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(१४६) मनुष्य जन्मको हार देता है इस लिये सातोंका ही अवश्य त्याग करना चाहिये, जैसेकि-प्रथम व्यसन द्युतकर्म है अर्थात् जूयका खेलना सब आपत्तियोंकी खानि है और जुयारीको सव ही अकार्य करने पड़ते हैं। यश संपत सुनाम धैर्य सत्यं संयम सुकर्म इत्यादि सर्वका ही यह धुतकर्म नाश कर देता है इस लिये यह व्यसन त्यागनीय है।
द्वितीयं व्यसन-मांसभक्षण कदापि न करे क्योंकि यह कर्म अति निदित धर्मका ही नाश करनेवाला है और आर्यती. का नष्ट करनेवाला है। अनेक रोग इसके द्वारा उत्पन्न होते हैं। फिर यह ऋण है क्योंकि जिस प्राणीका जिस आत्माने मांस. भक्षण किया है उस प्राणीके मांसको भी वह अवश्य ही खायेंगे तथा विचारशील पुरुषोंका कथन है कि-जो पशु (सिंहादि) मांसाहारी जब वे कुछ परोपकार नही कर सक्ते तो भला जो मनुष्य मांसाहारी हैं उनसे परोपकारकी क्या आशा हो सक्ती है? इस लिये द्वितीय व्यसन मांसभक्षणका त्याग करना चाहिये ।
तृतीय व्यसन मुरापान है जो बुद्धिका विध्वंसक सत्य गुणांका नाशक है और धर्म कर्मसे पराङ्मुख करनेवाला है जिसकी उत्पत्ति भी परम घृणादायक है। और जो मद्यपान