SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७६) करना और उनकी रक्षा करते हुए साथ ही उनोंको धर्मका उपदेश करते रहना, निर्दयता कभी भी चित्त न धारण करना, (अपितु ) आहिंसा धर्मका ही नाद करते रहना ॥ १० मन्भच्छो मध्यस्थ होना-अर्थात् स्तोक वार्ताओं परि ही क्रोधयुक्त न हो जाना चाहिये, अपितु किसीका पक्षपात भी न करना चाहिये, जो काम हो उसमें मध्यस्थता अवलंबन करके रहना चाहिये क्योंकि चंचलता कायाके सुधा. रनेमें समर्थ नहीं हो सक्ति अपितु मध्यस्थता ही काम सिद्ध करती है। ११ सोमदिही-सौम्य-दृष्टि युक्त होना-अर्थात् किसी उपर भी दृष्टि विपम न करना तथा किसीके सुंदर पदार्थको देख कर उसकी मत्सरता न करना क्योंकि प्रत्येक २ प्राणी अपने किये हुए कर्मों के फलोंको भोगते हैं। जो चित्तका विषम करना है वे ही काँका बंधन है ।। १२ गुणरागी-जिस जीवमें जो गुण हों उसीका ही राग करना अपितु अगुणी जीवमें मध्यस्थ. भाव अवलंबन करे, अन्य जीवोंको गुणमें आरूढ़ करे, गुणों का ही प्रचारक होवे। १३ सक्कह-फिर सत्य कथक होवे क्योंकि सत्य वक्ताको
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy