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देपादि शत्रुओंको जीत लिया है वही जिन है। फिर, देवता ॥ शा० अ० २ पा० ४ । सू० २०६ ॥ __ प्रथमान्तात् साऽस्यदेवतेत्यस्मिन्नर्थे अणादयो नवंति ॥ इत्यण ॥ आईतः॥ एवं जैनः सौगतः शैवः वैष्णवः इत्यादि।
भापार्थ:-इस तद्धितके सूत्रका यह आशय है कि प्रथमान्तसे देवार्थम अणादि प्रत्यय होजाते हैं यथा अर्हन् देवता अस्य आहेतः । जिनो देवताऽस्य जैनः (आरचोऽध्यादेः । शा० अ०२।३ । ८४) __इस सूत्रसे आदि अच्को आ-ऐ-औ-आर् येह हो जाते हैं। तब यह अर्थ हुआ कि जिन है जिनका देव वही है जैन अथवा ( जिनं वेत्तीति जैनः ) अर्थात् जो जिनके स्वरूपको जानता है वही जैन है ॥ तथा जिनानां राजः जिनराजः यह पष्ठीतत्पुरुष समास है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो सामान्य जिन हैं उनका जो राजा है वही जिनराज है अर्थात् तीर्थकर देव । इसी प्रकार जिनेन्द्र शब्द भी सिद्ध होता है । सो जो श्री जिनेन्द्र देवने