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(६४) का दर्शनावर्णी कर्म क्षयोपशम हो जाता है तब आत्मामें घट पट पदार्थों को देखनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसीका ही चक्षु दर्शन है क्योंकि चक्षुर्दशी जीव घटादि पदार्थोंको चक्षुओं द्वारा भली प्रकारसे देख सकता है दूरवर्ती होने पर भी। अचक्षु दर्शन जीवके आत्मा भावमें रहेता है क्योंकि चक्षुओंसे भिन्न श्रोतेंद्रियादि चतुरिंद्रियों द्वारा जो पदार्थोंका वोध होता है अथवा मनके द्वारा जो स्वमादि दर्शनोंका निर्णय किया नाता है उसका नाम अचक्षुदर्शन है और अवधि दर्शन युक्त जीवकी प्रवृत्ति सर्व रूपि द्रव्यों में होती है किन्तु सर्व पर्यायों में नही हैं क्योंकि अवधि दर्शन रूपि द्रव्योंको ही देखनेकी शक्ति रखता है न तु सर्व पर्यायोंकी, सो इसका नाम अवधिं दर्शन है । अपितुं केवल दर्शन सर्व द्रव्यों और सर्व पर्यायोंमें स्थित है क्योंकि सर्वज्ञ होने पर सर्व द्रव्योंको
और सर्व पर्यायोंको केवळ दर्शन युक्त जीव सम्यक् प्रकारसे देखता है सो इसका ही नाम दर्शन गुण प्रमाण है ।।
अथ चारित्र गुण प्रमाण वर्णनः ॥
मूल ॥ सेकित्तं चरित्त गुणप्पमाणे २ पंचविहे पं. तं. सामाइय चरित्त गुणप्पमाणे डेउवठाव