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( २६ ) प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ त० सू० अ० ८ सु० २०॥
अर्थः- प्रायश्चित ७ विनय ८ वैयावृत्य ९ स्वाध्याय १० व्युत्सर्ग १९ ध्यान १२ यह पट् प्रकार के अभ्यन्तर तप हैं । इनका उब्वाइ सूत्र, विवाहमज्ञप्ति सूत्र, प्रश्न व्याकरण सूत्र तथा नव तत्वादि ग्रंथोंसे पूर्ण स्वरूप जानना योग्य हैं |
बंधतत्वका यह स्वरूप है कि आत्माके साथ कपका द्रव्यार्थिक नयापेक्षा अनादि सान्त सम्वन्ध है और अनादि अनंत भी है, क्योंकि जीवतन्त्र अर्हनके ज्ञानमें दो प्रकारके हैं, जैसेकि - भव्य १ अभव्य । सो यह भव्य अभव्य स्वाभाविक ही जीव द्रव्यके दो भेद हैं किन्तु परिणामिक भाव नही हैं, अपितु जीव द्रव्यमें कर्मोंका सम्बन्ध पर्यायार्थिक नयापेक्षा सादि सान्त है, किन्तु इनकी एकत्वता ऐसे हो रही है जैसे कि - तिलोंमें तैळ १ दुग्धमें घृत २ सुवर्णमें रज ३ इसी प्रकार जीव द्रव्यमें कमका सम्बन्ध है, जिसके प्रकृतिबंध १ स्थितिबंध २ अनुभागबंध प्रदेशबंध ४ इत्यादि अनेक भेद हैं, अपितु यह कमका बंध आत्माके भावों पर ही निर्भर है ||
मोक्षतच्च उसको कहते हैं, जैसे तिलोंसे तैल पृथक् हो
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