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-The TFIC Team.
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जैनज्योतिष.
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यह ग्रंथ दिगंबर जैनाचार्य- श्री० उमास्वामिकृत तत्वार्थसूत्र, श्रीपूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि टीका, श्री. भट्टाकलंककृत राजवार्तिकभाष्य, श्री विद्यानंदिस्वामिकृत लोकवार्तिकमाष्य और श्री० नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकचक्रवर्तीकृत त्रिलोकसार इन ग्रंथोंपरसे छांटकर एकत्रित करके प्रसिद्ध किया.
लेखक-शंकर पंढरीनाथ रणदिवे. प्रकाशक-हिराचन्द नेमचन्द दोशी, शोलार
पं० वंशीधर उदयराज के 'श्रीधर प्रेस, शोलापु
छापा गया. प्रथमावृत्ति.) न्योछावर आठ आना (प्रतिपांचसौ.
ई. सन १९३१ जानेवारी.
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शासनदेवतासंबंधी ध्यान में रखने योग्य श्लोक
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चरोपलिप्सयाऽथावान् रागद्वेपमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ भयाशास्नेहलोभाच कुदेवागमलिंगिनाम् । प्रमाणं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥
(श्री समंतभद्राचार्य )
श्रावणापि पितरौ गुरूरानाप्यसंयताः । कुलिंगिनः कुदेवाच न वंद्याः सोऽपि संयतः ॥
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टीका: कुलिंगिनः तापसादयः पार्श्वस्थादयश्च । कुदेवा रुद्रादयः 1, शासनदेवतादयश्च ॥
अनगारधर्मामृत - आशाघर.
आपदाकुलितोऽपि दर्शनिकः तन्निवृत्यर्थ शासनदेवतादीन । कदाचिदपि न भजते पाक्षिकस्तु भजत्यपि ॥
सागारधर्मामृत-आशाधर.
नाभेयाद्यपसव्यपार्श्वविहितन्यासास्तदाराधका । अव्युत्पन्नदृशः सदैहिकफलप्राप्तीच्छ्याछति यानू ॥ आमंत्र्य क्रमशो निवेश्य विधिवत्पत्रांतरालेषु तान् । कृत्वारादधुना धिनोमि बलिभिर्यक्षांचतुर्विंशतिम् ॥ संभावयंति वृषभादिजिनानुपास्य । तद्वामपार्श्वनिहिता वरलिप्सवो याः ॥
चक्रेश्वरीप्रभृतिशासन देवतास्ताः : द्विद्वादशदलमुखेषु यजे निवेश्य || पंडितैर्भश्चारित्रैर्वठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिनचंद्रस्य निर्मलं मलिनीकृतं ॥
अनगारधर्मामृत.
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भूमिका.
यह जैनज्योतिष नामका थ जैनसमाजमें प्रसिद्ध करनेका हेतु ऐसा है कि
अन्यमतियोंके ज्योतिपथ-सूर्यसिद्धांत, सिद्धान्तशिरोमणि ( भास्कराचार्य बनाये ), ग्रहलाघव [गणेश दैवज्ञका बनाया हुवा ], मुहर्तमार्तण्ड, मुहूर्तचितामणि, जातकामरण, जातकालंकार इत्यादि ग्रंथ मन्यमति वैदफे माधारसे बनाये हुए हैं।
वेदके बारेमें श्री आदिनाथ पुराणके रचयिता श्री० जिनसेनाचार्य पर्व ३९ में कहते हैं।
"श्रोतान्यपि हि वाक्यानि संमतानि क्रियाविधो॥ न विचारसहिष्णूनि दुःप्रणीतानि तानि वै ॥१०॥
अर्थात्:-धर्मक्रियाओंफे करनेमें जो वेदोंके वाक्य माने गये हैं वे भी विचार करनेपर कुछ अच्छे नहीं नान पडते, अवश्य ही वे वाक्य दुष्ट लोगोंके बनाये हुए हैं ॥१०॥"
इस परसे सिद्ध होता है कि-दुष्ट लोगोंके बनाये हुए वेद व वेदोंके माधारसे रचे हुवं. सिद्धान्तशिरोमणि गोलाध्यायादि ग्रंथोंपर विश्वास रखकर रुई आलसी इत्यादि पदार्थोकी तेजी मंदी समझकर
वेपार करते हैं, उस वेपारसे हजारों जैनियोंने नुकसान पाया है। . केईने तो अपना घरदार खो दिया है और नादार बन गये हैं ।
केईने तो कर्जदारीके भयसे आत्महत्या करलिई है। ऐसे बहोत संकटमें परे हुये देखे जाते हैं । सो ये अन्यमति मिथ्यात्वी ग्रंथोंपर भरवसा रखना ! अथवा जैनज्योतिष ग्रंथोंपर रखना ? ऐसा विचार उत्पन्न
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होनेसे यह सर्वमान्य दिगंबरजैनाचार्यप्रणीत अंयोंके भाषारसे यह जैनज्योतिष ग्रंथ एकत्रित किया हैं।
मिथ्यात्वी अन्यमती ग्रंथोंके आधारसे जो शुभाशुभ फल बतलाया गया है उसमें से कुछ वाक्य यहां उद्धृत किये जाते हैं।--
प्रयाणको शुभाशुभवार
(ज्योतिषसार पृ• १७१ ) अर्के क्लेशमनर्थकं च गमने सोमे च बंधुप्रिये ॥ चांगारेऽनलतस्करज्वरभयं प्राप्नोति चाथै बुधे ॥ क्षेमारोग्यसुखं करोति च गुरौ लाभश्वशुक्रे शुभो । मंदे बंधनहानिरोगमरणान्युक्तानि गर्गादिमिः ॥ २२ ॥
अर्थात-रविवारको गमन करनेसे मार्ग में क्लेश और अनर्थ प्राप्त होता है. सोमवारको बंधु और प्रियदर्शन; मगलको अमि, चोर व ज्वरभय, बुधको द्रव्य लक्ष्मी प्राप्ति. गुरुवारको क्षेम मारोग्य, सुख प्राप्ति: शुक्रवारको लाभ शुभफलकी प्राप्ति; शनिवारको बंधन, हानि, रोग, मरण प्राप्त होता है।
प्रयाणमें उक्त नक्षत्र
(ज्योतिषसार पृ० १७३) हस्तेंदुमैत्रश्रवणाश्चितिष्यपोष्णश्रविष्ठाश्च पुनर्वसुश्च ॥ प्रोक्तानि धिष्ण्यानि नव प्रयाणे त्यक्त्वा त्रिपंचादिमसप्तताराः॥१७॥
अर्थात्-हस्त, मृगशीर्ष, अनुराधा, प्रवण, अश्विनी, पुष्य, रेवती, धनिष्ठा, पुनर्वसु ये नक्षत्र गमनमें उक्त हैं, परंतु ३, ५, १, ७ ये वारा गमनमें त्यागना.
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मध्यम नक्षत्र. उत्तरा रोहणी चित्रा मूलमाा तथैव च ॥ जलोत्तरा भादविश्वे प्रयाणे मध्यमाः स्मृताः ॥ १८ ॥
अर्थात्-रोहिणी, उत्तरा, मूल, चित्रा, आर्द्रा, पूर्वाषाढा, उत्तराभाद्रपदा, उत्तराषाढा ये नक्षत्र प्रस्थानमें मध्यम जानना.
वर्ण्य नक्षत्रपूर्वात्रय मघा ज्येष्ठा भरणी जन्म कृत्तिका ॥ सा स्वाती विशाखा च गमने परिवर्जयेत् ॥ १९ ॥ एकविंशतयोऽग्नेस्तु भरण्याः सप्तनाडिकाः ॥ एकादश मघायाश्च त्रिपूर्वाणां च षोडश ॥ २० ॥ विशाखासार्पचित्राणां रौद्रस्वात्योश्चतुर्दश ॥
आधास्तु घटिकास्त्याज्या: शेषांशे गमनं शुभं ॥ २१ ॥ अर्थात्-तीनों पूर्वा, मघा, ज्येष्ठा, भरणी, जन्मनक्षत्र, कृत्तिका, भआश्लेषा, स्वाती, विशाखा ये नक्षत्र प्रयाणमें त्यागना; परंतु संकट समयमें तीनों पूर्वाकी १६ घडी, मघाकी ११ घडी, ज्येष्ठा संपूर्ण, भरणी ७ घडी, कृत्तिकाकी २१ घडी जन्मनक्षत्र संपूर्ण, आश्लेषा, विशाखा, चित्रा, स्वाती, आर्द्रा इन नक्षत्रकी आदिकी ११ घडी त्यागके प्रयाण करना।
"ज्योति शास्त्रफलं पुराणगणकैरादेश इत्युच्यते " अर्थात-पौराणिक ज्योतिषीलोग कहते हैं कि-गणितज्योतिष तो केवल शुभाशुभ निर्णय ही के लिये है।"
(सिद्धान्तशि० गोला० पृ० २२ श्लो० २६) लग्ने च क्रूरभवने क्रूरः पातालगो यदा ॥ • दशमे भवने क्रूरः कष्टं जीवति बालकः ॥ १॥
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अर्थात्-क्रूर ग्रहका लान होय और ४ स्थानमें क्रूर ग्रह होय, १० स्थानमें भी क्रूर होय तो उस बालकका जीवन बडा कष्टसे जानना।
(ज्योतिषसार भाषा पृ. ७३) सप्तमे भुवने भानोर्मध्यस्थो भूमिनन्दनः ॥
राहुय॑ये तथैवापि पिता कप्टेन जीवति ॥ २॥ अर्थात- सप्तस्थानमें सूर्य होय और बारहवे स्थानमें राहु होय और इनके मध्यस्थानमें मंगल होय तो पिता बहुत कष्टसे बचे !
(ज्योतिषसार भाषा पृ०७३) अष्टमस्थो यदा राहुः केंद्रे चंद्रश्वनीचंगः ॥ तस्य सद्यो भवेन्मृत्युर्यालकस्य न संशयः ।। ३.॥
अर्थात्-अष्टमस्थानमें राहु और केंद्र में नीचका चंद्रमा होय तो बालक उसी वक्त मृत्यु पावे इसमें कुछ संदेह नहीं
(ज्यो० सा० पृ० ७३) चतुर्थे च यदा राहुः पृष्ठे चंद्रोष्टमेऽपि वा ॥ सद्य एवं भवेन्मृत्युः शंकरो यदि रक्षति ॥ १ ॥
अर्थात्--जन्म समयमें चतुर्थ स्थानमें राहु ६ अथवा चंद्रमा ८ होय तो बालक तत्काल मृत्यु पावेगा; शंकर रक्षाकरे तो भी बचेगा नहीं.
(ज्यो० सा० पृ० ७२) सूर्यात्रिकोणास्तगौ मंदारौ पापभगौ जन्मनि पिताबद्धः॥
चंदेंगे मन्देन्त्ये पापदृष्टे कारागारे जन्म ॥ २ ॥ अर्थात्-जन्मलग्नमें सूर्यसे नवम, पंचम वा सप्तम स्थानमें पापग्रहकी राशिपर शनि मंगल होवे तो उस बालकका पिता कैदमें समझना चाहिये ॥ चंद्रमा लाग्नमें होवे और शनि बारहमें होवे और इनपर पापग्रहकी दृष्टि होवै तो उस बालकका जन्म कारागार (जेलखाना ) में हुवा जानना ॥२॥
(ज्योतिषसार भाषा पृ.६१)
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(५)
ऐसे अन्यमति मिध्यात्वी शास्त्रोंके आधार लेकर केई जैनीभाईने यात्रार्थ प्रयाण किया था । केई वर्षों पहले नातेपुते गांव के ( ता० माळशिरस जि. सोलापूर ) अंदाज पचीस तीस नैनी श्री सम्मेद शिखरनी के यात्रार्थ उत्तम सुमूहूर्त देखकर निकले थे. पीछे लौटते बखत सब बीमार होकर आये दो चार आदमी रेलमेंहि मर गये अर मकामें पोहोचने पर कुछ दिन पीछे और भी दो चार मर गये । शोला1 पुरके जैनी दसाहूमड तलकचंद हरीचंद प्रेमचंद गुजराथमें सिद्धक्षेत्र तारंगाजीके पहाडपर मंदिरनीकी प्रतिष्ठा करनेके लिये अन्यमति प्रख्यात ज्योतिषियों के पास सुमुहूर्त देखकर घरसे निकले थे परंतु उनके हाथसे वहां प्रतिष्ठा हुई नहीं, प्रतिष्ठा होनेके पहिले आठ दस दिन रास्तेमें मर गये ।
श्रीतीर्थक्षेत्र शत्रुंजय पालिठाणा में मंदिरप्रतिष्ठा करने के वास्ते शोलापुर से सेठ रावजी कस्तुरचंद अन्यमति प्रसिद्ध ज्योतियोंके पास सुमुहूर्त देखकर घर से निकले थे प्रतिष्ठाके समय भट्टारक गुणचंद्र और भट्टारक कनककीर्ति इनमें वहाँ झगडा हुवा सो पालीठाणाके फौजदारने मिटाया और सेठ रावजी कस्तुरचन्दका जवान पुत्र वहां ही मर गया ।
और भी शोलापुर के शेठ फत्तेचंद वस्ता गांधी केसरीयाजीके या - त्रार्थ जानेके समय अन्यमति प्रसिद्ध ज्योतिषियों के पास सुमुहूर्त देखकर - ही घरसे निकले थे। शोलापुर स्टेशनसे दो स्टेशनपर माढा गाँव है वहां अपने सगेसोयरे को मिलनेके वास्ते उतरे थे परन्तु वहां खूनके गुन्हे वे पकडे गये पोलिस उनको पूनेको लेगये वहां उनको जन्मकालापानीकी सजा हो गई भर भाखरको वहां ही उनका देहावसान होगया ।
पूनेके
रा. बालगंगाधर तिलक बी. ए. एल. एल. बी. जिनकूं राजद्रोह के गुन्हे बाबद सजा हुई थी यह बात मि व्हालंटाइन चिरोल
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नामक एक अंग्रेजने अपने पुस्तकमें प्रसिद्ध की थी. उनके ऊपर बालगंगाधर टिलकने अपनी अनुकसानी हुई ऐसा दावा निलायतके प्रीव्हीकौंसिल में . दाखल किया था. वह दावा · चलानेके वास्ते नव तिलकसाहब पूनेसे निकले उस बखत अन्यमति प्रख्यात ज्योतिषियोंने उनको कहा था कि-" तुम दावा जीतोगे " परन्तु मि. तिलकने दावा जीता नहीं वे हार गये, यह बात उन्होंने पुनेके अखवारवालोंको लिखी ऐसा उस बखतके पूनेके ज्ञानप्रकाशपरसे मालुम होता है। मि.तिलकने उस वखत उन ज्योतिपशास्त्रीयोंको उद्देशकर अंग्रेजी अखबारों में लिखा था की-" व्हेअर आर दोन अॅस्ट्रा लॉजर्स हूप्रेडिक्टेड माय सक्सेस्" ! . ऐसे ही- महात्मा गांधीजी ता० १२ नोव्हेंबर १९३० को जेलखानेसे मुक्त होनेवाले हैं ऐसे बहुतसे अन्यमति ज्योतिष लोगोंने भाषित किया हुवा अखबारोंमें उस वखत प्रगट हुवा था, लेकिन मान ता. १२ जानेवारी १९३१ हो गयी तो भी उनकी मुक्तता' नहीं हुयी ! __ इस ही प्रकार अन्यमतके वसिष्ठ ऋपि नो रामचन्द्रजीके परम गुरु समझते हैं उन्होंने जिस दिन शुभमुहूर्तपर रामचंद्रजीको राज्याभिषेक करनेको ठहरा था, लेकिन उस दिन रामचन्द्रजीको राज्याभिषेकके बदले वनवास ही भोगना प्राप्त हुवा ! इस आशयका अन्यमत ग्रन्थमें ऐसा उल्लेख है
कर्मणो हि प्रधानत्वं किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहाः ॥ वसिष्ठो दत्तलग्नश्च रामः किं भ्रमते वनम् ॥१॥
इससे ऐसा तर्क होता है कि--रामचन्द्रजीके गुरु वसिष्ठाचार्य इनकी योग्यता अन्यमतमें बड़ी भारी मानी गई है व वे बड़े विद्वान् माने गये हैं तो ऐसे रामचन्द्रजीके परम पवित्र श्रेष्ठ गुरु वसिष्ठाचार्य इस फलज्योतिःशानमें निष्णात न थे क्या ? अथवा यह फरज्योतिःशाख
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(७)
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ही असत्य है ? यहां यह किसकी गलती समझना ? इन बातोंका योग्य खुलासा निःपक्षपाती विद्वान अवश्य करें?
मुम्बईसे मद्राससे कलकत्तासे व पंजाबसे जो रेलगाडी निकलती हैं उसमें बैठनेवाले लोग वैधृति, व्यतिपात अमावास्या, मृत्युयोग, दग्धयोग यमघंटयोग ऐसे कुमुहूर्तपर निकलते हैं व वे भी इच्छित स्थलकू खुषीसे पहुचते हैं। और उनमें बैठे हुए हजारों प्यासिंजर्स अनेक स्टेशनपर उतरकर मानंदसे अपने अपने मकानों में जाते हैं। ___ कोई दफे अमृतसिद्धियोग सरीखे सुमुहूर्तपर निकली हुई रेलगाडी मकस्मात् होनेसे गिर जाती है इस बखत अन्दर बैठे हुये प्यासिंजर्स मृत्युमुहमें पडते हैं या जखमी भी होते हैं। ऐसे समयमें सुमुहूर्त या तिथि उनको सहाय करते नहीं. इसी तरह सुमुहूर्त प्रयाण समयमें देखने की मावश्यकता नहीं है ऐसा सिद्ध होता है।
कोई इसम कुयोगपर मरण पाया हो तो उस बखत-"पंचक किंवा सप्तक " उसको लगे हुये नान गेहूं के आटाके पांच या सात पुतले बनाकरके वे उस प्रेतके बराबर रखकर जलानेके अन्य मती मिथ्यास्वी ज्योतिषी कहते हैं। लेकिन ऐसा करना पाप है ऐसें जैनशास्त्रों में कहा है। कितने उपाध्येलोग भी ऐसे प्रसंगमें--जिन भगवानकी मूर्तीका पंचामृतसे अभिषेक करना कहते हैं परंतु ऐसा भी . करनेको जनज्योतिषमें कहा नहीं हैं उपाध्ये लोग अपने स्वार्थकेलिये ऐसे कहते हैं। ___ अन्यमती मिथ्यात्वी ज्योतिषशास्त्रों में वधुवरोंके घटित देखनेको कहा है उसमें-गण, नाडी, योनि, वैर योनि, प्रीति षडाष्टक, पाघडीमंगल, मृत्युषडाष्टक, चुदडी मंगल वगैरह अनेक प्रकार वधुवरोंके जन्मनक्षत्रोंसे देखते हैं उस बखत वधुवरोंके गुण मठारहसे जादा छत्तीस तक भानेसे वह घटित पसंत करते हैं। इस प्रकार उत्तम घटित जुले हुये 'ये
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दांपत्य इनमें से बहोत स्त्रियां विधवा हुई देखने में आती हैं। यौर बहोतसे पुरुष भी विधुर हुये ऐसे देखने में आते हैं ।
इससे अन्यमति मिथ्यात्वी लोगोंके ज्योतिषशास्त्रोंसे यह घटित देखना व्यर्थ है ऐसा कहना पडता.
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स्वयंवर के समय यह घटित देखना शक्य ही नथा, वहां एकत्रिवहुये राजे उसमें से जो वर उस राजकन्याके दिलको आयगा वह ही पसंत करके उसके गले में माला डालती है । नैनज्योतिषमें घटित देखनेको कहा नहीं. इससे कितने कलियुगी पंडित कहते हैं कि सब जैनशास्त्र तुमने देखा है क्या ? दूसरे कितने कहते हैं- हाल अन्यमति प्योतिष सरिखा जैनज्योतिष ग्रंथ उपलब्ध होने बाद हम तुमको बतायेंगे । ऐसा कह कर हालही अन्यमति मिथ्यात्वी ज्योतिषमयों के ऊपर विश्वास रखनेको कहते हैं व ब्राह्मणोंके और अपने ग्रंथ एकही हैं उनमें समन्वय करना चाहिये ऐसे कहते हैं याने किसी प्रकारसे अन्यमति ब्रामणोंके ग्रंथ नैनलोकोंमें घुसढ देना यह उनकी इच्छा दीखती है.
केई पंडितलोक नितिशास्त्र में अन्यमति मिध्यात्वीका ज्योतिषशास्त्र घुस देना चाहते हैं । परंतु इस बारे में आदिनाथ पुराण पर्व ४१ में जो लिखा है सो इस मुजब -
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तदुपज्ञं निमित्तानि (दि) शाकुनं तदुपक्रमम् ॥
तत्सर्गों ज्योतिषां ज्ञानं तं मतं तेन तत्रयम् ॥ १४७॥
इन दो श्लोकोंका अर्थ पं. दौलतरामजी अपने आदिपुराण वचनिका पर्व ४१ पत्र ७८६ में ऐसा लिखते है
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66 अर निमित्तशास्त्र, शकुनशास्त्र ताहीके भाषे अर ताहीका भारख्या ज्योतिषशास्त्र ये तीनं शास्त्र याहीके मरूपे सो सब शास्त्रनिके पाठी याही गुरु नानि आरापते भए ॥ १४७ ॥ "
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( ९ )
इससे सिद्ध होता है कि - निमित्तशास्त्र अलग है और ज्योतिषशास्त्र अलग है और शाकुन शास्त्र भी अलग है । हमने जो जैनज्योतिष इस ग्रंथ में बताया है वोहि ज्योतिष भरतचक्री जानते थे । निमित्तशास्त्र यह ज्योतिषशास्त्र से अलग है इसमें कोई संदेह नहीं.
केई पंडित जिनवाणी में अन्यमति ज्योतिषी ग्रंथ घुसड देना चाहते हैं उसका एक भास्कराचार्यने बना हुवा सिद्धांत शिरोमणि नामका ग्रंथ है उसमें गोलाध्याय नामका एक प्रकरण है उसमें पृथ्वी गोलाकार है और घूमती है ऐसा कहा है सो ऐसा लिखना जैनधर्मसे बिलकुल विरुद्ध है. जैनशासन में दो सूर्य और दो चंद्र बताये हैं उसका भी खण्डन सिद्धांत शिरोमणिमें किया है सो इस मुजब है
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अन्यमतके ज्योतिषशास्त्र -
भास्कराचार्य सिद्धान्त शिरोमणेः गोलाध्यायः । भास्कराचार्यकृत सिद्धान्त शिरोमणि उसमेंका यह गोलाध्याय है, इस ग्रंथके पृ. २७ में लिखा है सो इस मुजब -
" द्वौ द्वौ रवीन्द्र भगणौ च तद्वदेकान्तरौतावदयं ब्रजेताम् यदब्रुवन्नेवमनम्वराद्या ब्रवीम्यतस्तान् प्रति युक्तियुक्तं ॥ ८ ॥ अर्थात् - जैन लोग कहते हैं कि दो सूर्य, दो चंद्रमा, दो राशि - चक्र प्रभृति हैं जिन दो २ मेंसे एक के भीतर दूसरेका उदय होता है इसका उत्तर मैं कहता हूं ॥ ८ ॥
भूः खेऽधः खलु यातीति बुद्धिबौद्ध ! मुधा कथम् ॥ जाता यातन्तु दृष्ट्वापि खेयत्क्षिप्तं गुरुक्षितिम् ॥ ९ ॥ अर्थात - हे बौद्ध ? जिस समय किसी वस्तुको फेंकते हो तो फेंकते समय वह वस्तु पुनः पृथ्वी में गिरती है, इसको देखते हुए और पृथ्वीको
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(१०) गुरुपदार्थ जानते हुए भी पृथ्वी शुन्यमें नीचेको पतित होती है, ऐसा भ्रममूलक विश्वास क्यों करते हो ? ॥ ९॥
किं गुण्यं तव वैगुण्यं यो वृथा कृथाः ॥ भादूना विलोक्यान्हा ध्रुवमत्स्यपरिभ्रमम् ॥ १० ॥
अर्थात्-जब ध्रुव नक्षत्रका परिभ्रमण प्रतिदिन देखते हो तो चंद्रमा, सूर्यादिकी दो २ व्यर्थ कल्पना क्यों करते हो? एक क्या तुझारे वैगुण्यमें न गिना नावे ! ॥ १० ॥
यदिसमामुकुरोदरसन्निभाभगवतीचरणीतरणिः क्षितेः ॥ उपरिदुरगतोऽपिपरिभ्रमन्किसुनरैरमररिव नेक्ष्यते ॥ ११ ॥
अर्थात्-यदि यह पृथ्वी दर्पणोदरकी नाई समतल होती तो इसके ऊपर और दूर भ्रमण करनेसे · सूर्य क्यों देव और मनुष्योंको दृष्ट होगा ? ॥ ११ ॥ यदि निशाजनकः कनकाचलः किमुतदन्तरगः स न दृश्यते ॥ उदगयं ननु मेरुरथांशुमान कथमुदेति च दक्षिणभागके ॥ १२ ॥ ___ अर्थात्--यदि कनकाचलही रात्रि होने में कारण होता है तो सूर्यके भीतर जानेपर वह पहाड क्यों नहीं दीखता ? मेरु उत्तरगोलमें मदृश्य है तो सूर्य किस प्रकार दक्षिणगोलमें दृश्य होगा ? ॥ १२ ॥ भूपंजरस्य भ्रमणालोकादाधारशून्याकुरिति प्रतीतिः ॥ स्वस्थं न दृष्टश्च गुरुक्षमातः खेऽधः प्रयातीति प्रवदन्ति बौद्धाः ।।
अर्थात् - भूमण्डलके भ्रमणको देखकर पृथिवीका आधार रहितता होना बोध होता है एवं पृथिवीके अलग होकर शुन्यमें किसी गुरुपदार्थको अपने आप ठहरने नहीं देखकर बौद्ध लोग कहते हैं कि पृथिवी आकाशके नीचेकी और जाती है ॥ ७ ॥"
( सिद्धांत शि० गोलाध्याय पृ. २७)
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यदि भास्कराचार्यादि अन्यमति सिद्धांत शिरोमणि आदि ग्रंथोमें जैनमतके सिद्धांतका खंडन किया हुवा देखनेमें आता है तो ऐसे अन्यमति मिथ्यास्वियोंके ग्रंथोंपर जैनी कैसा विश्वास रख्खेगा ! विश्वास रखनेसे समयमूढताका दोष उसको लगेगा यह स्पष्ट हैं.
वृहद्दव्य संग्रहके संस्कृत टीकाकार श्री ब्रह्मदेवजी-" जीवादीसदहणं." इस गाथाके नीचे समयमूढताका लक्षण पृ० १५१ में लिखते हैं
" अथ समय मूढत्वमाह-- । अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादक ज्योतिष्कमंत्रवादादिकं दृष्ट्वा वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागमलिंगानां भयाशास्नेहलोभधार्थ प्रणामविनयपूजापुरस्करादिकरणं समयमूढत्वमिति ।"
अर्थात्-अब समयमूढ माने शास्त्र अथवा ,धर्ममूढताको कहते हैं। अज्ञानी लोगों के चित्तमें चमत्कार ( आश्चर्य ) उत्पन्न करनेवाले जो ज्योतिष अथवा मंत्रवाद आदिको देख कर; श्रीवीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुवा जो समय ( धर्म ) है उसको छोडकर मिथ्यादृष्टिदेव, मिथ्या मागम और खोटा तप करनेवाले कुलिंगी इन सबका भयसे, वांच्छासे, स्नेहसे और. लोभके वशसे जो धर्मकेलिये प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार मादिका करना उस सबको समयमूढता जानना चाहिये ।
इसपरसे सिद्ध होता है कि-अन्यमति ज्योतिषशास्त्र मंत्रतंत्रशास्त्र इनोंपर भरोसा रखना नहीं, फक्त सर्वमान्य दिगंबर जैनाचाचार्यप्रणीत जैनशास्त्रोंपर ही भरोसा रखना सो ही सच्चा जैनी कहा जायगा ।
केई जैनीपंडित कहते हैं कि--" प्रभातफे समय सूर्यका ताप बहोत कम लगता है और दोपहरको बड़ा प्रखर लगता है व शामको • बहोत कम लगता है इससे सूर्यग्रहके किरणोंमें तीव्रता और मंदता सिद्ध
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( १२ )
होती है ऐसेही सभी ग्रहों के संबंध में जानना चाहिए " इसका उत्तर हम ऐसा देते हैं- प्रभात कालकी गरमी और दोपहरकी गरमी व शामके वखतकी गरमी में तफावत रहाही करता हैं । प्रभात समय सब प्राणियों को समा नतः भरमी कम लगती है व दोपहर के समय सब प्राणियोंको गरमी समानतः अधिक लगती है फिर शाम बखत वह गम्मी कम हो जाती है । मेषराशीवालेको गरमी अधिक लगती है. वहही गरमी वृषभराशीवालेको कम लगती ऐसा कभी नहीं हो सकता.
