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चतुर्थ भावना - जो आहार पाणी सर्व साधुओंका भाग युक्त है वे गुरुकी विनाआज्ञा न आसेवन करे क्योंकि गुरु सर्वके स्वामी है वही आज्ञा दे सक्ते हैं अन्यत्र नही ॥
पंचम भावना - गुरु तपस्वी स्थविर इत्यादि सर्वकी विनय करे और विनयसे ही सूत्रार्थ सीखे क्योंकि विनय ही परम तप है विनय ही परम धर्म है और विनयसे ही ज्ञान सीखा हुआ फलीभूत होता है और तृतीय व्रतकी रक्षा भी सुगमता से हो जाती है, इसलिये तृतीय महाव्रत भावनायें युक्त ग्रहण करे ॥ चतुर्थ महाव्रतकी पंच नावनायें ॥
प्रथम भावनां - ब्रह्मचर्यकी रक्षा वास्ते अलंकार वर्जित उ-पाश्रय सेवन करे क्योंकि जिस वस्तीमें अलंकारादि होते हैं उस वस्ती में मनका विभ्रम हो जाना स्वाभाविक धर्म है, सो वस्ती वही आसेवन करे जिसमें मनको विभ्रम न उत्पन्न हो ॥
द्वितीय भावना - स्त्रियों की सभा में विचित्र प्रकारकी कथा न करे तथा स्त्री कथा कामजन्य, मोहको उत्पन्न करनेवाली यथा स्त्रीके अवयवोंका वर्णन जिसके श्रवण करनेसे वक्ता श्रोतें सर्व ही मोहसे आकुल हो जाये इस प्रकार की कथा ब्रह्मचारी कदापि न करे |