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(१४६ ) करनेवालोंकी दुर्गति होती है वह भी लोगोके दृष्टिगोचर ही है। इस लिये यह परम निंदनीय कम अवश्य ही त्यागने योग्य है ।।
चतुर्थ व्यसन-वेश्यासंग है। इसके द्वारा भी जो जो प्राणी कष्टों का अनुभव करते हैं वे भी अकयनीय ही हैं क्योंकि यह स्वयं तो मलीन होती ही है अपितु संग करनेवाले मळीनतासे अतिरिक्त शरीरके नाश करनेवाले अनेक रोगोंका भी पारितोषिक ले आते हैं। फिर वे उन पारितोपिक रूप रोगोंका आयुभर अनुभव करते रहते हैं। वेश्यागामीके सत्य शील तप दया धर्म विद्या आदि सर्व सुगुण नाशताको प्राप्त हो जाते हैं। फिर जो उनकी गति होती है वे महा भयाणक लोगोंके सन्मुख ही है, इस लिये गृहस्थ लोग वेश्या संगका अवश्य ही परिहार करे।
पंचम व्यसन-आहेटक कर्म है। जो निर्दय आत्मा वनवासी निरापराधि वणों आदिसे निर्वाह करनेवाले हैं उन प्राणियोंका वध करते हैं, वे महा निर्दय और महा अन्याय करनेवाले हैं, क्योंकि अनाथ प्राणियोंका वध करना यह कोई शरवीरताका लक्षण नही है। बहुतसे अज्ञात जनोंने इस कर्मको अवश्यकीय ही मान लिया है, वे पुरुष सदैवकाल अपनी आ