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संयोग मिल जाते हैं परंतु बोधवीज ही माप्त होना कठिन है । इस लिये बोधवीजको अवश्य ही प्राप्त करना चाहिये । इस प्रकारसे जो आत्मामें भाव धारण करता है उसीका नाम बोधवीज भावना है । सो यह द्वादश भावनायें आत्माको पवित्र करनेवाली हैं, कर्ममळके धोनेके लिये महान् पवित्र वारिरूप. हैं, संसार रूपी समुद्र में पोत के तुल्य हैं, द्वादश व्रतोंको निष्कलंककरनेवाली है और अतिचारोंको दूर करनेवाली हैं, सत्यरूपके बतलानेवाली हैं, मुक्तिमार्ग के लिये निश्रेणि रूप हैं । इस ळिये माणीमात्रको इनके आश्रयभूत अवश्य ही होना चाहिये |फिर निम्नलिखित चार प्रकारकी भावनायें द्वारा लोगों से वर्ताच करना चाहिये ||
मैत्री प्रमोद कारुण्य माध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाऽविनयेषु । तत्त्वा
सूत्र छा० ० सू० १९ ॥
इसका यह अर्थ है कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ, यह चार ही भावनायें अनुक्रमता से इस प्रकारसे करनी चाहियें जैसे कि सर्व जीवोंके साथ मैत्रीभाव, एकेन्द्रियसे पंचिद्रिय, पर्यन्त किसी भी जीवके साथ द्वेष भाव नहीं करना और यह