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(१२९ ) 'धा परीपहको सम्यक् प्रकारसे सहन करे किन्तु जो रिसे विरुद्ध है ऐसे आहारको कदापि भी न आसेवन करें १ ।। इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुके आने पर निर्दोष जलके न मिलने पर यदि महापिपास (सपा) भी लगी हो तो उसको शान्तिपूर्वक ही सहन करे, अपितु सचित जल वा वृत्ति विरुद्ध पाणी न ग्रहण करे, क्योंकि परीषहके सहन करनेसे अनंत काँकी वर्गना क्षय हो जाती है २॥ और शीत परीषदको भी सहन करे क्योंकि सा. धुके पास प्रमाणयुक्त ही वस्त्र होता है सो यदि शीतसे फिर भी पीड़ित हो जाय तो अग्निका स्पर्श कदापि भी न आसेवन करे ३ | फिर ग्रीष्मके ताप होनेसे यदि शरीर परम आकुल.. व्याकुल भी हो गया हो तद्यपि स्नानादि क्रियायें अथवा सुखदायक ऋतु शरीरकी क्षेमकुशलताकी न आकांक्षा करे ४॥ साथ ही ग्रीष्मताके. महत्वसे मत्सरादिके दंश भी शान्तिपूर्वक सहन करे, उन क्षुद्र आत्माओंपर क्रोध न करे ५॥ वस्त्रोंके जीर्ण होनेपर तथा वन न होनेपर चिंता न करे तथा यह मेरे वन जीर्ण वा मलीन हो गये हैं अब मुने नूतन कहाँसे मिलेंगे वा अब जीर्ण वस्त्र परिष्ठापना करके नूतन लूंगा इस प्रकारके हर्ष विपवाद न करे ६॥ यदि संयममें किसी प्रकारकी चिंता उत्पन्न हुई हो तो उसको दूर करे ७ ॥ और मनसे स्त्रियोंका