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(१४७) स्मोपरि पापोंका भार एकत्र कर रहे हैं, इस लिये प्राणिवध (शिकार) का त्याग अवश्यमेव ही करना चाहिये ।
पष्टम व्यसन-परस्त्री संग है, जिसके ग्रहणसे अनेक राजाओंके भयाणक संग्राम हुए और उनको परम कष्ट भोगने पड़े। अपितु कतिपयोंके तो प्राण भी चले गये और परस्त्री संगसे अनेक दुःख जैसेकि-अपयश, मृत्युका भय, रोगोंकी वृद्धि, शरीरका नाश, राज्यदंड इत्यादि अनेक. कष्ट भोगने पड़ते हैं, इस लिये गृहस्थ लोग पष्टम व्यसनका भी परित्याग करें ।
सप्तम व्यसन-चौर्य कम है, सो यह भी महा हानिकारक, वध धादिका दाता, निंदनीय दुःखोंकी खानि, धर्मके वृक्षको काटनके लिये परशु, सुकृतिका नाश करता, जिसके आसेवनसे देशम अशान्ति इत्यादि अवगुणोंका समूह है सो धर्मकी इच्छा करता हुआ गृहस्थ इस चौर्य कर्मका भी परिहार करे । फिर द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार धर्मका उदय करता हुआ गुरु मुखसे द्वादश व्रत धारण करे जो निम्न लिखितानुसार है ।।
थुलाउ पाणावायाउ वेरमणं ।। स्थूल जीवहिंसासे नित्तिरूप प्रथम अनुव्रत है क्योंकि सर्वथा जीवहिंसाकी तो गृहस्थी निवृत्ति नही कर सक्ते, इस