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(९६) कर्मसे क्षत्रिय २ कर्मसे वैश्य ३ कर्मसे शूद्र ४ जीव हो जाता • है। किन्तु मनुष्य जाति एक ही है, क्रियाभेद होनेसे वर्णभेद
हो जाते हैं । सर्व योनियों में मनुष्य भव परम श्रेष्ठ है जिसमें सत्यासत्यका भली भांतिसे ज्ञान हो सकता है और सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रके द्वारा मुक्तिका कार्य सिद्ध कर सक्ता है। किन्तु सम्यग् ज्ञानके पंच भेद वर्णन किये गये हैं जैसेकिमतिज्ञान १ श्रुत ज्ञान २ अवधि ज्ञान ३ मनापर्यव ज्ञान ४ केवल ज्ञान ५, अपितु मति ज्ञानके चतुर भेद हैं जैसेकिअवग्रह १ ईहा ३ अवाय ३ धारणा ४॥
(१) इन्द्रिय और अर्थकी योग्य क्षेत्रमें प्राप्ति होने पर उत्पन्न होनेवाले महा सत्ता विषयक दर्शनके अनन्तर अवान्तर सत्ता जातिसे युक्त वस्तुको ग्रहण करनेवाला ज्ञानविशेष अग्रवह कहलाता है ।। (२) अवग्रहके द्वारा जाने हुए पदार्थमें होनेवाले संशयको दूर करनेवाले ज्ञानको ईहा कहते हैं, जैसेकि अवग्रहसे निश्चित पुरुष रूप अर्थमें इस प्रकार संशय होने पर कि "यह पुरुष दाक्षिणात्य है अथवा औदीच्य ( उत्तरमें रहनेवाला)" इस संशयके दूर करनेके लिये उत्पन्न होनेवाले ' यह दाक्षिणात्य होना चाहिये । इस प्रकारके ज्ञानको ईहा कहते हैं ॥ (३) भाषा आदिकका विशेष ज्ञान होने पर उसके यथार्थ स्वरूपको