणात्य है अथवा औदीच्य ( उत्तरमें रहनेवाला)" इस संशयके दूर करनेके लिये उत्पन्न होनेवाले ' यह दाक्षिणात्य होना चाहिये । इस प्रकारके ज्ञानको ईहा कहते हैं ॥ (३) भाषा आदिकका विशेष ज्ञान होने पर उसके यथार्थ स्वरूपको Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) पूर्व ज्ञान ( ईहा ) की अपेक्षा विशेष रूपसे दृढ़ करनेवाले ज्ञानको अवाय कहते हैं जैसे कि " यह दाक्षिणात्य ही है " इस प्रकारका ज्ञान होना ॥ ( ४ ) उसी पदार्थका इस योग्यता से ( दृढ़ रूपसे ) ज्ञान होना कि जिससे कालान्तर में भी उस विषयका विस्मरण न हो उसको धारणा कहते हैं । अर्थात् जिसके निमित्तसे उत्तर कालमें भी "वह" ऐसा स्मरण हो सके उसको धारणा कहते हैं | और मतिज्ञानसे ही चार प्रकारकी बुद्धि उत्पन्न होती है, जैसेकि उत्पत्तिया १ चिणइया २ कम्मिया ३ परिणामिया ४ ॥ उत्पत्तिया बुद्धि उसका नाम है जो वार्त्ता कभी सुनी न हो और नाही कभी उसका अनुभव भी किया हो, परंतु प्रश्नोत्तर करते समय वह वार्त्ता शीघ्र ही उत्पन्न हो जाये और अन्य पुरुषोंको उस वार्त्तामें शंकाका स्थान भी प्राप्त न होवे ऐसी बुद्धिका नाम उत्पत्तिका है | और जो विनय करनेसे बुद्धि उत्पन्न हो उसका नाम विनायका है २ । अपितु जो कर्म करने से प्रतिभा उत्पन्न होवे और वह पुरुष कार्यमें कौशल्यताको शीघ्र ही प्राप्त हो जावे उसका नाम कर्मिका बुद्धि है ३ | जो अवस्थाके परिवर्त्तन से बुद्धिका भी परिवर्तन हो जाता है जैसे बालावस्था युवावस्था वृद्धावस्थाओंका अनुक्रमता से परिवर्तन होता है उसी प्रकार बुद्धिका भी परिवर्तन हो Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) जाता है क्योंकि इन्द्रिय निर्बल होनेपर इन्द्रियनन्य ज्ञान भी प्रायः परिवर्तन हो जाता है, अपितु ऐसे न ज्ञात कर लिजीये .इन्द्रिये शून्य होनेपर ज्ञान भी शून्य हो जायगा । आत्मा ज्ञान एक ही है किन्तु कोंसे शरीरकी दशा परिवर्तन होती है, साथ ही ज्ञानावर्णी आदि कर्म भी परिवर्तन होते रहते हैं परंतु यह वातों मतिज्ञानादि अपेक्षा ही है न तु केवलज्ञान अपेक्षा । सो इसकी परिणामिका बुद्धि कहते हैं ४ । सो यह सर्व बुद्धिये मतिज्ञानके निर्मल होनेपर ही प्रगट होती हैं, किन्तु सम्यग् दृष्टि जीवोंकी सम्यग् बुद्धि होती है मिथ्यादृष्टि जीवोंकी बुद्धि भी मिथ्यारूप ही होती है अर्थात् सम्यग् दीको मतिज्ञान होता है मिथ्यादीको मलिअज्ञान होता है, इसका नाम मतिज्ञान है।। __और श्रुतज्ञानके चतुर्दश भेद हैं जैसेकि-अक्षरश्रुत १,अनक्षरश्रुत २, संज्ञिश्रुत ३, असंज्ञिश्रुत ४, सम्यग्श्रुत ६, मिथ्यात्व श्रुत ६, सादिश्रुत ७, अनादिश्रुत ८, सान्तश्रुत (सपर्यवसानश्नुत) ९., अनंतश्रुन १०, गमिकश्रुत ११, अगमिकश्रुत १२, अंगमविष्टश्रुत १३, अनंगप्रविष्टश्रुत १४ ॥ भाषार्थ:--अक्षरश्रुत उसका नाम है जो अक्षरोंके द्वारा सुनकर ज्ञान प्राप्त हो, उसका नाम अक्षरश्रुत है । (२) अनक्षर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९९) श्रुत उसका नाम है जो शब्द सुनकर पदार्थका ज्ञान तो पूर्ण हो जाये अपितु वह शब्द उस भांति लिखने में न आवे जैसे छीक, मोरका शब्द इत्यादि ॥ (३) संज्ञिश्रुत उसे कहते हैं जिसको फालिक उपदेश (सुनके विचारनेकी शक्ति ) हितोपदेश (सुनकर धारणेकी शक्ति) दृष्टिवादोपदेश (क्षयोपशम भावसे वस्तुके जाननेकी शक्तिका होना तथा क्षयोपशम भावसे संज्ञि भावका प्राप्त होना) यह तीन ही प्रकार शक्ति प्राप्त हो उसका नाम संजिश्रुत है । (४)असंज्ञिश्रुत उसका नाम है जिन आत्माओंमें कालिक उपदेश और हितोपदेश नहीं है केवल दृष्टिवादोपदेश ही है अर्थात् क्षयोपशमके प्रभावसे असंज्ञि भावको ही प्राप्त हो रहे हैं । (५) सम्यग्श्रुत-जो द्वादशाङ्ग सूत्र सर्वज्ञ प्रणीत हैं अथवा आप्त प्रणीत जो वाणी है वे सर्व सम्पगश्रुत है ।। (६) मिथ्यात्वश्रुत-जो सम्पग् ज्ञान सम्यग् दर्शन सम्पग् चारित्रसे वर्जित ग्रंथ हैं जिनमें पदार्थोंका यथावत् वर्णन नहीं किया गया है और अनाप्त प्रणीत होनेसे वे ग्रंथ मिथ्यात्वचत हैं। (७) सादिश्रुत उसको कहते हैं जिस समय कोई पुरुप श्रत अध्ययन करने लगे उस कालकी अपेक्षा वे सादिश्रुत है । क्षेत्रकी अपेक्षासे पंच भरत पंच ऐरवत क्षेत्रोंमे द्वादशांग सादि हैं, तीर्थकरोका विरह आदिका होना कालसे उत्सप्पिणि अवसप्पिणिका Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) वर्तना इस अपेक्षासे भी सादिश्रुत है भावसे अर्हन्के मुखसे पदार्थोंका श्रवण करना वे भी एक अपेक्षा सादिश्रुत है ।। (८) अनादिश्रुत उसका नाम है जो द्रव्यसें बहुतसे पुरुष परंपरागत श्रत पढ़ते आये हैं। क्षेत्रसे द्वादशाहारूप श्रुत महाविदेहों में अनादि हैं क्योंकि महाविदेहोंमें तीर्थंकरोंका अभाव नहीं होता और द्वादशाङ्गरूप श्रुत व्यवच्छेद नही होते । कालसे जहांपर उत्सपिणि आदि कालचक्रोका वर्तना नहीं है वहां भी अना. दिश्रुत है जैसे महाविदेहोमें ही। भावसे क्षयोपशम भावकी अपेक्षा अनादिश्रुत है अर्थात् क्षयोपशम भाव सदैवकाल जीवके साथ ही रहता है (चेतनगुण) ॥ (९) सान्तश्रुत पूर्ववत् ही जान लेना जैसे एक पुरुषने श्रुताध्ययन आरंभ किया, जब वे श्रुत अध्ययन कर चुका तब वे सान्तश्रुत होगया ? क्षेत्रसे पंचभरतादि सान्तश्रुत है २ कालसे उत्साप्पिणी आदि कालसे भी सान्तश्रुत है ३ भावसे जो अर्हन् भगवान्के मुखसे श्रुत प्रतिपादन किया हुआ है वे व्यवच्छेदादि अपेक्षा सान्तश्रुत है ४ ॥ (१०) अनंत श्रुत-द्रव्यसे बहुतसे आत्मा श्रुत पढ़ेथे वा पढ़ेगे । अनादि अनंत संसार होनेसे श्रुत भी अपर्यवसान है १ क्षेत्रसे ५ महाविदेहोंकी अपेक्षासे भी श्रुत अपर्यवसान ही है २ कालसे उत्सार्पिणि आदिके न होनेसे अनंत है ३ भावसे क्षयोपशम भावकी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१) अपेक्षा श्रुत अनंत ही है क्योंकि क्षयोपशम भाव आत्मगुण है इस लिये श्रुत भी अपर्यवसान है ४ ॥ (११) गमिकश्रुत दृष्टिवाद है। (१२) अगमिकश्रुत आचारांगादि श्रुत हैं । (१३) अंगप्रविष्टश्रुत द्वादशाङ्ग सूत्र हैं ।। (१४) अनंगप्रविष्ट श्रुत अंगोंसे व्यतिरिक्त आवश्यकादि सूत्र है। इनका पूर्ण वृत्तान्त नंदी आदि सिद्धान्तों से जानना ॥ अवधि ज्ञानका यह लक्षण है कि जो प्रमाणवर्ती पदार्थोंको देखता है वा जो रूपि द्रव्य है उनके देखनेकी शक्ति रखता है जिसके सूत्रमें पद भेद वर्णन किये गये हैं जैसेकि आनुगामिक ( सदैव काल ही जीवके साथ रहनेवाले ) अनानुगामिक (जिस स्थानपे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है यदि वहां ही बैठा रहें तो जो इच्छा हो वही ज्ञानमें देख सक्ता है, जब वे ऊठ गया फिर कुछ नही देखता ) द्धिमान (जो दिनप्रतिदिन वृद्धि होता है ) हायमान (जो हीन होनेवाला है ) प्रतिपाति (जो होकर चला जाता है) अप्रतिपाति ( जो होकर नहीं जाता है) यह भेद अवधिज्ञानके हैं । और मनःपर्यवज्ञान उ. सफा नाम है जो मनकी पर्यायका भी ज्ञाता हो। इसके दो भेद है जैसेकि-ऋजुमति अर्थात् सार्द्ध द्वीपमें जो संज्ञि पंचिंद्रिय जीव Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) हैं सार्द्ध द्वि अंगुल न्यून प्रमाण क्षेत्रवर्त्ती उन जीवोंके मनके पर्यायोंका ज्ञाता होना उसका ही नाम ऋजुमति है । औरं विपुलमति उसे कहते हैं जो समय क्षेत्र प्रमाण ही उन जीवोंके पर्यायोंका ज्ञाता होना उसका ही नाम विपुलमति है; और केवलज्ञानका एक ही भेद है क्योंकि वे सर्वज्ञ सर्वदशीं है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे सब कुछ जानता है और सब कुछ ही देखता है, उसका ही नाम केवलज्ञान है | किन्तु यह सम्यग्दशको ही होते हैं अपितु मिथ्यादर्शीको तीन अज्ञान होते हैं जैसेकि - मतिअज्ञान १ श्रुतअज्ञान २ विभंगज्ञान ३। ज्ञानसे जो विपरीत होवे उसका ही नाम अज्ञान है | और सम्यग्दर्शन भी द्वि प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है जैसेकि - वीतराग सम्यग्दर्शन १ और छंझस्थ सम्यग्दर्शनं २ । अपितु दर्शनके अंतरगत ही दश मकारकी रुचि हैं जिनका वर्णन निम्न प्रकार से है || जीवाजीवके पूर्ण स्वरूपको जानकर आस्रवके मार्गों का वेत्ता होना, जो कुछ अर्हन् भगवान्‌ने स्वज्ञानमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे पदार्थों के स्वरूपको देखा है वे कदापि अन्यथा नही है ऐसी जिसकी श्रद्धा है उसका ही नाम निसर्गरुचि है १ ॥ जिसने उक्त स्वरूप गुर्वादिके उपदेशद्वारा ग्रहण किया हो उसका ! Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३.) ही नाम उपदेशरुचि है २॥ फिर जिसका राग द्वेष मोह अज्ञान अवगतं हो गया हो उस आत्माको आज्ञारुचि हो जाती है ३॥ जिसको अंगसूत्रों वा अनंगसूत्रोंके पठन करनेसे सम्यक्त्व रत्न उपलब्ध होवे उसको सूत्ररुचि होती है अर्थात सूत्रोंके पठन करनेसे जो सम्यक्त्व रल प्राप्त हो जावे उसका ही नाम सूत्ररुचि है ४ ॥ एक पदसे जिसको अनेक पदोंका बोध हो जावे और सम्यक्त्व करके संयुक्त होवे पुन: जलमें तैलबिंदुवत् जिसकी बुद्धिका विस्तार है उसका ही नाम बीजरुचि है ५॥ जिसने श्रुतज्ञानको अंग सूत्रोंसे वा भकीणोंसे अथवा दृष्टिवादके अध्ययन करनेसे भली भांति जान लिया है अर्थात् श्रुतज्ञानके पूर्ण आशयको प्राप्त हो गया है तिसका नाम अभिगम्यरुचि है ६ ॥ फिर सर्व द्रव्योंके जो भाव हैं वह सर्व प्रमाणों द्वारा उपलब्ध हो गये हैं और सर्व नयों के मार्ग भी जिसने जान लिये हैं उसका ही नाम विस्ताररुचे है ७ ॥ और ज्ञान दर्शन चारित्र तप विनय संत्य सामित गुप्तिमें जिसकी आत्मा स्थित है सदाचारमें मग्न है उसका ही नाम क्रियारूचि है ८॥ जिसने परमतकी श्रद्धा नही ग्रहण की अपितु जिन शास्त्रों में भी विशारद नहीं हैं किन्तु भद्रपरिणामयुक्त ऐसे जीवको संक्षेपरुचि होती है ९ ॥ पट् द्रव्योंका स्वरूप जिसने भलिभां श्रुत ॥ फिर और सर्वन और ज्ञान Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४ ) तिसे जान लिया है और श्रुतधर्म चारित्रधर्ममें जिसकी पूर्ण निष्टा है जो कुछ अर्हन् देवने पदार्थों का वर्णन किया है वे सर्व यथार्थ हैं ऐसी जिसकी श्रद्धा है उसका ही नाम धर्मरुचि है १० ॥ और परमार्थको सेवन करना, फिर जो परमार्थी जन है उन्हीकी सेवा सुश्रुषा करके ज्ञान प्राप्त करना और कुदर्शनोंकी संगत वा जिन्होंने सम्यक्त्वको परित्यक्त कर दिया है उनका संसर्ग न करना यह सम्यक्त्वका श्रद्धान है अर्थात सम्यक्त्व. का यही लक्षण है । सो सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्चारित्र अवश्य ही धारण करना चाहिये ।। द्वितीय सर्ग समाप्त। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५) ॥ तृतीय सर्गः॥ . ॥ अथ चारित्र वर्णन ॥ आत्माको पवित्र करनेवाला, कर्ममलके दूर करनेके लिये क्षारवत, मुक्तिरूपि मंदिरके आरूढ़ होनेके लिये नि:श्रोणि समान, आभूषणोंके तुल्य आत्माको अलंकृत करनेवाला, पापककाँके निरोध करनेके वास्ते अर्गल, निर्मल जल सदृश्य जीवको शीतल करनेवाला, नेत्रोंके समान मुक्तिमार्गके पथमें आधारभूत, समस्त प्राणी मात्रका हितैषी श्री अर्हन् देवका प्रतिपादन किया हुआ तृतीय रत्न सम्यगू चारित्र है। मित्रवरो! यह रत्न जीवको अक्षय सुखकी प्राप्तिकर देता है । इसके आधारसे पाणी अपना कल्याण कर लेते हैं सो भगवान्ने उक्त चारित्र मुनियों वा गृहस्थों दोनोंके लिये अत्युपयोगी प्रतिपादन किया है। मुनि धर्ममें चारित्रको सर्वत्ति माना गया है गृहस्थ धर्ममें देशतिके नामसे प्रतिपादन किया है। सो मुनियों के मुख्य पांच महाव्रत है जिनका स्वरूप किंचित् मात्र निम्न प्रकारसे लिखा जाता है, जैसेकि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) (१) सबाज पाणावायाचं वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे प्राणातिपातसे नित्ति करना अर्थात् स. र्वथा प्रकारसे जीवहिंसा निवर्त्तना जैसेकि मनसे १ वचनसे २ कायासे ३, करणेसे १ करानेसे २ अनुमोदनसे ३ क्योंकि यह अहिंसा व्रत प्राणी मात्रका हितैषी है और दया सर्व जीवोंको शान्ति देनेवाली है। फिर दया तप और संयमका मूल है, सत्य और ऋजु भावको उत्पन्न करनेवाली है, दुर्गतिके दुःखोंसे जीवकी रक्षा करनेवाली है अपितु इतना ही नही कितु कर्मरूपि रज जो है, उससे भी आत्माको विमुक्ति कर देती है, शत स. हस्रों दुःखोंसे आत्माको यह दया विमोचन करती है, महर्षियों करके सेवित है, स्वर्ग और मोक्षके पथकी दया दर्शक है, ऋधि, सिद्धि, शान्ति, मुक्ति इनके दया देनेवाली है।। पुनःप्रा. णियोंको दया आधारभूत है जैसे क्षुधातुरको भोजनका आधार है, पिपासेको जलका, समुद्रमें पोतका, रोगीको ओषधिका; भयभीतको शूरमेका आधार होता है । इसी प्रकार सर्व माणियोंको दयाका आधार है, फिर सर्व प्राणि अभयदानकी प्रार्थना करते रहते हैं, जो सुख है वे सर्व दयासे ही उपलब्ध होते हैं। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) यथा मातेव सर्वभूतानां अहिंसा हितकारिणी। अहिंसैव हि संसारमरांवमृतसारणिः॥१॥ अहिंसा दुःखदावामि प्रावषेण्य घनावली । भवभ्रमिरुंगाच नाम हिंसा परमौषधी ॥२॥ दीर्घमायुः परंरूपमारोग्यं श्लाघनीयतां । अहिंसा याः फलं सर्व किमन्यत्कामदैवसा ॥ ३ ॥ भाषार्थ:-सज्जनों ! अहिंसा माताके समान सर्व जीवास हित करनेवाली है और अमृतके समान आत्माको तृप्ति देनेवाली है और जो संसारमें दुःखरूपि दावाग्नि प्रचंड हो रही है उसके उपशम करने वास्ते मेघमालाके समान है। फिर जो भवभ्रमणरूपि महान् रोग है उसके लिये यह अहिंसा परमौषधी है तथा मित्रो ! जो दीर्घ आयु, नीरोग शरीर, यशका माप्त होना सौम्यभावका रहना अर्थात् जितने संसारी सुख हैं वे सर्व अहिंसाके ही द्वारा प्राप्त होते हैं। इस वास्ते सर्वज्ञ सर्वदर्शी अर्हन् भगवान्ने मुनियोंके लिये प्रथम व्रत अहिंसा ही वर्णन किया है, सो सर्व वृत्तिवाला जीव सर्वथा प्रकारसे हिंसाका परित्याग करे इसका नाम अहिंसा महावत है ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) (१) सवाउ मुसावायाउ वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे मृपावादसे निति करना जैसेकि आप असत्य भाषण न करे औरोंसे न करावे असत्य भाषण करता. ओंका अनुमोदन भी न करे, मन करके, वचन करके, काया करके, क्योंकि असत्य भाषण करनेसे विश्वासताका नाश हो जाता है और असत्य वचन जीवोंकी लघुता करनेवाला होता है, अधोगतिमें पहोंचा देता है, वैरै विरोधके करनेवाला है तथा कौनसे कष्ट हैं जिसका असत्यवादीको सामना नहीं करना पड़ता। इस लिये सत्य ही सेवन योग्य है । सत्यके ही महात्म्यसे सर्व विद्या सिद्ध हो जाती हैं ।। तप नियम संयम व्रतोंका सत्य मूल हैं परमश्रेष्ठ पुरुषोंका धर्म है, सुगति के पथका दर्शक है, लोगमें उत्तम व्रत है। सत्यवादीको कोई भी पराभव नहीं कर सक्ता, यथार्थ अर्थोंका ही सत्यवादी प्रतिपादक होता है और सत्य आत्मामें प्रकाश करता है, परिणामोंके विषवादको हरण करनेवाला है और अनेक विकट कष्टोंसे जीवकों विमुक्त करके मुखके मार्गमें स्थापन करता है तथा देव सदृश शक्तिये दिखानेमें भी सत्यवादी समर्थ हो जाता है । और लोगों सारभूत है । सर्व विद्या सत्यमें निवास करती Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०९) हैं और सत्यके द्वारा ही पदार्थोंका निर्णय ठीक हो जाता है। अ. पितु सत्य द्रव्य गुण पर्यायों करके युक्त होना चाहिये । पूर्वपट् द्रव्यों का स्वरूप वा सत्य असत्य नित्यानित्य स्यादस्ति नास्ति आदि पदार्थों का स्वरूप लिखा गया है उनके अनुसार भाषण करे तो भाव सत्य होता है, अन्यत्र द्रव्य सत्य है, सो महात्मा भाव सत्य वा द्रव्य सत्य अर्थात् सर्वथा प्रकारे ही सत्य भाषण करे यही महात्माओंका द्वितीय महावत है ।। (३) सबाउ अदिन्नादाणा वेरमणं ॥ तृतीय महाव्रत चौर्य कर्मका तीन करणों तीन योगोंसे परित्याग करना है जैसेकि आप चोरी करे नही (विना दीए लेना), औरोंसे करावे नही, चौर्यकर्म करताओंका अनुमोदन भी न करे, मन करके वचन करके काया करके, क्योंकि इस महावतके धारण करनेवालोंको सदैव काल शान्ति, तृष्णाका निरोध, संतोप, आत्मज्ञान निरासव पदार्थो गतिकी इन पदार्थों का भलिभान्तिसे वोध हो जाता है। और जो चौर्य कर्म करनेवालोंकी दशा होती है जैसेकि अंगोका छेदन वध दोभाग्य दीनदशा निर्लज्जता असंतोप परवस्तुओंको देखकर मनमें कलुपित भावोंका होना दोनों लोगों में दुःखोंका भोगना अविश्वासपात्र वनना Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) सज्जनों करके धिक्कारपात्र होना अनंत काँकी प्रकृतिको एकत्र करना संसारचक्रमें परिभ्रमण करना कारागृहोंमें विहार अनेक दुर्वचनोंका सहन करना शस्त्रोंके सन्मुख होना इत्यादि कष्टोंसे जीव विमुक्त होते हैं जो तृतीय महाव्रतको धारण करते हैं, क्योंकि योगशास्त्रमें लिखा है कि वरं वन्हिशिखा पीता सपोस्य चुम्बितं वरम् । वरं हालाहलं लीढं परस्य हरणं न तु ॥ १ ॥ अर्थात् अग्निकी शिखाका पान करना, सर्पके मुखका स्पर्श, पुनः विषका भक्षण सुंदर है किन्तु परद्रव्यको हरण करना सुंदर नही है क्योंकि इन क्रियाओंसे एकवार ही मृत्यु. होती है आपितु चौर्यकर्म अनंतकाल पर्यन्त जीवको दुःखी करता है, इस लिये सर्व दुःखोंसे छुटनेके लिये मुनि तृतीय महाव्रत धारण करे ।। (४) सवाज मेहुणाउ वेरमणं ॥ ___ सर्वथा मैथुनका परित्याग करे तीन करणों तीन ही योगोंसे, क्योंकि यह मैथुन कर्म तप संयम ब्रह्मचर्य इनको विघ्न करनेवाला है, चारित्ररूपी ग्रहको भेदन करनेवाला है, प्रमादोंका मूल है, वालपुरुषोंको आनंदित करनेवाला है, सज्जनों करके परित्यागनीय है और शीघ्र ही जराके देनेवाला है, क्योंकि का Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११ ) मीको वृद्ध अवस्था भी शीघ्र ही घेर लेती है; मृत्युका मूल है कामी जन शीघ्र ही मृत्युके मुखमें प्राप्त हो जाते हैं तथा कामियोंकी संतति भी (संतान) शीघ्र ही नाश हो जाती है, क्योंकि जिनके मातापिता ब्रह्मचर्य से पतित हुए गर्भाधान संस्कार में प्रवृत्त होते है वे अपने पुत्रोंके प्रायः जन्म संसार के साथ ही मृत्यु संस्कार भी कर देते हैं तथा यदि मृत्यु संस्कार न हुआ तो वे पुत्र शक्तिहीन दौर्भाग्य मुख कान्ति- हीन आलस्य करके युक्त दुष्ट कमोंमें विशेष करके मतृतमान होते हैं । यह सर्व मैथुनकर्मके ही महात्म्य है तथा इस कर्मके द्वारा विशेष रोगोंकी प्राप्ति होती है जैसेकि राजयक्ष्मादि रोग हैं वे अतीव विषयसे ही प्रादुरसुत होते हैं और कास श्वास ज्वर नेत्रपीडा कर्णपीडा हृदयशूल निर्वलता अजीर्णता इत्यादि रोगों द्वारा इस परम पवित्र शरीर विषयी लोग नाश कर बैठते हैं । कइयोंको तो इसकी कृपा से अंग छेदनादि कर्म भी करने पड़ते हैं । पुनः यह कर्म लोग निंदनीय वध बंधका मूल है परम अधर्म है चित्तको भ्रममें करनेवाला है दर्शन चारित्ररूप घरको ताला लगानेवाला है बैरके करनेवाला है अपमानके देनेवाला है दुर्नामके स्थापन करनेवाला है । अपितु इस कामरूपि जलसे आजपर्यन्त इन्द्र, देव, चक्रवर्ती वासु Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२ ) देव राजे महाराजे शेठ सेनापति जिनको पूर्ण सामान मिळे हुए थे वे भी तृप्तिको प्राप्त न हुए और उन्होंने इसके वशमें होकर अनेक कष्टाको भोगन सहन किया । कतिपय जनोंने तो इसके वश होकर प्राण भी दे दिये । हा कैसा यह कर्म दुःखदायक है और शोकका स्थान है क्योंकि विषयीके चित्तमें सदा ही शोकका निवास रहता है, इसलिये इन कसे विमुक्त होनेका मार्ग एक ब्रह्मचर्य ही है। ब्रह्मचर्य से ही उत्तम तप नियम ज्ञान दर्शन चारित्र समस्त विनयादि पदार्थों प्राप्त होते हैं। और यमनियमकी वृद्धि करनेवाला है, साधुजनों करके आसेवित है, मुक्तिमार्गके पथको विशुद्ध करनेहारा है और मोक्षके अक्षय सुखोंका दाता है, शरीरकी कांति सौम्यता प्रगट करनेवाला है, यतियों करके सुरक्षित है, महापुरिसों करके आचरित है, भव्य जनोंके अनुमत है, शान्तिके देनेवाला है, पंचमहाव्रतोंका मूल है, समित गुप्तियोंका रक्षक है, संयमरूपि घरके कपाट तुल्य है, मुक्तिके सोपान है, दुर्गतिके मार्गको निरोध करनेवाला है, लोगमें उत्तम व्रत है, जैसे तड़ागकी रक्षा करनेवाली वा तड़ागको सुशोभित करनेवाली सोपान होती है, इसी प्रकार संयमकी रक्षा करनेवाला ब्रह्मचर्य है तथा जैसे शकटके चक्रकी तूंवी होती है, महानगरकी रक्षाके लिये Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) 'कपाट होते हैं तथावत् ब्रह्मचर्य आत्मज्ञानकी रक्षा करनेवाला है। अपितु जिस प्रकार शिरके छेदन हो जानेपर कटि भूजादि अवयव कार्यसाधक नहीं हो सक्ते इसी प्रकार ब्रह्मचर्यके भन्न होनेपर और व्रत भी भग्न हो जाते हैं। फिर ब्रह्मचर्य सर्व गुणोंको उत्पादन करता है। अन्य व्रतोंको इसी प्रकारसे सुशोभित करता है जैसे तारोंको चन्द्र आभूषणोंको मुकुट वस्त्रोंको कपासका वस्त्र पुष्पोंको अरविंद पुष्प वृक्षोको चं. दन सभाओंको स्वधर्मीसभा दानोंको अभयदान ज्ञानोंको केवलज्ञान मुनियोंको तीर्थकर वनोंको नंदनवन । जैसे यह वस्तुयें अन्य वस्तुयोंको सुशोभित करती है इसी प्रकार अन्य नियमोंको ब्रह्मचर्य भी सुशोभित करता है क्योंकि एक ब्रह्मचर्यके पूर्ण आसेवन करनेसे अन्य नियम भी सुखपूर्वक सेवन किए जासक्ते हैं। फिर जिसने इसको धारण किया वे ही ब्राह्मण है मुनि है ऋषि है साधु है भिक्षु है और इसीके द्वाग सर्व प्रकारकी मु. खोंकी माप्ति है। यथा प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रह्मक कारणम् ॥ समाचरन् ब्रह्मचर्यं पूजितैरपि पूज्यते ॥ १॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) वृत्ति - प्राणभूतं जीवितभूतं चरित्रस्य देशचारित्रस्य सर्वचारित्रस्य च परब्रह्मणो मोक्षस्य एकमद्वितीयं कारणं समाचरन् पालयन् ब्रह्मचर्यं जितेन्द्रियस्योपस्थनिरोधलक्षणं पूजितैरवि सुरासुरमनुजेन्द्रैः न केवलमन्यैः पूज्यते मनोवाक्कायोपचारपूजाभिः ॥ भाषार्थः - यह ब्रह्मचर्य व्रत चारित्रका जीवितभूत है, मोक्षका कारण है, जितेन्द्रियता इसका लक्षण है, देवों करके पूज्यनीय है || चिरायुः सुसंस्थाना दृढं संहनना नरा ॥ तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥ २ ॥ वृत्ति - चिरायुषो दीर्घायुपोऽनुत्तरमुरादिपूत्पादात् शोभनं संस्थानं समचतुरस्रलक्षणं येषां ते सुसंस्थानाः अनुत्तरसुरादिधूत्पादादेव दृढं वलवत् संहनमस्थिसंचयरूपं वज्रऋपभनाराचाख्यं येषां ते दृढसंहननाः एतच्च मनुजभवेत्पद्यमानानां देवेषु संहननाभावात् तेजः शरीरकान्तिः प्रभावो वा विद्यते येषां ते तेजस्विनः महावीर्या वळवत्तमाः तीर्थंकर चक्रवत्र्त्यादित्वेनोत्पादात् भवेयुर्जायेरन ब्रह्मचर्यतो ब्रह्मचर्यानुभावात् ॥ भाषार्थः - दीर्घ आयु सुसंस्थान दृढ संहनन ( पूर्ण शक्ति ) शरीरकी कान्ति महा पराक्रम यह सर्व ब्रह्मचर्य धारण ही Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५) होते हैं, तथा जो इस पवित्र ब्रह्मचर्य रत्नको भीतिपूर्वक आ. सेवन नहीं करते हैं तथा इससे पराङ्मुख रहते हैं, उनकी नि.. प्रकारसे गति होती है। यथाकम्पः स्वेदः श्रमो मूर्छा, भ्रमिग्लानिर्वलक्षयः ॥ राजयक्ष्मादि रोगाश्च, भवेयुमथुनोत्थिताः ॥१॥ अर्थ:-कम्प स्वेर्दै (पसीना ) थकावट मूछो भ्रा ग्लानि वलका क्षय राजयक्ष्मादि रोग यह सर्व मैथुनी पुरुषोंको ही उत्पन्न होते हैं, इस लिये सत्य विद्याके ग्रहण करनेके लिये आत्मतत्त्वको प्रगट करनेके वास्ते और समाधिकी इच्छा रखतो हुआ इस ब्रह्मचर्य महाव्रतको धारण करे यही मुनियों का चतुर्थे महावत है, और सर्व प्रकारके सुख देनेवाला है ।। सबाउ परिग्गदाज वेरमणं ॥ सर्वथा प्रकारसे परिग्रहसे नित्ति करना तीन करणों तीन योगोंसे वही पंचम महावत है, क्योंकि इस परिग्रहके ही प्रतापसे आत्मा सदैवकाल दुःखित शोकाकुल रहता है, और संसारचक्रमें नाना प्रकारकी पीड़ाओंको प्राप्त होता है । पुनः Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) 1 • इसके वशवर्तियोंको किसी प्रकारकी भी शान्ति नही रहती अपितु क्लेशभाव, वैरभाव, ईर्ष्या, मत्सरता इत्यादि अवगुण धनसे ही उत्पन्न होते हैं और चित्तको दाह उत्पन्न करता है । प्रत्युतः कोई २ तो इसके वियोग से मृत्यु के मुखमें जा बैठते हैं और असह्य दु:खको सहन करते हैं और जितने सम्वन्धि हैं वे भी इसके वियोग से पराङ्मुख हो जाते हैं, और इसके ही महात्म्यसे मित्रोंसे शत्रुरूप बन जाते हैं, तथा जितने पापकर्म हैं वे भी इस धनके एकत्र करनेके लिये किये जा रहे हैं । धनसे पतित हुए प्राणि दुष्टकर्मों में जा लगते हैं । फिर यह परिग्रह रागद्वेष करनेवाला है, क्रोध मान माया लोभकी तो यह वृद्धि करता ही रहता है, धर्म से भी जीवों को पाराङ्मुख रखता है । और धनके लालचियोंके मनमें दयाका भी प्रायः अभाव रहता है, क्योंकि न्याय वा अन्याय धनके संचय करनेवाले नही देखते हैं, वह तो केवल धनका ही संचय करना जानते हैं, और इसके लिये अनेक कष्टों को सहन करते हैं । किन्तु इस धनकी यह गति है कि यह किसीके भी पास स्थिर नही रहता । चोर इसको लूट के जाते हैं, राजे लोग छीन लेते हैं, अग्नि और जलके द्वारा भी इसका नाश हो जाता है, सम्ब न्धि वांट लेते हैं तथा व्यापारादि क्रियायोंमें भी विना इच्छा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७) इसकी हानी हो जाती है अर्थात् लाभकी इच्छा करता हुआ व्यय हो जाता है, और इसके वास्ते दीन वचन बोलते हैं, नीचौकी सेवा की जाती है अर्थात्- ऐसा कौनसा दुःख है जो परिग्रहकी आशावानको नहीं प्राप्त होता ?.चित्तके संक्लेष मनकी पीड़ाओंको भी येही उत्पन्न करता है, इसलिये सूत्रोंमें लिखा है: कि (मुच्छा. परिग्गहो वुतो) मूच्छीका नाम ही परिग्रह है। सो मुनि किसी भी पदार्य पर ममत्व भाव न करे और शुद्ध भावोंके साथ पंचम महाव्रतको धारण करे, और अपरिग्रह होकर पापोंसे मुक्त होवे, माण मोती आदि पदार्थोंको वा तृणादिको समं ज्ञात करे और मान अपमा. नको भी सम्यक् प्रकारसे सहन करे, सर्व जीवोंमें समभाव रक्खें, अपितु सर्व जीवोंका हितैषी होता हुआ संसारसे विमुक्त होवे । और अष्ट प्रकारके काँके क्षय करनेमें कुशल जिसके मन घचन काया गुप्त है, मुख दुःखमें हर्ष विषवाद रहित है, शान्ति करके युक्त है, वा दान्त है, जिसको शंखकी नांइ राग द्वेष रूपि रंग अपना फल प्रगट नही कर संक्ता, जिसके चन्द्रवत सौम्य भाव है और दर्पणवत् हृदय पवित्र है, और शून्य स्थानों में जिसका निवास है, इत्यादि गुणयुक्त ही मुनि इस व्रतको धा। रण कर सक्ते हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८) और षष्टम रात्रीभोजन त्यागरूप व्रत है, यथा सवाउ राउनोयणाज वेरमणं ।। सर्वथा रात्रीभोजनका त्यागरूप पष्टम व्रत है जैसेकि अन्न १ पाणी २ खाघम' ३ स्वाद्यम ४ यह चार ही प्रकारका आहार तीनों करणों और तीनों योगोंसे परिहार करे, क्योंकि रात्रीभोजनमें अनेक दोष दृष्टिगोचर होते हैं। जीवोंकी रक्षा वा किसी कारणसे जूं आदि यदि आहारमें भक्षण हो जाये तो जलोदरादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। फिर जिस दिनसे रात्रीभोजन त्यागरूप व्रत ग्रहण किया जाता है, उसी दिनसे शेष आयुमेंसे अर्द्ध आयु तपमें ही लग जाती है तथा रात्रीभोजनके त्यागियोंको रोगादि दुःख भी विशेष पराभव नहीं करसक्ते क्योंकि रात्रीमें दिनका किया हुआ भोजन सुखपूर्वक परिणत हो जाता है और रात्रीको विशेष आलस्य भी उत्पन्न नहीं होता। जीवोंकी रक्षा, आत्माको शान्ति, ज्ञान ध्यानकी वृद्धि इत्यादि अनेक लाभ रात्रीभोजनके त्यागियोंको प्राप्त होते हैं, इस लिये यह व्रत भी अवश्य ही आदरणीय है । इसका ही नाम षष्टम व्रत है, सो १ खानेवाले पदार्थ जैसे मिष्टान्नादि । २ आस्वादनेवाले पदार्थ जैसे चूर्णादि । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) मुनि * पांच महाव्रत षष्टम रात्रीभोजनरूप व्रतको धारण करे || अपितु भावनाओं द्वारा भी महाव्रतोंको शुद्ध करता रहे क्योंकि प्रत्येक २ महाव्रतकी पांच २ भावनायें हैं । भावना उसे कहते हैं जिनके द्वारा पांच महाव्रत सुखपूर्वक निर्वाह होते हैं, कोई भी विघ्न उपस्थित नही होता, सदैव काळ ही चित्तके भाव व्रतोंके पालने में लगे रहते हैं || सो भावनाओंका स्वरूप निम्न प्रकारसे है ॥ प्रथम महाव्रतकी पंच नावनायें ॥ प्रथम भावना - महात्रतके धारक मुनि जीवरक्षाके वास्ते विना यत्न ऊठ बैठ गमनागमण कदापि न करें और नाहि किसी आत्माकी निंदा करें क्योंकि निंदादि करनेसे उन आत्माओंको पीड़ा होती है, पीड़ा होने से महाव्रतका शुद्ध रहना कठिन " हो जाता है ॥ द्वितीय भावना - मनको वशमें रखना और हिंसादि युक्त मन कदापि भी धारण न करना अर्थात् मनके द्वारा किसीकी * पांच महाव्रतोंका षष्टम रात्रीभोजन त्यागरूप व्रतका स्वरूप श्री दशवैकालिक सूत्र, श्री आचारांग सूत्र, श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र इत्यादि सूत्र से जान लेना ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०) भी हानि न चितवन करना क्योंकि मनका शुभ धारण करना हो महाव्रतोंकी रक्षा है ॥ . तृतीय भावना-वचनको भी वशमें करना । जो कटुक, दुःखप्रद वचन है उसका न उच्चारण करना, सदा हितोपदेशी रहना ।। चतुर्थ भावना-निदोष ४२ दोपरहित अन्न पाणी सेवन करना, अपितु निर्दोषोपरि भी मूञ्छित न होना, गुरुकी आज्ञानुसार भोजनादि क्रियायोंमें प्रवृत्ति रखना ।। पंचम भावना-पीठफळक, संस्तारक, शय्या, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण, चोल, पट्टक (कटिबंधन), मुहपत्ति, आसनादि जो उपकरण संयमके निर्वाह अर्थे धारण किया हुआ है उस . उपकरणको नित्यम् प्रति प्रतिलेखन करता रहे और प्रमादसे रहित हो कर प्रमार्जन करे, उक्त उपकरणोंको यत्नसे ही रक्खे, यत्नसे ही धारण करे, यत्नपूर्वक सर्व कार्य करे, सो यही पंचमी भावना है। प्रथम महाव्रतको पंचभावनायों करके पवित्र करता से क्योंकि इनके ग्रहणसे जीव अनास्रवी हो जाता है, और यह भावना सर्व जीवोंको शिक्षामद हैं। द्वितीय महावतकी पंच नावनायें॥ प्रथम भावना-सत्य व्रतकी रक्षा वास्ते शीघ्र, या कटक, . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) सावध, कुतुहलयुक्त वचन कदापि भी भाषण न करे क्योकि इन वचनों के भाषण करनेसे सत्य व्रतका रहना कठिन हो जाता है और यह नाही वचनव्रतियोंको भाषण करनेयोग्य है ॥ द्वितीय भावना-क्रोधयुक्त वचन भी न भाषण करे क्योंकि क्रोधसे वैर, वैरसे पैशुनता, पैशुनतासे क्लेष, क्लेषसे सत्य शील विनय सवका ही नाश हो जाता है, क्योंकि क्रोधरूपि अग्नि किस पदार्थको भस्म नही करता अर्थात् क्रोधरूपि अनि सरे सत्यादिका नाश कर देता है। तृतीय भावना-सत्यवादी लोभका भी परिहार करे क्योंकि लोभके वशीभूत होता हुआ जीवं असत्यवादी बन जाता है, तो फिर व्रतोंकी रक्षा केसे हो ? इस लिये लोभको भी त्यागे ॥ चतुर्थ भावना-भयका भी परित्याग करे क्योंकि भययुक्त जीव संयमको भी त्याग देता है, सत्य और शीलसे भी मुक्त हो जाता है, अपितुं भययुक्त आत्माके भावं कभी भी स्थिर नही रहते ॥ पंचम भावना-सत्यवादी हास्यका भी परित्याग करे । हास्यसे ही विरोध, क्लेष, संग्राम, नाना मकारके कष्ट उत्पन्न Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२) होते हैं और प्रथम हास्य मनोहर पीछे दुःखपद होता है और हासीयुक्त जीव सत्यकी रक्षा करनेमें भी समर्थ नहीं होता है । इस लिये सत्य व्रतके धारण करनेवाले हास्यको कदापि भी आसेवन न करें। सो उपर लिखी पंच ही भावनाओं करके युक्त द्वितीय व्रतको धारण करना चाहिये। तृतीय महाव्रतकी पंच नावनायें। प्रथम भावना-निर्दोष वस्ती शुद्ध योगोंका स्थान जहाँपर किसी प्रकारकी विकृति उत्पन्न नहीं होती, और वह स्थान स्वाध्यायादि स्थानों करके भी युक्त है, स्त्री पशु क्लीवसे भी वर्जित है अर्थात् जिनाज्ञानुकूल है ऐसे स्थानकी विधिपूर्वक आज्ञा लेवे अर्थात् विनाज्ञा कहींपर न ठहरे, तब ही तृतीय व्रतकी रक्षा हो सक्ती है, क्योंकि व्रतकी रक्षा वास्ते ही यह भावनायें हैं ॥ द्वितीय भावना-यदि किसी स्थानोपरि प्रथम ही तृणादि पड़े हो वह भी विनाज्ञान आसेवन न करे ।। तृतीय भावना-पीठफळक-शय्या-संस्तारक इत्यादिकोंके वास्ते स्वयं आरंभ न करे अन्योंसे भी न करावे तथा अनुमोदन भी न करे और विषम स्थानको सम न करावे नाही किसी आत्माको पीड़ित करे ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) चतुर्थ भावना - जो आहार पाणी सर्व साधुओंका भाग युक्त है वे गुरुकी विनाआज्ञा न आसेवन करे क्योंकि गुरु सर्वके स्वामी है वही आज्ञा दे सक्ते हैं अन्यत्र नही ॥ पंचम भावना - गुरु तपस्वी स्थविर इत्यादि सर्वकी विनय करे और विनयसे ही सूत्रार्थ सीखे क्योंकि विनय ही परम तप है विनय ही परम धर्म है और विनयसे ही ज्ञान सीखा हुआ फलीभूत होता है और तृतीय व्रतकी रक्षा भी सुगमता से हो जाती है, इसलिये तृतीय महाव्रत भावनायें युक्त ग्रहण करे ॥ चतुर्थ महाव्रतकी पंच नावनायें ॥ प्रथम भावनां - ब्रह्मचर्यकी रक्षा वास्ते अलंकार वर्जित उ-पाश्रय सेवन करे क्योंकि जिस वस्तीमें अलंकारादि होते हैं उस वस्ती में मनका विभ्रम हो जाना स्वाभाविक धर्म है, सो वस्ती वही आसेवन करे जिसमें मनको विभ्रम न उत्पन्न हो ॥ द्वितीय भावना - स्त्रियों की सभा में विचित्र प्रकारकी कथा न करे तथा स्त्री कथा कामजन्य, मोहको उत्पन्न करनेवाली यथा स्त्रीके अवयवोंका वर्णन जिसके श्रवण करनेसे वक्ता श्रोतें सर्व ही मोहसे आकुल हो जाये इस प्रकार की कथा ब्रह्मचारी कदापि न करे | Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) तृतीय भावना - नारीके रूपको भी अवलोकन न करे तथा 17 * अंगना के हास्य लावण्यरूप यौवन कटाक्ष नेत्रोंसे देखना इत्यादि चेष्टाओंसे देखने से मन विकृतियुक्त हो जाता है, इसलिये मुनि योषिताके रूपको अवलोकन न करे ॥ चतुर्थ भावना - पूर्वकृत क्रीडाओं की भी स्मृति न करें क्योंकि पूर्वकृत काम क्रीडाओंके स्मृति करनसे मन आकुल व्याकुलता पर हो जाता है, क्योंकि पुनः २ स्मृतिका यही फल होता कि उसकी वृत्ति उसके वंश में नहीं रहती || 1.. • पंचम भावना - ब्रह्मचारी स्निग्ध आहार तथा कामजन्य पदार्थों को कदापि भी आसेवन न करे, जैसे वळयुक्त औषमद्यको उत्पन्न करनेवाली औषधियें, क्योंकि इनके आंसेवन से विना तंप ब्रह्मचर्यं से पतित होने का भय है, मनका वि भ्रम हो जाना स्वाभाविक है । इसलिये ब्रह्मचर्य की रक्षा वास्ते स्निग्ध भोजनका परित्याग करे और पांच ही भावनायें युक्त - इस पवित्र महाव्रतको आयुपर्यन्त धारण करे || पंचम महाव्रतकी पंच भावनायें ॥ प्रथम भावना - श्रोत्रद्रिपको वशमें करे अर्थात् मनोहर शंदोंको सुनकर राग, दुष्ट शब्दोंको श्रवण करके द्वेषं यह काम Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) कदापि भी न करे क्योंकि शब्दोंका इंद्रियमें प्रविष्ट होनेका धर्म है । यदि रागद्वेष किया गया तो अवश्य ही कर्मोंका बंधन हो जायगा, इसलिये शब्दों को सुनकर शान्ति भाव रक्खे ॥. द्वितीय भावना-मनोहर वा भयाणक रूपोंको भी देखकर रागद्वेष न करे अर्थात् चक्षुरिन्द्रिय वशमें करे ॥ तृतीय भावना-सुगंध-दुर्गंधके भी स्पर्शमान होने पर रागद्वेप न करे अपितु घ्राणेन्द्रिय वशमें करे ॥ चतुर्थ भावना-मधुर भोजन वा तिक्त रसादियुक्त भोजनके मिलनेपर सेंद्रियको वशमें करे अर्थात् सुंदर रसके मिल. नेसे राग कटुक आदि मिलने पर द्वेष मुनि न करे ॥ पंचम भावना-सुस्पर्श वा दुःस्पर्शके होनेसे भी रागद्वेष न करे अर्थात स्पर्शेन्द्रिय वशमें करे ॥ __ सो यह *पंचवीस भावनाओं करके पंच महाव्रतोंको धारण करता हुआ दश प्रकारके मुनिधर्मको ग्रहण करे । यथा दस विहे समण धम्मे पं. तं. खंती * पंचवीस मावनाओंका पूर्ण स्वरूप श्री आचाराङ्ग सूत्र श्री समवायाङ्ग सूत्र वा श्री प्रश्न व्याकरण सूत्रसे देख लेना ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) मुत्ती वे मद्दवे लाघवे सच्चे संजमे तत्रे चियाए बंनचेरवासे | ठाणांग सूत्र स्थान १० ॥ अर्थ:- सब अर्थोंको सिद्ध करनेवाली आत्माको सदैव काल ही उज्ज्वलता देनेवाली अंतरंग क्रोधादि शत्रुओंका पराजय करनेवाली ऐसी परम पवित्र क्षमा मुनि धारण करे १|| फिर संसारबंधन से विमोचनता देनेवाली कष्टोंसे पृथक् ही रखनेवाली निराश्रय वृत्तिको पुष्ट करनेवाली निर्ममत्वता महात्मा ग्रहण करे २ || और सदा ही कुटिल भावको त्याग कर ऋजुभावी होवे, क्योंकि माया ( छळ ) सर्व पदार्थों का नाश करती है ३ || फिर सर्व जीवों के साथ सकोम भाव रक्खे अर्थात् अहंकार न करे परं मानसे विनयादि सुंदर नियम का नाश हो जाता है ४ || साथ ही लघुभूत होकर विचरे अर्थात् किसी पदार्थके ममत्वके बंधन में न फंसे । जैसे वायु लघु होकर सर्वत्र विचरता है ऐसे मुनि परोपकार करता हुआ चिरे ५ ॥ पुनः सत्यव्रतको दृढतासे धारण करे अर्थात् पूर्ण सत्यवादी होवे ६ || संयम वृत्तिको निर्दोपतासे पालण करे। यदि किसी प्रकारसे परीषद पीड़ित करे तो भी संयमवृत्तिको कलंकित न करे ७ ॥ और तपके द्वारा आत्माको निर्मल करे ८ || ज्ञानयुक्त होकर साधुओंको अन्नपाणी आदि ला Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) कर दान देवे अर्थात् साधुओंकी वैयावृत्य करे ९॥ और मन वचन कायासे शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रतको पालन करे जैसेकि पूर्वे लिखा जा चुका है १० ॥ ब्रह्मचर्यकी रक्षा तपसे होती है सो तप *द्वादश प्रकारसे वर्णन किया गया है । यथा (१) व्रतोपवासादि करने या आयुपर्यन्त अनशन करना, (२) स्वल्प आहार आसेवन करना, (३) भिक्षाचरीको जाना, (४) रसोंका परित्याग करना, (५) केशढुंचनादि क्रियायें, (६) इन्द्रियें दमन करना, (७) दोष लगनेपर गुर्वादिके पास विधिपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त धारण करना, (८) और जिनाज्ञानुकूल विनय करना, (९) वैयाहत्य (सेवा) करना, (१०)फिर स्वाध्याय ( पठनादि ) तप करना, (११) आपतु आतध्यान रौद्रध्यानका परित्याग करके धर्मध्यान शुक्लध्यानका आसेवन करना, (१२) अपने शरीरका परित्याग करके ध्यानमें ही मग्न हो जाना || अपितु द्वादश प्रकारके तपको पालण करता हुआ द्वाविंशति परीषहोंको शान्तिपूर्वक सहन करे ॥ जैसेकि • * द्वादश प्रकारके तपका पूर्ण विवणे श्री उववाइ आदि सूत्रोंसे देखो। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८) बावीस परीसहा पं. तं. दिगमा परीसहे १. पिवासा परोसहे २ सीय परीसहे ३ जसिण परी: सहे ४ दसमसग परीसहे ५ अचेल परीसहे ६ अरश परीसरे ७ इत्थी परीसहे ८ चरिया परीसरे ए निसीहिया परीसहे १० सिजा परीसहे ११ आकोस परीसहे १२ वह परीसहे १३ जायणा परीसहे १४ अलान्न परीसहे १५ रोग परीसदे १६ तणफास परीसहे १७ जस परीसहे १७ सकार पुरकार परीसहे १ए पन्ना परीसहे २० अन्नाण परीसहे २१ दसण परीसहे २२॥ समवायाङ्ग सूत्रस्थान श्॥ भाषार्थ:-महात्माको महा क्षुधातुर होनेपर भी सचित आहारादि वा अकल्पनीय पदार्थ लेने योग्य नहीं है अर्थात क्षु १ द्वाविंशति परीषहोंका पूर्ण स्वरूप श्री उतराध्ययन सूत्रजीके द्वितीयाध्यायसे देखना चाहिये। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९ ) 'धा परीपहको सम्यक् प्रकारसे सहन करे किन्तु जो रिसे विरुद्ध है ऐसे आहारको कदापि भी न आसेवन करें १ ।। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुके आने पर निर्दोष जलके न मिलने पर यदि महापिपास (सपा) भी लगी हो तो उसको शान्तिपूर्वक ही सहन करे, अपितु सचित जल वा वृत्ति विरुद्ध पाणी न ग्रहण करे, क्योंकि परीषहके सहन करनेसे अनंत काँकी वर्गना क्षय हो जाती है २॥ और शीत परीषदको भी सहन करे क्योंकि सा. धुके पास प्रमाणयुक्त ही वस्त्र होता है सो यदि शीतसे फिर भी पीड़ित हो जाय तो अग्निका स्पर्श कदापि भी न आसेवन करे ३ | फिर ग्रीष्मके ताप होनेसे यदि शरीर परम आकुल.. व्याकुल भी हो गया हो तद्यपि स्नानादि क्रियायें अथवा सुखदायक ऋतु शरीरकी क्षेमकुशलताकी न आकांक्षा करे ४॥ साथ ही ग्रीष्मताके. महत्वसे मत्सरादिके दंश भी शान्तिपूर्वक सहन करे, उन क्षुद्र आत्माओंपर क्रोध न करे ५॥ वस्त्रोंके जीर्ण होनेपर तथा वन न होनेपर चिंता न करे तथा यह मेरे वन जीर्ण वा मलीन हो गये हैं अब मुने नूतन कहाँसे मिलेंगे वा अब जीर्ण वस्त्र परिष्ठापना करके नूतन लूंगा इस प्रकारके हर्ष विपवाद न करे ६॥ यदि संयममें किसी प्रकारकी चिंता उत्पन्न हुई हो तो उसको दूर करे ७ ॥ और मनसे स्त्रियोंका Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३०) राग भी चितवन न करे अर्याद स्त्रियोंको पंक (कीचड़) भूत जानके परित्याग करे ८ ॥ प्रामों नगरोंमें विहार करते समय जो कष्ट उत्पन्न होता है उसको सम्यक् मकारसे सहन करे, ऐसे न कहे विहारसे बैठना ही अच्छा है ९॥ ऐसे हो बैठनेका भी परीषह सहन करे, क्योंकि जिस स्थान मुनि बैठा हो विना कारण वहांसे न ऊठे १० ॥ और सम विषम शय्या मिलने भी शान्तिपूर्वक परिणाम रक्खे ११ ॥ यदि कोई आक्रोश देता हो वा दुर्वचनोंसे अलंकृत करता हो तो उसपर क्रोध न करे क्योंकि ज्ञानसे विचारे इसके पास यही परितोषिक है १२॥ यदि कोई वध (मारने ) ही करने लग जावे तो विचारे .यह मेरे आत्माका तो नाश कर ही नहीं सक्ता अपितु शरीर मेरा है ही नहीं, इस प्रकारसे वध परीपहको सहन करे १३ ॥ फिर याचनाका भी परीषह सहन करे अर्थात् याचना करता हुआ लज्जा न करे १४ ॥ यदि याचना करनेपर भी पदार्थ • उपलब्ध नहीं हुआ है तो विषवाद न करे १५ ।। रोगोंके आनेपर शान्तिभाव रक्खे तथा सावध औपाधि भी न करे . १६ ॥ और संस्तारकादिमें तृणोंका भी स्पर्श सहन करे किन्तु तणोंका परित्याग करके वस्त्रोंकी याचना न करे १७॥ स्वेदके ... आ जाने पर मलका परीषह सहन करे १८॥ इसी प्रकार सत्कार Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) अपमानको भी शान्तिसे ही आसेवन करे १९ || बुद्धि महान् होनेपर अहंकार न करे, यदि स्वल्प बुद्धिं होवे तो शोक न करे २० ॥ फिर ऐसे भी न विचारे की मेरेको ज्ञान तो हुआ ही नही इस लिये जो कहते हैं मुनियोंको लब्धियें उत्पन्न हो जाती है वे सर्व कथन मिथ्या है, क्योंकि जेकर ज्ञान वा लब्धियें होती तो मुजे भी अवश्य ही होती २१ ।। और षट् द्रव्य वा तीर्थकरों के होने में भी संदेह न करे अर्थात् सम्यक्त्व से स्खलित न हो जावे २२ || इस प्रकारसे द्वाविंशति परपिहाँको सम्यक् प्रकारसे सहन करता हुआ धर्मध्यान वा शुक्लध्यानम प्रवेश करता हुआ मुनि अष्ट कर्मोंकी वर्गना से ही मुक्त हो जाता है; अष्ट कर्मों से ही संसारी जीव संसार के बंधनोंमें पड़े हुए हैं इनके ही त्यागने से जीवकी मुक्ति हो जाती है ।। यथा-ज्ञानावण १ दर्शनावर्णी २ वेदनी ३ मोहनी ४ आयु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय कर्म ८ || इन कर्मोंकी अनेक प्रकृतियें हैं जिनके द्वारा जीव सुखों वा दुखोंका अनुभव करते हैं, जैसेकि - ज्ञानावर्णी कर्म ज्ञानको आवर्ण करता है अर्थात् ज्ञानको न आने देता सदैव काल प्राणियोंको अज्ञान दशामें ही रखता है, पांच प्रकार के ही ज्ञानको आवर्ण करता है और यह कर्म जीवोंको धर्म अधर्म की परीक्षा से भी पृथक् ही रखता है अर्थात् इस कर्मके बलसे Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १:३२ ) प्राणी तत्वविद्याको नही प्राप्त हो सक्ते हैं; किन्तु यह कर्म जीव षट् प्रकार से बांधते हैं जैसे कि पाणावरणिज कम्मा सरीरपजग बंधेणं भंते कम्मस्स उदय गोयमा पाए परिणीययाए १ पाए पिएदवण्याए २ पातराणं ३ पाण प्पदोसेणं ४ पाणञ्च्चासादण्याए ५ पाणविसंवादणा जोगेणं ६ ॥ भगवती सू० शतक उद्देश ॥ ॥ भाषार्थ:-श्री गौतम प्रभुजी श्री भगवान्‌से प्रश्न पूछते हैं कि हे भगवन् ! जीव ज्ञानावर्णी कर्म किस प्रकार से बांधते हैं || भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम! षट् प्रकारसे जीव ज्ञानावर्णी कर्म बांधते हैं जैसेकि - ज्ञानकी शत्रुता करनेसे अर्थात् सदैव काल ज्ञानके विरोधि ही बने रहना और अज्ञानको श्रेष्ठ जानना, अन्य लोगों को भी अज्ञान दशामें ही रखनेका परिश्रम करना १ ॥ तथा ज्ञानके निण्डव बनना अर्थात् जो वार्ता यथार्थ हो उसको मिथ्या सिद्ध करना तथा ज्ञानको गुप्त करना, जैसेकि किसीके पास ज्ञान है. उसने Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार किया कि यदि मैंने किसी औरको सिखला दिया तो मेरी प्रतिष्ठा भंग हो जायगी २ ॥ और ज्ञानके पठन करनेमें अंतराय देना अर्थात् ऐसे २ उपाय विचारने जिस करके लोग विद्वान् न वन जादे और पूर्ण सामग्री होनेपर भी ज्ञानदृद्धिका कोई भी उपाय न विचारना ३ ॥ और ज्ञानमें द्वेष करना ४ ॥ ज्ञानकी आशातना करना ५ ॥ ज्ञानमें विषबाद करना तथा सत्य स्वरूपको परित्याग करके वितंडावादमें लगे रहना ६ ॥ इन काँसे जीव ज्ञानावणी कर्मको वांधते हैं जिसके प्रभावसे जाननेकी शक्तिसे भिन्न ही रह जाते हैं, और इन काँ ( कारणोंसे) के परित्याग करनेसे जीव ज्ञानावर्णको दूर कर देते हैं, जिस करके उनको पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है। और दर्शनावर्णी कर्म भी जीव उक्त ही कारणोंसे बांधते है जैसेकि-दर्शनप्रत्यनीकता करनेसे १ दर्शननिण्हवता २ दर्शन अंतराय ३ दर्शन प्रद्वेपता ४ दर्शन आशातना ५ दर्शन विपवाद योग ६ ।। इन कारणोंसे जीव दर्शनावणी कर्मको वांधकर चक्षुदर्शनादिका निरोध करते है २ ॥ और वेदनीय कर्म द्वि प्रकारसे वांधा जाता है जैसे कि सुख वेदनी १, दुखवेदनी २। अर्थात् जिसने किसीको भी पीड़ा नहीं दी, सर्व रक्षा करता रहा, किसीको दु:खित नहीं किया, वह जीव सुखरूप वेदनी कर्म बांधता है और उसका मुखरूप ही फल भोगता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४ ) और जिसने हिंसा की, जावोंको दुःखित किया कभी भी परोपकार नही किया वह जीव दुःखरूप वेदनीय कमें बांधते हैं और दुखरूप ही उसके फळ भोगते हैं । और क्रोध मान माया लोभ तथा सम्यक्त्व मोहनी मिश्रमोहनी मिथ्यात्वमोहनी इनके द्वारा जीव मोहनी कर्मको बांधते हैं जिस करके जीव मोहमें ही लगे रहते हैं। प्रायः कोई २ धर्मकी वातको भी सुनना नही चाहते हैं, संसारके ही कामों में लगे रहते हैं तथा क्रोधादिमें ही लगे रहते हैं, और आयुकर्मकी प्रकृतियें चार गतियोंकी चार २ कारणों से ही जीव वांधते हैं, जैसेकि नरक गतिकी आयु जीव चार कारणों से वांधते हैंयथा महा आरंभ करने ( हिंसादि कर्म करनेसे ) से १ और महा परिग्रह (धनकी लालसा ) के कारणसे २ पंचिंद्रिय जीवोंके वध करनेसे अर्याद शिकारादि कर्म ३ और मांसभक्षणसे ४॥ और चार ही कारणों से जीव तिर्यग् योनिके कर्मोंको बांधते हैं जैसेकि माया करने (छल) से १ मायामें माया करना २ असत्य भाषण करना ३ कूट तोला मापा करना. अर्थात् कूड़ तोलना कूड़ ही मापना ४ ।। और चार ही कारणोंसे जीव मनुष्य योनिके कर्म वांधते हैं, जैसेकि प्रकृतिसे ही भद्र होना १ प्रकृतिसे ही विनयवान होना २ दयायुक्त होना ३ मत्सरता वा ईष्यों न करना ४ इन्ही कारणोंसे जीव मनुष्य Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३५) योनिके कर्मांधते हैं। और चार ही कारणोंसे जीव देव आ. युको बांधते हैं जैसेकि-सराग संयम पाळण करना अर्थात् साधु वृत्ति राग सहित पाळण करना १ श्रावकत्ति पालनेसे १ और अज्ञान कष्ट सहन करनेसे ३ अकाम निर्जरासे अर्थात जिस वस्तुकी इच्छा है वह मिळती नहीं है और वासना नष्ट भी नहीं हुई उस कारणसे भी आत्मा देव आयुको बांध लेते हैं, अपितु मृत्यु समय जेकर शुभ परिणाम हो जाये तो ४ ॥ नाम कर्म भी जीव चार ही कारणों से बांधते हैं, जैसेकि-कायाको ऋजुतामें रखना ? भावोंको भी ऋजु करना २ भापा भी ऋजु ही उच्चारण करनी ३ और मनमें कोई भी विषयाद न करना ४, इन कारणों से जीव शुभ नाम कर्मको बांधते हैं | और यह चार ही वक्र करनेसे जीव अशुभ नाम कर्मको बांधते हैं और अष्ट कारणोंसे जीव उच्च गोत्र कर्मको बांधते हैं, जैसोक-जातिका पद न करनेसे १ कुलका मद न करनेसे २ बळका मद न करनेसे ३ रूपका मद न करनेसे ४ तपका मद न करनेसे ५ लाभका मद न करनेसे ६ श्रुतका मद न करनेसे ७ ऐश्वर्यका मद न करनेसे ८ और आठ ही प्रकारके मद करनेसे जीव नीच गोत्रके कोको बांधते हैं। और पांच ही प्रकारसे जीव अंतरांय कर्मोको बांधते हैं, जैसेकि-दानकी. अंतरायसे १ लाभान्तरायसे Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) २ भोग अंतरायसे ३ उपभोग अंतरायसे ४ वल वीर्य अंतरायसे ५ |यह पांच ही अंतराय करनेसे जीव अंतराय काँको बांधते हैं जैसेकि कोई पुरुष दान करने कगा तब अन्य पुरुष कोई दानका निषेध करने लग गया और वह दान करनेसे पराङ्मुख हो गया तो दानके निपेध करताने अंतराय कर्मको बांध लिया। इसी प्रकार अन्य अंतराय भी जान लेने ॥ सो यह अष्ट कर्मोके बंधन भव्य जीवापेक्षा अनादि सान्त हैं, यदुक्तयागमे तहा जीवाणं कम्मो वचय पुना गोयमा अत्यंगश्याणं जीवाणं कम्मो वचय सादिए सपऊवसिए अत्थे गश्याणं जीवाणं कम्मो वचय अणादिए सपझावसिए अत्थे गश्याएं अणादिए अप्पावसिए नोचेवणंजीवाणं कम्मो वचय सादिए अप्पजावसिए से गोयमारिया वहिया बंधयस्स कम्मो वचय सादिय सपजावलिए जवसिद्धियस्स कम्मो वचय अणादिए सपङवसिए थनवसिघियस्स कम्मो वचय Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) अणादिय अप्पड़ावसिय से वत्थेणं नंचे किं सादिए सपऊवसिय चउभंगो गो वत्थे सादिय सपङवसिय अवसेस्य तिण्डिविपमिसे'हियवा जहाणं ते वत्थे सादिय सपावलिय नो अणादिय अप्पा नो अणादिय सपनो अणादिय अप्पडा तहा जीवा किं सादिया सपज्जवसिया चोनंगो पुच्चा गोयमा अत्थे तादियाअचत्तारि विनापियवा से गो नेर यतिरिक्खजोणिय मणुस्स देवा गइरागई पडुच्च सादिया सपज्जवसीता सिद्धिगई पमुच्च सादिए अपजवसिया अवसिदीलहि पमुच्च अणादिया सपऊवलिया अजबसिद्धिया संसारं पशुच श्र.. पादिया अप्पडावसिया॥ नगवती सूत्र शतक ६ उदेश ३॥ भावार्थ:-श्री गौतम प्रभुजी श्री भगवानसे प्रश्न पूछते हैं :कि हे भगवन् ! जीवोंके साय काँका उपचय (सम्बन्ध ) क्या Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) सादि सान्त है अथवा अनादि सान्त है तथा सादि अनंत है वा अनादि अनंत है ? श्री भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम! कतिपय जीवोंके साथ कर्मोंका उपचय सादि सांत भी है और कतिपय जीवोंके साथ अनादि सान्त भी है और कतिपय जीवोंके साथ काँका उपचय अनादि अनंत भी है किन्तु जीवोंके साथ काँका उपचय सादि अनंत नहीं होता है। तब गौतमजी पूर्वपक्ष करते हैं कि हे भगवन् ! यह वार्ता किस प्रकारसे सिद्ध है ? श्री भगवान् उदाहरण देकर उक्त कथनको स्पष्टतया सिद्ध करते हैं कि हे गौतम ! इर्यावही क्रियाका बंध सादि सान्त है उपशम मोहमें वा क्षीण मोहनी कर्ममें हो इसका बंध है। और भव्य जीव अपेक्षा *काँका उपचय अनादि सान्त है अपितु अभव्य जीच अपेक्षा कर्मोका उपचय अनादि अनंत * श्री पणवन्नाजी सूत्रमें अष्ट कर्मोंकी प्रकृतिये १४८ लिखी हैं जैसेकि-ज्ञानावर्णीकी ६ दर्शनावाँकी ९ वेदनीकी २ मोहनीकी २८ आयुकर्मकी ४ नामकर्मकी ९३ गोत्रकी २ अंतराय कर्मकी ५॥ और इनका बंध उदय उदीरणा सत्ता इत्यादिका स्वरूप उक्त सूत्रमें वा श्री भगवती इत्यादि सूत्रोंसे ही देख लेना। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३९.) है, इस कारणसे हे गौतम ! कतिपय जीवोंके साथ काँका सम्वन्ध सादि सान्तादि कहा जाता है। श्री गौतमजी पुनः पू. छते है कि हे भगवन् ! जो वस्त्र है क्या वे सादि सान्त है वा अनादि सान्त है तथा सादि अनंत है वा अनादि अनंत है ? भी भगवान् उत्तर देते हैं कि हे गौतम ! वस्त्र सादि सान्त ही है किन्तु अन्य भंग वस्त्रमें नहीं है। __ श्री गौतमजी-यदि वस्त्र सादि सान्त पदवाला है और भंगोंसे वर्जित है तो हे भगवन् ! जीव क्या सादि सान्त हैं वा अनादि सान्त हैं तथा सादि अनंत है वा अनादि अनंत हैं ? श्री भगवान् कतिपय जीव सादि सान्त पदवाले हैं, और कतिपय अनादि सान्त पदवाके हैं, अपितु कतिपय सादि अनंत पदवारे भी है और कतिपय अनादि अनंत पदवाले भी हैं। श्री गौतमजी-यह कथन किस प्रकारसे सिद्ध है अर्थात् इसमें उदाहरण क्या क्या हैं ? श्री भगवान्हे गौतम ! नारकी तिर्यक् मनुष्य देव इन योनियों में जो जीव परिभ्रमण करते हैं उस अपेक्षा (गतागतिकी) जीव सादि सान्त पदवाले हैं क्योंकि जैसे मनुष्य योनिमें कोई जीव आया तो उसकी सादि है, अपितु जिस Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०.) समय मृत्युको प्राप्त होगा उस समय मनुष्य योनिका उस जीव अपेक्षा अंत होगा। इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना । और सिद्ध गतिकी अपेक्षा नीव सादि अनंत हैं, किन्तु भव्य सिद लब्धि अपेक्षा जीव अनादि सान्त है, अभव्य जीव अपेक्षा अनादि अनंत हैं ॥ सो भव्य जीवोंके कर्मोंका सम्बन्ध द्रव्यार्थिक नयापेक्षा अनादि अनंत है और पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त हैं ।। सो अष्ट काँके बंधनोंको छेदन करके जैसे अकाबू (तूंवा) मृत्तिकाके को छेदन करके जलके उपरि भागमें आ जाता है इसी प्रकार आत्मा कर्मोंसे रहित हो कर मोक्षमें विराजमान हो जाता है ।। सो मुनिधर्मको सम्यग् प्रकारसे पालण करके सादि अनंत पदयुक्त होना चाहिये, इसका ही नाम सर्व चारित्र है। १ इति तृतीय सर्ग समाप्त ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थ सर्गः॥ ॥अथ गृहस्थ धर्म विषय ॥ और गृहस्थ लोगोंका. देशवृत्ति धर्म है क्योंकि गृहस्थ लोग सर्वथा प्रकारसे तो वृत्ति हो ही नही सक्ते इस लिये श्री भगवान्ने गृहस्थ लोगोंके लिये देशतिरूप धर्म प्रतिपादन किया है । सो गृहस्थ धर्मका मूल-सम्यक्त्व: है जिसका अर्थ है कि शुद्ध देव शुद्ध गुरु शुद्ध धर्मकी परीक्षा करना, फिर परीक्षाओं द्वारा उनको धारण करना, फिर. तीन रत्नोंको भी धारण करना, न्यायसे कभी भी पराङ्मुख न होना क्योंकि गृहस्थ लोगोंका मुख्य कृत्य न्याय ही है, और अपने माता पिता भगिनी भार्या मात इत्यादि सम्बन्धियोंके कृत्योंको भी जानना, और कभी भी अन्यायसे वर्ताव न करना । देखिये श्री शान्तिनाथजी तीर्थंकर देव न्यायसे. पट् खंडका राज्य पालन करके फिर तीर्थकर पदको प्राप्त करके मोक्ष हो गये हैं। इसी प्रकार भरत चक्रवर्ती भी पद खंडका राज्य भोंग कर फिर मोक्षगत हुए । इससे सिद्ध है कि गृहस्थ लोगोंका मुख्य कृत्य न्याय ही है और न्यायसे ही यश संपत्. लक्ष्मी इनकी प्राप्ति होती है। और Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) जो पुरुष अन्याय करनेवाले होते हैं वे दोनों लोगोंमें कष्ट सहन करते हैं जैसेकि इस लोगों चौर्यादि कर्म करनेवाले वध बंधनोंसे पीड़ित होते हैं और परलोकमें नरकादि गतिओंके कष्ट भोगते हैं। और हेमचन्द्राचार्य अपने वनाये योगशास्त्रके प्रथम प्रकाशमें गृहस्थ धर्म सम्बन्धि निम्न प्रकारसे श्लोक लिखते हैं: न्यायसम्पन्नविभवः शिष्टाचारमशंसकः। कुलशीलसमैः सार्द्ध कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः ॥ १॥ . पापभीरू प्रसिद्धं च देशाचार समाचरन् । अवर्णवादी न कापि राजादिषु विशेषतः ॥ २॥ अनतिध्यक्तयते च स्थाने मुमातिवेश्मिके । अनेकनिर्गमद्वाराविवर्जितनिकेतनः ॥ ३ ॥ कृतसङ्गः सदाचारैमातापित्रोश्च पूजकः । त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमपत्तश्च गहिते ॥ ४ ॥ व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः । अष्टभिधीगुणयुक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहम् ॥५॥ . अजीर्णे भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यतः। अन्योऽन्यामतिबंधेन त्रिवर्गमपि साधयन् ॥ ६॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३ ) यथावदतिथौ साधी दीने च पतिपत्तिकृत ] सदानभिनिविष्टश्च पक्षपाती गुणेषु च ॥७॥ अदेशाकालयोश्चर्या त्यजन् जानन् वळावलम् । वृत्तस्थ ज्ञानद्धानां पूज्यक: पोण्यपोषकः ॥ ८॥ दीर्घदशी विशेषज्ञः कृतज्ञो लोकवल्लभः । सलज्जः सदयः सौम्यः परोपकृतिकर्मठः ॥ ९ ॥ अंतरंगादिषड्वर्गपरिहारपरायणः । वर्श:कृतेन्द्रियग्रामो गृहिधर्माय कल्पते ।। १० ।। भावार्थ:--न्यायसे धन उपार्जन वा शिष्टाचारकी प्रशंसा करनेवाला, वा जिनका कुल शील अपने सादृश्य है ऐसे अन्य गौत्रवाळेके साथ, विवाह करनेवाला, वा पापसे डरनेवाला है, और प्रसिद्ध देशाचारको पालन करता हुआ किसी आस्माका भी कहींपर अवणवाद नहीं बोलता,अपितु राजादिकोंका विशेष करके अवर्णवाद वर्जता है और अति प्रगट वा अति . गुप्त स्थानों में भी निवास नहीं करता किन्तु अच्छे पडोसीवाले घरमें रहनेवाला, और जिस स्थानके अनेक आने जानेके .मार्ग होवे उस स्थानको वर्जता है। फिर सदाचारियोंसे संग करनेवाला, उपद्रव संयुक्त स्थानको वर्जनेवाला और जो कर्म Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) जगत्में निंदनीक हैं उनमें प्रवृत्ति नही करनेवाला, और अपने लाभके अनुसार व्यय करनेवाला तथा धनके अनुसार वेष रखनेवाला जो निरन्तर ही धर्मोपदेश श्रवण करनेवाला है, फिर अजीणमें भोजनका त्यागी समयानुकूल आहार करनेवाला है, अपितु किसीकी हानि न करना ऐसी रीतिसे धर्म अर्थ काम मोक्षको सेवन करता है और यथायोग्य अतिथियों और दीनोंकी प्रतिपत्ति करनेवाला है, फिर सदैव काल आग्रहरहित, गुणोंका पक्षपाती, जो देशके विरुद्ध काम नहीं करता, सब कामोंमें अपने वलावलके जानकरके काम करनेवाला है, तथा 'जो महात्मा पंच महाव्रतोंको पालते हैं, और जो ज्ञानकी वृद्धिमें सदैवकाल कटिबद्ध है, ऐसे महात्माओंकी भक्ति वा पोपणे योग्यका पोषण करनेवाला, दीर्थदर्शी, विशेषज्ञ, कृतज्ञ, लोकवक्लभ, लज्जालु, दयालु, सौम्य, परोपकार करने में समर्थ, काम क्रोध लोभ मद हर्ष मान इन पट अंतरंय वैरियोंके त्याग करनेमें तत्पर, और पांच इन्द्रियोंके वश करनेवाला, इस प्रकारकी वृत्तिवाला • पुरुष गृहस्थ धर्मके धारणके योग्य होता है। और फिर सम्य क्त्वयुक्त गृहस्थ प्रथम ही सप्त व्यसनोंका परित्याग करे क्योंकि .