देहली में धूपकालके वैशाख मासमें ११२ एकसौ बारह डिग्री गरमी रहती हैं; श्रावण मासमें ८० अस्सी डिग्री और पौष मासमें ६० साठ डिग्री अंदाज रहती हैं सो सभी प्राणियोंको समान जानी जाती हैं वैसेही हरएक जगे में अलग अलग प्रमाणसे गरमी गिनी जाती है परंतु मेष आदि राशीवालको अधिक और वृषभादि राशी वालेको गरमी कमती लगती है ऐसा जाननेमें आता नहीं है; सभीको थंडी या गरमी समान भासती है; अभ्यासके सबबसे केई लोग थंडी गरमी नादा सहन करते हैं केई कम सहन करते हैं। सरदी गरमीका बोना मेव वृषभादि राशी ऊपर लादना तिरर्थक है ।
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ये जैनी पंडित ब्राह्मणोंके शास्त्रको अपनाया करते हैं, ब्राह्मणोंका ज्योतिषशास्त्र और जैनज्योतिष शास्त्रमें कोई भी सूरतसे समन्वय करना चाहते हैं माने मिला देना चाहते हैं. उनको लगता हैं कि ब्राह्मणोंका ज्योतिषशास्त्र जैनियोंने नहीं लिया तो जैनियोंका ज्योतिषशास्त्र अधूरा रह जायगा; परंतु समझना चाहिये कि - निर्ग्रथाचार्य के रचेहुये प्रामाणिक ग्रंथोंके शिवाय अन्यमतिशास्त्र सब शास्त्राभास है । वे सब समयमूढता उपजावनेवाले है और मिथ्यात्व तरफ खैचनेवाले है । इस वास्ते मिथ्यात्व से बचनेका उपाय जैनियोंने अवश्य करना चाहिये । जैनधर्म में मिथ्यादर्शन सबसे बडा पाप है उसको छोड़ा
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(१३) बिगर धर्मका मूल हाथमें लगता नहीं. कहा भी है- “ मिथ्यात्वादिमलीसमं यदि मनो बाह्येत्ति शुद्धोदकैः ॥ धौतः किं बहुशोपि शुद्ध्यति मुरापुरःप्रपर्णो घटः॥" मिथ्यात्वसे मलिन हुवा अंतकरण सम्यक्त्व विगर शुद्ध होता नहीं जैसे मद्यसे भरा हुवा घडा बाहरसे बार बार शुद्ध जलसे धोनेपर भी वह शुद्ध नहीं हो जाता उसके अंदरका सभी मथ बाहर गिरा देनेसे ही शुद्ध होगा वैसा ही तीन मुढता अष्ट मद रहित सम्यक्त्व होनेसे सत्यार्थ धर्मका मार्ग मिलता है. इससे सबसे पहले मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिये तभी सत्यार्थ जैनागमपर अपनी श्रद्धा.लगती है।
प्रकाशक.
1729
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नंबर
१
२
आचार्योंके नाम. श्रीपुष्पदंत, भूतबलि, वृषभाचार्य श्री कुंदकुंदाचार्य
श्रीजयसेनाचार्य - वसुर्विदाचार्य
श्री उमास्वामि आचार्य
श्री समंतभद्राचार्य
श्री माघनंदि आचार्य श्रीशिवायनाचार्य श्रीपूज्यपाद स्वामि ९ श्रीप्रभा चंद्राचार्य
श्रीवीरनंदि आचार्य
श्रीमान् पंडितप्रवर संघई पन्नालालजी दूनीवाले इनके " विद्वज्जनवोधक " पुस्तकसे और श्रीमान् पंडित पन्नालालजी गोधा उदासीन इनके चिट्ठीपरसे ऋषि दिगंबर जैनाचार्य प्रणीत प्रामाणिक ग्रंथाकी यादी |
विक्रम संवत्
ग्रंथोंके नाम
४
५
६
७
२७
६०
ग्रंथ संख्या.
३
श्रीधवल, महाघवल, जयधवल.
पंचास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड.
प्रतिष्ठापाठ.
७६
तत्वार्थसूत्र.
१२५ देवागम, रत्नकरंड श्रावकाचार, स्वयंभुस्तोत्र, युक्त्यनुशासन. १३६ वन्देतान् • - जयमाला.
भगवति आराधना.
४०० घोस्सा मि० इत्यादि स्तोत्र, सर्वार्थसिद्धि, जैनेंद्रव्याकरण, समाधिशतक. ४ ४५३ प्रमेयकमलमार्तड, न्यायकुमुदचंद्रोदय.
५५६ आचारसार, चंद्रप्रभकाव्य.
( 8.5 )
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MOH
.
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नंबर आचार्योंके नाम. विक्रमसंवत. ग्रंयोंके नाम.
ग्रंथ संख्या. ११ श्रीमाणिक्यनंदि आचार्य ५६९ परीक्षामुख १२ मीनेमिचंद्रसिद्धांत चक्रवति | ७३५ त्रिलोकसार, गोमट्टसार, लघिमार, क्षपणसार, द्रव्यसंग्रह. १३ श्रीमानतुंगाचार्य
७५६ भक्तामरस्तोत्र. ११ श्रीमभयनंदि भाचार्य . ७७५ गोमट्टसार टीका, वृहमनेन्द्र व्याकरण. १५ श्रीचामुण्डाय
७९५ चारित्रसार. १६ श्रीवट्टकर स्वामि
मुलाचार, १७ श्रीमकलंकदेव आचार्य ८५६ बृहन्नयी (३), लघुत्रयी (३), अष्टशती, राजवार्तिक. १८ श्रीजिनसेनाचार्य
८७२ वृहतआदिपुराण. १९ श्रीगुणभद्राचार्य
८७५ उत्तरपुराण, आत्मानुशासन, जिनदत्तचरित्र. श्रीकार्तिकेय स्वामि
कार्तिकेयानुप्रेक्षा. २१ श्रीयोगींद्रदेव आचार्य
परमात्मपकाश, योगसार. २२ श्रीविद्यानंदि आचार्य (पात्रकेसरी) ८८१ अष्टसहस्रो, आप्तपर का, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, श्लोकवार्तिक. २३ श्रीवादिराज आचार्य ९४८ एकीभावस्तोत्र. २४ श्रीअमृतचन्द्राचार्य . ९६२ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, तत्वार्थसार, नाटकत्रयी (३) २५ श्रीमलिषेणाचार्य
९६९ सज्जनचित्तवल्लभ.
(१५)
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नंबर आचार्यों के नाम. २६ श्री अमितंगति आचार्य श्री शुभचंद्राचार्य :
२७
२८ श्री केशववर्णी २९ श्रीधर्मभूषण
३०
३१ श्री कुंदकुंदाचार्य
श्री अनंतवीर्याचार्य
३२ ३३
श्री सकलकीर्ति आचार्य
Mmm
श्रीपद्मनंदि आचार्य
M
३४ श्रीवादिचंद्राचार्य
३५
श्रीपूज्यपादस्वामि श्रीनेमिचंद्र भण्डारी
३६
विक्रमसंवत्.
ग्रंथोंके नाम.
१०२५ श्रावकाचार, सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, योगसार. १०५० ज्ञानार्णव.
१२२७ गोमटसारलघुटीका. न्यायदीपिका.
ग्रंथ संख्या,
४
१
पद्मन न्दिपंचविंशति.
कल्याणमन्दिर स्तोत्र.
प्रमेयचंद्रिका
१५०० प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सार्थचतुर्विंशतिका, धर्मप्रश्नोत्तर, मूलाचारप्रदीपक, सिद्धान्तसारदीपक, सद्भाषितावलि, सुकुमारचरित्र, शांतिनाथपुराण, पार्श्वनाथपुराण, वर्षमानपुराण. ज्ञानसूर्योदयनाटक.
इष्टोपदेश.
उपदेश सिद्धान्त रत्नमाला. श्रावकप्रतिक्रमण, और अकलंकाष्टक.
१
.९५
( १६ )
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SAMDAS
AD
ज्योतिषवासी देवताओंके
वर्णन. FDSHRIEEEEG श्रीमत्पूज्यपाद विरचित
सर्वार्थसिद्धि चतुर्थाऽध्याय. ॥ ज्योतिप्काः मूर्याचन्द्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२ ॥
(श्रीमदुभास्वा मिहन ) टीका-ज्योतिरस्त्रमानवादेषां पंचानामपि ज्योतिष्का इति सामान्यसंज्ञा अन्वर्था । सयर्यादयस्तद्विशेषमज्ञा नामकर्मोदयप्रत्ययाः॥ सूर्याचद्रमसाविति पृथग्ग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थ ॥ किंकृतं पुन: प्राधान्यं ? प्रभावादिकृतं ॥ क पुनस्तेपामावासा इत्यत्रोच्यते -अस्मात्समानभूमिभागादृसप्तयोजनशतानि नवत्युत्तराणि ७९. उत्पत्य सर्वज्योतिषामधोभागविन्यस्तास्तारकाचरति । ततो दशयो- . जनान्युत्पत्य चंद्रमसो भ्रमन्ति । ततश्चत्वारि योजनान्युत्पत्य बुधाः । ततस्त्रीणि योजनान्युत्पत्य शुकाः । स्त्रीणि योजनान्युत्पत्य वृहस्पतयः नतस्त्रीणि योजनान्युत्पत्यांगारकाः । ततस्त्रीणि योजनान्युत्पन्य गर्नश्चगश्वरन्ति । माप ज्योतिर्गणगोचरो नमोऽवकाशो दशाधियोजनशतबहलस्तिर्यगगख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो घनोदधिपयन्तः । उक्तच--
णउदुत्तरसत्तमयादयसीदीचदुदुगतिगचउकं ॥ तारारविससिरिस्खाहमग्गवगुरुअंगिरारसणी ॥१॥
पंडित जयचन्द्रजीकृत हिंदी वचनिकाअर्थात् इन पांचहीकी ज्योतिष्क ऐसी सामान्यसंज्ञा ज्योतिः
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(२)
स्वभाउते है, सो सार्थिक है । वहरि सूर्य चंद्रमा ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारका ऐसी पांच विशेष संज्ञा हैं । सो यह नामकर्मके उदयके विशेषत भई है । बहुरि सूर्याचद्रमसौ ऐसी. इन दोयकै न्यारी विभक्ति करी सो इनका प्रधान पणा जनावनेके अर्थि है । इनके प्रधान पणा इनके प्रभाव आदिकरि किया है।
बहुरि इनके आवास कहां है, सो कहिय है। इस मध्यलोककी समान भूमिके भागते सातसे नव योजन उपरि जाय तारानिक विमान विचरै हैं । ते सर्व ज्योतिषीनिके नीचे जानना । इनते दश योजन उपरि जाय सूर्यनिके विमान विचरे हैं। तात अशी योजन उपरि नाय चंद्रमानिके विमान हैं । तात तीनि योजन पर नाय नक्षत्रनिके बिमान हैं । तात तीनि योजन ऊपर जाय वुधनिके विमान हैं। तात तीमि योजन ऊपरि जाय वृहम्पतिके विमान है । ताते चारि योजन ऊपर जाय मंगलके विमान हैं। तातें चारि योजन ऊपर जाय शनैश्चरके विमान है। यह ज्योतिष्क मंडलका आकाशमें तले ऊरि एकसौ दश योजन माहीं जानना । बहुरि तिर्य विस्तार असंख्यात द्वीपसमुद्रपमाण घनोदधिवात वलय पर्यंत जानना । इहां उक्तंच गाथा है ताका अर्थ-सातसे नवे, देश, अशी, च्यारि त्रिक, दोय चतुष्क ऐसे एते योजन अनुक्रमते-तारा ७९० । सर्य १० । चंद्रमा ८० । नक्षत्र ३ । वुध ३। शुक्र ३ । बृहस्पति ३ । मंगल ४ । शनैश्चर ४ । इनका विचरना नानना ।।
ज्योतिष्काणां गतिविशेषप्रतिपत्यर्थमाह-- मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥
(श्रीमदुमास्वामिकृत ) टीका-मेरो प्रदक्षिणा मेरुप्रदक्षिणा । मेरुप्रदक्षिणा इतिवचनं । गतिविशेषप्रतिपत्यर्थ विपरीतगतिर्मा विज्ञायीति ॥ नित्यगतय इति । विशेषणमनुपरतक्रियाप्रतिपादनार्थ । नृलोकग्रहणं विषयाथ । अर्धतृतीयेषु द्वीपेसु द्वयोश्च समुद्रयोज्योतिष्का नित्यगतयो नान्यत्रेति ॥
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( ३ )
ज्योतिष्क विमानानां गतिहेत्वभावात्तद्वृत्यभाव इतिचेन्न, असिद्धत्वात् । गतिरताभियोग्यदेव प्रेरितगतिपरिणामात्कर्मविपाकस्य वैचित्र्यात्तेषां हि गतिमुखेनैव कर्म विपच्यत इति ॥ एकादशभियोजनशतैरेकविशेर्मेरुमप्राप्य ज्योतिष्काः प्रदक्षिणाश्चरन्ति ||
हिंदी वचनिका
भागे ज्योतिषीनिका गमनका विशेष जाननेके अर्थ कहते हैं
"
अर्थात् मेरुप्रदक्षिणा ऐसा वचन हैं, सो गमनका विशेष जाननेकूं है । अन्य प्रकार गति मति जानुं । बहुरि नित्यगतयः ऐसा वचन है सो निरंतर गमन जनावने के अर्थ है । बहुरि नृलोकका ग्रहण है सो ढाई द्वीप दो समुद्र में नित्य गमन है अन्य द्वीप समुद्रनिमें गमन
-
नाहीं ।
इह कोई तर्क करे हैं, ज्योतिषीदेवनिका विमाननिकै गमनका कारण नाहीं । ततै गमन नाहीं । ताकूं कहिये, यह कहना युक्त है । जातें तिनके गमनविर्षे लीन ऐसें आभियोग्य नातिके देव तिनका कीया गतिपरिणाम है । इन देवनिकें ऐसाही कर्मका विचित्र उदय है, जो गतिप्रधानरूप कर्मका उदय दे है ।
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बहुरि मेरुतें ग्यारह इकईस योजन छोड ऊपरें गमन करें हैं। सो प्रदक्षिणारूप गमन करें हैं । इन ज्योतिषीनिका अन्यमती कहै है, जो भूगोल भल्पसा क्षेत्र है । ताके ऊपर नीचे होय गमन है तथा कोई ऐसे कई है, जो ए ज्योतिषी तौ थिर है । अरु भूगोल अमे है । तातें लोककूं उदय अस्त दीखे हैं । बहुरि कहें हैं जो हमारे कहने तैं ग्रहण आदि मिले है । सो यह सर्व कहना प्रमाणबाधित है। जैनशास्त्र में इनका गमनादिकका प्ररूपण निर्वाध है । उदय अस्तका विधान सर्वत मिले है । याका विधिनिषेधकी चर्चा श्लोकवार्तिक में है । तथा गमनादिकका निर्णय त्रैलोक्यसार व्यादि ग्रंथनिय है, तहाँ ज्ञानना ॥
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(४)
गतिमज्ज्योतिरसम्बन्धन व्यवहारकालप्रतिपत्यर्थमाह॥ तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥
(श्रीमदुमास्त्रामिकृत) टीका-तद्ग्रहणं गतिमज्ज्योतिःप्रतिनिदेशार्थम् । न केवलया गत्या नापि कंवलज्यों तर्भिः कालः परिच्छिद्यने, अनुपलब्धपरिवर्तनाच ।। कालो द्विविधो व्यावहारिको मुख्यश्च ॥ व्यावहारिक कालविभागस्तत्कृतः समयावलिकादिः क्रियाविशेषपरिच्छिन्नोऽन्यस्यापरिच्छिन्नस्य परिच्छेनहेतुः ।। मुख्योऽन्यो वक्ष्यमाणलक्षणः ।।
हिंदी वचनिका
आगें इन ज्योतिषीनिके संबंधकरि व्यवहार कालका मानना है तिसके अर्थि कहे है___ अर्थात्-- इन ज्योतिषी देवनिकरि किया कालका विभाग है । इहां तत्का ग्रहण गति सहित ज्योतिप्क देव निके कहनेक अर्थि है। सो यह व्यवहारकाल केवल गतिहीकरि तथा केवल ज्योतिषी निकरि नाहीं जाना जाय है । गति सहित ज्योतिषी निकरि नाना नाय है । ताते गमन तो इनका काहूकू दीर्ख नाहीं । बहुरि गमन न होय तो ये थिरही हैं । तात दोऊ संबंध लेना । तहां काल है सो दोय प्रकार है। व्य. वहारकाल निश्चयकाल । तिनमें व्यवहारकालका विभाग इन ज्योतिषीनिकरि किया हुवा जानिये है, सो समय आवली भादि क्रिया विशेषकरि नाना हुवा व्यवहार काल है । सो नाहीं जानने में आवे ऐसा नो निश्चयकाल ताके जानने कारण है सो निश्चय कालका लक्षण आग कहसी, सो जानना ॥ इतरत्र ज्योतिपामवस्थानप्रतिपादनार्थमाह॥ बहिरवस्थिताः ॥ १५ ॥
[श्रीउमास्वामिकृत ] टीका--चहिरित्युच्यते कुतो बहिः । तृलोकात् ॥ कथसवग
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म्यते ! अर्थवशात् विभक्तिपरिणामो भवति ॥ ननुच नृलोके नित्यगतिवचनादन्यत्रावस्थान ज्योतिष्काणां सिद्धम् अतो बहिस्वस्थिता इति वचनमनर्थकमिति । उन्न । किं कारण ? नृलोका. दन्यत्र वहिज्योतिपामस्तित्वमवस्थानं चासिद्धम् । अतस्तदुभयसि
द्यर्थ बहिरवस्थिता इत्युच्यते ॥ विपरीतगतिनिवृत्यर्थं कादाचित्कगविनिवृत्यर्थच सूत्रमारब्धं ॥
हिंदी पचनिका
आगें मनुष्य लोकतै बाहिर ज्योतिष्क अवस्थित हैं । ऐसा कहन. सत्र कई हैं___ अर्थात्-"बहि:" कहिये मनुष्यलोकतै बाहिर ते ज्योतिष्क अवस्थित कहिये गमन रहित हैं इहां कोई कई है, पहले सूत्रमें कहा है नो मनुष्य लोकतै ज्योतिष्क देवनिके नित्यगमन है । सो ऐसा कहनेत यह जाना जाय है, जो यातै बाहिरके गमन नाहीं । फेरि यह सूत्र कहना निष्प्रयोजन है।
ताका समाधान-जो इस सूत्रत मनुष्यलोकतै बाहिर अस्तित्वभी जाना जाय है । भवस्थान भी जाना जाय है, यात दोऊ प्रयोजनकी सिद्धिके मर्थि यह सूत्र है अथवा अन्य प्रकार करि गमनका भभावके भर्थि भी यह सुत्र जानना ॥
श्रीमद्भहाकलंक देव कृत राजवार्तिकसे अध्याय ४ में
ज्योतिष्क देवताओंके वर्णन सूत्र और भाष्यज्योतिष्काः सूर्याचंद्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२॥
[श्रीउमास्वामिकृत ] द्योतनस्वभावत्वाज्ज्योतिकाः ॥ १॥-द्योतनं प्रकाशनं तत्स्वभावत्सादेषां पंचानामपि विकल्यानां ज्योतिष्का इतीयमन्वर्था सामान्यसंज्ञा । तस्याः सिद्धिः
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, ज्योतिःशब्दात्स्वार्थ के निष्पत्तिः ॥ २॥-ज्योतिःशब्दात् स्वार्थ के सति ज्योतिष्का इति निष्पद्यते । कथं स्वार्थे कः ? यवादिपु पाठात् ।
प्रकृतिलिंगानुवृत्तिप्रसंग इति चेन्नातिवृत्तिदर्शनात् ॥ ३ ॥स्यान्मतं यदि स्वार्थिकोऽयं कः ज्योतिःशब्दस्य नपुंसकलिंगत्वात् कांतस्यापि नपुंपकलिंगता प्रामोतीति ? तन्न । किंकारणं, अतिवृत्तिदर्शनात् । प्रकृतिलिंगातिवृत्तिरपि दृश्यते यथा कटीरः समीरः शुडार इति ।।
तद्विशेषाः सूर्यादयः ॥ ४ ॥-तेषां ज्योतिष्काणां सर्यादयः पंच विकल्पाः दृष्टव्याः ।
पूर्ववत्तनिर्वृत्तिः ॥ ५ ॥- तेषां संज्ञाविशेषाणां पूर्ववन्निवृत्तिवेदि. तव्या देवगतिनामकर्मविशेषोदयादिति ।
सूर्याचंद्रमसावित्यानन्देवताद्वंद्वे ॥ ६॥ सूर्यश्च चंद्रमाश्च द्वंद्वे कृते पूर्वपदस्य देवताटे इत्यानम् भवति ।
सर्वत्रप्रसंगइतिचेन्नपुनद्वग्रहणादिष्टे वृत्तिः ॥ ७ ॥-स्यादेतत् यदि " देवताद्वंद्वे " इत्यानञ् भवति इहापि प्राप्नोति ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकताराः किन्नरकिंपुरुषादयः असुरनागादय इति तन्न किं कारण ? आनन् द्वंद्व इत्यतः द्वंद्व इति वर्तमाने पुनर्द्वन्द्ववृत्तिर्जायते इति ।
पृथग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थ ॥ ८ ॥ सूर्याचंद्रमसोर्ग्रहादिभ्यः पृथक् ग्रहणं क्रियते प्राधान्यख्यापनार्थ । ज्योतिप्केषु हि सर्वेषु सूर्याणां चंद्रमसां च प्राधान्यं । किंकृतं पुनस्तत् ? प्रभावादिकृतं ।
सूर्यस्यादौ ग्रहण अल्पाच्तरत्वात अभ्यर्हितत्वाच ॥ ९॥सूर्यशब्द भादौ प्रयुज्यते कुतः अत्याच्तरत्वात् अभ्यहितत्वाच्च सर्वाभिभवसमर्थाद्धि अभ्यर्हितः सूर्यः । . ग्रहादिषु च ॥ १० ॥- किमरुपान्तरत्वात् अभ्यर्हितत्वाच पूर्वनिपातः इति वाक्यशेषः । ग्रहशब्दस्तावत् अल्पाचतरोऽभ्यहितश्च तारकाशब्दान्नक्षत्रशब्दोऽभ्यर्हितः । क पुनस्तेषां निवासः ?
