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( १२७ ) कर दान देवे अर्थात् साधुओंकी वैयावृत्य करे ९॥ और मन वचन कायासे शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रतको पालन करे जैसेकि पूर्वे लिखा जा चुका है १० ॥ ब्रह्मचर्यकी रक्षा तपसे होती है सो तप *द्वादश प्रकारसे वर्णन किया गया है । यथा
(१) व्रतोपवासादि करने या आयुपर्यन्त अनशन करना, (२) स्वल्प आहार आसेवन करना, (३) भिक्षाचरीको जाना, (४) रसोंका परित्याग करना, (५) केशढुंचनादि क्रियायें, (६) इन्द्रियें दमन करना, (७) दोष लगनेपर गुर्वादिके पास विधिपूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त धारण करना, (८) और जिनाज्ञानुकूल विनय करना, (९) वैयाहत्य (सेवा) करना, (१०)फिर स्वाध्याय ( पठनादि ) तप करना, (११) आपतु आतध्यान रौद्रध्यानका परित्याग करके धर्मध्यान शुक्लध्यानका आसेवन करना, (१२) अपने शरीरका परित्याग करके ध्यानमें ही मग्न हो जाना || अपितु द्वादश प्रकारके तपको पालण करता हुआ द्वाविंशति परीषहोंको शान्तिपूर्वक सहन करे ॥ जैसेकि
• * द्वादश प्रकारके तपका पूर्ण विवणे श्री उववाइ आदि सूत्रोंसे देखो।