यह सात ही व्यसन दोनों लोगोंमें जीवोंको दुःखोंसे पीड़ित कर• नेवाले हैं और इनके वशमें पड़ा हुआ प्राणी अपने अमूल्य Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) मनुष्य जन्मको हार देता है इस लिये सातोंका ही अवश्य त्याग करना चाहिये, जैसेकि-प्रथम व्यसन द्युतकर्म है अर्थात् जूयका खेलना सब आपत्तियोंकी खानि है और जुयारीको सव ही अकार्य करने पड़ते हैं। यश संपत सुनाम धैर्य सत्यं संयम सुकर्म इत्यादि सर्वका ही यह धुतकर्म नाश कर देता है इस लिये यह व्यसन त्यागनीय है। द्वितीयं व्यसन-मांसभक्षण कदापि न करे क्योंकि यह कर्म अति निदित धर्मका ही नाश करनेवाला है और आर्यती. का नष्ट करनेवाला है। अनेक रोग इसके द्वारा उत्पन्न होते हैं। फिर यह ऋण है क्योंकि जिस प्राणीका जिस आत्माने मांस. भक्षण किया है उस प्राणीके मांसको भी वह अवश्य ही खायेंगे तथा विचारशील पुरुषोंका कथन है कि-जो पशु (सिंहादि) मांसाहारी जब वे कुछ परोपकार नही कर सक्ते तो भला जो मनुष्य मांसाहारी हैं उनसे परोपकारकी क्या आशा हो सक्ती है? इस लिये द्वितीय व्यसन मांसभक्षणका त्याग करना चाहिये । तृतीय व्यसन मुरापान है जो बुद्धिका विध्वंसक सत्य गुणांका नाशक है और धर्म कर्मसे पराङ्मुख करनेवाला है जिसकी उत्पत्ति भी परम घृणादायक है। और जो मद्यपान Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६ ) करनेवालोंकी दुर्गति होती है वह भी लोगोके दृष्टिगोचर ही है। इस लिये यह परम निंदनीय कम अवश्य ही त्यागने योग्य है ।। चतुर्थ व्यसन-वेश्यासंग है। इसके द्वारा भी जो जो प्राणी कष्टों का अनुभव करते हैं वे भी अकयनीय ही हैं क्योंकि यह स्वयं तो मलीन होती ही है अपितु संग करनेवाले मळीनतासे अतिरिक्त शरीरके नाश करनेवाले अनेक रोगोंका भी पारितोषिक ले आते हैं। फिर वे उन पारितोपिक रूप रोगोंका आयुभर अनुभव करते रहते हैं। वेश्यागामीके सत्य शील तप दया धर्म विद्या आदि सर्व सुगुण नाशताको प्राप्त हो जाते हैं। फिर जो उनकी गति होती है वे महा भयाणक लोगोंके सन्मुख ही है, इस लिये गृहस्थ लोग वेश्या संगका अवश्य ही परिहार करे। पंचम व्यसन-आहेटक कर्म है। जो निर्दय आत्मा वनवासी निरापराधि वणों आदिसे निर्वाह करनेवाले हैं उन प्राणियोंका वध करते हैं, वे महा निर्दय और महा अन्याय करनेवाले हैं, क्योंकि अनाथ प्राणियोंका वध करना यह कोई शरवीरताका लक्षण नही है। बहुतसे अज्ञात जनोंने इस कर्मको अवश्यकीय ही मान लिया है, वे पुरुष सदैवकाल अपनी आ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) स्मोपरि पापोंका भार एकत्र कर रहे हैं, इस लिये प्राणिवध (शिकार) का त्याग अवश्यमेव ही करना चाहिये । पष्टम व्यसन-परस्त्री संग है, जिसके ग्रहणसे अनेक राजाओंके भयाणक संग्राम हुए और उनको परम कष्ट भोगने पड़े। अपितु कतिपयोंके तो प्राण भी चले गये और परस्त्री संगसे अनेक दुःख जैसेकि-अपयश, मृत्युका भय, रोगोंकी वृद्धि, शरीरका नाश, राज्यदंड इत्यादि अनेक. कष्ट भोगने पड़ते हैं, इस लिये गृहस्थ लोग पष्टम व्यसनका भी परित्याग करें । सप्तम व्यसन-चौर्य कम है, सो यह भी महा हानिकारक, वध धादिका दाता, निंदनीय दुःखोंकी खानि, धर्मके वृक्षको काटनके लिये परशु, सुकृतिका नाश करता, जिसके आसेवनसे देशम अशान्ति इत्यादि अवगुणोंका समूह है सो धर्मकी इच्छा करता हुआ गृहस्थ इस चौर्य कर्मका भी परिहार करे । फिर द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार धर्मका उदय करता हुआ गुरु मुखसे द्वादश व्रत धारण करे जो निम्न लिखितानुसार है ।। थुलाउ पाणावायाउ वेरमणं ।। स्थूल जीवहिंसासे नित्तिरूप प्रथम अनुव्रत है क्योंकि सर्वथा जीवहिंसाकी तो गृहस्थी निवृत्ति नही कर सक्ते, इस Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) लिये उसके स्थूल जीवहिंसाको परित्याग होता है, जैसे किजान करके वा देख करके निरपराधि जीवोंको न मारें । उसमें भी सगासंम्बंधि आर्दिका आगार होता है और इस नियमसे न्यायमार्गकी प्रवृत्ति अतीव होती है। फिर इस नियमको राजसे लेकर सामान्य जीवों पर्यन्त सवी आत्मायें सुखपूर्वक धारण. कर सक्ते हैं और इस नियमसे यह भी सिद्ध होता होता कि जैन धर्म प्रजाका हितैषी राजे लोगों का मुख्य धर्म है । निरं पराधियोंको मत दुःख दो और न्यायमार्ग से वाहिर भी मत होवो और सिद्धार्थ आदि अनेक महाराजोंने इस नियमको पालन किया है । फिर भी जो जीव सअपराधि है उनको भी दंड अन्याय से न दिया जाये, दंडके समय भी दयाको पृथक् न 'किया जाये, जिस प्रकार उक्त नियममें कोई दोष न लगे, उसे प्रकारसे ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सूत्रों में यह बात देखी जाती है । जिस राजाने किसी अमुक व्यक्तिको दंड दिया तो साथ ही स्वनगर में उद्घोषणा से यह भी प्रगट कर दिया कि--- हे लोगो ! इस व्यक्तिको अमुक दंड दिया जाता है इसमें राजेका कोइ भी अपराध नहीं है, न प्रजाका, अपितु जिस प्रकार इसने यह काम किया है उसी प्रकार इसको यह दंड दिया गया है । सो इस कथन से भी न्यायधर्मकी ही पुष्टि होती है ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) सो प्रथम व्रतकी शुद्ध पांच अतिचारों को भी वर्जित करे जोकि प्रथम व्रतमें दोषरूप है अर्थात् प्रथम व्रतको कलंकित करने वाले हैं, जैसेकि - २ बविच्छेदे ३ भारे ४ बंधे १ व अत्तपाणिवुनेए ५ ॥ अर्थ:- क्रोधके वश होता हुआ कठिन बांधनों से जीवों को चांधना १ और निर्दयके साथ उनको मारना २ तथा उनके अंगोपाङ्गको छेदन करना ३ अप्रमाण भारका क़ादना अर्थात पशुकी शक्तिको न देखना ४ अन्न पाणी का व्यवच्छेद करना अर्थात् अन्न पाणी न देना ५ ॥ यह पांच ही दोष प्रथम व्रतको कलंकित करनेवाले हैं, इस लिये प्रथम व्रतको पालनेहारे जीव उक्त लिखे हुए पांच अतिचारोंको अवश्य ही त्यागें, तब ही की शुद्धि हो सक्ती है | द्वितीय अनुव्रत विषय । थुलाउ मुसावायाउ वेरमणं ॥ . स्थूल, मृषावाद निरृतिरूप द्वितीय अनुवत है जैसे कि स्थूलमृवाचाद कन्या के लिये, गवादि पशुओंके लिये, भूम्यादिके लिये अथ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) वास्थापनमृषा (धरोड मारना) कूटशाक्षी तथा व्यापारमें स्थूल असत्य और अन्य २ कारणोंमें जिसके भाषण करनेसे प्रतीतका नाश होवे, राज्यसे दंडकी प्राप्ति होवे, और आत्मा पापसे कलंकित हो जाय इत्यादि कारणोंसे असत्यभाषी न होवे, अपितु यह ना समज लिजीये स्थूल ही मृषावादका परित्याग है किन्तु सू. क्ष्मकी आज्ञा है । मित्रवरो! सूक्ष्मकी आज्ञा नही है किन्तु दोष न लग जानेपर स्थूल शब्द ग्रहण किया गया है अर्थात् व्रतमें दोष न लगे | अपितु असत्य सर्वथा ही त्यागनीय है और जीवको सदैवकाल दुःखित रखनेवाला है, संसारचक्रमें परिवर्तन करानेवाला सुकर्मोंका नाशक है, किन्तु सत्य व्रत ही आत्माकी रक्षा करनेवाला है । सो इस व्रतकी रक्षार्थे भी पांच ही अतिचारों वर्जे, जैसेकि- . __सहस्सा नक्खाणे रहस्सा भक्खाण सदारमंतनेय मोसोवएसो कूड लेह करणे ॥ अर्थः-अकस्मात् विना उपयोग भाषण करना १ । तथा गुप्त वाताओंको प्रगट करना अर्थात् जिनके प्रगट करनेसे किसी आत्माको दुःख पहुंचता हो अथवा कामकथादि २। और अपने घरकी वात वा स्वस्तीकी बातें प्रगट करना ३॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) और अन्य पुरुषोंको असत्य उपदेश करना ४ । तथा असत्य ही लेख लिखने ६ । इन पांच ही अतिचारोंको त्याग करके द्वितीय व्रत शुद्ध ग्रहण करे ॥ तृतीय अनुव्रत विषय ॥ . . थुलाउ अदिन्नादाणाओ वेरमणं॥ तृतीय अनुव्रत स्थूल चोरीका परित्यागरूप है जैसेकि ताला पडि कूची, गांठ छेदन करना, किसीकी भित्ति तोड़ना, मागों में लूटना, डोके मारने क्योंकि यह ऐसा निंदनीय कर्म है कि दोनों लोगोंमें भयाणक दशा करनेवाला है और इसके द्वारा वधकी प्राप्ति होना तो स्वाभाविक वात है । फिर इस कर्म कर्ताओंके दया तो रही नही सक्ति, सब मित्र उसीके ही शत्रु रूप वन जाते हैं और इस कर्मके द्वारा प्राणि अनेक कष्टको भोगते हैं, इस लिये तृतीय व्रतके धारण करनेवाला गृहस्थ पांच अतिचारोंका भी परिहार करे जैसेकि तेणाहमे १ तकर पउगे विरुद्ध रजाश्कम्मे ३ कूड़ तोले कूड़ माणि ४ तप्पमिरूवग . ववहारे ५॥ . . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषार्थ:-इस व्रतकी रक्षा अर्षे निम्न लिखित अतिचार अवश्य ही वर्जे, जैसेकि-चोरीकी वस्तु (माल) लेनी क्योंकि इस कर्मके द्वारा जो लोग फल भोगते हैं वह लोगोंके दृष्टिगोचर ही हैं । और चोरोंकी रक्षा वासहायता करना २। राज्य विरुद्ध कार्य करने क्योंकि यह कार्य परम भयाणक दशा दि. खलानेवाला है और तृतीय व्रतको कलंकित करनेवाला है । फिर कूट तोल कूट ही माप करना (घट देना, वृद्धि करके लेना) ४ । और शुद्ध वस्तुओंमें अशुद्धवस्तु एकत्र करके विक्रय करना क्योंकि यह कर्म यश और सत्यका दोनोंका ही घातक है। इस लिये पांचो अतिचारोंको परित्याग करके तृतीय व्रत शुद्ध धारण करे।। . चतुर्थ स्वदार संतोष व्रत ॥ मित्रवरो कामको वशी करना और इन्द्रियों को अपने चशमें करना यही परम धर्म है जैसे इंधनसे अग्नि वृतिको प्राप्त नही होती केवळ पाणी द्वारा ही उपशमताको प्राप्त हो जाती हैं, इसी प्रकार यह काम अग्नि संतोष द्वारा ही उपशम हो सक्ती है, अन्य प्रकारसे नहीं, क्योंकि यह ब्रह्मचर्य व्रत आत्मशक्ति, मुक्तिके अक्षय सुख, शरीरको निरोगता, उत्साह, हर्ष, चित्तकी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३ ) प्रसन्नता देनेवाला है और उभय लोग, यशपद है। इसके धारणा करनेवाले आत्मा स्व स्वरूप, वा पर स्वरूपके पूर्ण वेत्ता होते हैं। अपितु गृहस्थ लोगोंको पूर्ण ब्रह्मचारी होना परम कठिन है, इसी वास्ते अर्हन् देवने व्यभिचारके बंध करनेके वास्ते गृहस्थ लोगोंका स्वदार संतोष व्रत प्रतिपादन किया है अर्थात् अपनी स्त्री वजेके शेष स्त्रिय भगिनी वा मातृवत् जानना ऐसे वतलाया है। और स्त्रियों के लिये भी स्वपति संतोष व्रत है, अपितु इतना ही नहीं, अपनी स्त्री पर भी माञ्छित न होना, परस्त्रियों का कभी भी चिंतवन न करना और अपनी स्त्री पर ही संतोष कर रना । सो इस व्रतके भी पांच अतिचार हैं, जैसेकि . श्तरिय परिग्गहिय गमणे अप्परिग्गहिय गमणे अणंग कीडा पर विवाह करणे कामभोग तिवान्निलासे ॥ भाषार्थ:-स्वस्त्री* यदि लघु च्यवस्थाकी हो क्योंकि किसी * प्रथम अतिचारका अर्थ ऐसे भी लिखा हुआ है कि पर. स्त्रीको स्तोककाल पर्यन्त अपनी स्त्री बनाके रखना । द्वितीय अतिचारका अर्थ विधवा वां वेश्याको आसेवन करना । चतुर्थका अर्थ परके विवाह आदि करने। परंतु श्री पूज्य आचार्य सोहनलालजी महाराजने उपर लिखे हुए ही अर्थ बतलाये हैं। - Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) कारण वशाद लघु व्यवस्थामें ही विवाह हो गया तो लघु व्यवस्थायुक्त स्त्रीके साथ संभोग न करे, यदि करे तो प्रथम अतिचार है । अथवा. यदि उपविवाह हुआ उसके साथ संग करना जिसको मांगनां कहते हैं २। कुंचेष्टा करना अर्थात् कामके वशीभूत होकर कुचेष्टा द्वारा वीर्यपात करना ३ । तथा परका मांगना किया हुआ उसको आप ग्रहण करना (उपविवाहको) ४। और कामभोगकी तित्र अभिलाषा रखनी ५। इन पांच ही अतिचारोंको त्यागके चतुर्थ स्वदार संतोषी . तको शुद्धताके साथ धारण करे क्योंकि यह व्रत परम आल्हाद भावको उत्पन्न करनेहारा है ।। फिर पंचम अनुव्रतको धारण करे जैसेकि इच्छा परिमाण व्रत विषय ॥ . . . 'हा परिमाणे ॥ . मित्रवरो! तृष्णा अनंती है, इसका कोइ. भी थाह नही मिलता। इच्छाके वशीभूत होते हुए प्राणी अनेक संकटोंका.सामना करते हैं, रात्री दिन इसकी ही चिंतामें लगे रहते हैं, इसके लिये कार्य अकार्य करते लज्जा नही पाते.और अयोग्य कामोंके लिये भी उद्यत हो जाते हैं, परंतु. इच्छा फिर भी पूर्ण । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५५) नही होती | अनेक राजे महाराजे चक्रवर्ती आदि भी इस तृष्णा रूपी नदीसे पार न हुए और किसीके साथ भी यह लक्ष्मी न गइ । यदि यों कहा जाय तो अत्युक्ति न होगा कि तृष्णा के वशसे ही प्राणी सर्व प्रकारसे और सर्व ओर से दुःखोंका अनुभव करते हैं | इस लिये तृष्णा रूपी नदीसे पार होनेके लिये संतोष रूपी सेतु (शेतुपुळ ) बांधना चाहिये अर्थात् इच्छाका परिमाण होना चाहिये । जब परिमाण किया गया तब ही पंचम अनुव्रत सिद्ध हो गया । इसी वास्ते श्री सर्वज्ञ प्रभुने दुःखोंसे छुटने के वास्ते आत्माको सदैवकाळ आनंद रहने के वास्ते.. पंचम अनुव्रत इच्छा परिमाण प्रतिपादन किया है, जिसका अर्थ है किं इच्छाका परिमाण करे, आगे वृद्धि न करे | और इस व्रतके भी पांच ही अतिचार हैं, जैसेकि - खेत्त वत्थु प्पमाणातिक्कम्मे दिए सुवएण प्पमाणातिक्कम्मे डुप्पय चउप्पय प्पमाणातिकम्मे धरण धारण प्पमाणातिक्कम्मे कुविय धात प्पमाणातिक्कम्मे || भाषार्थ :- क्षेत्र, वस्तु ( घर हाट ) के परिमाणको अति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) क्रम करना, हिरण्य सुवर्णके परिमाणको अतिक्रम करना, द्विपाद ( मनुष्यादि ) चतुष्पाद ( प्रशवादिके) के परिमाणको अतिक्रम करना, और धन धान्यके परिमाणको अतिक्रम करना, फिर घरके उपकर्ण के परिमाणको अतिक्रम करना वही पंचम अनुवतके अतिचार हैं अर्थात् जितना जिस वस्तुका परिमाण क्रिया हो उनको उल्लंघन करना वही अतिचार हैं; इस लिये अतिचारोंको चजेके पंचम अनुव्रत शुद्ध पालन करे ॥ · और षष्टम, सप्तम, अष्टम्, इन तीनों व्रतों को गुणवत कहते हैं क्योंकि यह तीन गुणात पांच ही अनुव्रतोंको गुणकारी हैं, और पांच ही अनुव्रत इनके द्वारा सुरक्षित होते हैं । अथ प्रथम गुण व्रत विषय ॥ दिग्वत ॥ सुयोग्य पाठक गण ! प्रथम गुणत्रतका नाम दिग्वत है जिसका अर्थ यह है कि दिशाओं का परिमाण करना, जैसेकि पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, उर्ध्व, अधो, इन दिशाओं में स्काया करके रामण करनेका परिमाण करना । और पांच आस्रव सेवनका परित्याग करना क्योंकि जितनी मर्यादा करेगा उतना ही आस्रव निरोध होगा। सो इस व्रत के भी पांच ही अतिचार हैं जैसेक्ति= Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) उछ दिसि प्पमाणातिकमे. अहीं दिसि प्पमाणाइक्कमे तिरिय दिसि पमाणाश्क्कमे खेत बुढि सयंतरद्धा। ___ भाषार्थ:-उर्ध्व दिशिको प्रमाण अतिक्रम करना १ अधी दिशिका प्रमाण अतिक्रम करना २ तिर्यग् दिशिका प्रमाण अतिक्रम करना ३ क्षेत्रकी वृद्धि करना जैसेकि कल्पना करो कि किसी गृहस्थंने चारों ओर शतं ( सौ ३) योजन प्रमाण क्षेत्र रक्खा हुआ है । फिर ऐसे न करे कि पूर्वकी ओर १५० योजन प्रमाण कर लूं और दक्षिणकी ओर १० योजन ही रहने दूं क्योंकि दक्षिणमें मुजे काम नही पड़ता पूर्वमें अधिक काम रहता है। यह भी अतिचार है ४ । और पंचम अतिचार यह है कि जैसेकि प्रमाणयुक्त भूमिमें संदेह उत्पन्न हो गया कि स्यात् में इतना क्षेत्र प्रमाण युक्त आ गया हूँ सो संशयमें ही आगे गमेण करना यही पांचमा अतिचार है अपितु पाँचो ही अतिचारोंको वर्जके प्रथम गुणव्रत शुद्ध ग्रहण करनी चाहिये । लोग परिलोग परिमाणे । . जो वस्तु एक बार भीगनमें आवे तथा जो वस्तु वारम्बार Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५८) भोगने आवे उसका परिमाण करना सो ही द्विनीय गुणवत है, सो इस व्रतके अंतरंगत ही पविशति वस्तुओंका परिमाण अवश्य करना चाहिये, जैसेकि १ उल्लणियाविहं-स्नानके पश्चात् शरीरके पूंछनेवाले वस्त्रका परिमाण करना तथा जितने वस्त्र रखने हों। • २ दंतणविहं-दांत मक्षालण अर्थे दांतुनका परिमाण करना। ३ फलविहं-केशादि धोवनके वास्ते फोका परिमाण करना । ४ अभंगणविहं-तैलादिका प्रमाण अर्थात् शरीरके मर्दन वास्ते । ५ उवट्टणविह-शरीरकी पुष्टि वास्ते उवट्टनका परिमाण । ६ मज्जनविहं-स्नानका परिमाण गणन संख्या वा पा'णीका परिमाण। . ७ वत्थविई-चत्रोंका प्रमाण अर्थात् वस्खोंकी जाति संख्या बा गणन संख्या। ८विलेवणविहं-चंदनादि विलेपनका परिमाण । १. ९ पुष्कविह-शरीरके परिभोगनार्थे पुष्पोंका परिमाण । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५९ ) १. आभरणविहं-आभूषणोंका परिमाण । ११ धूवविहं-धूपविधिका परिमाण अर्थात् धूपयोग्य वस्तुओंके नाम स्मृति रखके अन्य वस्तुओंका परित्याग करना। १२ पिज्जविह-पीनेवाली वस्तुओंका परिमाण करना । १३ भक्खणविहं-भक्षण (खाने) करनेवाली वस्तुओंका परिमाण। १४ उदनविह-शाल्यादि धानादिका परिमाण । १५ सूफविह-शूपा (दाल) दिका परिमाण । १६ विगयविह-दुग्ध, घृत, नवनीत, तैल, गुढ़, मधु, दधि, इनका परिमाण करना। १७ सागविह-शाक विधिका परिमाण अर्थात् जो वनस्पतिये शाकादि परिपक करके ग्रहण की जाती हैं। १८ महुरविहं-फलोंका परिमाण । १९ जीमणविहं-व्यञ्जनादिका परिमाण जैसेकि मसालादि। २० पाणीविहं-पाणीका परिमाण कूपादिका तथा अन्य जल। २१ मुखावासविहंताम्बूलादिका परिमाण । २२ वाहणविहं-वाहण विधिका परिमाण अर्थात् स्वारि का परिमाण । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) २३ पाहणिविह- पादरक्षकका परिमाण अर्थात् जूतो आदिका परिमाण करना | २४` संयणविह-शय्याका परिमाण अर्थात् वस्त्रोंकी गणन संख्या अथवा शय्यादि स्पर्श करना वा पल्यकादिका परिमाण । २५ सचित्तविह- सचित्त वस्तुओं का परिमाण अर्थात् पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति इत्यादि सचित्तं वस्तुओंका परिमाण । २६ दरवावह - द्रव्यों का परिमाण अर्थात् भिन्न २ वस्तुओंका नाम लेकर परिमाण करना । जैसे किसीने ५ द्रव्यं रक्खें तो जल १ पूपा (रोटी) २ दाल ३ शाकं ४ दुग्ध ५ | इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका परिमाण भी जान लेना चाहिये । तात्पर्य यह है कि विनां परिमाण कोई भी वस्तु ग्रहण करनी न चाहिये । सो इसके भी पांच ही अतिचार है, जैसेकि - सचिताहारें सचित्त पडिवद्धाहारे अप्पोलिउसही नक्खणया डुप्पोलसदी नक्खया तुच्छोसही नक्खण्या ॥ : भाषार्थ:-सचित्त वस्तुका परित्याग होने पर यह अतिचार भी वर्जे, जैसे कि सचित्त वस्तुका आहार १ साचेच प्रति Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) बद्धका आहार २ अपक आहार ३ दुःपक आहार ४ तुच्छोषधिका आहार ५॥ इन पांच ही अतिचारोंको वर्जक फिर १५ कोदानको भी परित्याग करे क्योंकि पंचदश कर्म ऐसे हैं जिनके करनेसे महा काँका बंध होता है । सो गृहस्थोंको जानने योग्य हैं अपितु ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, जैसे कि. १ अङ्गारकम्मे-कौलादिका व्यापार । २ वणकम्मे-बन कटवाना क्योंकि यह कर्म महा निर्दयताका है। ३ साडीकम्मे-शकट (गाड़े) करवाके वेचने । ४ भाडीकम्मे-पशुओंको भाडेपर देना क्योंकि इस कर्म करनेवालोंको पशुओंपर दया नहीं रहती। .. फोड़ीकम्मे-पृथ्वी आदिका स्फोटक कर्म जैसे कि शिलादि तोड़ना वा पर्वत आदिको। ६ दत्तवणिज्जे-हस्ती आदिके दांतोंका वणिज करना। ७ लख्खवणिज्जे-लाखका वणिज तथा मजीठाका व्यापार करना । सवाणिज्जे-रसोंका वनज करना जैसेकि घृत, नेल, गुड़, मदिरादि। । ९ केसवाणिज्जे-केशोंका वनज करना तथा केश शब्दके अंतरगत ही मनुष्य विक्रियता सिद्ध होती है ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२) १० विसवाणिज्जे-विषकी विक्रियता करनी क्योंकि यह कृत्य महा कर्मोंके बंधका स्थान है और आशीर्वादका तो यह प्रायः नाश ही करनेवाला है। ११ जत्तपीलणियाकम्मे-यंत्र पीड़न कर्म जैसे कि कोल्हु इंख पीड़नादि कर्म हैं। १२ निलंच्छणियाकम्मे-पशुओंको नपुंसक करना वा अवयवोंका छेदन भेदन करना ।। १३ दवग्गिदावणियाकम्मे-चनको अग्नि लगाना तथा देषके कारण अन्य स्थानोंको भी अनिद्वारा दाह करना इत्यादि कृत्य सर्व उक्त कर्ममें ही गर्भित हैं। १४ सर दह तलाव सोसणियाकम्मे-जलाशयोंके जलको शोषित करना, इस कर्मसे जो जीव जलके आश्रयभूत हैं वा जो जीव जलसे निर्वाह करते हैं उन सवोंको दुःख पहोंचता है और निर्दयता बढ़ती है।। १६. असइजणपोसणियाकम्मे-हिंसक जीवोंकी पालना करना हिंसाके लिये जैसेकि-मार्जारका पोपण करना मूषकों (उंदर) के लिये, श्वानोंकी प्रतिपालना करना जीववधके लिए और हिंसक जीचोंसे व्यापार करना वह भी इसी कममें गर्भित है, सो यह कर्म गृहस्थोंको अवश्य ही त्याज्य है। जो आर्यकर्म Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) हैं उनमें जीवहिंसाका निरोध होनेसे हो जीवोंको निज ध्यानकी ओर शीघ्र ही आकर्षणता हो जाती है क्योंकि - आर्य कर्म के द्वारा आर्य मार्गकी भी शीघ्र प्राप्ति होती है । फिर इस द्वितीय गुणवतको धारण करके तृतीय गुणवतको ग्रहण करे । अथ तृतीय गुणव्रत विषय । सुझ जनों ! तृतीय गुणत्रत अनर्थ दंड है । जो वस्तु स्वग्रहण करनेमें न आवे और किसीके उपकारार्थ भी न हों, निष्कारण जीवों का मर्दन भी हो जाए ऐसे निंदित कर्मोंका अवश्यमेव ही परित्याग करना चाहिए। वे अनर्थ दंडके मुख्य कारण शास्त्रोंमें चार वर्णन किये हैं जैसेकि - ( अवज्झाण चरियं पमायचरियं हिंसपयाणं पावकम्मोवएसं ) आर्त्त ध्यान करना क्योंकि इसके द्वारा महा कर्मोंका वध, चित्तकी अशान्ति, धर्मसे पराङ्मुखता इत्यादि कृत्य होते हैं इस लिए अपने संचित कर्मोंके द्वारा सुख दुःख जीवों को प्राप्त होते हैं, इस प्रकारकी भावनाएं द्वारा आत्माको शान्ति करनी चाहिए । फिर कभी भी प्रमादाचरण न करना चाहिए जैसे घृत तैल जलादिको विना आच्छादन किये रखना, यदि उक्त वस्तुओंमें जीवोंका प्रवेश हो जाए तो फिर उनकी रक्षा होनी कठिन ही नही किन्तु असंभव ही है । फिर Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) हिंसाकारी पदार्थोंका दान करना जैसे- शस्त्रदान, अग्निदान, और ऊखल मूसलदान इत्यादि दानोंसे हिंसा की प्रवृत्ति होती "है, सुकर्मकी अरुचि हो जाती है । और चतुर्थ कर्म अन्य आत्माओंको पाप कर्ममें नियुक्त करना, सो यह कर्म कदापि आसेवन न करने चाहिए। फिर इस तृतीय गुणवतकी रक्षा के लिए पांच अतिचारोंको भी छोड़ना चाहिए जो निम्न प्रकार से हैं || कंदप्पे १ कुकुए २ मोहरिए ३ संजुत्तादि गरणे ४ वनोग परिभोग अरि ५ ॥ भाषार्थ - कामजन्य वार्त्ताओंका करना १ और कुचेष्टा करना तथा साँग होरी आदिमें उपहास्यजन्य कार्य करने २ असंबद्ध वचन भाषण करने तथा मर्मयुक्त वचन बोलने ३ प्रमाणसे अधिक उपकरण वा शस्त्रादिका संचय करना ४ जो वस्तु एक वार आसेवन करनेमें आवे अथवा जो वस्तु पुनः २ ग्रहण करनेमें आवे उनका प्रमाणसे अधिक संचय करना अथवा प्रमाणयुक्त वस्तुमें अत्यन्त मृच्छित हो जाना । यह पांच ही अतिचार छोड़ने चाहिए, क्योंकि इन दोषोंके द्वारा व्रत. कलंकित हो जाते हैं और निर्जराका मार्ग हो बंध हो जाता है, सो विना निर्जराके मोक्ष नही अपितु मुक्तिके लिए श्री. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) अर्हन् देवने चार शिक्षावत प्रतिपादन किए हैं जिनमें प्रथम शिक्षावत सामायिक है | अथ सामायिक प्रथम शिक्षावत विषय ॥ जो जीवोंको अतीव पुण्योदयसे मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ हैं उसको सफल करनेके लिये दोनों समय सामायिक करना चाहिए || रसम - आय - इक-इन की संधि करनेसे १ नवविहे पुण्णे पं. तं, अन्नपूण्णे १ पाणपुण्णे २ वत्थपुणे ३ लेणपुणे ४ सयणपुण्णे ५ मणपुण्णे ६ वयपुण्णे ७ कायपुजे ८ नमोक्कारपुण्णे ९ ॥ ठाणांग सू० स्था० ९ ॥ मापार्थ - - नव प्रकारसे जीव पुन्य प्रकृतिको बांधते हैं जैसे कि- अन्न के दानसे १ पानीके दानसे इसी प्रकार से २ वस्त्रदान ३ शय्यादान ४ संस्तारकदानसे ५ । फिर शुभ मनके धारण करनेसे ६ और शुम वचनके बोलनेसे ७ शुभ कायाके धारण करने से ८ और सुयोग्य पुरुषों को नमस्कार करनेसे ९ । सो इन कारणोंसे जीव पुन्यरूप शुभ प्रकृतिका बंध कर लेता है || २ सम शब्दके सकारका अकार, उण् प्रत्ययान्त होनेसे दीर्घ हो जाता है क्योंकि - जिस प्रत्यय के न् - ण्-इत्संज्ञक होते हैं उनके आदि अच्को आ-आर और ऐच हो जाते हैं । इसी प्रकारसे सामायिक शब्दकी भी सिद्धि है ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६ ) सामायिक शब्द सिद्ध होता है जिसका अर्थ यह है कि आत्माको शान्ति मागमें आरूढ़ करना वा जिसके करनेसे शान्तिको प्राप्ति होके उसीका नाम सामायिक है । सो इस प्रकारसे भाव सामायिकको दोनों काल करे । फिर प्रात:काळ, और सन्ध्याकालमें सामायिककी पूर्ण विधिको भलि भांतिसे करता हुआ सामायिक सूत्रको पठन करके इस प्रकारसे विचार करे कि यह मेरा आत्मा ज्ञानस्वरूप है, केवल कर्मों के अंतरसे ही इसकी नाना प्रकारकी पर्याय हो रही है और अनादि काल के काँके संगसे इस प्राणीने अनंत जन्म मरण किये हैं। फिर पुनः २ दुःखरूपि दावानलमें इस प्राणीने परम कष्टोंकों सहन किया है, और तृष्णाके वशमें होता हुआ अतृप्त ही मृत्युको मात हो जाता है । सो ऐसे परम दुःखरूप संसार चक्रसे विमुक्त होंनेका मार्ग केवळ सम्यग् ज्ञान सम्यग् दर्शन सम्यग् चारित्र ही है। सो जब प्राणी आस्रवके मार्गीको बंध करता है और आत्माको अपने वंशमें कर लेता है, तब ही कोंके बंधनोंसे विमुक्त हो जाता है । सो इस प्रकारके सद् विचारोंके द्वारा सामायिक कालको परिपूर्ण करे। अपितु सामायिक रूप व्रत दो घटिका । प्रमाण दोनों समय अवश्य ही करना चाहिये और इस व्रतके भी पांचों अतिचारोंको वर्जना चाहये, जैसे कि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन दुष्ट सामायिक नापाको भी वशमें ( १६७ ) मण दुप्पणिहाणे वय दुप्पणिहाणे काय दुप्पणिहाणे सामायियस्स अकरणयाय सामायियस्स अणवठियस्स अकरणयाए ॥ ५॥ ___ भापार्थ:-सामायिक व्रतके भी पांच ही अतिचार हैं। जैसे कि-मनसे दुष्ट ध्यान धारण करना १ वचन दुष्ट उच्चारण करना २ और कायाको भी वशमें न करना ३ शक्ति हो. ते हुए सामायिक न करना ४ और सामायिकके कालको विना ही पूर्ण किये पार लेना ५ ॥ यह पांच ही सामायिक व्रतके अतिचार है, सो इनका परित्याग करके शुद्ध सामायिक रूप नियम दोनों समय अर्थात् सन्ध्या समय और प्रातःकाल नियमपूर्वक आसेवन करे और अतिचारोंको कभी भी आसेवन करे नहीं, क्योंकि अतिचाररूप दोष व्रतको कलंकित कर देते हैं। सो यही सामायिक रूप प्रथम शिक्षावत है । फिर द्वितीय शिक्षाबत ग्रहण करे, जैसे कि देशावकाशिक ॥ जो पष्टम व्रतमें पूवादि दिशाओंका प्रमाण किया था उस प्रमाणसे नित्यम् प्रति स्वल्प करते रहना उसीका ही नाम देशा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८) . . बकाशिक व्रत है और इसी व्रतमें चतुर्दश नियमोंका धारण किया जाता है । अपितु जिस प्रकारसे नियम करे उसी प्रकारसे पालन करे किन्तु परिमाणकी भूमिकासे वाहिर पांचासव सेवन का प्रत्याख्यान करे। अपितु इस व्रतके धारण करनेसे बहुत ही पापोंका प्रवाह बंध हो जाता है और इस व्रतका भी पांचो अतिचारोंसे रहित होकर पालण करे, जैसे कि आणवणप्पजग्गे पेसवणप्पजग्गे सहाणुवाय रूवाणुवाय वहियापोग्गल पक्खेवे ॥ भाषार्थ:-प्रमाणकी भूमिकासे वाहिरकी वस्तु आज्ञा करके मंगवाई हो १ तथा परिमाणसे वाहिर भेजी हो २ और शब्द करके अपनेको प्रगट कर दिया हो ३ वा रूप करके अपने आपको प्रसिद्ध कर दिया हा ४ अथवा किसी वस्तु पर पुद्गल क्षेप करके उस वस्तुका अन्य जीवोंको बोध करा दिया हो५॥ सो इन पांच ही अतिचारोंको परित्याग करके दशवा देशावकाशिक व्रत शुद्ध धारण करे । और फिर पर्व दिनों में तथा मासमें षट् पौषध करे क्योंकि पौषध व्रत अवश्य ही धारण करना चाहिये जिसके धारण करनेसे कर्मोंकी निर्जरा वा तप कर्म दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९) .. तृतीय पौषध शिक्षाबत विषय ॥ ____ उपाश्रयमें वा पौषधशालामें तथा स्वच्छ स्थानमें अष्ट यामपर्यन्त एक स्थानमें रहकर उपवास व्रत धारण करना उसका ही नाम पौषध व्रत है। आपितु पौषधोपवासमें अन्न, पाणी, खाधम, स्वाद्यम, इन चारों ही आहारका प्रत्याख्यान होता है, आर ब्रह्मचर्य धारण करा जाता है। अपितु मणि स्वणादिका भी प्रत्याख्यान करना पड़ता है, शरीरके शंगारका भी त्याग होता है,अपितु शस्त्रादि भी पास रक्खे नही जा सक्ते और सावध योगोंका भी नियम होता है । इस प्रकारसे पौषधोपवास व्रत ग्रहण करा जाता है। प्रतिमासमें षट् पौषधोपवास करे तथा शक्ति प्रमाण अवश्य ही धारण करने चाहिये । और पांचो अतिचारोंको भी त्यागना चाहिये-जैसेकि शय्या संस्तारक न प्रतिलेखन किया हो, यदि किया है तो दुष्ट प्रकारसे प्रतिलेखन किया है १ । इसी प्रकार शय्या संस्तारक प्रमार्जित नहीं किया हो, यादे किया है तो दुष्ट प्रकारसे किया गया है:२ । ऐसे ही पूरीषस्थान चा मत्लवनस्थान पतिलेसन न किया हो, यदि किया है तो दुष्ट प्रकारसे किया है ३ । और यदि प्रमार्जित न किया हो तथा किया हो तो दुष्ट प्रकारसे प्रमार्जित किया हो ४ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) फिर पौषधोपचास सम्यक् प्रकारसे पालन किया न हो ५॥ इस प्रकारसे इन पांचों ही अतिचारोंको वर्जके तृतीय शिक्षाबत. गृहस्थी लोग सम्यक् प्रकारसे धारण करें। फिर चतुर्थ शिक्षाबभी सम्यक् प्रकारसे आराधन करे ।। चतुर्थ शिक्षात्रत अतिथि संविनाग ॥ महोदयवर ! चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग है जिसका अर्थ ही यही है आतिथियोंको संविभाग करके देना अर्थात् जो कुछ अपने ग्रहण करनेके वास्ते रक्खा है उसमेंसे आतिथियोंका सत्कार करना ।। अपितु जो अतिथि ( साधु) को दिया जाये वे आहारादि पदार्थ शुद्ध निर्दोष कल्पनीय हों किन्तु दोषयुक्त अशुद्ध अकल्पनीय आहारादि पदार्थ न देने अच्छे हैं क्योंकि नियमका भंग करना वा कराना यह महा पाप है। अपितु वृत्ति के अनुसार आहारादिके देनेसे कर्मोंकी निर्जरा होती है, वृत्तिके विरुद्धदेनेसे पापका बंध होता है । इस लिये दोषोंसे रहित प्राशूक एषनीय आहारादिके द्वारा अतिथि संविभाग नामक व्रतको सम्यक् प्रकारसे आराधन करे और पांचों ही अतिचारोंका भी परिहार करे, जैसेकि Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१) सचिन निक्खेवणया १ सचित्त पेहणिया २ कासाश्कम्मे ३परोवएसे मच्छरियाए५॥ भाषार्थः-न देनकी बुद्धिसे निर्दोष वस्तुको सचित्त वस्तुपर रख दी हो १ वा निर्दोषको सचित्त वस्तु करिके ढांप दिया हो २ और कालके अतिक्रम हो जानेसे विज्ञप्ति करि हो तथा वस्तुका समय ही व्यतीत हो गया होवे ही वस्तु मुनियोंको दे दी हो ३ और परको उपदेश दिया हो कि तुम ही आहारादि देदो क्योंकि आप निदोष होने पर भी लाभ न ले सका ४ अथवा मत्सरतासे देना ५ ॥ इन पांचों ही आतिचारोंको त्याग करके. चतुर्थ शिक्षाबत पालण करना चाहिये । सो यह पांच अनुव्रत, तीन अनुगुणवत, चार शिक्षाव्रत एवं द्वादश व्रत गृहस्थी धारण करे, इसका नाम देशचारित्र हैं, क्योंकिं सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्र, तीन ही मुक्तिके. मार्ग हैं। इन तीनोंको ही धारण करके जीव संसारसे पार १ द्वादश व्रत इस स्थलपे केवल दिग्दर्शन मात्र ही लिखे हैं किन्तु विस्तारपूर्वक श्री उपासक दशान सूत्र वा श्री आव• श्यकादि सूत्रोंसे देखने चाहिये ।। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाते हैं। आपतु यथाशक्ति इनको धारण करके फिर रात्रीभोजनका भी परिहार करना चाहिये; इनमें अनेक दोपोंका समूह है। फिर श्रावक २१ गुण करके संयुक्त हो जावे, वे गुण उक्त नियमोंको विशेष लाभदायक हैं और सर्व प्रकारसे उपादेय हैं, सत् पथके दर्शक हैं, अनेक कुगतियोंके निरोध करनेवाले हैं, इनके आसेवनसे आत्मा शान्तिके मंदिरमें प्रवेश कर जाता है । ____ अथ एकविंशति श्रावक गुण विषय ॥ धम्मरयणस्स जुग्गो अक्खुद्दोरूववं पगश्सोमो॥ लोअपियो अक्कूरो असहो सुदक्षिणो॥१॥ लजायो दयालू मन्नबो सोमदिठ्ठो गुणरागी॥ सकह सपक्खजुत्तो सुदीहदंसी विसेसएणू ॥शा वहाणुग्गो विणियो कयएणुओ परहियत्थकारोय।। तहचेव लद्ध लक्खो श्गवीस गुणो हवश् सहो॥३॥ • भाषार्थ:-जो जीव धर्मके योग्य है वह २१ गुण अवश्य ही धारण करे क्योंकि गुणोंके धारणके ही प्रभावसे गृहस्थ सु. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) योग्यताको प्राप्त हो जाता है, और यशको धारण करता है, तथा गुणों के महत्वतासे जैसे चंद्र सूर्य राहुसे विमुक्त होकर सुंदरताको प्राप्त हो जाते हैं इसी प्रकार गुणों के धारक जीव पापोंसे छूट कर परमानंदको प्राप्त होते हैं । पुनः गुण ही सर्वको प्रिय होते हैं, गुणों का ही आचरण करना लोग सीखते हैं, और गुणों का विवर्ण निम्न प्रकारसे हैं, जैसे कि - १ अक्खुदो - सदैव काल अक्षुद्र वृत्तियुक्त होना चाहिये क्योंकि क्षुद्र वृत्ति सर्व गुणोंका नाश कर देती है और क्षुद्र वृत्ति वालेके चित्तको शान्ति नही आती, न चे ऋजुताको ही प्राप्त हो सक्ता है, न किसीके श्रेष्ठ गुणों को भी अवलोकन करके उनके चित्तको शान्ति रह सक्ति है, तथा सदा ही क्षुद्र वृत्तिवाला अकार्य करने में उद्यत रहता है, अपितु निर्लज्जताको ग्रहण कर लेता है, इस लिये अक्षुद्र वत्तियुक्त सदैवकाल होना चाहिये ॥ २ रूववं - मित्रवरो ! रूपवान् होना किसी औषधीके द्वारा नही वन सक्ता तथा किसी मंत्रविद्यासे नही हो सक्ता, केवल सदाचार ही युक्त जीव रूपवान् कहा जाता है । इस लिये सदाचार ब्रह्मचर्यादिको अवश्य ही धारण करना चाहिये जिसके द्वारा सर्व प्रकारकी शक्तियें उत्पन्न हो और सदैव काल चित्त प्रसन्नता रहे, लोगोंमें विश्वासनीय बन जाये, मन प्रफुल्लित रहे || Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१७४) ३ पगइ सोमो-सौम्य प्रकृति युक्त होना चाहिये अर्थात् शान्ति स्वभाव शूद्र जनोंके किये हुए उपद्रवोंको माध्यस्थताके साथ सहन करने चाहिये, और मस्तकोपरि किसी कालमें भी अशान्ति लक्षण न होने चाहिये । ४ लोअपिओ-लोकप्रिय होना चाहिये अर्थात् परोपकारादि द्वारा लोगोंमें प्रिय हो जाता है। परोपकारी जीव उच्च कोटि गणन किया जाता है। परोपकारियोंके सब ही जीव हितैषी होते हैं और उसकी रक्षामें उद्यत रहते हैं। परोपकारी जीव सर्व प्रकारसे धर्मोन्नति करनेमें भी समर्थ हो जाते हैं और अपने नामको अमर कर देते हैं । इस लिये लोगमें प्रिय कार्य करनेवाला लोगप्रिय बन जाता है। ५ अक्रो-क्रूरतासे रहित होवे अर्थात् निर्दयतासे रहित होवे। निर्दयता सत्य धर्मको इस प्रकारसे उखाड़ डालती है जैसे तीक्ष्ण परशुद्वारा लोग वृक्षोंको उत्पाटन करते हैं। निर्दयी पुरुष कभी भी ऊच्च कक्षाओंके योग्य नहीं हो सकता । क्रूर चित्तवाला पुरुष सदैव काल क्षुद्र वृत्तियोंमे ही लगा रहता है ।। ६ असट्टो-अश्रद्धावाला न होवे-अर्थात् सम्यक् दर्शन युक्त ही जीव सम्यक् ज्ञानको धारण कर सक्ता है। अपितु इत. Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) ना ही नहीं किन्तु श्रद्धायुक्त जीव मनोवांछित पदार्थोंको भी प्राप्त कर लेता है और देव गुरु धर्मका आराधिक वन जाता है। ७ मुदक्खिणो-मुदक्ष होवे-अर्थात् बुद्धिशील ही जीव · सत्य असत्यके निर्णयमें समर्थ होता है और पदार्थोंका पूर्ण माता हो जाता है, अपितु बुद्धिसंपन्न ही जीव मिथ्यात्वके बंधनसे भी मुक्त हो जाता है। बुद्धिद्वारा अनेक वस्तुओंके स्व. रूपको ज्ञात करके अनेक जीवोंको धर्म पथमें स्थापन करनेमें समर्थ हो जाता है, अपितु अपनी प्रतिभा द्वारा यशको भी प्राप्त होता है। ८ लज्जालूओ-लज्जायुक्त होना-वृद्धोंकी वा माता पिता गुरु आदिकी लज्जा करना, उनके सन्मुख उपहास्य युक्त चचन न वोलने चाहिये तथा उनके सन्मुख सदैव काल विनयमें ही रहना चाहिये तथा पाप कर्म करते समय लज्जायुक्त होना चाहिये अर्थात् अपने कुल धर्मको विचारके पाप कर्म न करने चाहिये। ९ दयालू-दयायुक्त होना-अर्यात् करुणायुक्त होना, जो जीव दुःखोंसे पीड़ित हैं और सदैवकाळ क्लेपमें ही आयु व्यतीत करते हैं वा अनाथ है वा रोगी हैं उनोपरि दया भाव प्रगट Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) करना और उनकी रक्षा करते हुए साथ ही उनोंको धर्मका उपदेश करते रहना, निर्दयता कभी भी चित्त न धारण करना, (अपितु ) आहिंसा धर्मका ही नाद करते रहना ॥ १० मन्भच्छो मध्यस्थ होना-अर्थात् स्तोक वार्ताओं परि ही क्रोधयुक्त न हो जाना चाहिये, अपितु किसीका पक्षपात भी न करना चाहिये, जो काम हो उसमें मध्यस्थता अवलंबन करके रहना चाहिये क्योंकि चंचलता कायाके सुधा. रनेमें समर्थ नहीं हो सक्ति अपितु मध्यस्थता ही काम सिद्ध करती है। ११ सोमदिही-सौम्य-दृष्टि युक्त होना-अर्थात् किसी उपर भी दृष्टि विपम न करना तथा किसीके सुंदर पदार्थको देख कर उसकी मत्सरता न करना क्योंकि प्रत्येक २ प्राणी अपने किये हुए कर्मों के फलोंको भोगते हैं। जो चित्तका विषम करना है वे ही काँका बंधन है ।। १२ गुणरागी-जिस जीवमें जो गुण हों उसीका ही राग करना अपितु अगुणी जीवमें मध्यस्थ. भाव अवलंबन करे, अन्य जीवोंको गुणमें आरूढ़ करे, गुणों का ही प्रचारक होवे। १३ सक्कह-फिर सत्य कथक होवे क्योंकि सत्य वक्ताको Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७ ) · कहीं भी भय नही होता, सत्यवादी सर्व पदार्थों का ज्ञाता होता सत्यवादी हो जीव धर्मके अंगोको पालन कर सक्ता है, सत्यवादीकी ही सब ही लोग प्रतिष्ठा करते हैं और सत्य व्रत सर्व जीवोंकी रक्षा करता है, इस लिये सत्यवादी बनना चाहिये ॥ १४ सपक्खजुत्तो - और सच्चेका ही पक्ष करना क्योंकि न्याय धर्म इसीका ही नाम है कि जो सत्ययुक्त हैं, उनके ही पक्षमें रहना, सत्य और न्यायके साथ वस्तुओं का निर्णय करना, कभी भी असत्य वा अन्याय मार्गमें गमण न करना, न्याय बुद्धि सदैव काल रखनी ॥ • १५ सुदीहदंसी - दीर्घदर्शी होना अर्थात् जो कार्य करने उनके फळाफलको प्रथम ही विचार लेना चाहिये क्योंकि बहुतसे कार्य प्रारंभ में प्रिय लगते हैं पश्चात् उनका फल निकृष्ट होता है, जैसे विवाहादिमें वेश्यानृत प्रारंभ में प्रिय पीछे धन यश वीर्य सवीका नाश करनेवाला होता है क्योंकि जिन बालकोंको उस नृतमें वेश्याकी लग्न लग जाती है वे प्रायः फिर किसीके भी वशमें नही रहते । इसी प्रकार अन्य कार्यों को भी संयोजन कर लेना चाहिये || १६ विसेसण्णू - विशेषज्ञ होना अर्थात् ज्ञानको विशेष करिंके जानना | फिर पदार्थों के फलाफलको विचारना उसमें फिर : Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) जो त्यागने योग्य कर्म हैं उनका परित्याग करना, जो जानने योग्य हैं उनको सम्यक् प्रकारसे जानना, अपितु जो आदरणे योग्य हैं उनको आसेवन करना तथा सामान्य पुरुषोंमें विशेयज्ञ होना, फिर ज्ञानको प्रकाशमें लाना जिस करके लोग अज्ञान दशामें ही पड़े न रहें || १७ वट्टाणुग्गो - वृद्धानुगत होना अर्थात् जो वृद्ध सुंदर कार्य करते आये हैं उनके ही अनुयायी रहना, जैसे कि - सप्त व्यसनोंका परित्याग वृडोने किया था वही परम्पराय कुलमें चली आती होवे तो उसको उल्लंघन न करना तथा वृद्ध उभय काल प्रतिक्रमणादि क्रियायें करते हैं उनको उसी प्रकार आचरण कर लेना, जैसे वृद्धोंने अनेक प्रकारसे जीवों की रक्षा की सो उसी प्रकार आप भी जीवदयाका प्रचार करना अर्थात् धार्मिक मर्यादा जो वृद्धोंने बांघी हुई हैं उसको अतिक्रम न करना ॥ १८ विणियो - विनयवान् होना क्योंकि विनयसे ही सर्व कार्य सिद्ध होते हैं, 'विनय ही धर्मका मुख्याङ्ग है, विनयसे ही सर्व सुख उपलब्ध हो जाते हैं, विनय करनेवाले आत्मा सबको प्रिय लगते हैं, विनयवानको धर्म भी प्राप्त हो जाता है, इस लिये यथायोग्य सर्वकी विनय करना चाहिये || Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ( १७९ ) १९ कयण्णूओ-कृतज्ञ होना अर्थात् किये हुए परोपकारका मानना क्योंकि कृतज्ञताके कारणसे सबी गुण जीवको प्राप्त हो जाते हैं जैसेकि-श्री स्थानांग सूत्रके चतुर्थ स्थानके चतुर्थ उद्देशमें लिखा है कि चतुर् कारणोंसे जीव स्वगुणोंका नाश कर बैठते हैं और चतुर ही कारणोंसे स्वगुण दीप्त हो जाते हैं, यथा क्रोध करनेसे १ ईष्या करनेसे २ मिथ्यात्वमें प्रवेश करनेसे ३ और कृतघ्नता करनेसे ४ ।। अपितु चार ही कारणों से गुण दीप्त होते हैं, जैसेकिं पुनः २ ज्ञानके अभ्यास करनेसे १ और गर्वादिके छदे वरतनसे २ तथा गुवादिका आनंदपूर्वक कार्य करनेसे ३ और कृतज्ञ होनेसे ४ अर्थात् कृतज्ञता करनेसे सर्व प्रकारके सुख उपलब्ध होते हैं, इस लिये कृतज्ञ अवश्य ही होना चाहिये ।। २० परहियत्थकारीय-और सदैव काल ही परहितकारी होना चाहिये अर्थात् परोपकारी होना चाहिये, क्योंकि परोप. कारी जीव सब ही का हितैषी होते हैं, परोपकारी ही.जीव धमकी वृद्धि कर सक्ते हैं, परोपकारीसे सर्व जीव हित करते हैं तथा परहितकारी जीव ऊच्च श्रेणिको प्राप्त हो जाता है, इस लिये परो. 'पकारता अवश्य ही आदरणीय हैं। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८०) २१ लदलक्खो-लब्धलक्षी होवे-अर्थात् उचित समयानुसार दान देनेवाला जैसे कि अभयदान, सुपात्र दान, शास्त्रः दान, ओषधि दान, इत्यादि दानाके अनेक भेद है किन्तु देशकालानुसार दानके द्वारा धर्मकी वृद्धि करनेवाला होवे, जैसे कि जीव (अभयदान) दान सर्व दानोंमें श्रेष्ठ है, यथागमे (दाणाण सेठं अभयं पयाणं) अर्थात् दानोंमें अभयदान परम श्रेष्ठ है । सो सूत्रानुसार दान करनेवाला होवे और दानके द्वाग जिन धर्म की उन्नति हो सक्ति है, दानसे ही जीव यश कर्मको प्राप्त हो जाते हैं । सो इस लिये श्रुत दान अवश्य ही करना चाहिये । फिर द्वादश भावनायें द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करता रहे, जैसेकिपढम मणिच्च मसरणं संसारे एगयाय अन्नत्तं ॥ असुश्तं आसव संवरोय तह निजरा नवमी १॥ लोगसहावोबोहीउबहा धम्मस्स सावहगायरिहा एया उन्नावणाउन्नावेयवा पयत्तेणं ॥२॥ ___ भाषार्थ:-संसारमें जो जो पदार्थ देखने में आते हैं वे सर्व अनित्यता प्रतिपादन कर रहे हैं । जो पदार्थोंका स्वरूप Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१) 'प्रातःकालमें होता है वह मध्यान्ह काळमें नही रहता, अपितु जो मध्यान्ह कालमें देखा जाता है वह सन्ध्या कालमें दृष्टिगोचर नही होता। इस लिये निज आत्मा विना पुद्गल सम्बन्धि जो जो पदार्थ हैं वे सर्व क्षणभंगुर हैं, नाशवान् हैं, जितने पुगलके सम्बन्ध मिले हुए हैं वे सब विनाशी हैं । इस प्रकारसे पदार्थोकी अनित्यता विचारना उसीका नाम अनित्य भावना है। अशरण नावना ॥ संसारमें जीवोंको दुखोंसे पीड़ित होते हुएको केवल एक 'धर्मका ही शरण होता है, अन्य माता पिता भार्यादि कोई भी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं होते तथा जव मृत्यु आती है उस कालमें कोई भी साथी नही बनता किन्तु एक धर्म ही है जो आत्माकी रक्षा करता है। अन्य जीव तो मृत्युके आने पर सर्व 'पृथक् २ हो जाते हैं किन्तु जव इन्द्र महाराज मृत्यु धर्मको प्राप्त होते हैं उस कालमें उनका कोई भी रक्षा नहीं कर सक्ता तो भला अन्य जीवोंकी वात ही कौन पूछता है? तथा जितने पासवर्ती धन धान्यादि हैं वे भी अंतकालमें सहायक नही बनते केवल आत्मस्वरूप ही अपना है और सर्व अशरण हैं, इस लिये यह उत्तम सामग्री जो जीवोंको प्राप्त हुई है उसको व्यर्थ न खोना चाहिये ।। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) संसार नावना ॥ संसार भावना उसका नाम है जो इस प्रकारसे विचार करता है कि यही आत्मा अनंतवार एक योनिमें जन्म मरण कर चुका है अपितु इतना ही नही किन्तु प्रत्येक २ जीवके साथ सर्व प्रकारसे सम्बन्ध भी हो चुके हैं, किन्तु शोक है फिर यह जीव धर्मके मार्गमें प्रवेश नहीं करता। अहो! संसारकी कैसी विचित्रता है कि पुत्र मृत्यु होकर पिता बन जाता है और पिता मरकर पुत्र होता है । इस प्रकारसे भी परिवर्तन होनेपर इस जीवने सम्यग् ज्ञानादिको न सेवन किया जिसके द्वारा इसकी मुक्ति हो जाती॥ एकत्व नावना॥ फिर इस प्रकारसे अनुप्रेक्षण. करे कि एकले ही जीव मृत्यु होते हैं और प्रत्येक २ ही जन्म धारण करते हैं किन्तु कोई भी किसीके साथ आता नही और न कोई किसी के साथ ही जाता है। केवल धर्म ही अपना है जो सदैवकाल जीवके साथ ही रहता है अथवा मेरा निज आत्मा ही है इसके भिन्न न कोई मेरा है और न मैं किसीका हूं। यदि मैं किसी प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित होता हूं तो मेरे सम्बन्धी उससे मुजे मुक्त नहीं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३) कर सक्ते और नाही मैं उनको किसी प्रकारसे दुःखोसे विमुक्त करनेमें समर्थ हैं। प्रत्येक २ प्राणी अपने २ किये हुए काँके फलको अनुभव करते हैं इसका ही नाम एकत्व भावना है। अन्यत्व भावना॥ हे आत्मन् ! तू और शरीर अन्य २ है, यह शरीर पुद्रकका संचय है अपितु चेतन स्वरूप है । तू अमूर्तिमान सर्व ज्ञानमय द्रव्य है। यह शरीर मूर्तिमान शून्यरूप द्रव्य है और तू अक्षय अव्ययरूप है, किन्तु यह शरीर विनाशरूप धर्मवाला है फिर तू क्यों इसमें मूञ्छित हो रहा है ? क्योंकि तू और शरीर भिन्न २ द्रव्य हैं । फिर तू इन कोंके वशीभूत होता हुआ क्यों दुःखोंको सहन कर रहा है ? इस शरीरसे भिन्न होनेका उपाय कर और अपनेसे सर्व पुद्गळ द्रव्यको भिन्न मान फिर उससे विमुक्त हों क्योंकि तू अन्य हैं तेरेसे भिन्न पदार्थ अन्य हैं ।। अशुचि नावना ॥ फिर ऐसे विचारे कि यह जीव तो सदा ही पवित्र है किन्तु यह शरीर मलीनताका घर है । नव द्वार इसके सदा ही मलीन रहते हैं अपितु इतना ही नहीं किन्तु जो पवित्र पदार्थ इस गंधमय शरीरका स्पर्श भी कर लेते हैं वह भी अपनी पवित्रता खो Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) बैठते हैं, क्योंकि इसके अभ्यन्तर मलमूत्र, रुधिर राघ, सर्व गंधमय पदार्थ हैं फिर मृत्युके पीछे इसका कोई भी अवयव काममें नही आता, परंतु देखने को भी चित्त नही करता । फिर यह शरीर किसी प्रकार से भी पवित्रताको धारण नही कर सक्ता, केवल एक धर्म ही सारभूत है अन्य इस शरीर में कोई भी पदार्थ सारभूत नही है क्योंकि इसका अशुचि धर्म ही है । इस लिये हे जीव ! इस शरीर में मूच्छित मत हो, इससे पृथक् हो जिस करके तुमको मोक्षकी प्राप्ति होवे || आस्रव भावना ॥ राग द्वेष मिथ्यात्व अत्रत कषाययोग मोह इनके ही द्वारे शुभाशुभ कर्म आते हैं. उसका ही नाम आस्रव है और आर्चध्यान, रौद्रध्यान इनके द्वारा जीव अशुभ कर्मोंका संचय करते हैं तथा हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, यह पांच ही कर्म आनेके मार्ग हैं इनसे प्राणी गुरुताको प्राप्त हो रहे हैं और नाना प्रकारकी गतियोंमें सतत पर्यटन कर रहे हैं। आप ही कर्म करते हैं आप ही उनके फलोंको भोग लेते हैं। शुभ भावों से शुभ कर्म एकत्र करते हैं अशुभ भावोंसे अशुभ, किन्तु अशुभ कर्मों का फल जीवोंको दुःखरूप भोगना पड़ता है, शुभ कर्मोंका सुखरूप फल होता है । इस प्रकारसे विचार करना उसका ही नाम आस्रव भावना ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८५) संवर नावना ॥ जो जो कर्म आनेके मार्ग हैं उनको निरोध करना वे संवर भावना है तथा क्रोधको क्षमासे वशमें करना, मानको मार्दव वा मृदुतासे, मायाको ऋजु भावासे, लोभको संतोषसे, इसी प्रकार जिन मागासे कर्म आते हैं उन मागौंका ही निरोध करना सो ही सम्बर भावना है जैसे कि अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, सम्यक्त्व, व्रत, अयोग, समिति, गुप्ति, चारित्र, मन वचन कायाको वशमें करना वे ही संवर भावना है। निर्जरा भावना ॥ निर्जरा उसका नाम है जिसके करनेसे कर्मोंके वीजका ही नाश हो जाये तव ही आत्मा मोक्षरूप होता है। वह निर्जरा द्वादश प्रकारके तपसे होती है उसीका ही नाम सकाम निर्जरा है, नही तो अकाम निर्जरा जीव समय र करते हैं किंतु अकाम निर्जरासे संसारकी क्षीणता नहीं होती। सकाम निर्जरा जीवको मुक्ति देती है अर्थात् ज्ञानके साथ सम्यग् चारित्रका आचरण करना उसके द्वारा जीव काँके वीजको नाश कर देते हैं और वही क्रिया जीवके कार्यसाधक होती है । सो यदि जीबने पूर्व सकाम निर्जरा की होती तो अब नाना प्रकारके कष्टों Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) को सहन न करता किन्तु अब वही उपाय किया जाये जिसके द्वारा सकाम निर्जरा होकर मुक्तिकी प्राप्ति होवे ॥ लोकस्वभाव भावना ॥ लोकके स्वरूपको अनुप्रेक्षण करना जैसेकि यह लोग अनादि अनंत है और इसमें पुद्गल द्रव्यकी पर्याय सादि सातन्ता सिद्ध करती है और इसमें तीन लोग कहे जाते हैं जैसेकि मनुष्यलोक स्वर्गलोक पाताललोक नृत्य करते पुरुषके संस्थानमें हैं, इसमें असंख्यात द्वीप समुद्र है, अधोलोकमें सप्त नरक स्थान हैं तथा भवनपति व्यन्तर देवोंके भी स्थान हैं, उपरि ६ स्वर्ग हैं ईषत् प्रभा पृथिवी है सो ऐसे लोगों शुचीके अग्रभाग मात्र भी स्थान नहीं रहा कि जिसमें जीवने अनंत चार जन्म मरण न किये हो, अर्थात् जन्म मरण करके इस संसारको जीवने पूर्ण कर दिया है किंतु शोक है फिर भी इस जीवकी संसारसे प्ति न हुई, अपितु विषयके मागमें लगा हुआ है । इस लिये लोकके स्वरूपको ज्ञात करके संसारसे निर्दृत्त होना चाहिये. वे ही लोकस्वभाव भावना है ॥ धर्म भावना ॥ इस संसारचक्रमें जीवने अनंत जन्म मरण नाना प्रकारकी योनियों में किये हैं किन्तु यदि मनुष्य भव प्राप्त हो Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) I गया तो देश आर्यका मिलना अतीव कठिन है क्योंकि बहुत से देश ऐसे भी पड़े हैं जिन्होंने कभी श्रुत चारित्र रूप धर्मका नाम ही नही सुना । यदि आर्य देश भी मिल गया तो आर्य कुलंका मिलना महान् कठिन है क्योंकि आर्य देशमें भी बहुतसे ऐसे कुळ हैं जिनमें पशुबध होता है और मांसादि भक्षण कर-ते हैं । यदि आर्य कुल भी मिल गया तो दीर्घायुका मिलना परम दुष्कर है क्योंकि स्वल्प आयुमें धार्मिक कार्य क्या हो सक्ते. ? भला यदि दीर्घायुकी प्राप्ति हो गई तो पंचिंद्रिय पूर्ण मिलनी अतीव ही कठिन हैं क्योंकि चक्षुरादिके रहित होनेपर दयाका पूर्ण फल जीव प्राप्त नही कर सक्ते । भला यदि इन्द्रिय पूर्ण हों तो शरीरका नीरोग होना बड़ा ही कठिन है क्योंकि व्याधियुक्त. ta धर्मकी बात ही नही सुन सक्ता । सो यदि शरीर भी नीरोग मिल गया तो सुपुरुषोंका संग होना महान् ही दुष्कर हैं क्योंकि कुसंग होना स्वाभाविक वात है । भला यदि सुजनोंका संग भी मिल गया तो सूत्रका श्रवण करना महान् कठिन है ।भला सूत्रको श्रवण भी कर लिया तो उसके उपरि श्रद्धानका होना अतीव दुष्कर है। भला यदि श्रद्धान भी ठीक प्राप्त हो गया तो धर्मका पालन करना परम कठिन है क्योंकि धर्मकी क्रिया: आशावान् पुरुषोंसे नही पल सक्ती किन्तु धर्म अनार्थीका नाथ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८ ) है, अवधका बांधव है, दुःखियोंकी रक्षा करनेवाला है, अमित्रोंवालोका मित्र है, सर्वकी रक्षा करनेवाला है, धर्मके प्रभाचसे सर्व काम ठीक हो रहे हैं तथा धर्म ही यक्ष, राक्षस, सर्प, हाथी, सिंह, व्याघ्र, इनसे रक्षा करता है अर्थात् अनेक कष्टोंसे बचानेवाला एक धर्म ही है । इस लिये पूर्ण सामग्री के मिलने 'पर धर्ममें आलस्य कदापि न करना चाहिये । हे जीव ! तेरेको उक्त सामग्री पूर्णता से प्राप्त है इस लिये तू अब धर्म करनेमें प्रमाद न कर | यह समय यदि व्यतीत हो गया तो फिर मिलना असंभव है । इस प्रकारके भावोंको धर्म भावना कहते हैं ॥ . बोधबीज भावना ॥ संसार रूपी अर्णवमें जीवोंको सर्व प्रकारको ऋद्धियें प्राप्त हो जाती है किन्तु बोधबीजका मिलना बहुत ही कठिन है अर्थात् सम्यक्त्वा मिलना परम दुष्कर है । इस लिये पूर्वोक्त सामग्रियें मिलने पर सम्यक्त्वको अवश्य ही धारण करना चाहिये, अर्थात् आत्मस्वरूपको अवश्य ही जानना चाहिये । सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रके द्वारा शुद्ध देव गुरु धर्मकी निष्ठा करके आत्मस्वरूपको पूर्ण प्रकारसे ज्ञात करके सम्यग् चारित्रको धारण करना चाहिये क्योंकि संसारमें माता पिता भगिनी भ्राता भार्या पुत्र धन धान्य सर्व प्रकार के Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९ ) संयोग मिल जाते हैं परंतु बोधवीज ही माप्त होना कठिन है । इस लिये बोधवीजको अवश्य ही प्राप्त करना चाहिये । इस प्रकारसे जो आत्मामें भाव धारण करता है उसीका नाम बोधवीज भावना है । सो यह द्वादश भावनायें आत्माको पवित्र करनेवाली हैं, कर्ममळके धोनेके लिये महान् पवित्र वारिरूप. हैं, संसार रूपी समुद्र में पोत के तुल्य हैं, द्वादश व्रतोंको निष्कलंककरनेवाली है और अतिचारोंको दूर करनेवाली हैं, सत्यरूपके बतलानेवाली हैं, मुक्तिमार्ग के लिये निश्रेणि रूप हैं । इस ळिये माणीमात्रको इनके आश्रयभूत अवश्य ही होना चाहिये |फिर निम्नलिखित चार प्रकारकी भावनायें द्वारा लोगों से वर्ताच करना चाहिये || मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाऽविनयेषु । तत्त्वा सूत्र छा० ० सू० १९ ॥ इसका यह अर्थ है कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ, यह चार ही भावनायें अनुक्रमता से इस प्रकारसे करनी चाहियें जैसे कि सर्व जीवोंके साथ मैत्रीभाव, एकेन्द्रियसे पंचिद्रिय, पर्यन्त किसी भी जीवके साथ द्वेष भाव नहीं करना और यह Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (, १९०) भाव रखनेसे कोई जीव पाप कर्म न करे, नाही दुःखोंकों प्राप्त होवे, यथाशक्ति जीवोंपर परोपकार करते रहना, अन्तःकरणसे वैरभावको त्याग देना उसका ही नाम मैत्री भावना है। और जो अपनेसे गुणोंमें वृद्ध हैं धर्मात्मा हैं परोपकारी हैं सत्यवक्ता हैं ब्रह्मचारी हैं दयारूप शान्तिसागर हैं इस प्रकारके जनोंको देखकर प्रमोद करना अर्थात् इष्यों न करना अपितु हर्ष प्रगट करना और उनके गुणोंका अनुकरण करना प्रसन्न होना उनकी यथायोग्य भक्ति आदि करना उसीका नाम प्रमोद भावना है। और जो लोग रोगोंसे पीड़ित हैं दुःखित हैं दीन हैं वा । पराधीन हैं तथा सदैव काल दुःखोंको जो अनुभव कर रहे हैं ‘उन जीवों पर करुणा भाव रखना और उनको दुःखोंसे विमुक्त करनेका प्रयत्न करते रहना यथाशक्ति दुःखोंसे उनपीड़ित जीवोंकी रक्षा करना उसीका ही नाम कारुण्य भावना है अर्थात् सर्व जीवोपरि दयाभाव रखना किन्तु दुःखियोंको देखकर हर्ष न प्रगट करना सोई कारुण्य भावना है। और जो जीव अविनयी हैं सदैवकाल देव गुरु धर्मेसे प्रतिकूल कार्य करनेवाले हैं "उन जीवोंमें माध्यस्थ भाव रखना अर्थात् उनको यथायोग्य शिक्षा तो करनी किन्तु द्वेष न करना वही.माध्यस्थ्य भावना है। सों यह चार ही भावनायें आत्मकल्याण करनेवाली हैं और Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवोंको सुमार्गमें लगानेवाली हैं और सत्यपथकी दर्शक हैं। इनका अभ्यास माणी मात्रको करना चाहिये क्योंकि यह संसार अनित्य है, परलोकमें अवश्य ही गमन करना है, माता पिता भायर्यादि सब ही रुदन करते हुए रह जाते हैं आरै फिर उसका अग्नि संस्कार कर देते हैं, और फिर जो कुछ उसका द्रव्य होता है वे सब लोग उसका विभाग कर लेते हैं किन्तु उसने जो कर्म किये थे वे उन्ही काँको लेकर परलोकको पहोंच जाता है और उन्ही फर्मों के अनुसार दुःख सुख रूप फलको भोगता है, इस लिये जब मनुष्य भव प्राप्त हो गया है फिर जाति आर्य, कुल आर्य, क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य,भाषा आर्य,शिल्पार्य जब इतने गुण आयताके भी प्राप्त हो गये फिर ज्ञानार्य, दर्शनार्य चारित्रार्य, अवश्य ही बनना चाहिये । तत्त्वमार्ग के पूर्ण वेत्ता होकर 'परोपकारियोंके अग्रणी बनना चाहिये और सत्य मार्गके द्वारा सत्य पदार्थों का पूर्ण प्रकाश करना चाहिये। फिर सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रसे स्वआस्माको विभूषित करके मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति होवे । फिर 'सिद्धपद जो सादि अनंत युक्त पदवाला है उसको प्राप्त होकर अजर अमर सिद्ध बुद्ध ऐसे करना चाहिये । 'अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतमुख, अनंतववलवीर्य युक्त होकर Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२) जीव मोक्षमें विराजमान हो जाता है, संसारी बंधनोसे सर्वथा ही छूटकर जन्ममरणसे रहित हो जाता है और सदा ही सुखरूपमें निवास करता है अर्थात् उस आत्माको सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्रके प्रभावसे अक्षय सुखकी प्राप्ति हो जाती है। आशा है भव्य जन उक्त तीनों रत्नोंको ग्रहण करके इस प्रवाहरूप अनादि अनंत संसारचक्रसे विमुक्त होकर मोक्ष. रूपी लक्ष्मीके साधक बनेंगे और अन्य जीवोंपर परोपकार करके सत्य पथमें स्थापन करेंगे जिस करके उनकी आत्माको सर्वथा शान्तिकी प्राप्ति होवेगी और जो त्रिपदी महामंत्र है जैसेकि उत्पत्ति: नाश, ध्रुव, सो उत्पत्ति नाशसे रहित होकर ध्रुव व्यवस्था जो निज स्वरूप है उसको ही प्राप्त होगे क्योंकि उ. त्पत्ति नाश यह विभाविक पोय है किन्तु त्रिकालमें सतरूपमें रहना अर्थात् निज गुणमें रहना यह स्वाभाविक अर्थात् निजगुण है। सो कर्ममलसे रहित होकर शुद्धरूप निज गुणमें सर्वज्ञता वा सर्वदर्शितामें जीव उक्त तीनों रत्नों करके विराजमान हो जाते हैं। मैं आकांक्षा करता हूं किभव्य जीव श्री अईन्देवके प्रतिपादन किये हुए तत्वोंद्वारा अपना कल्याण अवश्य ही करेंगे। ३ इति श्री अनेकान्त सिद्धान्त दपर्णस्य चतुर्थ सर्ग समाप्त । Page #201 --------------------------------------------------------------------------  Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पुस्तक मिलने के पत्ते ॥ mon यह पुस्तक निम्न लिखित पतेसे विक्रित मिलती है ॥ श्री जैन सभा - पञ्जाब वात्रु परमानंद - प्लीडर, बी. ए. अमृतसर. · कसूर (जिला- लाहौर) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- _