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( ७ )
इस्त्रोच्यते अस्मात् समात् भूमिभाग दूर्ध्वं सप्तयोजनशतानि नवत्युत्तराणि उत्प्लुत्य सर्वज्योतिषाँ अधोमाविन्यस्तारकाश्चरति । ततो दशयोजनान्युप्लुन्य सूर्याश्वरं ति । ततोऽशीतिर्योजनान्युत्प्लुत्य नक्षत्राणि । ततस्त्रीणि योजनानि उत्प्लुत्य बुधाः । ततस्त्रीणि योजनानि उत्प्लुय शुक्राः । ततः त्रीणि योजनान्युत्प्लुत्य अंगारकाः । ततः चत्वारि योजनाभ्युत्क्रम्य शनैश्चराश्चरन्ति । स एष ज्योतिर्गणगोचरः नभोऽवकाशः दशाधिकयोजनशत ' बहुल: तिर्यगसंख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो घनोदधिपर्यंतः । उक्तं च
णवदुत्तरसत्तमया दससीदिच्चदुतिंग च दुग चदुक्कं ॥ तारारविससिरिक्खाबुहभग्गवगुरुअंगिरारसणी ॥ १ ॥
तत्रःभिजित् सर्वाभ्यंतरचारी, मूल: सर्वबहिश्चारी, भग्ण्यः सर्वाध - श्चारिण्यः, स्वातिः सर्वोपरिचारी । तप्ततपनीयसमप्रभाणि लोहिताक्षमणिमयानि अष्टचत्वारिंशद्योननैकपष्टि विष्कंभायामानि तस्त्रिगुणाधिकपरिधीनि चतुर्विंशतियोजनै कप'ष्ठमागवा हुल्यानि अर्धगोलक कृती नि षोडशभिर्देव सहस्त्रानि सूर्यविमानानि, प्रत्येकं पूर्वदक्षिणोत्तरप्न भागान् क्रमेण सिंह कुज वृषभ तुग्गरूपाणि विकृत्य चत्वारि चत्वारि देवसहस्राणि वर्हति । एषामुपरि सूर्याख्या: देवास्तेषां प्रत्येकं चतस्त्र प्रमहिष्यः । सूर्यप्रभा सुसीमा अर्चिमालिनी प्रमंकरा चेति । प्रत्येकं देवीचतुःसहस्रविकरणसमर्थाः । ताभिः सह दिव्यसुखमनुभवतोऽसंख्येयशतसहस्राधिपतयः सूर्यः परिभ्रमंति विमलमृणालवर्णान्यकमयानि चंद्र विमानानि षट्पंचाशद्यो जनै कषष्टिभागविष्कंभायामानि अष्टाविंशतियोजनैकप ष्ठिभागवाहुल्यानि, प्रत्येकं षोडशभिः देवसहस्रः पूर्वादिपु दिक्षु क्रमेण सिंहकुंजराश्ववृषभरूप विकारिमिरूढानि । तेषामुपरि चंद्राख्या देवाः । तेषां प्रत्येकं चतस्रोऽग्रमहिष्यः चंद्रप्रभा सुसीमा अर्चिमालिनी प्रभंकरा चेति, प्रत्येकं चतुर्देवी विकरणपटवरसाभिः सह सुखमुपभुं जंतश्चन्द्रमसोऽसंख्येय विमानशतसहस्त्राधिपतयो विहरन्ति । अंजनसमप्रभाणि अरिष्टमणिमयानि, राहु विमानान्येक योज
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नायामविष्कंभाण्यतृतीयधनुःशतवाहुत्यानि । नवमल्लिकाप्रमाणि रजतपरिणामानि शुक्रविमानानि गव्यूलायामविक्रमाणि, जात्यमुक्ताद्युतीनि अंकमणिमयानि बृहस्पतिविमानानि देशोनगव्यूतायामविष्कमाणि, कनकमयान्यर्जुनवर्णनानि, बुधविमानानि, तपनीयमयानि, तप्ततपनीयाभानि,
शनैश्चरविमानानि, लोहिताक्षमयानि तप्तकनकप्रभाण्यंगारकविमानानि, 'बुधादिविमानान्यधन्यूनायामविष्कंभाणि । शुक्रादिविमानानि गहुविमानतुल्यबाहुल्यानि । राहादिविमानानि प्रत्येकं चतुभिर्देवसहरुह्यन्ते । नक्षत्रविमानानां प्रत्येकं चत्वारि देवसहस्राणि वाहकानि । तारकविमानानां प्रत्येकं द्वे देवसहले वाहके । राहयाभियोग्यानां रूपविकाराश्चंद्रवन्नेयाः । नक्षत्रविमानानां टस्कृष्टो विकभः क्रोशः | तारकाविमानानां वैपुल्य जघन्य क्रोशचतुभार्गः मध्यम साधिकः क्रोशचतुर्भागः। उत्कृष्ट उर्धगव्यूतं । ज्योतिष्कविमानानां सर्वजधन्यवैपुल्य पंचधनुःशतानि । ज्योतिषामिंद्राः सूर्याचन्द्रमसस्ते चाऽसंख्याताः । ज्योतिप्काणां गतिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाहमेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥
(श्री उमास्वामि कृत) . मेरुप्रदक्षिणवचनं गत्यंतरनिवृत्त्यर्थं ॥ १ ॥- मेरोः प्रदक्षिणाः - मेरुपदक्षिणा इत्युच्यते । किमर्थ ? गत्यंतर निवृत्त्यर्थं विपरीता गतिर्मा
भूत् । - गतेः क्षणेक्षणेऽन्यत्वात नित्यत्वाभाव इति चेनाऽऽभीक्ष्ण्यस्य
विवक्षितत्वात् ॥ २ ॥-अयंनित्यशब्दः कूटस्थेष्व विचलेपु भावेषु वर्तते • गतिश्च क्षणेक्षणेऽन्या, ततोऽम्या नित्येति विशेषणं नोपपद्यत इति चेन्न । । किंकारणं ? आभीक्ष्ण्यस्य विवक्षितत्वात् । यथा नित्यपहसितो नि यप्रजापित इति आभीक्ष्ण्यं गम्यत इति । एवमिहापि नित्यगतयः अनुपर..तगतयः । इत्यर्थः ।
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(९)
भनेकान्ताच्च ॥३॥-यथा सर्वभावेषु द्रव्यार्थादेशात् स्यानित्यत्वं, पर्यायार्थादेशात् स्यादनित्यत्वं । गतावपीति नित्यत्वमविरुद्धमविच्छेदात् ।
नलोकग्रहणं विषयार्थ ॥ ४ ॥ ये अर्धतृतीयेषु द्वीपेषु द्वयोश्च समुद्रयो?तिष्कास्ते मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयः नान्ये इति विषयावधारणार्थ नृलोकग्रहणं क्रियते ।।
गतिकारणाभावादयुक्तिरिति चेन्न गतिरताभियोग्यदेववहनात् ॥ ५ ॥-स्थानमतं इहलोके भावानां गतिः कारणवती दृष्टा नच ज्योतिष्कविमानानां गतेः कारणमस्ति ततस्तदयुक्तिरिति तन्न । किंकारणं गतिरताभियोग्यदेववहनात् । गतिरता हि आभियोग्यदेवा वहतीत्युक्त पुरस्तात् ।
कर्मफलविचित्रभावाच ॥६॥ कर्मणां हि फलं वैकियेण पच्यते ततस्तेषां गतिपरिणतिमुखेनैव कर्मफलमवबोद्धव्यं । एकादशभिः योननशतैरेकविशेमरुमप्राप्य ज्योतिष्का प्रदक्षिणाश्चरन्ति । तत्र जंबुद्वीपे द्वौ सूर्यो, द्वौ चन्द्रमसौ, षट्पंचाशत नक्षत्राणि, षट्सप्तत्यविकं ग्रहशतं, एककोटीकोटिशतसहस्त्रयस्त्रिंशतकोटीकोटिसहखाणि . नवकोटीकोटिशतानि पंचाशच कोटीकोट्यस्तारकाणां । लवणोदे चत्वारः सूर्याः चत्वारश्चद्राः, नक्षत्राणां शत, द्वादशग्रहाणां, त्रीणि शतानि द्वापंचाशानि द्वे कोटी कोटिशतसहस्रे सप्तषष्ठिः . कोटीको टिसहस्त्राणि नवच कोटीकोटिशतानि तारकाणां । धातकीखण्डे द्वादशसूर्याः, द्वादशचंद्राः, नक्षत्राणां त्रीणिशतानि, घनिशानि ग्रहाणां, सहस्रं षट्पचाश अष्टौ कोटीकोटिशतसहस्राणि सप्तत्रिंशच्च कोटीकोटिशतानि तारकाणां । कालोदे द्वाचत्वारिंशदादित्याः द्वाचत्वारिंशचन्द्राः, एकादश नक्षत्रशतानि, पट्सप्तत्यधिकानि पर्शिशतग्राशतानि षण्णवत्यधिकानि अष्टाविंशतिः कोटीकोटिशतसहस्राणि द्वादश कोटीकोटिसहस्राणि नव कोटीकोटिशतानि पंचाशत्कोटीकोव्यस्तारकाणां । पुष्करार्धे द्वासप्ततिः
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( १० )
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सूर्या : द्वासप्ततिश्चंद्राः द्वे नक्षत्रसहते, पोडशत्रिष्टः ग्रहशतानि षट् त्रिंशानि ष्टचत्वारिंशत्कोटीकोटिशतसहखाणि हे कोर्ट' को 'टर्शते तारकाणी नाझे पुष्कराच ज्योतिषामियमेव संख्यात्तचतुर्गुणाः पुष्करवरोदे, ततः परा द्विगुणद्विगुणा ज्योतिषां संख्या अवसेया । जवन्यं तारकांतरं गच्यूतसप्तभागः । मध्यं पंचाशत् गत्यृतानि । उत्कृष्ट योननसहसम् | जब सूर्यावरं चंद्रान्तरंच नवनवतिः सहस्राणि योजनानां पट्शतानि चत्रारिशदधिकानि । उत्कृष्टमेकं योजनशतसहस्रं षट्शतानि पशुतराणि जंबूद्वीपादिषु एकैकस्य चंद्रमसः पट्प ष्टकोटिकोटिशतानि पत्रसंततिश्व फोटो कोट्य! तारकाणां । अष्टाशीतिर्महाग्रहाः, अष्टाविंशतिनक्षत्राणि, परिवारः सूर्यस्य चतुरशीति मण्डलशतं । अशीतिः योजनशत जंबूद्वीपस्य अंतरमवगाह्य - प्रकाशयति । तत्र पंचयष्टिभ्यन्तरमण्डलानि । लवणोदस्यांतस्त्रीणि त्रिशानि योजनशतान्यवगात प्रकाशयति । तत्र मण्डलानि बाद्याने कान्नविंशतिशत, द्वियोजनमे कमण्डलान्तरं द्वे योजन अष्टम द्योजक पष्टिभागाश्च एकॅरुमुद्रयान्रं चतुश्चत्वारिंशद्योजन सहनैः श्रष्टामिश्च शतविंशेरप्राप्य मेरुं सर्वाभ्यंतरमण्डलं सूर्यः प्रकाशयति । तस्य किमो नवनवतिः सहस्राणि षट्शतानि चत्वारिंशानि योजनानां । तदाहनि मुहूर्ताः अष्टादश भवन्ति । पंचमहस्राणिद्वेशत एक्पंचाशयोजनानां एकान्नंत्रिंशद्योजनपष्ठिभागाश्च मुहूर्त गतिः । सर्वत्र मण्डले चग्नू सूर्यः पंचचत्वारिंशत्सहस्रैः त्रिभिश्च शतैः त्रिशयजनानां मेरुमप्राप्य भापयति । तस्य विष्कम्भः एकं शतसह षट्शतानि च षष्ट्यधिकानि योजनानां । तदा दिवसस्य द्वादश मुहूर्ताः । पंचसहस्राणि त्रीणि शतानि पंचोतराणि योजनानां पंचदश योजनष' प्रभागाश्च मुहूर्तगतिक्षेत्रं । तदा विशेयोजनसह सेषु अष्टसु च योचनशतेपु अर्धे द्वात्रिंशेषु स्थितो दृश्यते । सर्वाभ्यन्तरमण्डदर्शनविषयपरिमाणं प्रागुक्तं । मध्ये हानिवृद्धिक्रमो यथागमंदि तव्यः । चन्द्रमण्डलानि पंचदशद्वीपावाडः, समुद्र वगाहश्व सूर्यवद्वेदितव्यः । द्वीपाभ्यन्तरे पंचमण्डलानि । समुद्रमध्ये दश । सर्ववाद्याभ्यन्तरम
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( ११ )
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एडल विष्कम्भविधिः, मेरुचंद्रांत प्रमाणं च सूर्यवत्प्रत्येतव्यं । पंचदशानां मण्डलानामन्तराणि चतुर्दश । तत्रैकैकस्य मण्डलान्तरस्य प्रमाणं पंचत्रिशत योजनानि योजनैक षष्ठिभागात्रिंशत्तद्भागस्य चत्वारः सप्तभागाः ३५ - ३० - ४ । सर्वाभ्यन्तरमण्डले पंचसहस्राणि त्रिसप्तत्यधिकानि योजनानां ६१-७ सप्तसप्ततिर्भागशतानि चतुश्चत्वारिंशानि मण्डलं त्रयोदशभिर्भागसहस्रैः सप्तभिश्च भागशतैः पंचविशेः स्थित्वा भवशिष्टानि । चन्द्रः एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति सर्वबाह्यमण्डले पंचसहस्राणि शतं च पंचविंशं योजनानां एकान्नसप्ततिर्भागशतानि नवत्यधिकानि मण्डलं त्रयोदशभिः भागसहस्रैः सप्तभिश्च भागशतैः पंचर्विशैः स्थित्वा अवशिष्टानि चन्द्रः एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति । दर्शनविषयपरिमाणं सूर्यवद्वेदितव्यं । हानिवृद्धिविधानं च यथागमं अवसेयं । पंचयोजनशतानि दशोत्तराणि सूर्याचंद्रमसोश्चारक्षेत्र विष्कम्भः ॥
गतिमज्योतिःसंबंधेन व्यवहार कालप्रतिपत्यर्थमाह----
तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ तदिति किमर्थं ? ॥ गतिमज्ज्योतिः प्रतिनिर्देशार्थं तद्वचनं ॥ १ ॥ - गतिमतां ज्योतिषां प्रतिनिर्देशार्थं तदित्युच्यते । नहि केवलगत्या नापि केवलैज्योतिर्भिः कालः परिच्छद्यते, अनुपलब्धेरपरिवर्तनाच । ज्योतिः परिवर्तनलभ्यो हि काकपरिच्छेदः । कालो द्विविधः व्यावहारिको मुख्यश्च । तत्र व्यावहारिकः काळ विभागः तत्कृतः समयावलिकादिर्व्याख्यातः । क्रियाविशेषपरिच्छिन्नः अन्यस्यापरिच्छिन्नस्य परिच्छेदहेतुः मुख्योऽन्यो वक्ष्यमाणलक्षणः । माह न मुख्यः कालोऽस्ति सूर्यादिगतिव्यतिरिक्तो लिंगाभावात् । अपिच कळानां समूहः कालः | कलाध क्रियावयवाः । किंच पंचास्तिकायोपदेशात् पंचैवास्तिकाया भागमे उपदिष्टाः न षष्ठः । ततो न मुख्यः कालोस्ति इत्यपरीक्षिताभिधानमेतत्-यत्तावदुक्तं लिंगाभावान्नास्ति मुख्यः कालः इत्यत्रोच्यते क्रियायां काल इति गौणव्यवहारदर्शनात मुख्यसिद्धिः । योयमादित्यगमनादौ क्रियेति रूढेः कालहति व्यवहारः कालनिर्वर्तनापूर्वकः मुख्यस्य
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कालस्यास्तित्वं गमयति । न हि मुख्ये गव्यसति वाहीके गौणे गोशब्दस्य व्यवहारो युज्यते ॥
अत एव न कलासमूह एव कालः ।। २ ।। अत एव, कुतएव ? मुख्यस्य कालस्यास्तित्वादेव, कलानां समूह एव काल इति व्यपदेशो नोपपद्यते । करप्यते क्षिप्यते प्रेयते येन क्रियावद्व्यं स कालस्तस्य विस्तरेण निर्णय उत्तरत्र वक्ष्यते ।
प्रदेशप्रचयाभावादस्तिकायेष्वनुपदेशः ॥ ३ ॥ प्रदेशपचयो हि कायः स एषामस्ति ते अस्तिकाया इति जीवादयः पंचैव उपदिष्टाः । कालस्य त्वेकप्रदेशत्वादस्तिकायत्वाभावः । यदि हि अस्तित्वमेव अस्य न स्यात् षड्द्रव्योपदेशो न युक्तः स्यात् । कालस्य हि द्रव्यत्वमस्त्यागमेऽपरलक्षणाभावः स्वलक्षणोपदेशसद्भावात् ॥ इतरत्र ज्योतिमामवस्थाप्रतिपादनार्थमाह--
बहिरवस्थिताः ॥ १५ ॥ वहिरित्युच्यते कुतोवहिः ? नृलोकात । कथमवगम्यते ? अर्थवशाद्विभक्ति परिणाम इति ॥
नृलोके नित्यगतिवचनादन्यत्रावस्थानसिद्धिरितिचेन्नोभयासिद्धेः॥१॥ स्यान्मतं नृलोके नित्यगतयः इतिवचनात अन्यत्र अवस्थान ज्योतिषां सिद्धं अतो बाहरवस्थिता इति वचनमनर्थक, इतितन्न किं कारण? उभयासिद्धः नलोकादन्यत्र बहिर्योतिषामस्तित्वमवस्थानं चाऽप्रसिद्धं अत. स्तदुभयसिद्धयर्थं "वहिरवस्थिताः" इत्युच्यते । असति हि वचने नृलोके एव सन्ति नित्यगतयश्च इत्यवगम्येत । .
___ श्रीमान पं. पन्नालालजी दूनीवाले और पं. फत्तेलालजी कृत रानः वार्तिकका हिंदी अनुवाद ( तत्वकौस्तुभ ) अध्याय चतुर्थ__ तृतीय निकायकी सामान्य तथा विशेष संज्ञाका संकीर्तनकै अर्थ कहे है, सूत्र
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ज्योतिष्काः सूर्याचंद्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाच ॥१२॥
हिंदी अर्थ:--सूर्यचंद्रमाग्रइनक्षत्रप्रकीर्णक तारा ए पांच भेदरूप ज्योतिष्कदेव है।
वार्तिक-योतनस्वभावत्वाज्ज्योतिकाः ॥११॥ संस्कृत टीका:घोतनप्रकाशनतमभावत्वादेपपिचानामपि विकल्पानां ज्योतिष्का इतीयमन्वर्था सामान्यसंज्ञा तस्याः सिद्धिः ॥
अर्थ-चोतन प्रकाशन स्वभावपणातै इनि पंच विकल्पनिकी ज्योतिष्क संज्ञा । ऐसैया सार्थक सामान्य संज्ञा तिनकी सिद्धि है। ___ वार्तिक-ज्योतिःशब्दात्स्वार्थे के निष्पत्तिः । टीका-ज्योतिः शन्दात्स्वार्थ केसति ज्योतिप्का इति निप्पद्यते कथं । यवादिपु पाठात् ।
अर्थ-ज्योतिःशब्दतै स्वार्थकैविय क प्रत्ययनैं होतां संता ज्योतिष्क ऐसो उत्पन्न हो हैं । प्रश्न-स्वार्थमैं क प्रत्यय कैसे होयहै । उत्तरयवादिपुपाठतें होय है ॥ २॥
वार्तिक-प्रकृतिलिंगानुवृत्तिप्रंसग इति चेनातिवृत्तिदर्शनात् ॥ ३ ॥ टीका-स्यान्मतंयदिस्वार्मिकोयकः ज्योतिःशब्दस्य नपुंसकलिंगस्वाकान्तस्यापि नपुंसकलिंगता प्रामोतीति तन्न किंकारणमतिवृत्तिदर्शनात् प्रकृतिलिंगातिवृत्तिापिटश्यते । यथा कुटीरः समीरः शुण्डार इति ।
अर्थ, प्रश्न-जो यो स्वार्थिक कः प्रत्यय है तोज्योति शब्दकै नपुंसक लिंगपणांते ककारांत ज्योति शब्दकभी नपुंसकलिंगपणांकी प्राप्ति होय है।
उसर-सो नहीं है । प्रश्न-कहा कारण । उत्तर-अतिवृत्तिका दर्शनते कि प्रकृति लिंग अतिवृत्ति कहिये उल्लंघनकरि प्रवर्तनको दर्शनकरिये है यात सो जैसे कुटीरः शुंहारः इनमैं कुटी सभी शुहा शब्दका सीलिगवाची है। पर अल्प अर्थमें रः प्रत्यय होत सते कुटीरा समीरा शुडारा
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(१४)
नहीं भये । भर पुलिंबाची कुटीरः समीरः शुण्डारः भए तैसेंही का प्रत्यय होत संत ज्योति शब्द प्रकृत नपुंसक लिंगरूप नहीं रह्यो पुलिंगवाची ज्योतिष्क शब्द भयो ॥ ३ ॥
तद्विशेष:सूर्यादयः ॥ ४ ॥ टीका-तपां ज्योतिप्काणां सूर्यादयः पंच विकल्पाः दृष्टव्याः ॥ अर्थ-तिनज्योतिष्क्रनिके सूर्यादिक पांचभेद देखिने योग्य है ।। ४ ॥ वार्तिक पूर्ववत्तन्निर्वृत्तिः ॥ ५ ॥ टीका-तेषां संज्ञा वशेषाणांपूर्ववन्निवृत्तिवेदितव्या देवगतिनामकर्मविशेषोदयादिति ॥ अर्थ-वै संज्ञा विशेष पे हैं तिनकी पूर्ववत् रचना जाननयोग्य है। कि देवगतिनामकर्मशा जो विशेष ताका उदयतें जानने योग्य हैं ॥ ५ ॥
वार्तिक-सूर्याचद्रमसावित्यानञ् देवताद्वन्द्वे ॥ ६ ॥ टीका सूर्यश्च चंद्रमाश्च द्वंद्वेकृते पूर्वपदस्य देवताद्वन्द्व इत्यानम् भवति ॥ मर्य-सूर्य अर चंद्रमा ऐसे द्वन्द्व समासकरतां संतां पूर्वपदकू देवताद्वंद्वे यासत्रतै आनन् प्रत्यय होयहै । अर्थात या सूत्रमैं सूर्य पद जोहै ताकै मानन् प्रत्ययके होनेते सूर्यापद भया है ॥ ६ ॥
वार्तिक-सर्वप्रसंगइति चेन पुनद्वग्रहणादिष्टे वृत्तिः ॥ ७॥ टीका-स्यादेतादिदेवताद्वंद्व इत्यानम् भवति इहाऽपि प्राप्नोति ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकताराः किनर किंपुरुषादयः । असुरनागादय इति तन्न किं कारणं भानन द्वद इत्यतः द्वंद्व इति वर्तमाने पुनद्व इति ग्रहणे इष्टे वृत्तियित इति ।
अर्थ-प्रश्न-- जो देवताद्वन्द्वे यासूत्रत आनन् होय है तो इहां भी प्राप्तहोय है कि ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकताराः । तथा किंमाकिंपुरुषादयः । अमुरनागादयः । इहामी आनन् प्रत्यय प्राप्त होयगा । उसर-सो नहीं है। प्रश्न-कहा कारण उत्तर-आनन द्वंद्वे या पुर्वसूत्रते देवताएंवे या सूत्रमैं हूंदपदकी मनुवृत्ति सिद्धि है
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(१५) तौह बहुरि द्वंद्वपदका ग्रहण होत सन्तै इष्ट स्थानमैं मानकी प्रवृत्ति होय है ॥ ७॥
वार्तिक-पृथग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थ ॥ ८ ॥ टीका-- सर्याचन्द्रमसोहादिभ्यः पृथग्रहणं क्रियते प्राधान्यख्यापनार्थ ज्योतिप्केहि सर्वेषु सूर्याणां चन्द्रमसांच प्राधान्यं । किंकृतं पुनस्तत् प्रभावादिकृत ॥
मर्थ-सूर्य चंद्रमानिको ग्रहादिकनित पृथग्रहण करिये है सो इनके प्रधानपणांका जनावने निमित्त है कि सर्व ज्योतिषीनिकै विर्षे सूर्यचंद्रमानिकै प्रधानपणौ है । प्रश्न-इनके प्रधानपों कहा कृत है। उधर-- प्रभाव भादि कृत है ॥ ८॥
बार्तिक-सूर्यस्यादौग्रहणमल्पाचतरत्वादभ्यर्हितत्वाच ॥९॥ टीका-सूर्यशब्द आदौ प्रयुज्यने कुतोऽल्पाचतत्त्वादभ्यहितत्वाच्चसर्वाभिभवसमर्थाद्धि अभ्यर्हितः सूर्यः ॥
मर्य-- सूर्य शब्द मादिकै वि. प्रयुक्त करिये है। प्रश्न- काहेत ? उत्तर- अत्याच्नपणांते अर अभ्यहितपणात है कि निश्चयकरि सर्वका तेजन तिरस्कार करने में समर्थ है । यात सूर्य अभ्यर्हित है कि पूज्य है ॥ ९ ॥
वार्तिक--ग्रहादिषु च ॥ १० ॥ टीका-किमल्पाचतरत्वादभ्यस्तित्वाच्छ पूर्वनिपात इति वाक्यविशेषः ग्रहशब्दस्तावदल्पाचतरोभ्यहितश्चं तारकाशब्दान्नमत्रशब्दभ्यहितः । क पुनम्तेषां निवास इयत्रोच्यते अस्मात समादमिभागाधं सप्तयोजनशतानि नवत्युत्तराण्युत्प्ल्युत्य सर्वज्योतिषामघोभाविन्यस्ताकाश्चरन्नि ततोदशयोजनान्युत्प्ल्युत्य सर्योश्चरैति ततोशीतियोजनान्युत्प्ठ्युत्य चन्द्रमसोभवंति ततस्त्र णि योजनान्युप्ल्युत्य बुधाः । ततस्त्रीणियोजनान्युत्प्ल्युत्यशुक्राम्ततस्त्रीनि योजनान्युप्ल्युत्य बृहस्पतयस्ततश्चत्वारियोजनान्युप्प्युल्य अंगारकाः ततश्चत्वारि
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योजनान्युत्झम्यशनैश्च गश्चरंति । सएपज्योतिर्गणगोचरः नभोवकाशः दशपिकयोननशतबहुलः । तियासंख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाणो धनोदधिपर्यन्तः ।
॥ उक्तंच ॥ णवदुत्तरसत्तमयादससीदिचदुतिगंचदुगचउकं ॥ तारारविससिरिक्खा बुहाग्गगुरुअंगिरारसणी ॥१॥
तत्राभिजित् सर्वाभ्यन्तरचारी। मूलः सर्वहिवारी भरण्यः सर्वाधश्चारिण्यः । स्वातिः सर्वोपरिचारी तप्ततपनीयममप्रभाणि लोहिताक्षमणिमयानि अष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्ठिभागविष्कभायामानि तत्रिगुणाधिकपरिधीनि चतुविंशतियोजनकषष्टिभागबाहुल्यान्यर्धगोलकाकृतीनि षोडशभिर्देवसहसैरूढानि सूर्यविमानानिप्रत्येकं पूर्वदक्षिणोत्तरोत्परान् भागान् क्रमेण सिंह. कुंजरवृषभतुरंगरूपाणि विकृत्य चत्वारि चत्वारि देवमहस्राणि वहति । एषामुपरि सूर्याख्यादेवास्तेषां प्रत्येकं चतस्रोऽयमहिप्यः सूर्यप्रभा सुसीमा अर्चिमालिनी प्रभंकराचेति प्रत्येक देवीरूपचतुःसहसविकरणसमर्थाः । ताभिः सह दिव्यं सुखमनुभवतः संख्येयविमानशतसहस्राधिपतयः । सर्याः परिभ्रमति विमलमृणालवर्णान्यकमयानि चन्द्र विमानानि पटपंचाशयोजनकषष्ठिभागविष्कमायामान्यष्टाविंशतियोजनकषष्टिभागवाहुल्यानिप्रत्येक षोडशभिर्देवसहस्रः पूर्वादिषु दक्षु क्रमेण सिंहकुंजरवृषभाश्वरूपविभारिभिरूढानि । तेषामुपरि चन्द्राख्यादेवास्तेपा प्रत्येकं चत्स्रोग्रमहिप्यः चन्द्रप्रभा सुसीमा अर्चिमालिनी प्रभंकराचेति प्रत्येकं चतुर्दैवीरूपसहस्रविकरणपटवस्तामिः सह सुखमुपभुजंतश्चद्रमसोऽसंख्येयविमानशतसहस्राधिपतयः विहरति । अजनसमप्रभाण्यारिष्टमणिमयानि राहुविमानान्येकयोजनायामविष्कभाण्यर्द्धतृतीयधनुःशनबाहुल्यानि · नवमल्लिकाप्रमाणि · रनतपरिणामानिशुक्रविमानानिगव्यूतायामविष्कमाणि जात्यमुक्ताद्युतीनि अकमणिमयानि वृहस्पतिविमानानि देशोनगव्यूतायांमविष्कंभाणि । कनकमयान्यर्जुनवर्णानि बुधविमानानि तपनीयमयानि तप्ततपनीयाभानि शनै
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( १७ )
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श्वर विमानानि लोहिताक्षमयानि तप्तकनकप्रमाण्यंगारक विमानानि । बुधादि विमानान्यर्द्धगव्यूतायामविष्क्रमाणि शुकादिविमानानि राहुविमानतुल्य बाहुल्यानि । राम्रा दिविमानानि प्रत्येकं चतुर्भिर्देवसई सैरूयन्ते । नक्षत्रविमानानां प्रत्येकं चत्वारि देवसहस्राणि वाहकानि । तारका विमानानां प्रत्येकं द्वेदेवसह वाह रान्दाद्या भियोग्यानां रूपविकाराश्चद्रवन्नेयाः । नक्षत्रविमानानामुत्कृष्टो विष्कंभः क्रोशः तारका विमानानां वैपुल्यं जघन्यं क्रोशचतुर्भागः । मध्यमं साधिकः क्रोशचतुर्भाग उष्टमर्द्धगव्यूतं । ज्योतिष्क विमानानां सर्वजघन्यवैपुल्यं पंच धनुः शतानि । ज्योतिषामिंद्राः सूर्याचंद्रमसस्ते चासंख्याताः ॥
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अर्थ – प्रश्न - कहा । उत्तर - अल्पाच्तरपणांतें अभ्यर्हितपणांतें पूर्वनिपात है । ऐसो वाक्य शेष हैं । अर्थात् प्रथम ग्रहशब्द है सो अल्गच्तर है भर अभ्यर्हित है । बहुरि तारकशब्दतें नक्षत्रशब्द अभ्यर्हित हैं | प्रश्न - तिनके भावास कहां है। उत्तर- इहां कहिए है कि या समभूमितें ऊर्ध्व सात निव्वै योजन उल्लंघनकारि सर्व ज्योतिषीके भावास है । तिनमैं अधोभाग मैं तिष्ठनेवारे तौ तारका विचरे हैं । बहुरि तिनकै ऊपरि दशयोजन ऊल्लंघन करि सूर्य जेते विचरै हैं । बहुरि तिनकै ऊपर अस्सी योजन उल्लंघनकर ने चन्द्रमा है ते विचरे हैं । तापीछे तीनयोजन उल्लंघनकरि बुध जे हैं तेदिनरे हैं । बहुरि नाऊपरि तीन योजन उल्लंघन करि शुक्र ने हैं ते विचरे हैं। बहुरि ताऊपरि तीन योजन उल्लंघन - करि बृहस्पति हैं ते विचरै हैं । बहुरि तापी हैं चारियोजन उल्लंघन करि मंगल जे ते विचर हैं भ्रम हैं । त'पीछे चारयोजन उलंघन करि शनीश्वर जे हैं ते विचरे हैं, सो यो ज्योतिपीनिका समूहकै गोचर आकाशको ranाश एकसो दश योजन मोटो है अर असंख्यात द्वीपसमुद्र प्रमाण मनोदधि पर्यंत तिर्यविस्तारवान् हैं। इहां उत्कंच गाथा है-दुरसतसा दससीदिचदुतिगं च दुगचदुकं ॥ वारारविससिरिक्खा बुहभग्गव गुरुअंगिरारसणी ॥ १ ॥
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( १८ )
अर्थ:-- चित्रापृथ्वीतें सातसंनिवैयोजन ऊपरि तारागण हैं । ता पीछे ऊपर ऊपर सूर्य चंद्र नक्षत्र बुध शुक्र वृहस्पति मंगल शमीश्वर दश अस्सी तीन तीन तीन तीन चार चार योजन ऊंचे उत्तरोत्तर है ॥ १ ॥ तिनमें नक्षत्र मuses विषै अभिजित तौ मध्य में गमन करने वारो हैं । भर मूल सर्व बाहिर गमन करने वारो हैं । भर भरणी सर्वनिके नीचे गमन करने चारो हैं । अर स्वाति सर्वके ऊपरि गमन करने वारो है । अधैँ सूर्य विमानने जनावे हैं कि तप्त जो तपनीय ताकै समान है प्रभा जिनकी भर लोहित नामा मणिमयी है। पर अडतालीश योजनका इकसटिमा भाग प्रमाण चौडे लंबे हैं । अर यातें किंचित् अधिक त्रिगुजित है परिधि जिनकी अर चौबीस योजनका इकसठिवा भाग प्रमाण मोटे अर्धगोलकी है आकृति जिनकी अर सोलह हजार देवनिकरि धारण किये ऐसे सूर्यके विमान हैं । तिननैं प्रत्येक पूर्व दक्षिण पश्चिम 1 उत्तर भागनिनैं अनुक्रमकरि चार चार हजार देव धारण करें है । तिनकें ऊपरि सूर्यनामा देव बसै है । तिनकै प्रत्येक सूर्यप्रभा ॥ १ ॥ सुसीमा || २ || अर्चिमालिनी || ३ || प्रकरनामा चार चार अग्र महिषी हैं । मर प्रत्येक देवी चार चार हजार रूप करवा समर्थ है तिनके साथि दिव्यसुख अनुभव करते असंख्यातलाख विमाननिके अधिपति सूर्य
हैं ते परिभ्रमण करें है । बहुरि निर्मल तंतुका वर्ण के समान हैं वर्ण जिनके अर चिन्हमयी चन्द्रविमान छप्पन योजनका इकविसमा भाग प्रमाण चौडे लंबे अर अठ्ठाईस योजनका इकवीसमां भाग प्रमाण मोठे हैं। अर प्रत्येक षोडश हजार देवनिकरि पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशानिमें अनुक्रमकरि कुंजर वृषभ अश्व रूप विकारवान देवनिकरि धारण किये है । तिनकै ऊपरिचंद्रनामां देव वसै है । तिनकै प्रत्येक चन्द्रप्रभा सुसीमा अर्चिमालिनी प्रभंकरानामा अग्रमहिषी है अर प्रत्येक चारूं देवी चार चार हजाररूप करवा मैं चतुर है तिनकरि सहित सुख उपभोगरूप करे है । ऐसे असंख्यात लाख विमाननिके अधिपति चंद्रदेव ने हैं ते
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( १९ )
विहार करें है । बहुरि अंजनसम प्रभावान अरिष्टमणिमयी राहूके विमान एक योजन लंबे चौडे मर ढाईसे धनुष मोटे है । बहुरि नवीन चमेली का फूलकी प्रभाके समान रजत परिणामी शुक्रनिक विमान एक कोश चौडे लंबे है । अर जातिमान मुक्ताफलकी क्रांतिकै समान अंक मणिमयी बृहस्पतिनिके विमान किंचित् घाटि एक कोश प्रमाण चौडे लंबे हैं । बहुरि कनकमयी अर्जुनवर्ण बुध विमान है । बहुरि तपनीयमयी तप्त तप नीय समान क्रांतिमान शनीश्वरनिके विमान हैं । अर लोहिताक्ष मणिमयी तप्त कनक प्रभावान अंगारकनिके विमान हैं । अर ए बुधने आदि लेय विमान आध कोश लंबे चौडे हैं । भर शुक्रादि विमान प्रत्येक चार चार हजार देवनिकरि धारण करिए हैं। भर नक्षत्र विमान निके प्रत्येक चार चार हजार देव चलावने वारे हैं । अर तारकानिके विमाननकुं चलाने वारे प्रत्येक दोय दोय हजार देव हैं। अर राहु आदि के माभियोग्य देव ने हैं तिनकै रूप विकार चन्द्रवत् जानने योग्य है ।
अर्थात् सिंह कुंजर वृषभ तुरंगरूपकरि विमाननितैं चला हैं । नक्षत्रनिके विमाननिका उत्कृष्ट चौडापणां एक कोशप्रमाण जानना भर तारका निके विमाननिको मोटापर्णो जघन्य तौं एक कोशका चतुर्थ भाग प्रमाण 1 भर मध्यम किंचित् अधिक एक कोशका चतुर्थ भाग प्रमाण है । अर ज्योतिषीनिके विमाननिका सर्व जघन्य मोटापणां पांचसै धनुष प्रमाण है । पर ज्योतिपीनिके इंद्र सूर्य भर चंद्र हैं ते असंख्यात हैं ॥ १२ ॥
भागे तेरम सूत्रकी उत्थानिका कहे है ।
ज्योतिष्काणां गतिविशेष प्रतिप्रत्यर्थमाह
अर्थ - ज्योतिषी निकी गतिविशेषकं जनावनैनिमित्त कहें है। सूत्रं
मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥
( श्री उमास्वामिकृत )
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(२०) अर्थ---मनुष्यलोकके वि मेरकी प्रदक्षिणाझप है नित्यानि लिनकी ऐसे ज्योतिषी देव है।
वार्तिक-मरुप्रदक्षिणावपनं गत्यंतानित्ययं ॥ १ ॥ टीकामेरोः प्रदक्षिणा मेरुदक्षिणा इत्युच्यने किमर्थ गत्यंतरनिहत्यय वि रीता गतिर्मा भूत् ।। अर्थ-मेरुकी जो प्रदक्षिणा सो मेरु प्रदक्षिणा ऐसे कहिए है । प्रश्न-ऐसे कहा निमित लहिचे है। उत्तर-गन्यताकी निवृत्ति दर्थ करिये हैं । अर्थात् विपरीतगनि मति है 111 ॥
वार्तिक-गतःक्षणेक्षणेऽन्यत्यानित्यवाभाव इतिचंन्नाऽमीक्ष्यस्य विवक्षितचात् ॥ २ ॥ टीका-अयं निशब्दः कटम्प्वविचलेपु मावेषु वर्तत गतिश्च क्षणेक्षणऽन्येतिततोऽम्या नित्यति विशेषण नोपपद्यत इतिह किंकारणमामीशयाय विवक्षितत्वात | यथा नित्यप्रहसितो नित्यप्रति इति आमीक्ष्ण्यं गन्यत इति एवमिहापि नित्यगतयः अनुपरतगतय इत्यर्थः ।।
बर्थ-प्रश्न-यो नित्यशब्द कूटस्य अविचलमाव है तिनके वि प्रवत है । अर गति क्षणक्षणमें अन्यअन्य हैं । तात याको नित्य विशेषण नहीं उत्पन्न होय है । उत्तर-सो नहीं है ।। प्रश्न-कहा कारण ! उत्तरनिरंतरपणांका विवक्षितयणांत । सो जैसे कहिये है कि यो पुरुष नित्य प्रहसित है । तथा नित्यप्रजालियन है ऐसें कहने से निरंतरपणाने नणा. वे है। ऐसे ही इहां भी नित्यगतयः पद जो है सो निर्विन गतिमान है। एसा जनावनकै अर्थ है।
वार्तिक-अनकान्ताच्च ।। ३ ।। टीका-यथा सर्वभावपु द्वन्यार्थादेशात्स्यानित्यत्वं पर्यायादिशात्स्यादनित्यत्वा तथा गताबपति नित्वमविरुद्ध
अर्थ - जैसें सर्वभावनिकविर्ष द्रव्यार्थका पादेशत कयंचित् नित्यपणों अर पर्यावार्थका आदेशतकथंचित् नित्यपगों है । तैसँगतिविमी नित्यपणों अविरुद्ध है । क्योंकि उनकी गति अविच्छेदरूप है यति ।
नार्तिक-नलोकग्रहणं विषयाथै ॥ ६॥ टीका-स.तृतीयेषु
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(२१.)
