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भावार्थ:- पुद्गल द्रव्यका यह स्वभाव है कि एकत्व हो जाना तथा पृथक् २ अर्थात् भिन्न होना तथा संख्यावद्ध वा संस्थान रुपमें रहना । संस्थानके ५ भेद है जैसेकि परिमंडल अर्थात गोलाकार १० वृत्ताकार २० साकार ३. चतुरंसाकार ४. दीर्घा - कार ५. और परस्पर पुगलोंका संयोग हो जाना, फिर वियोग होना, यह पुद्गल द्रव्यके स्वाभाविक लक्षण हैं । फिर संयोग वियोगके होने पर जो आकृति होती है उसको पर्याय कहते हैं । अपितु पृथक् वा एकत्व होनेके मुख्यतया दो कारण हैं, स्वाभाविक वा कृत्रिम । सो यह दो कारण ही मुख्यतया जगत्में विद्यमान हैं, जैसेकि जो कृत्रिम पुगल सम्बन्ध है उसके लिये सदैव काल जीव स्त्रः परिश्रमसे प्रायः यही कार्य करता दी - खता है । तथा काल स्वभाव नियति ३ कर्म, पुरुषार्थ अर्थात् समयके अनुसार स्वभाव होनहार कर्म पुरुषार्थका होना और उसीके द्वारा अशुभ पुद्गलोंका वियोग शुभ पुद्गलों का संयोग होता रहे और मोक्षका साधक जीव तो सदैव काल यही परिश्रम करता है कि मैं पुगलके बंधन से ही मुक्त हो जाऊँ ॥ जो स्वाभाविक पुगळका संयोग वियोग होता है, वह तो स्वः स्थिसिके अनुसार ही होता है । तथा जो वस्त्र, भाजन, तथा धानादि जो जो पदार्थ ग्रहण करनेमें आते हैं तथा जो जो प