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________________ ( २४ ) संसारावस्थार्मे भिन्न नही होते क्योंकि ऐसा कोई भी प्राणी नही है कि जिसके एक ही प्रकृति सर्वथा रही हो || पापतत्त्व रोगीको अपथ्य आहारकी नांइ है जैसे रोगीको अपथ्य भोजन बढ़ जाता है, उसी प्रकार उसकी नीरोगता भी घटती जाती है । इसी प्रकार आत्मा जब अशुभ परमाणुओं से व्याप्त होता है तब इसके पुण्यरूप परमाणुः भी मंद दशाको प्राप्त हो जाते हैं | आस्रवतत्व के दो भेद हैं । द्रव्यास्रव १ भावास्रव २ | द्रव्य आसव उसका नाम है जैसे कुंभकार चक्र करके घट उत्पन्न करता है, इसी प्रकार आत्मा मिध्यात्वादि करके कर्मरूप आस्रव ग्रहण करता है । भावास्रव उसका नाम हैं जैसे तड़ागके पाणी आनेके मार्ग हैं इसी प्रकार जीवके आस्रव है, तथा जैसे मंदिरका द्वार नावाका छिद्र है इसी प्रकार जीवको आस्रव है | किन्तु हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, यह पांच ही कर्मोंके प्रवेश करनेके मार्ग हैं सो इन्हीं के द्वारा कर्म आते हैं, इस लिये इन्हीं मार्गों का ही नाम भाव आस्रव है अपितु आस्रव जीव नहीं है जीवमें कर्म आनेके मार्ग हैं | सम्वरतत्त्व उसका नाम है जो जो कर्म आनेके मार्ग हैं उन्हीं के वशमें करे जैसे तड़ागके पाणी आनेके मार्ग हैं उनको
SR No.010010
Book TitleJain Siddhanta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Upadhyaya
PublisherJain Sabha Lahor Punjab
Publication Year1915
Total Pages203
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size6 MB
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