दीपेवुद्धयोश्च समुद्रयोज्योतिष्कास्ते मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयानान्ये इति विषयावधारणार्थ नलोकग्रहणं क्रियते । अर्थ-जे ढाईद्वीपमैं पर दोय समुद्रनिमें ज्योतिषीहै ते मेरुपदक्षिणारूप नित्यगतिमान है। अन्य स्थानमैं गतिमान नहीं है । ऐसा विषयका अवधारणकै अर्थ नृलोक पदको ग्रहण करिए है ॥४॥
वार्तिक -गतिकारणाभावादयुक्तिरितिचेन गतिरताभियोग्य देववहनात् ॥५॥ टीका-स्यान्मतमिह लोके भावानां गतिः कारणवती हटा न च ज्योतिष्कविमानानां गतः कारणमस्तिततस्तदयुक्ति रितितन्न किं कारणं गतिरताभियोग्यदेवाहनात् । गतिरताडि आभियोग्य देवा वहन्तीत्युक्तं पुरस्तात् ॥ अर्थ- प्रश्न-यालोक विपदार्थनिकी गति कारणमानदेखी अर ज्योतिषीनिके विमाननिगतिको कारण नहीं है ताते गति विक्षेपण अयुक्ति है। उत्तर-सो नहीं है । प्रश्न–कहा कारण । उत्तर-गतिमैं है रति जिनकै ऐसे आभियोग्यदेवनिका धाग्णपणाते । निश्चय करि गतिमैं रतिमान भाभियोग्यदेव धारण कर है। ऐसे पूर्व कहयो
वार्तिक-कर्मफलविचित्रमाराच ॥६॥ टीका-कर्मणां हि फलं वैचित्र्येण पच्यते ततस्तेषां गतिपरिणतिमुखेनैव कर्मफलमवचोद्धव्यं । एकादशभिर्योजनशतैरेकर्विशेमरुमप्राप्य ज्योतिका प्रदक्षिणाश्चरंति । तत्र जबूद्वीपे द्वौसयों द्वौचंद्रमसौ षट् पंचाशन्नक्षत्राणि षट् सप्तत्यधिक ग्रहशत एक कोटीकोटिशतसहस्त्रं त्रयस्त्रिंशत्कोटीकोटिसहसाणि नवकोटीकोटिशतानि पंचाशच्च कोटीकोट्यस्तारकाणां । लवणोदे चत्वारः सूर्याश्वधारश्चंद्राः नक्षत्राणां शतं द्वादश ग्रहाणां त्रीणिशतानि द्वापंचाशानि द्वे कोटीकोटिशनसले सप्तषष्ठिः कोटीकोटि सहस्राणि नव च कोटीकोटिशतानि तारकाणां भातकीखण्डे द्वादशसूर्याः । द्वादशचंद्राः। नक्षाणां त्रीणि शतानि षड्विशानि ग्रहाणां सहसं षट्पंचाच
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(२२)
अष्टौ कोटीकोटिशतसहस्राणि सप्तत्रिंशच कोटीकोटिशतानि तारकाणां । कालोदे द्वाचत्वारिंशदादिन्याः द्वौं चत्वारिंशचंद्राः एकादश नक्षत्रसप्तानि पट् सप्तत्यधिकानि पड्बिंशदहशतानि पण्णवत्यधिकानि अष्टाविंशतिः कोटीकोटिशतसहस्राणि द्वादश कोटीको टिसहस्राणि नबकोटीको टिशतानि पंचाशत्कोटीकोट्यस्तारकाणां । पुष्कराधे द्वासप्ततिः सूर्या द्वासप्ततिश्चन्द्रा द्वे नक्षत्रसहने षोडश त्रिषष्ठिः । ग्रहशतानि पविशानि अहचत्वारिंशत्कोटीकोटिशतसहस्राणि द्वाविंशतिः काटीकोटमास्राणि द्वे कोटीकोटिशते तारकाणां । वाये पुष्करार्धेच ज्योतिपामियमेव संख्यततश्चतुर्गुणाः पुष्करवरोदे, ततः परा द्विगुणाद्विगुणा ज्योतिषां संख्यावसया जघन्य तारकान्तरं गव्यूतसप्तमागः । मध्य पंचाशगव्युतानि । उत्कृष्ट योजनसहलं । जघन्यं सूर्यान्तरं चन्द्रनिरं च नवनवतिः सहस्राणि योजनानां षट्शतानि चत्वारिंशदधिकानि उत्कृष्टमेकं योजनशतसहस्रं षट्शतानि षष्ठयुत्तराणि । जंबूद्वीपादिपु एकैकस्य चंद्रमसः पट्पष्टि कोटी. कोटिसहस्राणि नवकोटीकोटिशतानि पंचसप्ततिश्च कोटीकोट्यः तारकाणामष्टाशीतिर्महाग्रहाः । अष्टाविंशति नक्षत्राणि । परिवारः सूर्यस्य चतुरशीतिमण्डलशतमशीतिर्योजनशतं जंबुद्वीपस्यान्तरमवगाझ प्रकाशयति तत्रय पंचषष्ठिरभ्यन्तरमण्डलानि लवणोदम्यांतस्त्रीणि त्रिंशानि योजनशतान्यवगाध प्रकाशयति । तत्र मण्डलानि बाद्यान्येकोनविंशतिशत द्वियोजनमेकैकमण्डलान्तरं द्वे योजने अष्टचत्वारिंशद्योजनकषष्ठिभागाश्च एकैकमुदयांतरं चतुश्चत्वारिंशयोजनसहरष्टाभिश्वशतैर्विशरप्राप्यमेरुं सर्वाभ्यंतरमण्डलं . सूर्यः प्रकाशयति । तस्य विष्कभी नवनवतिः सहस्राणिषट्शतानिपत्यारिंशानि योजनानां तदाहनि मुहूर्ताः अष्टादश भवंति । पंच सहस्राणि द्वे शते एकपंचाशयोजनानां एकान्नत्रिंशद्योजनषष्टिभागाश्च मुहूर्तगतिक्षेत्रं सर्वबाघमण्डले चरन सूर्य पंचचत्वारिंशत्सहलेस्त्रिभिश्चशतस्त्रिशैर्योजनानां मोरुमप्राप्य भासयति । तस्य विष्कम्भः एक शतसहसं षट्शतानिषष्ठयधिकानियोजनानां तदा दिवसस्य द्वादशमुहूर्ता:पंच
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( २३ )
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सहस्राणि त्रीणि शतानिपंचोत्तराणि योजनानां पंचदशयोजनपष्ठिभागाश्च मुहूर्तगतिक्षेत्रं तदा एकत्रिंशद्योजनस्हलेप्वष्टसु च योजनशतेष्वर्धद्वात्रिंशेपुस्थितो दृश्यते सर्वाभ्यन्तरमण्डले दर्शन विषयपरिमाणं प्रागुक्तं मध्ये हानिवृद्धिकमो यथागर्मवेदितव्यः । चन्द्रमण्डलानि पंचदंशद्वीपावगाहः । समुद्रावाहश्वसूर्यवद्वेदितव्यः द्वीपाभ्यंतरे पंचमण्डलानि समुद्रामध्ये दश सर्ववाह्याभ्यन्तरमण्डलविष्कभविधिःमेरुचंद्रांतरप्रमाणंच सूर्यवत् प्रत्येतव्यं पंचदशानां मण्डलानामन्तराणि चतुर्दश ॥ तत्रैककस्यमण्डलान्तरस्य प्रमाणं पंचत्रिंशद्योजनानि योजनैकपष्ठिभागास्सिंगत् रद्धागस्य चत्वारः सप्तभागाः । ॥ ३५-३०-४॥ सर्वाभ्यतामण्डले पंच पइस्राणि त्रिसप्तत्यधिकानि योजनानां सप्तपप्ततिर्भागशतानि चतुश्चत्वारिंशानि मण्डलं त्रयोदशभिर्मागसहसः सप्तभिश्चमागशतैः । पंचविशस्थित्वावशिष्टानि चंद्रः एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति सर्ववाद्यमण्डले पंच सहस्राणि शतं च पंचविशं योननानामेकान्नमततिर्भागशतानि नवत्यधिकानि मण्डलं त्रयोदशभिर्भागसहनः सप्तभिश्चभागशतैः पंचविंशस्थिरवाऽवशिष्टानि चन्द्रः एककेन मुहूर्तेन गच्छति । दर्शनविषयपरिमाणं सूर्यनद्वेदितव्यं हानिवृद्धिविधानंच यथागममवसंयं ॥ पंनयोजनशतानि दशोतराणि सूर्याचन्द्रमसोश्वारक्षेअविष्कमः . • पर्थ-अथवा निश्चगकरि कर्मनिको काल विचित्रपणां करि पचि है । तात तिनक गतिपरिणतिमुखकरिही फर्मको फल जानने योग्य है । भर ग्यारास इकवीस योजन मेरुनै छांडि ज्योतिषी प्रदक्षिणाकरि विचरै है । तिनमै वृद्वीपर्कविखें दोय सूर्य दोय चन्द्रमा है । अर छप्पन नक्षत्र है । पर एकसौ छिहत्तर ग्रह है। पर एक लाख कोटाकोटि अर तेईस हजार कोटाकोटि भर नवसै कोटाकोटि पर पचास कोटाकोटि तारानिको प्रमाण है । .
भर लक्षण समुद्र के विष चार सूर्य चार चंद्रमा है। पर नक्षत्रनि
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( २४ )
की संख्या एकसौ यारा है । अर ग्रहनिको प्रमाण तीनसँ बावन है । अर तारानिको प्रमाण दोय लाख कोटाकोटि भर सडसठि हनार कोटाकोटि भर नबसे कोटाकोटि है ।।
पर धातकी खण्डकै वि द्वादश सूर्य अर द्वादश चन्द्रमा हैं । पर नक्षत्रनिको प्रमाण तीनसै छत्तीस है । अर ग्रहनिको प्रमाण एक हजार छप्यन है भर तारा आठ लाख कोटाकोटि अर सतीसस कोटाकोटि है।
अर कालोदधि समुद्रकवि वियालीस सूर्य पर वियालीस ही चन्द्रमा है । पर अट्ठाईस लाख कोटाकोटि अर द्वादश हजार कोटाकोटि तारा हैं। ___ अर पुष्कराधक विषं बहत्तरि सूर्य है । अर बहत्तरही चन्द्रमा है । भर दो हजार सोला नक्षत्र है । अर तिरेष ठसे छत्तीम ग्रह है पर अड़तालीस लाख कोटाकोटि अर वाईस हजार'कोटाकोटि अर दोयसै कोटाकोटि तारा है।
अर बाझ पुष्कराकवि ज्योतिषीनिकी संख्या इतनीही है । ताते पुष्करवर द्वीपकवि चतुर्गुण हैं । ताते पर द्विगुण ज्योतिषीनिकी संख्या जाननी ॥ पर तारका निकै जघन्य अंतर एक कोशका सातमा भाग मात्र है । मध्य अंतर पचास मात्र है। अर उत्कृष्ट अंतर एक हजार योजन प्रमाण है । भा सूर्यनिक जपन्य अंतर तथा चन्द्रमा निकै जघन्य अंतर निन्याणवै हजार छसै चालीस योजन प्रमाण है । अर उकृष्ट अंतर एक लाख छसै साठि योजन प्रमाण है। अर जंबूद्वीपादिकनिकविः । एक एक चंद्रमाकै तारकानिकी छासटि हजार कोटाकोटि पर नवस कोटाकोटि अर पिचेतर कोटाकोटि है सो । भर मठ्यासी महाग्रह है सो। भर अहाईश नक्षत्र है । भर सूर्यका एक सौ चौरासी महरू
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( २५ )
रूप मार्ग है । तिनमें सौं मस्सी योजन तौ जंबूद्वीपके मध्य अवगाहन करि प्रकासे है । तहां पैंसठ अभ्यन्तर मण्डल है । अर लवण समुद्रकै विषै तीनसे तीस योजन अवगाहन करि प्रकासे है। तहां एक सौ उगणीस बाह्य मण्डल है । अर एक एक मण्डलकै दोय योजन प्रमाण अंतर है। भर दोय योजन अर अडतालीश योजनका इकसठिमा भाग प्रमाण एक एक उदयांतर स्थान है । भर चवालीश हजार आठसें बीस योजन मेरूतैं दूरि होयकरि सर्व अभ्यन्तर मण्डलनै प्राप्त होय सूर्य प्रकाश है । ताको चौडापणौ निन्याणवै हजार छसै चालीस योजन को है । योही सूर्यान्तर है कि दोक सूर्यनिकै अंतर भी इतन हि है 1 भर या समय दिनमान अष्टादश मुहूर्त प्रमाण है । अर पांच हजार दोय से इक्कावन योजन अर उगणीश योजनका साठिम भाग प्रमाणं एक मुहूर्त में गमन क्षेत्र है । बहुरि सर्व सर्वमाह्य मण्डल मैं गमन करतौ सूर्य चौपन हजार तीन से तीश योजन मेरुनैं नहीं प्राप्त होय प्रकासे है । ताको चोडापण एकलाख छसै साठि योजन प्रमाण है । भर वा समय दिनमान द्वादशमुहूर्त प्रमाण है। तहां पांचहजार तीनसें पांच योजन भर पंदरायोजन का साठियां भागप्रमाण एक मुहूर्तमैं गमनक्षेत्र है । भर वा समय सर्व अभ्यंतर मण्डलकै विष इकतीस हजार आठ साडा बत्तीस योजनकै विखें तिष्ठतो सूर्य दीषै है |
भावार्थ - भरत निवासी एकतीस हजार आउसे साडा बत्तीस योजन परे सर्व अभ्यतर मण्डल में दीखे है । अर दर्शनको विषयपरिमाण पूर्वे दूसरी अध्याय में कहयोही है । भर मध्यके मण्डलनिकै विषै हानि वृद्धिको अनुक्रम आगमके अनुकूल जानने योग्य है । अर चन्द्र मण्डल पंचदश है । भर द्वीपको अवगाह तथा समुद्रको अवगाह सूर्यवत् जानने योग्य है कि द्वीपके मध्य तो पांच मण्डल है । अर समुद्रके मध्य दश मण्डल है । परं सर्व अभ्यन्तर मण्डलका विष्कंभकी विधि भर मेरू चन्द्रमा अंतरको प्रमाण सूर्यवत् जानने योग्य है । अर पंचदश
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मण्डलनिक अन्तर चतुर्दश है। तिनमें एक एक मण्डलका मन्ताको प्रमाण पैंतीस योजन अर एक योजनका इकसठ माग करिये तिनमैं त स भाग पर तिन भागनिमें एक भागके सात भागे करिये तिनसू चार मग प्रमाण है । पर सर्व अभ्यंतर मण्डलमैं पांच हजार- तिहत्तर योजन भर सात हजार सातसै चवाली का तेग हजार सातस पचीशमा भागममाण स्थिति रहिकरि चंद्रमा अवशेष क्षेत्र- एक एक मुहूर्त करि- गमन
___ भावार्थ- सर्व अभ्यन्तरमण्ड- मैं गमन करता चंद्रमाकै. एक मुहूतमें पांचहज र तिहत्तर योजन भर सात हजर सातसै चवालीमका तेग हजार सातसै पच्चीशमा भाग प्रमण चा क्षेत्र है। घर सर्वबाह्य मण्डलविर्षे पांच हजार एक सौ पचीश योजन अर छ हजार नवस निवका तेग हजार सातसै पञ्चशमा भाग प्रमाण स्थिति रहिकरि चंद्रमा अवशेष क्षेत्र नं एक एक मुहूर्तकरि गमन करें है।
'भावार्थ-सर्व वाह्य मण्डलमैं गमन करता चंद्रमांक एक महतमैं पांच हजार एकसो पच्चीस योजन अर छ हजार नवसै निव्वैका तेरा हजार सातस पच्चीशमा भाग प्रमाण चारक्षेत्र है। अर दर्शनका विषयको प्रमाण सूर्यवत् जानने योग्य है । अर हानिवृद्धिको विधान भागमकै अनुकूल जानने योग्य है । अर पांच से दश योजन सूर्यचन्द्रमाको चारक्षेत्र चौडो है ॥ ६ ॥ १३ ॥
अब चौदा सत्रकी उस्थानिका कहै हैगतिमज्ज्योतिःसंबंधेन व्यवहारकालप्रतिपत्यर्थमाह ।।
अर्थ-गतिमान ज्योतिषीनिका सबवकरि व्यवहार कालकी प्रतिपतिक अर्थ कहे है
तन्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥ बीका-तदिति किमर्थ । अर्थ-विन ज्योतिषीनिके फियो कालको
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( १७ )
विभाग है । प्रश्न- तत ऐसो शब्द कहा निर्मित है । उतरून वार्तिकगतिमज्ज्यातिःप्रतिनिर्देशार्थं तद्वचनं ॥ १ ॥
नाच्च
टीका- गतिमतां ज्योतिषां प्रतिनिर्देशार्थं तदित्युच्यते नहि केवलगत्या नापि केवलैज्यों तभिः कालः परिच्छयते अनुपलब्धेर परिवर्तना ज्योतिः परिवर्तनलभ्यो हि कालपरिच्छेदः । कालो द्विविधो व्यावहारिको मुख्यश्च तत्र व्यावहारिकः कालविभागस्तत्कृतः । समयावलिका दिव्यख्यातः । क्रियाविशेषपरिच्छिन्नः अन्यस्य परिच्छन्नस्य परिच्छेदहेतुः मुख्योन्यो वक्षमाणरक्षणः । आह न मुख्यः कालोस्ति सूर्यादिगतव्यतारको लिंगाभावात् । अपिच कलानां समूहः कालः कलाश्च क्रियावयवाः । किंच ।
अर्थ-गतिमान ज्योतिषीनिका किया कालविभागकूं जनावनैके अर्थ तत् ' ऐसो शब्द कहिये है । अर निश्चयकरि केवल गतिकरि भी काल नहीं जानिये है । अर केवल ज्योतिपीनिकरिमी काल नहीं जनिये है अनुपलoad कि प्रत्यक्ष नहीं दाखने अर परिवर्तनत कालकी सता नहीं मालुम होय है ।
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अर्थात्-काल प्रत्यक्ष भी नहीं देखे है । अर कालका पलटना भी नहीं दीखे है । यातें ज्योतिषीनिका परिवर्तन कर ही कालको जानपन है । सो काल दोय प्रकार है कि एक व्यवहारिक है दूरा मुख्य है । तिनमें व्यवहारिक कालको 'वभाग ज्योतिपीनिकी गति करि सभ्य आवली आदि क्रिया विशेष करि जान्यूं ऐसो व्याख्यान कियो सो अन्य अज्ञात जो मुख्य काल ताके जाननेको हेतु है । पर दूसरो मुख्य काल वक्ष्यमाणलक्षण है ।। प्रश्न -सूर्य आदिकी गतितैं भिन्न मुख्य काल नहीं है । क्योंकि वाका लिंगको अभाव है यातें । अर और सुनं कि काल की निरुक्त ऐसी है कि-कलानां समूहः कालः । याको अर्थ ऐसी है कि कलाको जो समूह सो काल है । अर कलाने है ते क्रिया के अवयब है ॥ १ ॥ किंच वार्तिक
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(२८ )
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पंचास्तिकायोपदेशात् ॥ २॥ . . ::
टीका-पंचैवास्तिकाया भागमे उपदिष्टाः । न 48: | तो न मुख्यः कालोऽस्तीति अपरीक्षिताभिधानमेतत् यत्वावदुक्तं लिंगामावान्नास्ति मुख्यः काल इत्यत्रोच्यते क्रियार्या काल इति गौणव्यवहारदर्शनान मुख्यसिद्धिः । योयमादित्यगमनादी क्रियेतिरुदेः काल इति व्यवहारः कालनिर्वर्तनापूर्वकः मुख्यस्य कालस्यास्तिवं गमयति नहि मुख्ये गन्यसति वाहीके गौणे गोशब्दव्यवहारो युज्यते । . . पर्थ-पांचहि मस्तिकाय मागमकै विष उपदेशकर है। पर छठों नहीं कन्यो है तातै मुख्य काल नहीं है । उत्तर-यो अपरीक्षिताभिधान है । सो ऐसे है कि-प्रथम तो लिंगका अमावत मुख्य कार नहीं है । इहां उसर कहिये है कि क्रियाकै विर्षे काल है ऐसा गौण व्यवहारका दर्शन मुख्यकी सिद्धि है । पर नो या मादित्यगमन
आदि के विर्षे क्रिया है. सो रूदित व्यवहारकाल है सो कालकी निवर्तनापूर्वक होतो संतो मुख्य कालका मस्तित्वनैं जनावै । क्योंकि मुख्य गौनें नहीं होता सन्तां गौणभूत वालकै वि गौशब्दको व्यवहार नहीं योग्य होय है ॥ २॥ कार्तिक. ॥ अतएव न कलासमूह एव काला॥
टीकोमतएव कुतएव मुख्यस्य कालस्यास्तित्वादेव कलानां समहएव काल इति व्यपदेशो नोपपद्यते करप्यते क्षिप्यते प्रेर्यते येन किया. तद्रव्यं स कालस्तस्य विस्तरेण निर्णय उपरत्र.वक्ष्यते ।
अर्थ-यातही मस्तित्वपणात ही कलाको समह ही काल है ऐंसो उपदेश नहीं उत्पन्न होय है । भर काल शब्दकी निरुक्ति ऐसी है कि-कलप्यते. क्षिप्यने प्रेर्यते येन क्रियावतव्यं स कालः । याको मर्म ऐसो है कि बाकरि क्रियावान दव्य, कल्पना करिये तसा स्थापन करिये.
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(:२९) अथवा प्रेरणा करिये सो काल है। ताको विस्तारकरि निर्णय मागामी कहेंगे ॥ २ ॥ वार्तिक
प्रदेशप्रचयामावादस्तिकायेष्वनुपदेशः ॥ ३ ॥ टीका-प्रदेशप्रत्योहि कायः । स एषामस्ति ते मस्तिकाया इति जीवादयः पंचैवोपदिष्टाः । कालस्य त्वेकप्रदेशत्वादस्तिकायनाभावः । यदिपस्तित्व
मेवास्य न स्यात् षद्रव्योपदेशो न युक्तः स्यात् कालस्यहि द्रव्यत्वमस्त्या. गमे परवक्षणाभावः स्वलक्षणोपदेशसदापात् ।।
. बर्थ-निश्चय करि प्रदेशनिको प्रचय जो है सो काय है । भर नाकै काय है सो भस्तिकाय है । यात जीवादिक पाचही भस्तिकायरूप उपदेशा किया मर फालकै एकपदेशपणांत मस्तिकायपण को मभाव है। भर जो निश्चय करियाको अस्तित्व ही नहीं है तो षट्द्रव्यको उपदेश युक्त नहीं है । यात निश्चयकरि कालकै द्रव्यपणौँ आगम विष है। क्योंकि पर जे जीवादिक तिनका लक्षणको अभाव अर अपना लक्षणका उपदेशको सद्भाव है यातॆ ॥ १३ ॥ १४ ॥
मैं पनरमा सूत्रको उत्थानिका कहै हैं - इतरत्र ज्योतिषामवस्थाप्रतिपादनार्थमाह
मर्य-मानुवोत्तर पर्वतकै बाहिरका क्षेत्रमें ज्योतिषीनिकी व्यवस्था का प्रतिपादनकै अर्थ कहै है । सत्र
॥बहिरवस्थिताः ॥१५॥ टीका-बहिरित्युच्यते कुतो बहिः । नृगेकात् कथमवगम्यते अर्थपशाद्विमक्तिपरिणाम इति । -
अर्य-मनुष्यक्षेत्र बाहिर ज्योतिषी हैं तें यथाव्यवस्थित है। या सत्रमैं बहिर पद कहिये है-तातै प्रश्न करिये है कि-काहेरौं बाहिर - है। उत्तर-मनुष्य लोकतें माहिर है सो यथावस्थित है ॥ प्रश्न
कैसे जानिये है कि या सूत्रमैं ज्योतिषीनिकोही मनुष्यलोकते बाहिर
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(३०)
अवस्थितपणौँ कयो है । उत्तर-पूर्वसूत्र में नृकों के पद है ताकाही अर्थका वशते विभक्तिको परिणमन होय नृ रोकात् ऐसो अनुवृत्तिरूप भयो है तात जानिये है । वार्तिक
नृलोके नित्यगतिवचनादन्यत्रावस्थानसिद्धिरिति चेनोमयासिद्धेः ॥ १॥ टीका- स्यान्मतं नृलोक नित्यातय इति वचनादन्यत्रावस्थान ज्योतिषां सिद्धं अतो व हरवस्थिता इति वनमनर्थकमिति तन्न किं कारणमुभयांसिद्धेः नृलोकादन्यत्र पहियोतिषामस्तिस्वमवस्थानं चाप्रसिद्ध अतस्तदुभयसिद्धयर्थ वहिरवस्थिता इन्युच्यते असतिहि वचने नृलोके एव सन्ति नित्यावयश्चैत्यवगम्यत । ___eर्थ-प्रश्न नलोके नित्यगतयः ऐश पूर्व सूत्रमें वाक्य है । ताते . अन्यत्र ज्योतिषीनि का अवस्थान सिद्ध है। यात पहिरवस्थिता ऐसो वचन जो है सो अनर्थक है । उत्तर-सो नहीं है । प्रश्न कहा कारण! | उत्तर-ऐसे माने दोऊनिकी ही प्रसिद्धि होय है यात क्यों कि मनुष्यलो. कतै अन्यत्र बाहिर ज्योतिषीनिको अस्तित्व भर अवस्थान ए दोम्ही अप्रसिद्ध है यात दोऊनिकी सिद्धिकै अर्थ वहिरवस्थिता ऐसे कहिये है । अर निश्चयकरि :या वचननं नहीं होता. संतां मनुष्यलोक कै विषही है . अर नित्यगतिमान है ऐसे ही जानिये ॥१॥१५॥
श्रीमद्विधानन्दिविचित: तत्वार्थ श्लोकवार्तिक अध्याय ४ में
ज्योतिष्क देवताओंके.वर्णन. .. ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाच ॥१२॥
ज्योतिष एवं ज्योतिष्काः को वा यावादेरिति स्वार्थिकः कः । ज्योतिः शब्दम्य यावादिषु पाठात् तथाभिधानदर्शनात प्रतिलिंगानुवृत्तिः · कुटीरः समीर इति.यथा । सूर्याचन्द्रमसा इत्यत्रानन्देवताद्वंद्ववृत्तेः ।
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ग्रहनक्षत्रकीर्णकनारका इत्यत्र नानक । ननु द्वन्द्वग्रहणात्तस्येष्टविषये व्यवस्थानादसुरादिवत् किंनरादिवछ । कथं ज्योतिषा: पंचविकल्पा: सिद्धा इत्याह
ज्योतिष्काः पंचधा दृष्टाः सूर्याद्या ज्योतिराश्रिताः । नामकर्मवशात्ताहक संज्ञा सामान्यभेदतः॥१॥
ज्योतिष्कनामकर्मादये सतीराश्रयत्वज्योतिप्का इति सामान्यतस्तेषां संज्ञ' सूर्यदिनामकर्मविशेषोदयात्सूर्णद्या इति विशेषसंज्ञाः । तएते पंचधाप दृष्टाः प्रत्यक्षज्ञानिभिः माक्षात्कृतास्तदुपदेशाविसंवादान्यथानुपपत्तेः। • सामान्यतोऽनुमेयाश्च छमस्थानां विशेषतः ।। परमागमसंगम्या इति नादृष्टकल्पना ॥ २ ॥ ॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥ ज्योतिप्का इत्यनुवर्तते । नलोक इति किमर्थमित्यावेदयतिनिरुक्त्यावासभेदस्य पूर्ववद्गत्यभावतः । ते नृलोक इतिप्रोक्तमावासप्रतिपत्तये ॥१॥ न हि ज्योतिष्काणां निरुस्त्यावासपतिरत्तिभवनवास्यादीनामिवास्ति यतो नलोक इत्यावासप्रतिपयर्थ नोच्येत । क पुनर्नलोक तेषामावासाः
श्रूयन्ते?
