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(१०३.) ही नाम उपदेशरुचि है २॥ फिर जिसका राग द्वेष मोह अज्ञान अवगतं हो गया हो उस आत्माको आज्ञारुचि हो जाती है ३॥ जिसको अंगसूत्रों वा अनंगसूत्रोंके पठन करनेसे सम्यक्त्व रत्न उपलब्ध होवे उसको सूत्ररुचि होती है अर्थात सूत्रोंके पठन करनेसे जो सम्यक्त्व रल प्राप्त हो जावे उसका ही नाम सूत्ररुचि है ४ ॥ एक पदसे जिसको अनेक पदोंका बोध हो जावे और सम्यक्त्व करके संयुक्त होवे पुन: जलमें तैलबिंदुवत् जिसकी बुद्धिका विस्तार है उसका ही नाम बीजरुचि है ५॥ जिसने श्रुतज्ञानको अंग सूत्रोंसे वा भकीणोंसे अथवा दृष्टिवादके अध्ययन करनेसे भली भांति जान लिया है अर्थात् श्रुतज्ञानके पूर्ण आशयको प्राप्त हो गया है तिसका नाम अभिगम्यरुचि है ६ ॥ फिर सर्व द्रव्योंके जो भाव हैं वह सर्व प्रमाणों द्वारा उपलब्ध हो गये हैं और सर्व नयों के मार्ग भी जिसने जान लिये हैं उसका ही नाम विस्ताररुचे है ७ ॥ और ज्ञान दर्शन चारित्र तप विनय संत्य सामित गुप्तिमें जिसकी आत्मा स्थित है सदाचारमें मग्न है उसका ही नाम क्रियारूचि है ८॥ जिसने परमतकी श्रद्धा नही ग्रहण की अपितु जिन शास्त्रों में भी विशारद नहीं हैं किन्तु भद्रपरिणामयुक्त ऐसे जीवको संक्षेपरुचि होती है ९ ॥ पट् द्रव्योंका स्वरूप जिसने भलिभां
श्रुत
॥ फिर
और सर्वन
और ज्ञान