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अपमानको भी शान्तिसे ही आसेवन करे १९ || बुद्धि महान् होनेपर अहंकार न करे, यदि स्वल्प बुद्धिं होवे तो शोक न करे २० ॥ फिर ऐसे भी न विचारे की मेरेको ज्ञान तो हुआ ही नही इस लिये जो कहते हैं मुनियोंको लब्धियें उत्पन्न हो जाती है वे सर्व कथन मिथ्या है, क्योंकि जेकर ज्ञान वा लब्धियें होती तो मुजे भी अवश्य ही होती २१ ।। और षट् द्रव्य वा तीर्थकरों के होने में भी संदेह न करे अर्थात् सम्यक्त्व से स्खलित न हो जावे २२ || इस प्रकारसे द्वाविंशति परपिहाँको सम्यक् प्रकारसे सहन करता हुआ धर्मध्यान वा शुक्लध्यानम प्रवेश करता हुआ मुनि अष्ट कर्मोंकी वर्गना से ही मुक्त हो जाता है; अष्ट कर्मों से ही संसारी जीव संसार के बंधनोंमें पड़े हुए हैं इनके ही त्यागने से जीवकी मुक्ति हो जाती है ।। यथा-ज्ञानावण १ दर्शनावर्णी २ वेदनी ३ मोहनी ४ आयु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय कर्म ८ || इन कर्मोंकी अनेक प्रकृतियें हैं जिनके द्वारा जीव सुखों वा दुखोंका अनुभव करते हैं, जैसेकि - ज्ञानावर्णी कर्म ज्ञानको आवर्ण करता है अर्थात् ज्ञानको न आने देता सदैव काल प्राणियोंको अज्ञान दशामें ही रखता है, पांच प्रकार के ही ज्ञानको आवर्ण करता है और यह कर्म जीवोंको धर्म अधर्म की परीक्षा से भी पृथक् ही रखता है अर्थात् इस कर्मके बलसे