अस्मात्समाद्धराभागादूचं तेषां प्रकाशिनाः ।। आवासाःक्रमशः सर्वज्योतिषां विश्ववेदिभिः ॥ २ ॥ योजनानां शतान्यष्टौ हीनानि दशयोजनैः ॥ उत्पत्य तारकास्ताश्चात्यध इतिश्रुतिः ॥ ३॥ तत सूर्या दशोत्पन्य योजनानि महाप्रमाः ॥ ततश्चंद्रममोशीति भानि त्रीणि ततस्त्रपः ॥ ४ ॥
त्रीणित्रीणि बुवाः शुक्रा गुरवश्वोपरिक्रमात् ॥ - चत्वारोंगारकास्वचत्वारिच शनैश्वराः ॥ ५ ॥
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'चरति तादृशादृष्टविशेषवशवर्तिनः ।। स्वभावशद्वा तथानादिनिधनाद्रव्यरूपतः ॥ ६ ॥ एष एव नभोभागो ज्योति संघातगोचरः ।। बहला सदशकं सर्वो योजनानां शतं स्मृतः ॥७॥ सपनोदधिपर्यंतो नृलोकेऽन्यत्र वा स्थितः।। सिद्धस्तियंगसंख्यातद्वीपांभोधिप्रमाणकः ॥ ८॥ सर्वाभ्यंतरचारीष्टःतत्राभिजिदथो चहिः॥ सर्वेभ्यो गदितं मूलं भरण्योधस्तथोदिताः ॥ ९॥ सर्वेषामुपरि स्वातिरिति संक्षेपतः कृता ॥ . व्यवस्था ज्योतिषां चिंत्या प्रमाणनयवेदिभिः॥१०॥ मेरुपदक्षिणा नित्यगतय इति वचनात् किमिष्यत इत्याह-- मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयस्त्विति निवेदनात् ॥ .
नैवाप्रदक्षिणा तेषां कादाचित्कीप्यते न च ॥ ११॥ • गत्यभावोपि चांनिष्ट यथा भूभ्रमवादिनः ॥ .
भुवो भ्रमणनिर्णीतिविरहस्योपपत्तितः ॥ १२॥ ।
नहि प्रत्यक्षतो भूमेर्भमणनिर्णीतिस्ति, स्थितियैवानुभवात् । नचायभ्रान्तः सकलदेशकालपुरुषाणां तद्भमणा प्रतीतेः । कस्यचिन्नावादिस्थिरस्वानुभवस्तु प्रान्तः परेषां तदमणानुभवेन बाधनात् । नाप्यनुमानतो भूभ्रमणविनिश्चयः कर्तुं सुशकः तदविनामाविलिंगाभावात् 1: स्थिरे भवक्रे सूर्योदयास्तमयमध्वान्हादिभगोलभ्रमणे अविनामावलिंगमितिचन्न, तस्य प्रमाणबाधित विषयत्वात् पावकामोष्ण्यादिषु द्रव्यत्वादिवत् । भचक्रमणे सति भूभ्रमणमंतरेणाप्ति सूर्योदया दप्रतीत्युपपत्तश्च । न तस्मात् साध्याविनाभावनियमनिश्चयः । प्रतिविहितं च प्रपंचतः पुरस्तात् भूगोलभ्रमणमिति न तदवलंबनेन ज्योतिषां नित्यगत्यभावो विभावयितुं शक्यः नापि कादाचित्कीण्यते गतिनित्यग्रहणात् । तद्गतेनित्यत्वं विशेषणानुप
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पत्तिाघ्रौव्यादिति न शंकनीय, नित्यशब्दस्याभीक्ष्ण्याचित्वान्नित्यपहसितादिवत् ॥
ऊर्धाधोभ्रमण सर्वज्योतिषां ध्रुवतारकाः॥ मुक्त्वा भूगोलकादेवं प्राहुर्भूभ्रमवादिनः ॥ १३॥ तदप्यपास्तमाचार्यैर्नलोक इति सूचनात.॥
तत्रैव भ्रमण यस्मानोवर्धाधोभ्रमणे सति ॥ १४ ॥ . घनोदधेः पर्यते हि ज्योतिर्गणगोचरे सिद्ध त्रिलोक एवं श्रमण ज्योतिषामुर्वाधः कथमुपपद्यते ? भूविदारणप्रसंगात् । तत एव विंशत्युत्तरैकादश योजनशतविष्कभत्वं भूगोलश्चाभ्युपगम्यत इतिचेन्न, उत्तरतो. भूमण्डलस्येयचातिक्रमात् तदधिकपरिमाणस्य प्रतीतेः तच्छतभागस्यच सातिरेकैकादशयोजनमात्रस्यैव समभूभागस्याप्रतीतेः कुरुक्षत्रादिषु भूद्वादशयोजनादिप्रमाणस्यापि समभूतलस्य सुप्रसिद्धत्वात । तच्छतगुणविष्कंभभूगोलपरिकल्पनायामनवस्थाप्रसंगात् । कथं च स्थिरेऽपि भूगोले गंगासिध्वादयो नद्यः पूर्वापरसमुद्रगामिन्यो घटेरन ? भूगोलमध्यान्तप्रभावादितिचेत, किं पुनर्भुगोलमध्यं ? उज्जयिनीतिचेत्, न ततो गंगासिंध्वादीनां प्रभवः समु. पलभ्यते । यस्मात् तत्पभवः प्रतीयते तदेव मध्यमितिचेत्, तदिदमतिव्याहतं। गंगाप्रभवदेशस्य मध्वत्वे सिंधुप्रभवभूभागस्य ततोतिव्यवहितस्य मध्यत्वविरोधात् । स्ववाहदेशापेक्षया त्वस्य मध्यत्वे न किंचिदमध्यं स्यात् स्वसिद्धां. तपरित्यागश्चोज्जयिनीमध्यवादिनः । तदपरित्यागे चोज्जयिन्या उत्तरतो नद्यः सर्वाउदमुख्यस्तस्या दक्षिणतोऽवाङ्मुरव्यस्ततः पश्चिमत: प्रत्यइमुख्यस्ततः पूर्वतः प्राङमुख्यः प्रतीवेरन् । भूम्यवगाहभेदान्नदीगतिभेद इतिचेन्न, भूगोलमध्ये महावगाहप्रतीतिप्रसंगात् । नहि यावानेव नीचैर्देशेवगाहस्तावानेवोर्श्वभूगोले युज्यते । ततो नदीभिभूगोलानुरूपतामतिक्रम्य वहंतीति भोगोलविदाहरणमिति सममेव धरातलमबलंबितुं युक्तं, समुद्रादिस्थितिविरोधश्च तथा परिहृतः
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त्यात् । दमिशक्ति विशेषात्म परिगीयत इति चेत, तत एव समम्मी छायादिभेदोऽस्तु । शक्यं हि वक्तुं लंकाभूमरीहशी शक्तियतो मध्यान्हें अल्पच्छाया मान्यखेटद्युत्तरभूमस्तु ताशी यतस्तधिष्ठिततारतम्यमा छाया । तथा दर्पणसमतलायामपि भूमौ न सर्वषामुपरि स्थित सूर्य छायाविरइस्तस्यास्तदमदनिमित्तशक्तिविशेषासद्भावात् तथा विषुमति समरात्रमपि तुल्यमध्यदिन वा भुमिशक्तिविशेषावस्तु । प्राच्यामुद्रयः प्रतीच्याम तम्यः सूर्यम्य तत एव घटतं । कार्यविशेषदर्शनाव्यस्य शक्तिविशेषानुमानस्याविरोधात् । अन्यथा दृहानेष्टकल्पनायाश्चावश्य माविस्तात् । सा च पापीयसी महामोह विभिउमावेदयति । नव क्यं दर्पणसमतलामंत्र भूमि भाषाम्हें प्रतीति'वरोधात तस्याः कालादि. वंशानुपर्चयापचयसिद्धेन्निन्नताकारसद्भावात् । ततो नोज यन्या उत्तरेत्तरममौ निन्नायां मध्यंदिने छायावृद्धिविरुध्यते । नापि ततो दक्षिणक्षितौ समुन्नतायां छांयाहानिमन्नतेतराका मेदद्वागयाः शक्तिमइप्रसिद्वैः । प्रदीपादिवादिस्यान्न दूरे छायाया वृद्धिघटनात् निकटे प्रभातोपपत्तेः । तत एव नोंदयाम्तमययोः सूर्यादेविवाघदर्शन विरुध्यते भूमिसलमतया का सूर्यादिप्रतीतिर्न संभाव्या, दूरादिभूमस्तथाविघदशनजननशक्तिद्भावात् ।। नंच मृमाननिधना:समरात्रादयस्तेषां ज्योतिप्कगतिविशेषनिबंधनवादित्यावेदयति___समरात्रं दिवावृद्धि निर्दीपाश्च युज्यते ॥
छायाग्रहोपरागादिर्यथा ज्योतिर्गतिस्तथा ॥ १५॥. सखंण्डभेदतः सिद्धा बाह्याभ्यंतरमध्यतः ।।
तथाभियोग्यदेवानी गतिभेदात्स्वभावतः ॥ १६.।। - सूर्यस्य तावच्छतुरशीतिशतमण्डलानि । तत्र पंचषष्ठिाभ्यंतरे अबूद्वीपस्याशीतिशतयोजनसनवगाह्यप्रकाशनार्जवृद्धीपाद्वाह्ममण्डलान्येकानविंशतिशत लवणोदस्याभ्यतरे त्रीणि त्रिंशानि योजनशतान्यवाद्य तस्य प्रकाशनात् ।
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द्वियोजनमेकैकमण्डलान्तरं द्वयोजने अष्टाचत्वारिंशद्योजनकपष्ठिभागाश्चैकैकमुदयान्तरं । तत्र यदा त्रीणि शतसहस्राणि षोडश सहस्राणि सप्तशतानि घधिकानि परिधिपरिमाण विभ्रति तुलमेषप्रवेशदिन्गोचरे सर्वमध्यमण्डले मेरुं पंचचत्वारिंशद्योजनैरष्टाविंशत्या योजनैवषाष्ठभा. गश्च प्राप्य सूर्यः प्रकाशयति तदाहनि पंचदशमुहूर्ता भवति रात्रौ चेति समरानं सिद्धयति । विपुमति दिने द्वाविंशत्येकषष्ठिभागः सातिरेकाष्टसप्ततिद्विशतपंचसहस्रयोजन गरिमाणांकमुहूर्तगतिक्षेत्रोपपत्तेः । दक्षिणोत्तरे समप्रणिधीनां चं व्यवहितानामपि जनानां प्राच्यमादित्यप्रतीतिश्च लंकादिकुरुक्षेत्रांतरदेशस्थानामभिमुग्वमादित्यस्योदयात् । अष्टंचवारिंशयोजनकप'ष्ठभागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षया सातिरेकत्रिनवतीयोजनशतत्रयप्रमाणत्वादुन्सेधयोजनापेक्षया दूरोदयस्वाच्च स्वाभिमुखलंबीद्धप्रतिभाससिद्धः। द्वितीये महनि तथा प्रतिभासः कुतो न स्याचदविशेपादिति चेन्न, मण्डलान्तरे सूर्यस्योदयात् तदंतरस्योत्सवयोननापेक्षया द्वाविंशत्येकषष्ठिभागयोजनसहस्रप्रमाणत्वात्, उत्तरायणे तदुसरतः प्रतिभासनस्य. घटनात् । - सूर्यपरिणामदक्षिणोत्तरसमप्रणिधिभूभागादन्यप्रदेशे कुतः प्राची सिद्धिरिति चेत्, तदनंतरमंडले तथा सर्वाभिमुखमादित्यस्योदयादेवेति सर्वमन्वयं, क्षत्रान्तरेऽपि तथा व्यवहारांसद्धेः । तदेतेत प्राचीदर्शनाद्धरायां गोलाकारता साधनमप्रयोनकमुक्तं तत्र तत्र दर्पणाकारतायामपि प्राचीदर्शनोपपत्तेः । यदा तु सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डले चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहल ष्टाभिश्च योजनशतैर्विस्तरमप्राप्य प्रकाशयति तदाहन्यष्टादशमुहूर्ता भवन्ति । चत्वारिंशषट्छताधिकनवनवतियोजनसहस्रविष्कभस्य त्रिगुणसातिरेकपरिधेस्त. मण्डलम्यैकानविंशद्योजनपष्ठिभागाधिककं पंचाशद्विशतोत्तरयोजनसहस्रपंचकमात्रमुहूर्तगतिक्षेत्रावसिद्धेः शेषाप्रकर्षपर्यततः प्राता दिवावृद्धिानिश्च रात्री सूर्यगतिभेदाभ्यंतरमंडलात् सिद्धा । यदा च सूर्यः सर्ववाह्यमण्डले पंचचत्वारिंशत्सहलैस्त्रिभिश्च शतै स्त्रिंशोजनानां मेरुमप्राप्य भासयति
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तदाहनि द्वादश मुहूर्ताः । पष्ठयधिकशतषट्कोतर योजनशतमहनविक मत्य तत्रिगुणसातिरेकपरिघेः तन्मण्टलम्य पंचदर्शकयोजनपछिमागाधिकपंचोत्तरशतत्रयसहस्रपंचकपरिमाणगति तक्षेत्रत्वातशेषा पामप्रकर्षपय. तपासा तावत् दिवाहानिर्वृद्धिश्च रात्री सूर्यगतिभेदात पायदानामहलात् सिद्धा | मध्ये त्वनेकविधा दिनस्य वृद्धि निधानेकमण्डलमेदात् सूर्यगतिभेदादेव यथागमं मण्डल यथागणनं च प्रत्येतव्या तथा दोपावद्धिहानिश्च युज्यते । तदेतेन दिनरात्रिवृद्धिहानिदर्शनादमुवो गोलाकारतानुमानमपास्त, तस्यान्यथानुपपत्तिवकल्यादन्यथैव तदुपपत्तः । तथा छाया महती दूरे सूर्यस्य गतिमनुमापयति मंतिकऽतिस्वरूपां न पुन - मेलकाकारतामिति छायावृदिहानिदर्शनमपि सूर्यगतिमेदानिमितकमेव । मध्यान्हकचिच्छायाविरहेऽपि परतद्दर्शनं भूमर्गाशकान्ता गमयति सममा तदनुपपत्तेरितिचेन्न, तदापि भूमिनिम्नत्वोन्नतत्वविशेषमानायव गतः तस्य च भरतैरावतयोर्दष्टत्वात् । भरतराक्तयोवृद्धि हासो घट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्यां " इति वचनात् । तन्मनुष्याणामुत्संधानुभवायुरादिभिर्वद्धिन्हासौ प्रतिपादितौ न भूमेरपरपुरिति न मन्तव्यं, गौणशब्दप्रयोगान् मुख्यत्य घटनादन्यथा मुख्यशदा
तिक्रमे प्रयोजनाभावात् । तेन भरतरावतयोः क्षेत्रयोर्वद्धिन्हासो मुख्यतः प्रतिपत्तव्यो, गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथा वचनं सफलतामस्तु ते प्रतीतिश्चानुलंचिता स्यात् । सूर्यस्य ग्रहोपरागःऽपि न भूगोलच्छायया युज्यते तन्मते भूगोलस्याल्पावात सूर्यगोलस्य तच्चतुर्गुणत्वात् तया सर्वग्रासग्रहणविरोधात् । एतेन चंद्रच्छायया सूर्यस्य ग्रहणमपास्त चन्द्रमसोऽपि ततोल्पत्वात् क्षितिगोलचतुर्गुणच्छायावृद्धिघटनाञ्चंद्रगोलवृद्धिगुणच्छायावृद्धिगुणघटनाद्वा । ततः सर्वग्रासे ग्रहणमविरुद्धमेति चेत् कुतस्तत्र तथा तच्छायावृद्धिः । सूर्यस्यातिदूरत्वादितिचेन्न, समतलभूमावपि ततएव छायावृद्धिभंगात् । कथंच भूगोलादेरुपरिस्थिते सूर्ये तच्छायाप्राप्तिः प्रतीतिविरोषातू तदा छायाविरहप्रसिद्धर्मध्वंदिनवत् ततः तिर्यस्थिते
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सूर्यं तच्छायाप्रातिरितिचेन्न, गोलात् पूर्वदिक्षु स्थिते स्वौ पश्चिमदिगभिमुख- - छायोपपत्तेस्तत्प्राप्त्ययोगात् । सर्वदा तिर्यगेवसूर्यग्रहणसंप्रत्ययप्रसंगात् । मध्यदिने स्वस्योपरि तत्मतीतेश्च क्षितिगोलस्याधःस्थिते भानौ चन्द्रे च त. च्छायया ग्रहणमितिचेन्न, रानाविव तददर्शनप्रसगात् । ननुच न तयावरणरूपया भूम्यादिछायया ग्रहणमुपगम्यते तद्विद्भिर्यतोयं दोषः। किंतर्हि ? उपरागरूपया चंद्रादौ भूम्याद्युपरागस्य चन्द्रादिग्रहणव्यवहारविषयतयोगमात्। स्पटिकादौजपाकुसुमायुररागवत् तत्र तदुपपत्तेरिति कश्चित् सोऽपि न सत्यवाक्, तथा सति सर्वदा ग्रहणव्यवहारप्रसंग.त् भूगोलात्सर्वदिक्षु स्थितस्य चन्द्रादेस्तदुपरागोपपत्तेः । जपाकुसुमादेः समततः स्थितस्य स्फटिकादेस्न्दु. परागवत् । नहि चन्द्रादेः कस्यांचिदपि विशि कदाचिदव्यवस्थिति म भगोलस्य येन सर्वदा तदुपरागो न भवेत् तस्य ततोतिविप्रकर्षात् कदाचिन्न भवत्येव प्रत्यासत्त्यतिदेशकाल एव तदुपगमादितिचेत्, किमिदानीं सूर्यादेभ्रमणमार्गभेदोभ्युपगम्भते ? बाढमभ्युपगम्यत इतिचेन्न, कनानारा शिषु सूर्यादिग्रहणप्रतिराशिमार्गस्य नियमात् प्रत्यासन्नतमममार्गभ्रमण एव तद्धः टनात् अन्यथा सर्वदाग्रहणप्रसंग.स्य दुर्निवारस्वात् । प्रतिराशि पतिदिनं च तन्मार्गस्याप्रतिनियमात् समरानदिवसवृद्धिहान्यादिनियमाभावः कुतो विनिवार्येत ? भूगोलशक्तेरितिचेत्, उक्तमत्र समायामपि भूमौ तत एव समस्त्रादिनियमोस्त्विति । ततो न भूछायया चंद्रग्रहणं चन्द्रछायया वा सूर्यग्रहणं विचारसहं । राहुविमानोपरागोत्र चन्द्रादिग्रहणव्यवहार इति युक्तिमुत्पपश्यामः सकलबाधकविकलवात् । न हि राहुविमानानि सूर्यादि विमानेभ्योल्पानि श्रूयन्ते । अष्टचत्यारिंशद्योजनकषष्ठिभागविष्कभायामानि तत्रिगुणसातिरेकपरिधीनि चतुर्विशतियोजनकपष्ठिभागबाहुल्यानि सूर्यविमानानि, तथा षट्पचाशयोजनै कषष्ठिभागविष्कभायामानि तत्रिगुणसातिरेकपरि धीन्यष्टाविंशतियोजनैकषष्ठिभागमाहुरयानि चन्द्रविमानानि, तथैकयोननविष्कमायामानि सातिरेकयोजनत्रयारिधीन्यतृतीयधनुस्तु बाहुल्यानि राहुविमानानीति श्रुतेः । ततो न चन्द्रविस्य सूर्यविस्य वार्षग्रहोरागो
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कुंठ विषाणत्वदर्शनं विरुध्यते । नाप्यन्यदा तीक्ष्णविषाणत्वदर्शनं व्याहन्यते राहु विमानस्यातिवृत्तस्य अर्धगोलकाकृतेः परभागेनोपर ते समवृते अ गोलकाकृतौ सूर्यविचे चन्द्रर्थिवे तीक्ष्णविषाणत्या प्रती विघटनात् । सूर्याचन्द्रमसां राहूणां च गतिभेदात् तदुपागमेदसंभवाद्वयुद्धादिवत । यथे हि ज्योतिर्गतिः सिद्धा तथा ग्रहोपरागादिः सिद्धा हात स्याद्वादिनां दर्शनं । न च सूर्यादि विमानस्य राहु विमाननोपरागोऽसंमान्यः, स्फटिकस्यैव स्वच्छ तेनासितेनोपरागघटनात् । स्वच्छत्वं पुनः सूर्शदिविमानानां मणिमयत्वात् । तप्ततपनीयसमप्रभाणि लोहिताक्षमणिभयानि सूर्यविमानानि, विमलमृणालवर्णानि चन्द्रविमानानि, अर्कममिमयानि लंजनसमप्रभाणि राहुविमानानि, अरिष्टमणिमयानीति परभागनसद्भावात् । शिरोमात्र राहुः सर्पाकारोवति प्रवादस्य मिथ्यात्वात् तेन ग्रहोपरागानुपपत्तेः वराह मिइरा दिभिरप्यभिधानात् । कथं पुनः सूर्यादिः कदाचिद्राहुविमानस्यार्वाग्भागेन महतो परश्यमानः कुण्ठविषाणः स एवान्यदा तस्यापरभागे अल्पेनोराज्यमानस्तीक्ष्णविषाणः स्यादितिचेत, तदाभियोग्य : देवगतिविशेषाचद्विमानपरिवर्तनोपपत्तेः । : षोडशभिर्देवसहरु सूर्यविमानानि प्रत्येकं पूर्वदक्षिणोत्तरापरभागात् क्रभेण सिंह कुजम् वृषभतुरंगरूपाणि विकृत्यचत्वारि चत्वारि देवसहस्र णि वईतीति वचनात् । तथा चन्द्रविमानानि प्रत्येक षोडशभिर्देवसहस्रैरुह्यन्ते तथैव राहुविमानानि प्रत्येकं चतुभिर्देवसहरुद्यन्ते इति च श्रुतेः । तदाभियोग्यदेवानां सिंहादिरूपविकारिणां कुतो गतिमेदस्तादृक् इतिचेत्, स्वभावत एव पूर्वोत्तकर्मे विशेष निमित्तकादिति ब्रूमः । सर्वेषामेवमभ्युपगमस्यावश्यं भावित्वादन्यथा स्वष्टविशेषव्यवस्थानुपपत्तेः तत्प्रदिपादकस्यागमस्यासंभवद्दाधकस्य सद्भावाच्च । गोलाकारा भूमिः समरात्रादिदर्शनान्यथानुपपत्तेरित्येतद्वाधकमागमस्यास्येति चेत् न,
तोरप्रयोजकत्वात् 1 समरात्रादिदर्शनं हि यदि तिष्ठभूमेर्गोलाकारतायां साध्यायां हेतुस्तदा न प्रयोजकः स्यात् श्राम्मभूमेर्गोलाकारतायामपि तदुपपत्तेः । अथ श्रमद्भूमेर्गोला कारताय
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साध्यायां, तथाप्यप्रयोजको हेतुस्तिष्ठत्भूगोलाकारतायामपि तद्धटनात् । अथ भूसामान्यस्य गोलाकारतायां साध्यायां हेतुस्तथाप्यगमकस्तियकसूर्यादिभ्रनणादिनामधगोलकाकारतायामपि भूमेः साध्यायां तदुपपत्तेः । समतलायाममि भूमौ ज्योतिर्गतिविशेषासमरानादिदर्शनस्योपपादितत्वाच्च । नातः साध्यसिद्धिः कालात्ययापदिष्टव च । प्रमाणबाधितपक्षनिर्देशानंतर प्रयुज्यमानस्य हेतुल्लेतिप्रसंगात् । ततो नेदमनुमान हेत्वाभासोत्थं बाधक प्रकृतागमस्य येनास्मादेवेष्टसिद्धिर्न स्यात् ॥
ज्योतिः शास्त्रमतो युक्तं नैतत्स्याद्वादविद्विषाम् ।। • संवादकमनेकान्ते सति तस्य प्रतिष्ठिते ॥ १७ ॥
नहि किंचित्सर्वथैकान्ते ज्योतिःशास्त्रे संवादकं व्यवतिष्ठते प्रत्यक्षादिवत् नित्याधने कान्तरूपस्य तद्विषयस्य सुनिश्चितासंभवडाधकस्वाभावात्. तस्य दृष्टेष्टाभ्यां व धनात् । ततः स्याद्वादिनामेव तद्युक्तं, सत्यनेकान्ते तत्प्रतिष्ठानात् तत्र सर्वथा बाधकविरहितनिश्चयात् ॥ .. ॥ तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥
किंकृत इत्याह-. - ये ज्योतिष्काः स्मृता देवास्तस्कृतो व्यवहारतः ॥ कृतः कालविभागोयं समयादिर्न मुख्यतः ॥ १॥ तद्विभागात्तथा मुख्यो नाविभागः प्रसिद्धयति ॥ विभागरहिते हेतौ विभागो न फले क्वचित् ॥ २॥
विभागवान् मुख्यः कालो विभागवत्फलनिमित्तत्वात क्षित्यादिवत् । समयावलिकादिविभागवद्यवहारकाले लक्षणफलनिमित्तत्वस्य मुख्यकाले धर्मिणि प्रसिद्धत्यात् नाप्याश्रयासिद्धः, सकलकालवादिनां मुख्यकालें. विवादाभावात् तदभाववादिना तु प्रतिक्षेपात् । गगनादिनानकांतिकोऽयं हेतुरिति चेन्न, तस्यापि विभागवदवगाहनादिकार्यो:
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त्पत्तौ विभागवत एव निमित्तत्वोपपत्तेः । ननु च यद्यवयवभेदो विभागस्तदा नासौ गगनादावस्ति तस्यैकद्रव्यत्वोपगमात् । पटादिवदवयमारभ्यत्वानुपएतेश्च । ___जय प्रदेशवतोपचारी विभागस्तदा कालेऽप्यस्ति, सर्वगतककालवादि. नामाकाशादिवदुपचरितपदेशकालस्य विभागवत्वोपगमात् । तथा ३ तत्साधने सिद्धसाधनमितिकश्चित्, परमार्थत एव गगनादेः सप्रदेशत्वनिश्वयात् । तस्य सर्वदावस्थितप्रदेशत्वात् एक्व्यत्वाच्च । द्विविधा अवयवाः सदावस्थितवपुपोऽनवस्थितवपुपश्च । गुणवत्तत्र सदावस्थितद्रव्यप्रदेशाः सदावस्थिता एवान्यथा द्रव्यस्थानवस्थितत्वसंगत् । पटादिवदनवस्थितद्रव्यप्रदेशास्तु तत्वादयोनवस्थितास्तेषामवस्थितले पटादीनामवस्थितत्वापत्तेः । कादाचिस्कत्वस्येयतयावधारितावयवस्वस्य च विरोधात् । तत्र गगनं धर्माधर्मकजीवाश्चावस्थित. प्रदेशाः सर्वे यतोऽधारितप्रदेशत्वेन वक्ष्यमाणत्वात् प्रदेशप्रदे.. शिमावस्य च तेषां तैरनादित्वात् । कथमनादीनां गगनादितत्पदेशानां प्रदेशप्रदेशिभावः परमार्थपथपस्थायी ? सादीनामेव तंतुपटादीनां तद्भावदर्शनात इति चेत्, कथमिदानी गगनादितन्महस्वादिगुणानामनादिनिधनानां गुणगुणिभाषः पारमार्थिकः सिध्येत् ? तेषांगुणगुणिलक्षणयोगात तथाभाव इति चेत्, तर्हितत्प्रदेशानामपि प्रदेशिपदेशलक्षणयोगात् प्रदेशप्रदेशिभावोऽस्तु । यथैव हि गुणपर्ययवद्रव्यमिति गगनादीनां द्रव्यलक्षणमस्ति तन्महत्वादीनां च 'द्रव्याश्रिता निर्गुणा गुणा" इति गुणलक्षणं तथावयवानामेकत्बपरिणामः प्रदेशिद्रव्यमिति प्रदेशिलक्षणं गानादीनामवयुत्तोऽवयवः प्रदेशलक्षणं तदेकदेशानामस्तीति युक्तस्तेषां प्रदेशप्रदेशिभावः । कालस्तु नैकद्रव्यं तस्यासंख्येयगुणद्रव्यपरिणामत्वात् । एकैकस्मिल्लोकाकाशप्रदेशे कालाणोरेकैकस्य द्रव्यस्यानंतपर्यायस्थानभ्युपगमे . तद्दशवर्तिद्रव्यस्यानंतस्य परमाण्वादेरनतपरिणामानुपपत्तेरिति द्रव्यलो भावतो वा विभागवत्त्वे साध्ये कालस्य न सिद्धसाधनं । नापि गगनादिनानैकांकिको हेतः । क्षित्यादि
देशानामस्तीति
। एकैकस्मिल्लोकायानंतस्य
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निदर्शनं साध्यसाधनविकलमित्यपि न मन्तव्यं ताकार्यस्यांकरादेविभागवतः प्रतीतेः, क्षित्यादेश्च द्रव्यतो भाव-श्व विभागवत्व'सद्धेति सूक्तं विभागरहिते हेतौ विभागो न फले कचित्" इति ।।
॥ पहिरवस्थिताः ॥ १५ ॥ ( श्रीउमास्वामि) किमनेन सूत्रेण कृतमित्याहबहिर्मनुष्यलोकात्तवस्थिता इति सूत्रतः ॥ तत्रासन्नाव्यवच्छेदः प्रादक्षिण्यमतिक्षतिः ॥ १ ॥
कृतेति शेषः । एवं सूत्रचतुष्टयाज्ज्योतिषामरचिंतनम् ॥ निवासादिविशेपेण युक्तं बाधविवर्जनातूं ॥ २ ॥
.......... त्रिलोकसार
श्रीन्नेमिचंद्र सैद्धान्तिक विरचित . . त्रिलोकसार अध्याय तृतीय-" ज्योतिलोकाधिकार
प्रतिपादन अधिकार" हिंदीभाषा अनुवादकार स्वर्गीय पं० प्रवर श्रीटोडरमल्लजी
छा. पु. पृ. १४१-२०४ ॥ तहां तारादिकनिका स्थितिस्थान तीन गाथानि करि कहै हैंणउत्तर सत्त सए दससीदी चदुदुगे तिय चउके ।
तारिणमसिरिक्खवुहा सुकगुरंगारमंदगदी ॥ ३३२॥ . . नवत्युसर सप्तशतानि दश अशीतिः चतुद्विके त्रिकचतुष्के । ... .. तारेनशशिऋक्षयुधा शुक्रगुर्वगारमंदगदयः ।। ३३२ ॥ ..
