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(१२२) होते हैं और प्रथम हास्य मनोहर पीछे दुःखपद होता है और हासीयुक्त जीव सत्यकी रक्षा करनेमें भी समर्थ नहीं होता है । इस लिये सत्य व्रतके धारण करनेवाले हास्यको कदापि भी आसेवन न करें। सो उपर लिखी पंच ही भावनाओं करके युक्त द्वितीय व्रतको धारण करना चाहिये।
तृतीय महाव्रतकी पंच नावनायें।
प्रथम भावना-निर्दोष वस्ती शुद्ध योगोंका स्थान जहाँपर किसी प्रकारकी विकृति उत्पन्न नहीं होती, और वह स्थान स्वाध्यायादि स्थानों करके भी युक्त है, स्त्री पशु क्लीवसे भी वर्जित है अर्थात् जिनाज्ञानुकूल है ऐसे स्थानकी विधिपूर्वक आज्ञा लेवे अर्थात् विनाज्ञा कहींपर न ठहरे, तब ही तृतीय व्रतकी रक्षा हो सक्ती है, क्योंकि व्रतकी रक्षा वास्ते ही यह भावनायें हैं ॥
द्वितीय भावना-यदि किसी स्थानोपरि प्रथम ही तृणादि पड़े हो वह भी विनाज्ञान आसेवन न करे ।।
तृतीय भावना-पीठफळक-शय्या-संस्तारक इत्यादिकोंके वास्ते स्वयं आरंभ न करे अन्योंसे भी न करावे तथा अनुमोदन भी न करे और विषम स्थानको सम न करावे नाही किसी आत्माको पीड़ित करे ॥