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( ४२ )
अर्थ - निवै अधिक सात से विषै उपरि दश असी च्यारि दोय स्थानविषे तीन चारि स्थानविषै नाइ क्रमतें तारा इन शशि ऋक्ष बुष शुक्र गुरु अंगार मंदगति तिष्ठ हैं । भावार्थ :--- चित्रापृथ्वीतें लगाई सात से निर्वैयोजन उपरितौ तारे हैं । बहुरि तिनतें दश योजन उपरि इन कहिए सूर्य हैं । बहुरि तिनतें असी योजन उपरि शशि कहिए चंद्रमा है । बहुरि तिन च्यारि योजन ऊपर ऋक्ष कहिए नक्षत्र हैं । बहुरि तिनतें च्यारि योजन उपरि बुध हैं । बहुरि तिनतें तीन योजन उपरि शुक्र है । बहुरि तिनतें तीन योजन ऊपरि गुरु कहिये वृहस्पति है । बहुरि निततें तीन योजन उपरि मंदगति कहिए शनैश्वर है । ऐसे ज्योतिषी तिष्ठे हैं || ३३२ ॥
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अवसेसाण गहाणं णयरीओ उवरि चित्तभूमींदो ॥ गंत्तूण बुहसणीणं विचाले होंति णिचाओ ॥ ३३३ ॥ अवशेषाणां ग्रहाणां नगर्य उपरि चित्राभूमितः || गत्वा वन्यो : विचाले भवंति नित्याः ॥ ३३३ ॥
अर्थ :- अठ्ठयासी ग्रहनिविषै अब शेष तिनकी नगरी उपरि उपरि चित्रा ममितै नाइ वुध अर शनैश्वर इन दोऊनकै वीची अंतराळ क्षेत्रविषै शाश्वती हैं ॥ ३३३ ॥
अत्थ-सणी गवस चित्तादो तारगावि तावदिए || जोइस पडलबह दससहियं जोयणाण सयं ॥ ३३४ ॥ आस्ते शनिः नवशतानि चित्रातः तारका अपि तावतः || ज्योतिष्कपटलबाहुल्यं दशसहितं योजनानां शतम् ॥ ३३४
• अर्थ - शनैश्चर चित्राभूमितें नवसै योजन उपरि आस्ते कहिए तिष्ठे है । बहुरि तारे हैं तेभी तावत कहिए नवसे योजन पर्यंत तिष्ठे हैं । सो चित्रात सात निवै योजन उपरि सो लगाए. नवसे योजन पर्यंत
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(४३) ज्योतिनी देवनिका पटलका बाहुल्य कहिए भोटाईका प्रमाण सो दश सहित एकसौ योजन प्रमाण जानना ॥ ३३४ ॥
मार्ग प्रकीर्णक तारानिका प्रकार अंतराल निरूपण हैतारंतर जहण्णं वेरिच्छेकोससत्तमागो दु॥ पण्णासं मज्झिमयं सहस्समुक्कसयं होदि ॥ ३३५॥ तारांतरं जघन्यं तिर्यक् कोशसप्तभागस्तु ।। पंचाशत् मध्यमकं सहस्रमुत्कृष्टकं भवति ।। ३३५ ॥
अर्थः-तारातै ताराके वीषि तिर्यगरूप बरोबरिविष अंतरालजघन्य एक कोशका सातवां भाग, मध्यम पचास योजन, उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण हो है ॥ ३३५॥ भय ज्योतिषीनिके विमानस्वरूप निरूपै हैं
उसाणठियगोलगदलसरिसा सव्व जोई सविमाणा ॥ उरि सुरणगराणि य जिणभवणजुदाणि रम्माणि ॥३३६॥ उत्तानस्थितगोलकसदृशाः सर्वज्योतिष्कविमानाः ॥,
उपरि सुरनगराणि च जिनभवनयुतानि रम्याणि ॥३३६॥ __ अर्थ- गोलक जो गोलाताका दल कहिए तिस गोलाकौं वीचिमैं सौं विदारि दोय खण्ड करिए तिसविर्षे नो एक खण्ड सो उत्तान स्थित कहिए तिस आधा गोलाकों ऊंचा स्थापित किया होय चौडा ऊपरि पर ताफी अणी नीचे ऐसे घस्या होइ ताका जैसा आकार तिह समान सर्व ज्योतिषीनिके विमान हैं । वहुरि तिन विमाननिके ऊपरि ज्योतिषी देवनिके नगर हैं । ते नगर निनमंदिरनिकरि संयुक्त हैं। यहुरि रमणीक है ।। ३३६ ॥ ॥ .
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(४४)
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आगै तिन विमाननिका व्यास अर वाहुल्य दोय गाथानिकरि को हैं
जोयणमेकहिकए छप्पण्णठदाल चंदरविवासं ॥ सुकगुरिदरतियाणं कोसं किंचूणकोस कोसद्धं ॥ ३३७॥ योजनं एकपष्टिकते पट्पंचाशदष्टचत्वारिंशत् चंद्ररविव्यासौ ॥ शुक्रगुर्वितरत्रयाणां क्रोशः किंचिदून क्रोशः क्रोशार्धम् ॥ ३३७
अर्थ-एक योननका इकसठि भाग- करिए तहाँ छप्पन भाग प्रमाण तो चंद्रमाके विमानका व्यास हैं । बहुरि शुक्रका एक कोश, बृहस्पतिका किंचित् ऊन एक कोश, इतर तीन बुध मंगल शनैश्चर इनका भाधकोश प्रमाण विमानण्यास जानना ॥ ३३७॥
कोसस्स तुरियमत्ररंतुरिय हियकमेण जाव कोसोति ॥ ताराणं रिक्खाणं कोसं बहुलं तु वासद्धं ॥ ३३८ ॥ क्रोशस्य तुरीयमवरंतुर्याधिक क्रमेण यावत् क्रोश इति ॥ ताराणां ऋक्षाणां क्रोशं बाहुल्यं तु व्यासार्धम् ॥ ३३८ ।।
अर्थ-तारानिका विमाननिका जघन्य व्यास कोशका चौथा भाग प्रमाण है । वहुरि चौथाई अधिक एक कोश पर्यंत जाननां तहां माधकोश पाणैकोश प्रमाण-मध्यम व्यास जाननां । एक कोश प्रमाण उत्कृष्ट व्यास. जाननां-बहुरि शेष.जे. नक्षत्र तिनका विमानव्यास- एककोश प्रमाण जानना । बहिरि सर्वविमाननिका व हुल्य कहिए मोटाईका प्रमाण सो अपने अपने व्यासतै माधा जानना ।। ३३८ ॥ ___“आगें राहु केतु ग्रहनिका विमान व्यास वा तिनका कार्य वा ति: नका भवस्थानकों दोय गाथानिकरि कहै हैं: राहु अरिहविमाणा किंचूर्ण अधोगता ॥ .
छम्मासे पव्वंते चंदरवीदादयन्ति कमे ॥ ३३९ ॥ राव्हरिष्टंविमानौ किंचिदूंनौं योजनः अधोगतारौं । षण्मासे पर्वान्ते चंद्ररवीछादयतः क्रमेण ॥ ३३९।।
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(४५)
अर्थ-राहु पर अरिष्ट कहिए केतु इन दोऊनिके विमान . किछू घाटि एक योजन प्रमाण है । बहुरि ते विमान कमकरि चंद्रमा अर सूर्यका विमान नीचे गमन करे हैं । बहुरि छह मास भए । पर्वका अन्तविष चंद्रमा सूर्यको माछादे हैं । राहुतौ चंद्रमाको माछादे है, केतु सूर्यको आछादे हैं याका ही नाम ग्रहण कहिए हैं ।। ३३९ ॥
राहुअरिढविमाणधयादुवरिपमाणअंगुलचक्कं ।। .. गंतण ससिविमाणा सूरविमाणा कमे होति ॥ ३४ ॥
रांव्हारिष्टविमानध्वजादुपरिप्रमाणांगुलचतुष्कम् ॥ - गत्वा शशिविमानाः सूर्यविमानाः क्रमेण भवन्ति ॥ ३४॥
मर्थ:- राहु र केतु के विमाननिका जो ध्वजादण्ड ताके ऊपरि च्यारि प्रमाणांगुल नाइ क्रम फरि चंद्रमाके विज्ञान भर सूर्यके विमान हैं। राहु विमानकै ऊपरि चंद्रमा विमान है केतु विमानकै ऊपरि सूर्य विमान है ।। ३४०॥ .. आग चंद्रादिकनिकै किरणनिका प्रमाण कहे हैं-- :
' चंदिणवारसहस्सा पादा सीयल खरा य सुक्के दु । ... अडाइज्जसहस्सा तिव्वा सेसा हु मन्दकरा ।। ३४१ ॥ . '
चंद्रनयोः द्वादशसहस्राः पादाः शीतलाः खराश्च शुक्र तु॥
अधेतृतीयसहस्राः तीनाः शेषा हि मन्दकराः ।। ३४१ ।। ___ अर्थ- चंद्रमा और सूर्य इनके बारह बारह हजार किरण हैं। तहां चंद्रमाके किरण शीतल है सूर्यके किरण खर कहिये. तीक्ष्ण हैं। बहुरि शुक्र है ताके अढाई हजार किरण हैं ते तीन कहिए प्रकाशकरि उज्वल हैं। बहुरि अवशेष ज्योतिपी मंदकरा कहिए मंद प्रकाश संयुक्त
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(४६).
मागें चंद्रमाका मण्डलकी वृद्धिहानिका अनुक्रमकू कहै हैचंदाणयसोलसमें किण्हो सुको य पण्णरदिणोति ॥ हेछिल्ल णिच राहगमणविसेसेण वा होदि ॥ ३४२ ।। चंद्रो निजपोडशंकृष्णः शुक्लश्च पंचदशदिनान्तम् ।। अधस्तन नित्य राहुगमनविशेपेण वा भवति ।। ३४२॥
अर्थ--चन्द्रमण्डल है सो अपना सोलहवां भाग प्रमाण कृष्ण पर शुक्ल पंद्रह दिन पर्यंत हो है । भावार्थ-चंद्र विमानका जो सोलह भाग - विर्षे एक एक भाग.एक एक वि श्वेतरूप होइ स्वयमेव- पंद्रह दिन पर्यंत परिनमैं हैं। तहां चंद्रमाका विमानका क्षेत्र योजनका छप्पन एकसठिवां भाग प्रमाण ५ है तो एक कलाका केता होइ। ऐसे ताको सोलहका भाग दिए आठ करि अपवर्तन किए योजनका एक सौ माईस भाग करि तामें सात भाग प्रमाण एक कलाका प्रमाण भाया । बहुरि एक कलाका प्रमाण होई तो सोलह कलानिका केता होइ ऐसे दोय का अपवर्तन करि गुणे छप्पन इकसठिवां भाग प्रमाण आवै । बहुरि अन्य कोई आचार्यनिके अभिप्रायकरि चंद्रविमानफै नीचे राहु विमान गमन कर है तिस राहुका सदाकाल ऐसा ही गमन विशेष है जो एक एक कला चंद्रमाकी क्रमतै आछादे ना उघाडै है तिहकरि वृद्धि हानि है ॥ ३४२ ॥ : आगैं चंद्रादिकनिक वाहक कहिए चलावनेवाले देव तिनका आकार विशेष वा तिनकी संख्या कहैं हैं
सिंहगयवसहजडिलस्सायारसुरा वहति पुवादि ॥ · इंदु सीणं सोलमसहस्समद्धद्धमिदरतिये ॥ ३४३ ॥ : . सिंहगजवृषभजटिलावाकारसुरा वहति पूर्वादिसू ।.. इंदुरवीणां पोडासहस्राणि तदर्धाकिममितरत्रये ॥३१३॥
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( ४७ )
अर्थ- सिंह हाथी वृषभ जटिलरूप कारकों धारि देव हैं ते विमाननिकों पूर्वादि दिशानि प्रति वर्द्धति कहिये लेह चालें हैं । ते देव चंद्रमा अर सूर्य इनके तौ प्रत्येक सोलह हजार हैं । बहुरि इतर तीन आधे आधे हैं तां ग्रहनिके आठ हजार नक्षत्रनिके च्यारि हजार तारा निके दो हजार विमानवाहक देव जानने || ३४३ ॥
आगे आकाश विर्षे गमन करतें ने केह नक्षत्र तिनके दिशाभेद कहे हैं !
उत्तरदक्षिण उड्दाघोमझे अभिजि मूल सादी य ॥ भरणी वित्तिय रिक्खा चरंति अवराणमेव तु ॥ ३४४ ॥ उत्तरदक्षिणोर्ध्वाधोमध्ये अभिजिन्मूलः स्वातिश्व || भरणी कृत्तिका ऋक्षाणि चरंति अवराणामेवं तु ॥ ३४४॥
अर्थ - उत्तर १ दक्षिण १ ऊर्ध्व १ अधः १ मध्यः १ इन विषै क्रमतें अभिजित १ मूल १ स्वाति १ भरणी ' कृत्तिका ए पंच नक्षत्र गमन करें हैं | अवराणं कहिए क्षेत्रांत कौं प्राप्त भए जे अभिजित आदि पंच नक्षत्र तिनकी ऐसी व्यवस्थिति है ॥ ३४४ ॥ आगें मेरुगिरितें कितने दूर कैसे गमन करें हैं
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विसेयारसय विहाय मेरुं चरंति जोड़गणा || चंदतियं वज्जित्ता सेसा हू चरन्ति एकपड़े || ३४५ ॥ एक विशैकादशशतानि विहाय मेरुं चरंति ज्योतिर्गणाः ॥ चंद्रत्रयं वर्जयित्वा शेषा हि चरति एकपथे ॥ ३४५ ॥ अर्थ - इकईस अधिक ग्यारह योजन मेरुको छोडि ज्योतिषी -समूह गमन करे हैं । भावार्थ : मेरुगिरि ग्यारहसे इकड्स योजन ऊपरे ज्योतिषी मेरुकी प्रदक्षिणारूप गमन करें हैं। मेरुतैं ग्यारह से इकईस योजन पर्यंत कोक ज्योतिपी न पाइए हैं । बहुरि चंद्रमा सूर्य ग्रह इन तीन
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(४८.)
बिना अवशेष सर्व्वं ज्योतिषी एक पथविषै गमन करे हैं । भावार्थ-चंद्रमा सूर्य ग्रह तौ कंदाचित् कोई कदाचित् कोई पारीरूप मार्गविषै भ्रमण . करे हैं। चहुरि नक्षत्र अर तारे ए अपन अपना एकही परिधिरूप मार्गविष गमन करे हैं । अन्य अन्य मार्गविषै नाहीं भ्रमण करे हैं ॥ ३४५ ॥ जंबूद्वीप लगाय पुष्करार्ध पर्यंत चंद्रमा सूर्यनिका प्रमाण
निरूपै है
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दो दोवग्गं वारस वादाल वहन्तरिंणसंखा || पुक्खरदलोत्ति परदो अवट्टिया सव्वजोगणा || ३४६ ॥ द्वौ द्विवर्ग द्वादश द्वाचत्वारिंशद्वाप्ततिरिद्विनसंख्या ॥ पुष्करदलांत परतः अवस्थिताः सर्वज्योतिर्गणाः ॥ ३४६॥ अर्थ- दोय दोय वर्ग बारह बियालीस बहतरि चंद्र सूर्यनिकी संख्या पुष्करार्ध पर्यंत है । भावार्थ - जवृद्वीप विषै दोय लवण समुद्र विषै च्यारि धातुकी लण्डविपैं बारह कालोदकविषै बियालीस पुष्करार्ध विषै बहत्तर चंद्रमा है । अर इतने इतने ही सूर्य है । बहुरि पुष्करार्द्धतैं परेँ जे ज्योतिषी देवनिका गण है ते अवस्थित है । कदाचित अपनें अपने स्थानतें गमन नाहीं करें हैं जहाँ हैं तां ही स्थिररूप तिष्ठे है ॥ ३४६ ॥
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मैं वहां तिष्ठ हैं जु ध्रुव तारे तिनकों निरूपै हैं -
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छक्कदि गवतीस सयं दमयसहस्सं खवार इगिदाल ॥ - गयणतिदुगतेवण्णं थिरताग पुक्खरदलोति ॥ ३४७ ॥ षट्कृतिः नवत्रिंशशतं दशकसहस्रं खद्वादश एकचत्वारिंशत् ॥ 'गगनत्रिद्विक त्रिपंचाशत् स्थिरताराः पुष्करदलांतम् ॥ ३४७ |
अर्थ - छहकी कृतिः ३६ अर गुणतालीस अधिक सौ. १३९ अर दश अधिक हजार १०१० अर बिंदी बारह इकतालीस ४११२० अर बिंदी तीन दोय तरेपन ५३२३० इतने पुष्करार्ध पर्यंत स्थिर तारे हैं ।
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(४९)
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भावार्थ-जंबूद्वीपविौं छत्तीस लवण समुद्रविर्षे एक सौ गुणतालीस धातकी खण्डविथें एक हजार दश कालोदकविर्षे इकतालीस हजार एक सौं वीस पुष्करार्धविर्षे तरेपन हजार दोयसै तीस ध्रुवतारे हैं। ते कबहूं अपने स्थानते गमन नाहीं करै हैं । जहाँके तहां स्थिररूप रहे हैं ।। ३४७॥
आज ज्योतिषी समूह निकै गमनका क्रम विचार हैंसगसगजोहगणद्धं एक भागलि दीवउवहीणं ॥ एके भागे अद्धं चरंति पंतिकमेणेव ॥ ३४८ ॥ स्वकस्वकीयज्योतिर्गणा एकस्मिन भागे द्वीपोदधीनाम् ॥ एकस्मिन् भागे अर्धं चरति पंक्तिक्रमेणैव ॥ ३४८ ॥
अर्थ-अपना अपना ज्योतिषी गणका अर्ध तो दीप समुद्रनिका एक भागविखें भर एक भागवि पंक्तिका अनुक्रमकरि विरें हैं।
भावार्थ-जिस द्वीप वा समुद्रवि जेते ज्योतिषी हैं तिनविर्षे आधे ज्योतिषी तो तिह द्वीप वा समुद्र का एक भागवि गमन करें हैं आधे एक भाग विर्षे गमन करै हैं । ऐसे पंक्ति लिएं गमन जाननां ॥३४८॥ ___ भाग मानुषोत्तर पर्वततै परे चंद्रमा सूर्यनिके भवस्थानका अनुक्रम निरूपें है
मणुसुत्तरसेलादो वेदियमूलादु दीवउवहीणं ॥ पण्णाससहस्सेहि य लक्खे लक्खे तदो वलयम् ॥ ३४९ ॥ मानुपोत्तरशैलात वेदिकामूलात द्वीपोदधीनाम् ॥ पंचाशत्सहस्त्रैश्च लक्षे लक्षे ततो वलयम् ॥ ३४९ ॥
अर्थ-मानुषोत्तर पर्वत परै अर द्वीप समुद्रनिकी वेदिनिके परै तौ . . पचास हजार योजन जाइ प्रथम वलय है । बहुरि तिस प्रथम वलयतें पैरें
लाख लाख योजन पर जाइ द्वितीयादिक वलय है । भावार्थ - मानुषोत्तर
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( ५.० )
पर्वततैं पचास हजार योजन व्यास पर जो परिधि सो बाह्य पुष्करार्ध द्वीपका प्रथम वलय है । तिह पर एक लाख योजन व्यास जाइ जो परिधि सो दूसरा वलय है । ऐसैं लाख लाख योजन व्यास जाइ जो परिधि सो वलय जाननां । बहुरि पुष्कर द्वीपकी अंत वेदिकाके पर पचास हजार योजन व्यास जाइ जो परिधि सो पुष्का समुद्रका प्रथम वलय हैं । तातें परें लाख योजन व्यास जाइ जो परिधि सो द्वितीय वलय है । ऐसे लाख लाख योजन व्यास परै जाइ जो परिधि सो चल्य जाननां । ऐसे ही अन्य द्वीप समुद्रनिविषै वलय जाननां ॥ ३४९ ॥
रौं तिन वलयनविषै तिष्ठते ने चंद्रमा सूर्य तिनकी संख्या कहें
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-दीवद्धपदमवलये चउदालसयं तु वलयवलयेसु || चउचउवड्ढी आदी आदीदो दुगुणदुगुणक्रमा ॥ ३५० ॥ द्वीपार्थप्रथमवलये चतुश्चत्वारिंशच्छतं तु वलयवलयेषु ॥ चतुश्चतुर्बुद्धयः आदि आदितः द्विगुणद्विगुणक्रमः ॥ ३५० ॥
अर्थ - मानुषोखर पर्वत बाह्यस्थित जो पुष्करार्ध ताका प्रथम बलयविषै एकसौ चवालीस है । भावार्थ- जो मानुषोत्तर पर्वत परे पचास हजार योजन परे जाइ जो परिधि ताविषै एक सौ चवालीस चंद्रमा एकसौ चवालीस सूर्य है । ऐसें ही द्वितीयादि वलय वलयविषै क्यारि च्यारि बघती चंद्रमा सूर्य जानने ।। १४८ । १५२ । १५६ । १६० । १६४ । १६८ । १७२ ॥ बहुरि उत्तरोत्तर द्वीप वा समुद्रका आदि विषै पूर्वपूर्व द्वीप वा समुद्रका आदितें दृणे दुणे क्रमतें जाननें । जैसे पुष्कराधेका आदिविषै एक सौ चवालीस तातें दुर्णे पुष्कर समुद्रका आदि 'विष हैं, तातें द्वितीयादि वलयविषै च्यारि च्यारि बघती है । ऐसे ही सर्वत्र जानने ॥ ३५० ॥
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( ५१ )
माग तिस तिस वलयविर्षे तिष्ठते चंद्रमातै चंद्रमाका अंतराल सूर्यते सूर्यका अंतराल परिधिवि कहै है
सगसगपरिधि परिधिगरविंदुभजिदे दु अंतरं होदि ।। पुस्सलि सव्वसुरछिया हु चदा य अभिजिहि ॥ ३५१ ॥ स्वकस्वकपरिधि परिधिगरवींदुभक्ते तु अंतरं भवति ।। पुष्ये सर्वसूर्याः स्थिता हि चंद्राश्च अभिजिति ॥ ३५१ ।।
मर्थ-अपना अपना सूक्ष्म परिधिको परिधिविर्षे प्राप्त जे चंद्र वा सूर्य तिनके प्रमाणका भाग दिए अंतराल हो है। तहां प्रथम जंबुद्वीपत लगाय दो तरफका अभ्यंतर द्वीपसमुद्रनिका वा वलयनिका व्यास मिलाएं बाह्य पुष्कराधका प्रथम वलयका सूची व्यास छियालीस लाख योजन हो है। मानुषोत्तर पर्वतका सची व्यास पैतालीस लाख योजन तामैं दोऊ तरफका वलयका व्यास पचास हजार योजन मिलाएं छियालीस लाख योजन हो है । याका " विष्कभवग्गदहगुण ॥ इत्यादि करणसूत्रकरि सूक्ष्म परिधिविर्षे एक कोडि पैतालीस लाख छियालीस हजार च्यारि योजन प्रमाण होइ ताको परिधिविर्षे प्राप्त सूर्य वा चंद्रमाका प्रमाण एकसौ चवालीस ताका भाग दिएं एक लाख एक हजार सतरह योजन भर गुणतीस योजनका एक सौ चवालीसवां भाग प्रमाण १०१०१७,२९, सर्वत सूर्यका अंतराल परिधिविधै बिम्बसहित जानना वहुरिः विष जो चंद्र वा सूर्यका मण्डल तीह विना अंतराल ल्याइये है जो विवसहित अंतरालविर्षे योनन थे तिनमें सों एक घटाइए १०१०१६ । बहुरि तिस एक योजनको गुणतीसका एक सौ चवालीसवां भाग सहित समच्छेद विधान करि जोडिए तव १ २९ १४४ २९
- एक सौ तेहत्तरिका एकसौ चवाली१ ११ १५४ १४४ । सवां भाग होह तामें चंद्रका विब छानका इकसठियां भाग सो समच्छेद
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( ५२ )
१७३ ५६
१०५५३ ८०६४ २४८९ विधान करि घटाइए १४४ ६१ ८७ ६४७६४८ ८७८४ तब चौइसे निवासीको सित्यासीसे चौरासीका भाग दीजिये इतना भया ऐसे करि चन्द्रमा चन्द्रमाका चित्र रहित अंतराल एक लाख एक हजार सोलह योजन भर चौइसे निवासी योजनका सित्यासीसे चौरासी भागविषै एक भाग प्रमाण याया । बहुरि तीह एकसौ तेहरिका एकसौ चवालीसवां भागविषै अठतालीसका इकसठवां भाग प्रमाण सूर्यविक समच्छेद विधान करि घटाए छत्तीसे इकतालीसका सित्यासी से चौरासीवां १७३ १०५५३ ६९१२ ३६४१ सो ६१ ८७८४ इतनें करि अधिक एक लाख एक हजार सोलह योजन प्रमाण सूर्यका अंतराल जानना । ऐसे ही अन्य वलयनिविषै अंतराल ल्यावना । बहुरि सर्व वलय संबंधी सूर्य तौ पुष्य नक्षत्र विषै स्थित है । अर चंद्रमा अभिजित नक्षत्रविषै स्थित हैं ।
भाग आया
१४४
८७८४
४
भावार्थ:-- सूर्यका विमान अर पुष्य नक्षत्रका विमान नीचे ऊपरि तिहै हैं । अर चंद्रमाका विमान अर अभिजित नक्षत्रका विमान नीचे उपरि हैं ।। ३५१ ॥
आगें असंख्यात द्वीप समुद्रनिविषै प्राप्त जे चंद्रादिक तिनकी संख्या ल्यावनेकौं गछका प्रमाण स्यावता थका ताका कारणभृत असंख्यात द्वीप समुद्रनिकी संख्याको आठ गाथांनिकरि कहें हैं
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रज्जूदलिदे मंदिरमज्झादो चरिमसायर तोति || पडदि तदद्वे तस्सदु अमंतरवेदिया परदो ॥ ३५२ ॥ रज्जूदलिते मंदरमध्यतः चरमसागरांत इति ॥ पतति तदर्थे तस्य तु अभ्यन्तरवेदिका परतः ॥ ३५२ ॥ ·
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- ( ५३ ) ___ अर्थ-राजूकों आधा किएं मेरुका मध्यतै लगाय अंतका सागरपर्यंत प्राप्त हो है । भावार्थ-मध्यलोक एक राज़ है तिस एक राजुकों
आधा करिए तब मेरुगिरिका मध्यतै लगाय अंतका स्वयंभूरमण समुद्रपर्यंत एक पार्श्वविौं क्षेत्र हो हैं । बहुरि तिसको आधा किए तिसकी अभ्यंतर वेदिकाके परै ॥ ३५२ ॥
कहा सो कहै हैं- . . . . . दसगुणपण्णत्तरिसयजीयणमुवगम्म दिस्सदै जम्हा ॥ ' इगिलक्खहिओ एको पुव्वगसव्वुवहिदीवेहि ॥ ३५३ ।। दशगुणपंचसप्ततिशतयोजनमुपगम्य दृश्यते यस्मात् ॥ एकलक्षाधिकः एकः पूर्वगसौंदधिद्वीपेभ्यः ॥ ३५३ ॥
मर्थ--दश गुणां पिचहतरिसै योजन नाई राजू दीसे है। भावार्थस्वयंभूरमण समुद्रकी अभ्यन्तर वेदीत पिचहत्तर हजार योजन पर नाइ तिस भाष राजुका अर्द्धभाग हो है । काहेते सर्व पूर्व द्वीप वा समुद्र. निके व्यासकों नोडे जो प्रमाण होइ तातें उतर द्वीप वा समुद्रका व्यास एक लाख योजन अधिक हो है । सो इसही कथनको स्पष्ट करै हैं-स्वयंभ्रमण समुद्रका बत्तीस लाखयोजन प्रमाण व्यास कल्पिकरि नंबूद्वीपका आधलाख सहित सर्व द्वीप समुद्रनिका वलय व्यासके अंकनिकों जोडिए ५००००। २ल। ४ ल । ८ ल । १६ ल । ३२ ल । तव कल्पना कर आप राजूका प्रमाण सादा बासठि लाख योजन भए, बहुरि याको माधा किए इकतीस लाख पचीस हजार योजन प्रमाण दूसरी वार
आधा किया राजूका प्रमाण होइ तिहविर्षे पूर्वद्वीप समुद्रनिका वलय व्यास ५००००।२ ल । ४ ल । ८।१६ल । जो जोडै तीन लाख पचास हजार योजन प्रमाण भया । सो घटाए तिस स्वयंभूरमण समुद्रका अभ्यंतर वेदिकात २ पिचहत्तर हजार. योजन समुद्रमें गये भाष राजका मध हो है। बहुरि तीह द्वितीयवार आधा किया राजू
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प्रमाण ३.१२५०० को आधा किए पंद्रह लाख वासठि. हजार पांचसै योजन तीसरी बार आधा किया राजका प्रमाण हो है। तिहविर्षे पूर्वद्वीप समुद्रनिका वलय व्यास ५०००० । २ ल । ४ ल । ८ ल । मिलाएं साढां चौदह लाख योनन भए । सो घटाए तिस स्वयंभूरमण द्वीपका अभ्यंतर वेदिकात एक लाख बारह हजार पांचसै योजन पर द्वीपविखें जाइ तृतीयवार आधा किया हुवा राज क्षेत्रका प्रमाण हो है ऐसे ही पूर्व पूर्वको आधा करि तीह विर्षे पूर्वद्वीप समुद्रनिका वलय व्यास घटाएं जो जो प्रमाण रहे तितनां तितनां तिस तिस द्वीप वा समुद्रकी अभ्यंतर वेदिकात परै जाइ चतुर्थवार आदि आधा किया राजू क्षेत्रका प्रमाण जाननां ॥ ३५३ ॥
पुणरवि छिण्णे पच्छिमदीयभंतरिमवेदियापरदि ॥ सगदलजुदपण्णत्तरिसहस्समोसरिय णिपडदि सा ॥३५४.॥ पुनरपि छिन्नायां पश्चिमद्वीपाभ्यंतरवेदिकापरतः ।। स्वदलयुतपंचसप्ततिसहस्रमपसृत्य निपतति सा ॥ ३५४ ॥
अर्थ-बहुरि दूसरी वार छिन्न कहिए आधा किया राजू ताकौं आधा किए ताके पीछे जो द्वीप ताकी अभ्यंतर वेदिकातै परें अपना आधा साठा सैतीस हजार करि संयुक्त पिचहत्तरि योजन परै जाइ. सो राजू पडै है । संदृष्टि-द्वितीय वार छिन्न राजूका प्रमाण इकतीस लाखः पचीस हजार योजन ताका आधा किये पंद्रह लाख बासठि हजार पांचसै. योजन.होत सतें स्वयंभूरमणतैं पाछला स्वयंभूरमण द्वीप ताकी अभ्यन्तर वेदिकात पर तिस द्वीप विर्षे अपना आधा करि अधिक पिचहत्तर हज़ार के भए.लाख वारह हजार पाँचसे सो इतनैं योजन नाइ सो राजू पडै. है ॥ ५४॥ : अर्घ चतुर्थ अष्टमादि राजूके अंश किए जहां जहां मध्यक्षेत्रः होइ वहां तहां राजूका पडना कहिए है
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(५५)
दलिदे पुण तदणंतरसापरमज्यंतरत्थवेदीदो ॥ पडदि सदलचरणण्णिदपण्णत्तरिदसस्यं गत्ता ॥ ३५५ ॥ दलिते पुनः तदनंतर सागरमध्यांतरस्थवेदीतः || पतति स्वदलचरणान्वितपंचसप्ततिदशशतं गत्वा ॥ ३५५ ॥
अर्थ - बहुरि ताको आधा किएं ताके अनंतरि अहिंद्रवर नामा समुद्रकी वेदिकातें परे अपना आधा अर चौथाईकरि संयुक्त पिचहतरि दश सैकडां- - प्रमाण योजन जाई सो राजू पडे है । संदृष्टि तीसरीचार 'आधा किया खण्ड पंद्रह लाख बासठि हजार पांचसै १५६२५०० ताक आधा किएं सात लाख इक्यासीहजार दोयसै पचास योजन होत संत तिस स्वयंभूरमण द्वीपके अनंतरि अहिंद्रवरनामा समुद्र ताका अभ्यंतर तटतें परे तिससमुद्रविषै पिचहतरि दश सैकडाका विचहत रिहजार भएताका आधा सादा सैतीस हजार भर चौथाई पौणा उगणीस हजार इनकों मिलाएं एक लाख इकतीस हजार दोयसै पचास १३१२५० भए । सो इतने योजन जाइ सो राजू पडै है || ३५५ ||
इदि अभवरतडदो सगदलतुरियहमादि संजुत्तं ॥ पण्णत्तरि सहस्सं गंतून पडेदि साताव || ३५६ ॥ इति अभ्यन्तरतटतः स्वकदलतुर्याष्टमादि संयुक्तं ॥ पंचसप्ततिसहस्रं गत्वा पतति सा तावत् ॥ ३५६ ॥
अर्थ - ऐसेडी अभ्यन्तर तटतें अपनां अर्ध चौथाभाग आदि संयुक्त पिचहत्तर हजार योजन नाइ नाइ सो राजू तावत् पडे है । तहाँ
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चौथी बार आधा किए अहिंद्रवर नाम द्वीपका अभ्यंतर तटतैं अपना आधी ३७५००० चौथाई १८७५० अष्टमांस ९३७५ करि संयुक्त पित्रहतरि ७५००० हजार योजन ४०६२५ नाइ एक पडै है बहुरि पांचईबार - आधा किं तातै पिछला समुद्रकी अभ्यन्तर वेदीतें अपनां चौडाई अष्टमांश - सोल्वा अंशकरि संयुक्त पिनहत्तर हजार योजन पर
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. (५६)
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जाई राजू पडे है, वहुरि छठीवार आधा किए तिस समुद्रत पिटर्स द्वीपकी अभ्यंतर वेदीत अपना अर्ध चौथाई आठवां सोलवां बत्तीसा भाग संयुक्त पिचहत्तर हजार योजन परे जाइ राज पद है, ऐसे ही पुटके नेता अधिक होई तात आधा आधा अधिकका अनुक्रम करि पिछला समुद्र वा द्वीपकी वेदीत परे नाइ सो रानु पडे है। तहां भाषा आघा. का अनुक्रम करि जहाँ एक योजनका अधिकपणा उपर तहां पर्यंत पिचहत्तर हजारके अर्द्धच्छेद सतरह हो है । बहुरि तहां पीछे उवर्या जो एक योजन ताफे अंगुल करिए तब सात लाख पडसठि हजार होई तिनका आधा आधा क्रमकरि एक गुरु उवर तहां पर्यंत उगणीस अर्ध छेद हो है । तिन सर्व छेदनिकों मिलाय ताका नाम संख्यात किया। बहुरि उवर्या था एक अंगुल ताके प्रदेशकारि साधा माधा अनुक्रम लिये अधिक करतें सूच्यंगुलके अर्थ छेदनिका जो प्रमाण तितनी बार भएं एक प्रदेशिका अधिकपणा आनि रहे सो संख्यात भर सच्यंगुलका अर्द्धछेद मिलाय " संखेज्जरूवसंजुद" इत्यादि गाथा कहै हैं ।।३५६॥
संखेज्जरूत्रसंजुदाईअंगुलछिदिप्पमा जाव ।। गच्छंति दीवजलही पडदि तहो साद्धलक्खेण ॥ ३५७ ॥ संख्येयरूपसंयुतसूच्चंगुलच्छेदप्रमा यावत् ।।
गच्छंति द्वीपजलधयः पतति ततः साधलक्षणेन ॥ ३५७ ॥ . अर्थ-- संख्यातरूप करि संयुक्त ऐसे सच्यंगुलके अर्घ छेदनिका जो प्रमाण यावत होई तावत् ते द्वीप समुद्र पूर्वोक्त अनुक्रम करि अभ्यतर वेदीत परै जाइ राजू पतनरूप क्षेत्रको प्राप्त हो है। तहां पीछे सर्व द्वीप समुद्रनिविर्षे ब्यौढ लाख १५०००० योजन पर अभ्यंतर वेदीत पर नाइ राजू पडै है। कैसे सो कहिए है ॥ अंतधणं गुणगणिय
भादिविहीणं रूऊणुत्ताभनियं" इस करण सत्र करि अंतका धन पिचहत्तर हजार ताकों गुणकार दोय करि गुणे ड्योढ लाख भए तिनम
पात
हए है "त
जणुत्तरमनिय
पिचहत्तर
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(५७)
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स२२ २०
आदिका प्रमाण एक प्रदेश घटाइए अर एक पाटि गुणकारका प्रमाण एकताका भाग दीजिए तब एक प्रदेश घाटि ड्यौढ लाख योजन प्रमाण भए । सो संख्यात सहित सूच्यंगुलका अर्द्धछेद प्रमाण द्वीपसमुन्द्र भए । भंतविर्षे अभ्यंतर वेदी इतनै परै जाइ राजू पडै है । बहुरि बाधा
७५००० ७५०.. ७५०००००० आधाकी अर्थ संदृष्टि ऐसी--
२
२५ २१ इहां संदृष्टिविर्षे पहिलै तौ पिचहत्तर हजारते १२ २२ लगाइ आधे आधे किए आधा करनेकों दोयका भागहार जानना, ताके भाषा करनेकों तिस भागहारको दोयका गुणकार जाननां । बहुरि मध्य भेदनिके ग्रहणनिमित्त वींचि बिंदी जाननी । बहुरि मागे सुच्यंगुलते लगाय भाधा आधा क्रम जाननां । बहुरि मध्य भेदनिके ग्रहणनिमित्त बीचि विदी जाननी । बहुरि आगे सूच्यंगुलते लगाय आधा आधा क्रग जानना । सूच्यंगुलकी सहनानी दोयका अंक जाननां । बहुरि मध्य भेदनिके ग्रहण निमित व चि विदी जाननी । बहुरि भागै च्यारि दोय एक प्रदेश जानने ऐसै आधा आधाका प्रमाण जाननां । ऐसे पूर्व पूर्व प्रमाणते उतर उत्तर प्रमाण अधिक करनां । बहुरि अंक संदृष्टिकर जैसे चौसठितें लगाय एक पर्यंत आधा आधा करिये इहां जाननी । ६४ । ३२ । १६ । ८।४ । २ । १ । ऐमैं ड्योढ लाख योजनका क्रम करि लवणसमुद्र पर्यंत मसंख्यात द्वीप समुद्रनिकों जाईकरि ॥३५७॥ कहा सो कहे हैं। . लवणे दु.पडिदेकं जंबूए देज्जमादिमा पंच ।।
दीउदही मेरुसला पयदुवजोगी ण छज्जेदे ॥ ३५८ ॥
लवणे द्विः पतितः एक जवौ देहि आदिमाः पंच ॥ - : द्वीपोदधयः मेरुशलाः प्रकृतोपयोगीनः न पट् चैते ॥३५८॥
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अर्थ- लवण समुद्रविर्षे दोय अर्ध छेद पड़े है । केस ! राजको आधा आधा करते जहां दोय लाखका अर्धछेद करिए तब सतरहवार भय एक योजन उवरै । बहुरि एक योजनके अंगुल सात लाख अरसाठ हजार तिनके अर्द्ध च्छेद करिए तब उगणीसबार भए एक अगुल उर्वर । बहुरि राजका अर्घछद किएं प्रथम अर्धछेद मेरुकै मध्य पड्या सो ऐसे सतरह गणीस एक अर्धछेद मिलि संख्यात अर्धच्छेद भए । बहुरि एक अंगुरु अवन्या था सो वह सूच्यंगुल है। सो सूच्यंगुलके अर्धछेद इतने छे छे । इहां पल्यके अर्ध छेदनिका वर्ग प्रमाण सूच्यंगुलके अर्घ छेद नानने । इनकों मिलाएं संख्यात अधिक सूच्यंगुलके मर्घ छेद प्रमाण एक लाख योजनके अर्धछेद भए तिनकी सहनानी ऐसी इहां संख्यात अधिककी सहनानी जारि ऐसे १ जाननी । इतने अर्धछेदनिविर्षे अपनयन त्रैगशिक विधिकरि घटाए जो प्रमाण मा तितनी द्वीपसमुद्रनिकी संख्या जाननी अपनयन त्रैगशिक विधि कैसे सो कहे है ।
राजूका अर्धछेद इतने कहे , तहाँ पल्य के अर्ध छेदनिका असंख्यतवां भाग प्रमाण तौ गुण्य जानना छ वहुरि पत्यके अर्ध छेदनिका वर्ग तिगुणा सो गुणकार जानना छे छे ३ तहां जो इतने छे छे ३ : गुणकारकों देखि करि गुणकार प्रमाण राशि घटानेकों गुण्यविर्षे एक घटाइए तो इतना . १ घटावनेके अर्थि गुण्यमें कितना घटाइए ऐसे त्रैराशिक करिए तहां प्रमाण राशि ऐमा छे छे ३ फलराशि १ इच्छा राशि ऐसा १ छे छे फल करि इच्छाको गुणि प्रमाणका भाग दीजिए तहां भाज्य राशि अर भागहार राशि दोऊनिविर्षे पत्य मर्ष छेदनिका र्ग ऐसा छे.छ. तिनकों समान देखि भागहारविषः उवर्या. तिनका
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(५९) अंक ताका भाज्यविर्षे असंख्यात उवरे तीह करि साधिक एककों भाग दीजिए । इतनां गुण्यविय घट्या । ऐसे करि अपनां साधिक एकका तीसरा भाग करि हीन पत्यका अर्ध छेदनिका असंख्यातवां भाग प्रमाण गुण्यको पत्यका अर्ध छेदनिका वर्ग अर तीन करि गुणें जो प्रमाण होह इतने सर्व द्वीपसमुद्र हैं जिनकी सहनानि ऐसे छे छे छे ३ इहां अधिक ततीय भाग घटावनेकी सइनानी ऐसी, जाननी । ( इनविर्षे आधे द्वीप भाधे समुद्र जानने) र ऐस द्वीप समुद्रनिकी संख्या कहि अब जाका अधिकार है ताको कथनवि जोडे है । जंबू-. द्वीप लाख योजनपपाण तासौं लाखयोजन रहै। तहां लवणसमुद्रका अभ्यंतर पटलत ड्योढलाख योजन पर लवण समुद्रविर्षे जाइ अर्ध प? है। ऐसें दो बहुरि ताका आधा लाख योजन भएं लवण समुद्रका अभ्यंतर तटौं पचास हजार योजन पैर जाइ अर्धच्छेद पडे है ऐसे दोइ अर्धछेद नाननें । बहुरि तहां एक जंबूदीपळू देहु ।
भावार्थ-दोय मध छेदनिविर्षे एक अर्घच्छेद तो लवण समुद्रका गिनना । भर एक अर्धविर्षे पचास हजार योजन जंबूद्वीपके मिलाएं लाख योजन होई सो इस मछेदकों जंबूद्वीपहीका गिननां ऐसे ए अर्धच्छेद कहे । बहुरि इन अर्धछेदनिविर्षे मादिके जंबू द्वीपादी पांच द्वीपसमुद्र संबंधी पांच अर्धछेद भर मेरुशलाका कहिए राजूको आधा करते प्रथम भर्घछेद कथा सो ऐसे ए छह अर्घच्छेद इहां भधिकार रूप ज्योतिषी विवनिका प्रमाण ल्यावनेंविर्षे उपयोगी कार्य कारी नाहीं जात तीन द्वीप समुद्रनिके किंगका प्रमाण जुवा ग्रहण करेंगे तातैं पांच मर्धच्छेद तो ए कार्यकारी नाहीं भर मेरुशलाका रूप प्रथम अर्ध-छेद विष कोई द्वीप समुद्र माया नाहीं तात सो कार्यकारी नाही ऐमें छह भयछेद आगँ घटावेंगे ॥ ३५८ ॥ कहां सो कहै है
तियहीणसेढिछेदणमेचो रज्जुच्छिक्षी हवे गच्छो । जगदीवच्छिदिणा छरूपजुत्तेण परिहीणो ॥ ३५९ ॥ .
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त्रिकहीनश्रेणिछेदनमात्रः रज्जुच्छेदः भवेत् गच्छः ॥ . .. जंबूद्वीपछेदेन पपयुक्तेन परिहीना || ३५९॥ .
अर्थ-तीन धाटि जगच्छ्रेणीका अर्ध प्रमाण एक राजके अर्द्धच्छेद है । तिनमें अबूद्वीप लाख योजन प्रमाण ताके अर्घच्छेद छह अर्धछेदनिकरि संयुक्त घटाएं ज्योतिषी विवनिकी संख्या ल्यावनेविर्षे गच्छका प्रमाण हो है । तहां जगच्छ्रेणी अर्घच्छेद इतने हैं इहां पत्यके अर्धच्छेदनिकी सहनानी ऐसी छे भर नीचे असंख्यातकी सहनानी ऐसी ७ ताका भागहार जानना ।
बहुरि आगें पत्यो अर्घच्छेदनिका वर्गका गुणांकी सहनानी ऐसी छ छे छे ३ ताका गुणकार जानना । बहुरि इनमें तीन अर्धच्छेद घटाएं राजूके अर्धच्छेद होहि उं जाते नगच्छेणीके सातवें भाग राजू हैं । सो
सातके तीन अर्धच्छेद होहि ताकी सहनानी ऐसी छे छे छे ३ इहां
ऊपरि घटावनेकी सहनानी ऐसी जाननी बहुरि इन. अर्घच्छेदनिका प्रमाणविर्षे नंबूद्वीपकै अभ्यंतर पचास हजार योजन- अर वाह्य पचास हनार योजन मिलि एक लाख योजन प्रमाण जंबूद्वीप संबंधी अपंछेद्र कहा था सो इन लाख योजननिकै अर्धच्छेद घटाइए। तहां एक लाखके अर्धच्छेद तिनमें छह करिए तव सत्रह १७ वार भएं एक योजन उवरै । बहुरि एक योअनके अंगुल सात लाख अडसठि हजार तिनके अर्ध छेद करिए तब उगणीसवार भएं एक अंगुल उवरै । बहुरि राजुका अर्धच्छेद कीए प्रथम अर्घच्छेद मेरके मध्य पझ्या सो ऐसे सत्रह उगणीस एक अर्धच्छेद मिलि संख्यात अर्घ
द भए । बडुरि एक.अंगुल उवर्या था सो वह. सूच्यंगुल है । सो
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सूच्यंगुलके अर्धच्छेद इतने छे । इहां पत्यके अर्धच्छेदनिका वर्ग प्रमाण सूच्यंगुलके अर्धच्छेद जानने । इनकों मिलाएं संख्यात अधिक सूच्यंगुल के अर्घच्छेद प्रमाण एक लाख योजनके अधच्छेद भए । तिनकी सहनानी ऐसी छे छे । इहां संख्यात अधिककी सहनानी उपरि ऐसी ? जाननी । इतने अर्धच्छेद राजूके अर्धछेदनिविर्षे अपनयन राशिक विधिकरि घटाइएं जो प्रमाण आवै तितनी द्वीप समुद्रनीकी संख्या जाननी । मपनयन त्रैराशिक विधि कैसे ? सो कहे हैं।
राजुके अर्धछेद इतने कहे छे छे छे ३ तहां पत्यके अर्धछेदनिका असंख्यातबां भांग प्रमाण तो गुण्य जानना छ । बहुरि पत्यके अर्धच्छेदनिका वर्ग तिगुणां गुणकार जोननां छे छे ३ । इहां जो इतने छे छे ३ गुणकारकौं देखि करि गुणाकार प्रमाण राशि घटावनैको गुण्यविर्षे एक घटाइए तो इतना घटाव के अर्थिं गुण्यमेंसौं कितना घटाइए ऐसे त्रैराशिक करिए । तहां प्रमाण राशि ऐसा छे छे ३ फलराशि एक १ इच्छा राशि ऐसा छे छे । फलकरि इच्छाकौं गुणि प्रमाणका भाग दीजिये, वहां भाज्य राशि अर भागहार राशि दोऊनिविर्षे पत्यका अर्थ छेदनिका वर्ग ऐसा छे छे । तिनकौं समान देखि भागहारविर्षे उवर्या तीनका अंक ताका भाज्यविर्षे संख्यात उवर तीहकरि साधिक एककों भाग दीजिये, इजना गुणविष घटाया । ऐसें करि साधिक एकका तीसरा भाग करि हीन पत्यका अर्घच्छेदनिका असंख्यातवां भाग प्रमाण गुण्यकों पत्यका अर्घच्छेदनिका वर्ण पर तिनकरि गुणे जो प्रमाण होह तामें तीन घटाइए। इतने सर्व द्वीप समुद्र हैं तिनकी सहनानी ऐसी छे छे छे ३ ।। । इहां साधिक तृतीय भाग घटावने की सहनानी ऐसी ! जाननी । इनविर्षे आधे द्वीप आधे समुद्र जाननें । ऐसे द्वीपसमुद्रनिकी संख्या कहि। अब जाका अधिकार हैं ताको कथनविर्षे जोडे हैं । जंबूद्वीप लाख योजन प्रमाण ताके अर्धच्छेद तिनमें
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(६२) छेह अर्धच्छेद और मिलाइए, इनकौं जोडि जो प्रमाण होइ तितर्ने अर्धच्छेदं राजूके अर्धच्छेदनिमस्यौं घटाएं जो प्रमाण होइ तितनां सर्व द्वीप समुद्रसम्बन्धी चंद्रसूर्यादिकनिके प्रमाणल्यावर्नेकों गच्छका प्रमाण जाननां । भावार्थ-यहु पूर्वे द्वीपसमुद्रनिकी संख्या कही तामैं छह घटाएं इहां गच्छका प्रमाण होई ॥३५९ ॥ * माग तिन ज्योतिषी विवनिकी संख्या ल्यावनेवि जो गच्छ कहा ताकी मादि कहैं हैं
पुक्खरसिंधुभयधणं चउघणगुणसयछहत्तरी पमओ ॥ .... “चउगुणपचओ रिणमवि अडकदिमुहमुरि दुगुणकर्म ॥३६० .. , पुष्करसिंधूभयधनं चतुर्धनगुणशतपट्सप्ततिः प्रभवः ॥ · चतुर्गुणप्रचयः ऋणमपि अष्टकृतिमुखसुपरि द्विगुणक्रमं ॥ ... अर्थ-स्थानिकनिका जो प्रमाण सो गच्छ कहिए वा पद कहिए। बहुरि गच्छचिव नो पहला स्थानविर्षे प्रमाण सो थादि कहिये वा प्रभव कहिये वा मुख कहिये । बहुरि स्थानस्थानप्रति जितनां जितनां बधै सो प्रचय कहियें। बहुरि सर्व स्थानका संबंधी वृद्धिका प्रमाण विनां जो मादि ताकौं जोड़ें जो प्रमाण होइ सो आदि धन कहिये । बडुरि सर्व स्थानका संबंधी वृद्धिको नो. जो प्रमाण होइ सो स्तर धन कहिये । सो इहां पुष्कर नामा समुद्रका आदि धन पर उत्तर धन मिलाएं च्यारिका धन चौसठि तीह करि गुण्या हुवा एकसौ छिहत्तर प्रमाण उभय धन को है सो इहां प्रभव जाननां । बहुरि एक एक दीप या समुद्रपति चौगुणा चौगुणा वधती धन है सो प्रचय जानना । बहुरि ऋणवि आठकी कति चौसठि तीह प्रमाण तो मुख जाननां । ऐसे धनराशि ऋण राशिकौं नानि धनराशिविर्षे ऋणराशिकों घटाए स्थानस्थानविर्षे प्रमाण जानना। तहां पुष्कर समुद्रका मादि धन उत्तर 'धन कैसे ल्यावा. सो कहिए हैं
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मादितै आदि दणादणा क्रमः कहे थे नाते पुष्करार्घ द्वीपका भादि वलयविर्षे एक सौ चवालीस थे तिनसे दूणे पुष्कर समुद्रका आदि वलयविखे हैं । १४४ १२। सो इहां मुख जाननां । बहुरि "पदहतमुखमादिधनं" इस सूत्र करि गच्छकरिगुण्यां हुवा मुखका प्रमाण सो मादि धन है। सो इहां बत्तीस वलय हैं । तातै गच्छका प्रमाण वत्तीस तिहकरि मुखको गुण जो मुखवि दोयका गुणकार था ताकौं वत्तीस करि गुणि भर एकसों चवालीसके आगें चौसठीका कुणकार स्थापिएं १४१ । ६४ । इतना तो आदिधन जानना बहुरि " व्येकपदानचयगुणोगच्छउत्तरधनं ॥ इस सूत्रकरि एक घाटि गच्छका बाधा करि चयको गुणि तीहकरि गच्छकौं गुणें उत्तर धन हो है। सो इहां एक घाटि गच्छ इकतीस ३१ ताका आधा करि चयका प्रमाण एक एक वलय वि च्यारि च्यारि बधती है, तात च्यारि च्यारिकरि गुणिए ३११४ बहुरि इनकी गच्छ वतीस करि गुणिए ३११४।३२ बहुरि 'मागहारका दूवा करि गुणकारका चौका अपवर्तन किए दोय होय तीहकरि बत्तीसका गुणकार गुणें चौसठि होइ । ऐसें इकतीसकौं चौंसठि गुणां करिए.३१६४ इतना उत्तरधन हुवा । बहुरि इस उत्तर धनविर्षे चौसठिका ऋण मिलावनां सो उत्तर धनविर्षे चौपठिका गुणकार नानि गुण्यवि एक मिलाया तब बत्तीसकौं चौसाठि गुणां करिए । इतना उत्तर धन भया ३२॥६४
.. इहां ऋणका मिलावना बहुरि याहीको घटावना सो सुगम गणित
आवनेके अर्थि करिएं हैं बहुरियादिधन पर उत्तर धनविर्षे गुण्य वत्तीस इनको मिलाइ एक सौ छिहत्तरि गुण्य किया पर चौसाठि गुणकार किया । ऐसे चौसाठि गुणां एक सौ छिहत्तरि १७६१६४ प्रधाण पुष्कर समुद्रका उभय धन सो ज्योतिधिनिका प्रमाण ल्यानके अर्थी .जो गच्छ कहा था गका प्रभव कहिए आदि जानना । बहुरि यात चौगुणां. वार
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( ६४ )
णीवर - द्वीपदिषै धन जाननां । कैसे सो कहिए है । पूर्व आदि दृर्णां हां आदि वलय विषै है सो मुख १४४२|२| जाननां । बहुरि "पदहंतमुखमादिधनं " इससूत्रकरि याकों इहां वलय चौसठ है ता गच्छका प्रमाण चौसठ तीहकरि गुणिए । १४४ । २ । २ । ६४ । बहुरि - " व्येक पदार्धनचयगुणो गच्छः उत्तरधनं " इस सूत्र करि एक घाटि ६३ को वलय वलय प्रति बघती
गच्छ प्रमाण तरेसठ ६३ ताका आधा
२
प्रमाणरूप चय च्यारि करि गुणिए ६३ । ४ बहुरि याकौं गच्छ चौसठि करि
"
गुणिए ६३
- ।४। ६४ बहुरि दोयके भागहार करि गुणिए ६३ । ४ बहुरि
६३
२
या चौसठ कर गुणिए ४ । ६४ बहुरि दोय के भागहार
२
करि च्यारिका अपवर्तनकरि दूवाकों चौसठिके आगे स्थापिए ६४ ॥६४ यामैं पूर्वोक्त दुणा ऋण मिलाइए सो दुगुणां चौसठि मिलाइए ६४/२ सो. दुगुणा चौसठिका गुणाकार समान देखि गुण्यविषै एक मिलाइये ६४ । ६४ । २ । बहुरि सर्वत्र चौसठि गुणां एकसौ छिहतर करनी तातें जिह- भांति बत्तीस रहे तैसे संभेदन कर चौसठकी नायगा तौ बत्तीस करिए भर दोय आगें धरिए ३२ । २ । ६४ । बहुरि दोय दूवानिकों परस्पर गुणि च्यारिका अंक लिखिए ३२ । ६४ । ४ ऐसे उत्तर धन होइ । बहुरि आदि धन १४४ । ६ । ४ । ४ । अर - उत्तर धनं दोऊनिकौं मिलाएं चौसठ गुणा एक सौ छडतरिका चौगुणा उमबंधन हो ऐसे ही एक एक द्वीप वा समुद्रविषै चौगुणा चौगुगा तो धन जानना । अर नो उत्तर घनविषै ऋण मिलाय था सो पुष्करवर समुद्रविषै तौ ऋण आठकी कृति जो चौसठ विह प्रमाण जाननां । भर • क्रपरि दूणा परि दुणा जाननां । ऐसे धनविषै आदि तौं चौसठि गुणा
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एकसौ छिहत्तरि १७६ । ६४ बहुरि उत्तर गुणकार च्यारि गच्छ पूर्वोक प्रमाण ऐसा छे छे छे ३ इनको ल्याइ ॥ ३६० ॥
इनका संकलनरूप धनको ल्यावता थका सर्व ज्योतिषी विवनिके प्रमाण ल्यावनैका विधान कहे हैं
आणिय गुणसंकलिदं किंचूर्ण पंचठाणसंठवियं ॥ चंदादिगुणं मिलिदे जोइसविनाणि सव्वाणि ॥ ३६१ ॥ आनाव्य गुणसंकलितं किंचिदून पंचस्थानसंस्थापितम् ॥ चंद्रादिगुण मिलिते च्योतिष्कर्षियानि सर्वाणि ॥ ३६१ ॥
अर्थ-.-." प्रदमेते गुणयारे अण्णोणं गुणियरूव परिहोणे । रुऊणगुणेगहिए मुझेण गुणयम्मि गुणगणियं । " इस करण सूत्रकरि गच्छ प्रमाण गुणकारको परस्पर गुणि तामें एक घटाइ ताकौं एक घाटि गुणकारका भाग देई मुरबकरि गुण गुणकाररूप सर्व गच्छके जोडका प्रमाण हो है सो । यहां गच्छका प्रमाण छे छे छे ३ सो इतनी जायगा गुणकारका प्रमाण च्यारि ताते च्यारि अंक मांडि परस्पर गुणिए । तहां इस गच्छविष उपरिका राशि जगणीका अर्ध छेद प्रमाण ऐसा छे छे छ । ३ बहुरि च्यारिकों दोयका संमेदन करिए तब दोय जायगा दोय दोय होई २ | २ तहां " तम्मेतदुगुणे रासी " इस करण सूत्रके न्याय करि तिस जगच्छृणीका अर्घच्छेद राशि छे छे छे ३ प्रमाण दवा माण्डि परस्पर गुणे जगच्छ्रेणी होई । यहरि दोय दोय जायगा दोय दोय थे तातें दूसरीवार भी तैसेंही ऊपरिका राशि छ छे ३ प्रमाण वानिकों परस्पर गुणे जगछ्रेणी होइ और इन दोऊ जगछेणीनिकों परस्परगुणें जगत्मतर होइ । ऐसे ऊपरिका राशिनमाण गुणकारकों परस्परगुणें तो जगत्पतर भया । बहुरि नीचे ऋणरूप राशि गुण्यका साधिक तृतीयभाग मात्र था - तिस वि सतरहतो लाखके अर्धच्छेद थे तिन प्रमाण दोय
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(६६)
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वार वानिको परस्पर गुणे एक लक्षका वर्ग भया । १ ल १ लामहरि अंगुलनिक अर्धच्छेद उगणीस थे तिन प्रमाण दोयवार दूवानिकों परस्पर गुणें सात लाख अहसठि हजारका वर्ग भषा ७६८०००। ७६८०००। बहुरि सूच्यंगुलका अर्धच्छेद प्रमाण दोयंबार दृवानिको पास्परगुणे प्रतरांगुल भया । बहुरि छह अच्छेद इहां उपयोगी न कहिं घटाए ॥ थे तिन प्रमाण दोश्वार वानिकी पासर गुणें चौसाठिका वर्ग होइ । बहुरि जगच्छृणीका अर्धछेदस्यों तीन घटाएं राजूके अर्द्धच्छेद होई ऐसा कहि घटाए थे। तिन प्रमाण दोयबार दूवानिकों माण्डि परस्पर गुणें सातका वर्ग भया । ऐसें ॥ सर्व अर्द्धन्छेद घटाए थे तिन प्रमाण दोयवार दोयका अंक मांडि परस्पर गुण जो जो प्रमाणभया ताका भागहार जाननां । जात-" विरलिज्जमाणरासि ने त्तियमेवाणि हीणरूवाणि। तेसिं अण्णोण्णहदी हारो अण्ण रासिस्म " ऐसा करणसूत्र पूर्व कहि आए हैं । ऐसें गछप्रमाण गुणकारका परस्परगुणनां भया। ____बहुरि यामें एक घटाइए ताकी सहनानी ऐसी बहुरि याको एक घाटि गुणकार तीन ताका भाग दीजिए । बहुरि मुखका प्रमाण चौसाठ गुणां एकसौ छिहत्तरि तीहकरि गुणिए तव धनराशिका जोडदिए जगत्मतरकों चौसठिगुणां एकसौ छिहत्तरिकरि गुणिए अर ताको प्रतरांगुलको सातलाख अडसठि हजारका वर्ग अर लाखका वर्ग मर चौसठिकां वर्ग भर सातका वर्ग र तीनकरि गुणि ताका भाग दीजिए तामें एक घटाइए इतना संकलित धन=१७६६४ हो है। . : . इहां जगत्पतरकी सहनानी ऐसी-प्रतरांगुल की. ऐसी ४ ४ । ७६८००० । ७६८००० । १ ल । १ ल । ६४।.६४।७।७। ३ । जाननां । नहुरि ऋणराशिका संकलित धनल्याइए तहां गुणाकारका प्रमाण दोय है तात पूर्वोक्त गच्छका जितनां प्रमाण तितना दुवा मांडि परस्पर गुणिएं । तहाँ
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(६७) उपरितन राशि प्रमाण दुवा मांडि परस्पर गुणें जाच्छृणी होइ । बहुरि नीचे ऋणरूप राशि तिह विर्षे सतरह आदि प्रमाण दूदा माण्डि परस्पर गुणे एकलक्ष भर सात लाख अडसठि हजार अर चौसठि अर सात होइ इनका भाग दीजिए । बहुरि इनमें एक घटाइए, बहुरि मुख चौसठि करि गुणिर, बहुरि एक धाटि गुणकार एक ताका भाग दीजिये ऐसे करते ऋण राशिका संकलित धन चौसठि गुणां जगच्छ्रेणीकौं सूच्यंगुलकौं सात लाख अडसठि हजार अर एक लाख मर सात अर चौसठि अर एक करि गुणि ताका भाग दीजिए । तामें एक घटाइए इतना भया ६। ४२ । ७६८०००।१ ले । ६४ । ७१ इहां जगणीकी सहनानी ऐसी-सूच्यंगुलकी ऐसी ऐसी जाननी । अब तिस धन राशिविर्षे जो एक सौ छिहत्तरिकर गुणकार था पर नीचे चौसठिका भागहार था तिन दोऊनिकौं सोलाकरि अपवर्तन किएं एकसौ छिहत्तरिकी नायगा ग्यारह हुवा, चौसठिकी जायगा चारि हुवा । बहुरि गुणकारके चौसठिकौं भागहारके चौसठिकरि अपवर्तन किए दोऊ नायगा अभाव भया । बहुरि दोय नायगा सात लाख अडसठि हजार पर दोय जायगा लाख तिनकी सोलह विंदी स्थापिए । बहुरि अंगुलनिका दोय जोयगा सातसै अडसठिका अंक रह्या तिनकौं तिनकरि संभेदनकरि तिनकी. जा. यगा. दोयसै छप्पन लिखिए आगै तिनका अंक लिखिए ।
बहुरि दोय जायगा दौयसै छप्पन भए तिनकों परस्पर गुणे पण्णठीहोई । बहुरि दोय नायगा तिनका अंक भए अर एक जायगा तीनका अंक मार्ग था इनकों परस्पर गुणे सत्ताईस होइ बहुरि सत्ताईसको सातका वर्ग गुणचास करि गुणें तेरहसै तेइस होइ इनकौं जो चौसठिकी जायगा च्यारि भए थे तिनकरि गुणें बावनसैं बाणवै होइ । ऐसें करि जगत्पतरकों ग्यारहका गुणकार अर तरांगुलफौं पणही भर पांच हजार दोयसै बाणवैके आगें सोलह बिंदी .. तिनकरि गुणें जो प्रमाण होइ ताका भागहार दिएं धन राशिका गुण संकलित धन हो है
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(६८ )
४।६५-५२९२०००००००००००००००० बहुरि नंबूद्वीपते लगाय पुष्कराध पर्यंत " दोद्दोवगा " इत्यादि चंद्रादिकका प्रमाण कह्या २।४।१२। ४२ । ७२ तिनको मिलाएं एकसौ बत्तीस भए । बहुरि मानुषोत्तर पर्वत पर्यंत पर पुष्कराध द्वीपवियें चंद्रमानिका प्रमाण त्यावनकों कहैं हैं।
पदमेगेण विहीणं दुभाजिद उत्तरेण संगुणिदं ।। पभवजुदं पदगुणिदं पदगणिदं तं वियाणाहि ॥ १ ॥ इसकरण सूत्रकरि इहां वलय पाठ है । तात गच्छका प्रमाण आठ तामैं एक घटाइए ७ ताका आधाकारि - उत्तर नो वलय वलय.
प्रति वतीका प्रमाण च्यारि तिहकरि गुणिए । ४ अपवर्तन करिए. तब चौदह भए १४ इनविर्षे प्रमव जो प्रथम वलयवि प्रमाण रूप मुख एक सौ चवालीस जोडिए १५८ । बहुरि इनकी गच्छ पाठकरि गुणिए तव वारहसौ चौसाठि भए इनविर्षे एकसौ वत्तीस नबूद्वीप आदिकके मिलाएं तेरहसै छिनवै होइ सो इनकों जो पूर्व ऋण संकलित धन भया था तिनमैं घटाइए हैं। जात-'ऋणस्य ऋण राशेद्धनं इसवचनकरि ऋणमस्यों घटावनां अर राशिम मिलावनां इन दोऊनिका एक अर्थ है। तहां ऋण संकलित धनसहित तेरहसै छिनबैका समच्छेद करिए तव ऐसा होइ- १३९६ सू २१७६८००० १ ल ६४। ७ । १ । सू २ । ७६८००० । १ ल । ६४ । ७ | १ सो यह गुणकार भागहारादिकका अपर्वतनादिक किएं भाज्य राशिकौं परस्पर गुणे संख्यात सूच्यंगुलप्रमाण भया । सो इनकों पूर्वोक्त ऋण संकलित धनका भाज्यविर्षे घटाइए तव ऐसा भया । २।७६८००० । १ ल।७। ६४।१ इहां संख्यात सृच्यंगुलकी सहनानी ऐसी २ जाननी । पर सारौं घटा
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( * )
बनेकी सहनानी ऐसी जाननी । ऐसे ऋण संकलित धनविषै एक जगच्छ्रेणी | ताका सहित ऋण सहित जो धन संकलित धन पुर्वै कक्षा ती हस्यौं समान छेद्र करिए तब ऐसा - सू २ । ६४ । ७६८००० । १ ल । ७ । ६४ । ३ । ४ । ७६ । ८००० । ७६८००० । १ ल । १ ल ७ । ७ । ६४ । ६४ | ३ | भया । इसविषै सूच्यंगुल विना और सर्व गुणकार निकों संख्यातरूप मानि इस प्रमाणको संख्यात सूच्यंगुल गुणित नगच्छ्रेणी प्रमाण ऋण राशिभया भया । ताकी सहनानी ऐसी-- २ इनकों पूर्वोक्त घन संकलित ऐसा=४।६५=५२९२।१६ इहां सोल्ह विदीनिकी सहनानी ऐसी १६ जाननी । सो इहां जगत्प्रतर विप श्रेणीका गुणाकार है तातें दोयबार श्रेणी हैं । तहां जगच्छ्रेणीकों ऋण राशिकी नगच्छ्रेणी केसमान देखि तहांही दुसरी गुणकाररूप जगच्छ्रेणी विषै घटाएं किंचित् न्यूनपणा आया ऐसे करि गुण संकलित धन कहिए गुणकार विषै जोडका प्रमाण ताकौ स्यायें किचित् न्यून किं संख्यात सूच्यंगुल गुणित जगच्छ्रेणी करि हीन जगत्मतर किंचित्न्यून ग्यारहगुणां ताकों प्रतरांगुल पणट्ठी प्रमाणक भावनसे वाणवै आगे सोलह विदीका गुणकार करि ताका भाग दीजिए इतनां प्रमाण या ० - २ । ११ । इहां जगत्प्रतर के आगे किंचिन् ४।६५=५२९२।१६
-
न्यूनकी सहनानी ऐसी ० - जाननी पर आगें संख्यांत सूच्यंगुलकी ऐसी २ सहनानी जाननी । अब इसप्रमाणकौं पांच नायगा स्थापि एक नायगा एक करि गुणे चंद्रनिका प्रमाण होइ एक जायगा एक करि गुणें सूर्यनिका प्रमाण होई । एक जायगा अठ्यासी करि गुणें . ग्रहनिका प्रमाण होइ । एक जायगा अठ्ठाईस करि गुणें नक्षत्रनिका प्रमाण होई एक नायगा छ्यासठ हजार नवसे पिचहत्तरि कोडाकोढि करि गुणें तारानिका प्रमाण होइ इन सब निकों जोड़ें।
=०-२ । ११ । १=०२ । ११ । ८८
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(७०)
४१६५-५२९२।१६।४।६५-५२९२।१६४/६५-५२९२।१६
3०२ । ११ । २८%D०२।११। ६६९७५ । १४ ४ । ६५-५२९२ । १६ ॥ ४ । ६५-५२९२ । १६
जगत्प्रतरको सात तीन छह सात दोय पांच अंक र दश विदी अर मार्ग बारह अव्याणवै इनका गुणकार र प्रतरांगुल पणट्ठी आगे वावनसें वाणवे सोलह विदी इनका भागहार भया । सो इतने सर्वे योतिषी विव है । ७३६ ७२५००००००००००१२९८ १६५-५२९२००००००००००००००००
बहुरि स्थान सदश अपवर्तन कहिए हीन अधिक अकनिकी न गिणिकरि दाहकी विर्षे दाहकी सैंकडा विर्षे सैकडा इत्यादि यधास्थान अपवर्तन करना तिस न्याय करि सात तीनने आदिदै करि गुणकारकै वीस अंक पर पांच दोयने आदिदेकरि भागहारकै वीस अंकनिका अपवर्तनकरि दोय जायगा अभाव करना । ऐसा मनवि विचारि-"वेसदछप्पण्णंगुल" इत्यादि सूत्रकरि दोयसै छप्पन अंगुलका वर्ग जो पणठ्ठी गुणित प्रतरांगुल ताका भाग जगत्प्रतरको दीजिए इतने ४ । ६५। ज्योतिषी बिंब हैं। ऐसा आचार्यनें कह्या । सोई असंख्यात द्वीप समुद्र संबंधी सर्व ज्योतिषी बिंबनिका प्रमाण जाननां ।। ३६१ ।। आगें एक चंद्रमाका परिवाररूप ग्रहनक्षत्र तारे तिनका प्रमाण कहे हैं
अडसीदठा वीसा ग्रहरिक्खा तार कोडकोडीणं ॥ छापहिसहस्साणि य णवसयपण्णत्तरिगि चंदे ॥ ३६२ ।। अष्टाशीत्यष्टाविंशतिः ग्रहनक्षयास्ताराः कोटीकोटीनां ।।
षट्पष्ठि सहस्राणि च नवशतपंचसप्ततिरेकस्मिन चंद्रे ॥ ___ अर्थ:-अध्यासी अर अट्ठाईस ग्रह अर नक्षत्र हैं । भावार्थ-ग्रहअठ्यासी हैं नक्षत्र अध्यासी है। बहुरि तारे छयासहि हजार नवसै
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(७१)
पिचहत्तरि कोडाकोडी हैं ६६९७५०००००००००००००० इतना एक चंद्रमाका परिवार है ॥ ३६२ ॥
आगे अध्यासी ग्रइनिका नाम आठ गाथानि करि कहैं हैंकालविकालो लोहिदणामो कणयक्ख कणयसंठाणा ।। अंतरदोतो कचयवदुंदुभिरत्तणिहरूबाणिभासो ॥ ६६३ ॥ कालविकालो लोहितनामा कनकाख्यः कनकसंस्थानः ॥ अतरदस्ततः कचययः दुंदुभिः रत्ननिभः रूपनिर्भासः ॥३६३ अर्थ-~~-कालविकाल १ लोहित १ कनक १ कनकसंस्थान १ अंतरद १ कवयव १ दुदुभि १ रत्नानिभ १ रूपनि स १ ॥३६३॥
णीलो णीलभासो अस्ससहाण कोस कंसादी ॥ वण्णा कंसो संखादिमपरिमाणो य संखवण्णोचि ॥३६४॥ नीलो नीलाभासोऽश्वस्थानः कोशः कंसादि । वर्णः कंसः शंखादिपरिमाणः च शंखवर्णोऽपि ॥ ३६४ ॥
अर्थ-नील १ नीलाभास १ अश्व १ अश्वस्थान १ कोश १ कंसवर्ण १ कंस १ शंखपरिमाण १ शंखवर्ण १ ॥ ३६४ ॥
तो उदय पंचवण्णा तिलो य तिलपुच्छ छाररासीओ ॥ तो धूम धूमकेदि गिसंठाणक्खो कलेवरो वियडो ॥३६५॥ ततः उदयः पंचवर्णस्तिलश्च तिलपुच्छः क्षारराशिः ॥ ततो धूमो धूमकेतुः एक संस्थानः अक्षः कलेवरो विकटः॥
अर्थ---उदय १ पंचववर्ण १ तिल १ तिलपुच्छ १ क्षारराशि १ धुम १ धूमकेतु १ एक संस्थान १ अक्ष १ कलेवर १ विकट १ ॥ ३६५ ॥
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(७२)
इह मिण्णसंधि गंठी माणचउपाय विज्जुजिम णमा || तो सरिस णिलय कालय कालादी केर अणयक्खा ॥३६६ इहा भिन्नसंधिः ग्रंथिः मानवतुष्पादो विद्युज्जिहो नमः ।। ततः सदृशो निलयः कालच कालादि कोतु रनयाख्या ३६६
अर्थ-अभिन्नसंधि १ ग्रंथि १ मान १ चतुष्पाद १ विद्युजिन्ह १ नभ १ सदृश १ निलय १ काल १ कालकेतु १ अनय ।। ३६६ ॥
सिंहाऊ चिउल काला महकालो रुदणाम महरूद्दा । संताण संभवक्खा सम्वहि दियाय संतियशृणो ॥ ३६७ ॥ सिंहायुर्विपुलः कालो महाकाली रुद्रनामा महास्तः ॥ संतानः संभवाख्यः सर्वार्थीदिशः शांतिर्वस्तुनः ॥३६७॥
अर्थः- सिंहायु १ विपुल १ काल १ महाकाल १ रुद्र १ महारुद्र १ संतान १ संभव १ सर्वार्थी १ दिशा १ शांति १ वस्तुन ? ॥३६७ ॥
णिञ्चल पलभ णिम्मंत जोदिमंता सायंपहो होदि ।। भासुर विरजातत्तोणिमुक्खो वोदसोमोय ॥३६८॥
निश्चल: पलंभो निमंत्रो ज्योतिष्मान स्वयंप्रभो भवति ॥ . भासुरो विरजस्ततो निदुःखो वीतशोकश्च ।। ३६८ ॥ . अर्थ-निश्चल १ प्रलंभ १ निर्मत्र १ ज्योतिप्मान १ स्वयंपम १ भासुर १ विरज १ निदुःख १ वीतशोक १ ॥ ३६८ ।।
सीमंकर खेमभयंकर विजयादि चउ विमलतत्थाय ।। ..विजयण्हु वियसो करिकट्टि गिनडिअग्गिजाल जलकेदू ।। सीमंकरः क्षेमभयंकरः विजयादि चत्वारः विमलखस्तश्च ।। विजयिष्णुः विकसः करिकाष्टः एकजटिरग्निज्वालः ज्वलकेता।
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( ७३ )
अर्थः- सीमंकर १ क्षेमकर १ अभयंकर १ विजय १ वैजयंत १ जयंत १ अपराजित १ विमल १ त्रस्त १ विजयिष्णु १ विकस १ फरिकाष्ठ १ एकनटि १ मग्निज्वाल १ जलकेतु १ ॥ ३६९ ॥
केदू खीरसऽघस्सवणा राहू महगहा य भाषगहो । कुज सणि बुह सुक्क गुरू गहाण णामाणि अडसीदी ॥३७०॥ केतुः क्षीरसः अघः स्त्रवणो राहुः महाग्रहश्च भावग्रहः ।। कुजः शानः बुधः शुक्लःगुरुः ग्रहाणां नामानि अष्टाशीतिः॥
॥ ३७०॥ . अर्थः-केतु १ क्षीरस १ अघ १ श्रवण १ राहु १ महाग्रह १ भावग्रह १ मंगल १ शनैश्चर १ बुध १ शुक्र १ वृहस्पति १ ऐनै ग्रहनिकै अठयासी नाम हैं ॥ ३७० ॥
भाग जंवृद्धीपवि भरतादिक्षेत्र वा कुलाचल पर्वत तिनकै तारा. निका विभाग दोय गाथानिकरि कई हैं
णउदिसयभजिदतारा सगदुगुणसलासमध्मत्था ॥ . . भरहादिविदेहोति य तारावासेयवस्सधरे.॥ ३७१ ॥ नयतिशतभक्तताराःस्वकद्विगुणद्विगुणशलासमभ्यस्ताः ॥ भरतादि विदेहांतं च ताराः वर्षे च वर्षधरे ।। ३७१ ॥
अर्थः- दोय चंद्रमासंबंधी तारे एकलाख तेतीस हजार नवसैपचास कोडाकोडी जवृद्धीपविपं पाईए है । १३३९। ५ । १५ इनकौं एकसौ निवका भाग दीजिए जो प्रमाण होइ ताकों भरतादिक्षेत्र वा कुलाचलनिकी एकतै दणी दणी शलाका विदेह पर्यंत हैं परै धांधी आधी । भरत क्षेत्रकी एक शलाका हिमवत पर्वत की दोय शलाका ऐसे दूणी दुणी किएं विदेहकी चीसठि शलाका तातै परे नीलादि विर्षे आधी जाननी । १।२ । ४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ । ३२ ॥ १.६ ।
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(७४)
८।४ । २ । १। तिनकरि गुणे गरमादिक्षेत्र वा हिमवत मादि कुलाचलनिविय तारानिका प्रमाण हो है ।। ३७१ ॥
आगें पाया हुवा अकनिकों कई हैंपंचदुत्तरसत्तसया कोडाकोडी य भम्हताराओ ॥ दुगुणाहु विदेहोत्ति य तेण पर दलिददलिदकमा ।। ३७२ ॥ पंचोत्तरसप्तशतकोटिकोट्यः च भरतताराः ॥ द्विगुणा हि विदेहांतं च तेन परं दलित दलितनमः ॥३७२।।
अर्थ:-सातसे पांच कोडाकोडी भरतविर्षे तारे हैं : नाते दृप दृणे विदेह पर्यंत हैं तहां पर आधे आध क्रमते हैं सोई कहिए हैं। भातक्षेत्रविर्षे सातस पांच कोडाकोडी ७०५ । १४ हिमवत . पर्वतविर्ष चौदहसै दश कोहाकोडी १४१ । १५ ईमवत क्षेत्रवि भट्टाईसस वीस कोडाकोडी २८२ । २० । १५ महाहिमवत पर्वतविर्ष उम्पनसें चालीस . कोडाफोडी ५६ । ५१५ हरिक्षेत्रवि ग्यारजार दोयसें.मरसी कोटाकोडी ११२८ । १५ निषध पर्वत विष वाईस हजार पांच से साठि कोडाकोडी २३५६ । १५ विदेह क्षेत्रवि पैंतालीस हजार एकसौवीस कोडाकोडी ४५१२१५ नील पर्वतविर्षे वाईस इनार पांचसे साठि कोडाकोडी २२५६ । १५ रम्यक क्षेत्रवि ग्यारह हजार दोयसै असी कोडाकोडी १२२८ । १५ रुक्म पर्वतविष छप्पन चालीस कोडाकोडी ५६४ । १५ हैरण्यवत क्षेत्रविर्षे अठ्ठाईस वीस कोडाकोडि २८२ । १५ शिखरी पर्वतविर्षे चौदसै दश कोडाकोडी १४१४१५ ऐरावत क्षेत्रविर्षे सातसे पांच कोडाकोडी ७०५ । १४ । तारे जानने ॥ ३७२ ॥ ___ आगें लवणादि पुष्कराध पर्यंत तिष्टते चंद्रसूर्य तिनका अंतराल
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(७५ )
सगरविदलविणा लवणादी सग दिवायरहिया ॥ मुरंतरं तु जगदी आसण्ण पहंतरं तु तस्सदलं ॥ ३७३ ।। स्वकरविदलवियोनं लवणादेः स्वकदिवाकरार्धाधिकं ॥ सूर्यातरं तु जगत्यासन्नपथांतरं तु तस्यदलम् ॥ ३७३ ॥
अर्थ-अपना अपना जहां जेते सूर्य हैं तहां तितनां सूर्यनिका प्रमाणते अर्घ प्रमाणकरि सूर्यके विवनिका प्रमाणको गुणिकरि जो प्रमाण होहताकौं लवणादिकका व्यासमैस्यों घटाइए जो प्रमाण रहै ताको स्वकीय सूर्यनिका प्रमाणते आषां प्रमाणका भाग दीजिए यों किए नेता प्रमाण आवै तितनां सूर्य सूर्यवि. अंतराल जाननां । वहुरि जगती कहिए वेदी तिह थकी " आसन्नपथांतरं " कहिए निकटवर्ती सूर्य विषका अंतराल सो तिहस्यों अर्ध प्रमाण जाननां । तहां उदाहरणलवण समुद्रवि सूर्य च्यारि हैं ताका अर्घ प्रमाण दोय तीह करि सूर्य विषका प्रमाण मठतालीसका इकसठिवां भाग ताकौं गुणे छिनवैका इकसठियां भाग होइ ९६ याको लवण समुद्रका व्यास दोय लाख योजन तामैं समच्छेद विधान करि घटाइए तब एक कोडि इकईस लाख निन्याणवे हजार नवसैच्यारिका इकसठिवां भाग प्रमाण होई १२१९९९०४ बहुरि एक तो सूर्यविर्षे अंतराल पर सूर्यते अभ्यंतर वेदिकाका भर द्वितीय सूर्यंत बाह्य वेदिका मिलि करि एक अंतराल ऐसे दोय अंतराल विर्षे इतनां १२१९९९०४ अंतराल होई तौ एक अंतराल विर्षे केता
अंतराल होई ऐसेंकरि ताकौं अपने सूर्यनिका प्रमाण च्यारि ताते आषा दोय ताका भागदीएं निन्याणवें हजार नवस निन्याणवै योजन अर एक योजनका एकमो चाईम भागविौं छन्त्रीस भागताका दोयकरि अपवर्तन
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किए तेरह इकसटियां भाग प्रमाण सूर्य सूर्यविषै अंतराल जानना | बहुरि वेदी निकट सूर्यत्रिका अंतराल ताँतै आधा जाननां । वहाँ विषमक कैसे आधा करिए तातै राशिमेंस्यों एक घटाइ ९९९९८ ताका आधा करिए तब गुणचास हजार नवसै निन्याणवै योनन भए । बहुरि अवशेष एककौं आघा स्थापि पूर्वोक्त अवशेष तरह इकसठियां
-
२
भाग थे ते राशिक अश थे तातें तिनका भी आधा स्थापिए १३ इन
६१।२
दोऊनिकों समच्छेद विधान करि मिलाइ दोड़कर अपवर्तन करिए तव सैंतीसका इकसठवां भाग प्रमाण अवशेष आया । ऐसें ही धातकी ६१ खण्ड कालोदक समुद्र पुष्करार्ध द्वीप तिनवि तिष्ठते सूर्य सूर्यनिके वीचि अंतरा अर वेदी सूर्यनिविषै अंतराल ल्यावनां ।
भावार्थ -- लवण समुद्रादिविषै च्यारि आदि सूर्य हैं तिन विषै एक-एक परिधिविषै दोय दोय सूर्य जाननें तहां लवण समुद्र विष अभ्यंतर वेदीतें गुणचासहजार नवसै निन्याण योजन अर सैतीस इकसठियाँ भाग परै जाइ परिधि है वहां सूर्यका विमान हैं । सो अठतालीस इकसठ भाग प्रमाण है । बहुरि तातें पर निन्यानवे हजार नवसै निन्यानवे योजन अर तेरह इकसठिवां भाग परेँ जाइ परिधि है तहां सूर्यविमान है सो अठतालीस इकसठिवां भाग प्रमाण हैं । बहुरि तातें परेँ गुणचास हजार नवसे निन्याणवै योजन भर सैंतीस इकसठवां भाग परेँ जाइ लवण समुद्रकी बाह्यवेदी है । ऐसें इनकौं मिलाएं दोय लाख योजन प्रमाण लवण समुद्रका व्यास हो है । याही प्रकार धातुकी खण्ड विषै च्यारि लाख योजन व्यास है । तामैं छह जायगा एक एक परिधिविषै दोय दोय सूर्य हैं । तिनि छौं परिधिनिके बीचि सूर्य सूर्यविपैं पाँचअंतराल है । तिनका प्रमाणः स्यावनी । बहुरि तिस प्रमाणतें आधा आधा
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( ७७ )
अभ्यंतर वेदी सूर्यविवै अर बाहा वेदी सूर्य:वर्षे अंतराल है सो ल्यावना । याही प्रकार कालोदक समुद्र पुष्कराध द्वीपविर्षे भी अंतरालका प्रमाण त्यावनां ॥ ३७३ ।। अव चार क्षेत्र कहे हैं
दो दो चंदरवि पडि एक्कक हादि चारखेत्तं तु ॥ पंचसय दससहियं रविविवाहियं च चारमही ॥ ३७४ ॥ द्वौ द्वौ चंदरवीप्रति एकैकं भवति चारक्षेत्रं तु ॥ पंचशतं दशसहितं रविविवाधिकम् च चारमही ॥ ३७४ ॥
अर्थ-दोय दोय चंद्रमा वा सूर्यप्रति एक चार क्षेत्र सो कितना है ! पांचसै दश योजन पर सूर्य चित्रका प्रमाणकरि अधिक है । भावार्थ-चंद्रमा वा सूर्यका गमन करका जु क्षेत्र गली सो चार क्षेत्र कहिए ताका व्यास पांचसै दश योजन अर योजनका अठतालीस इकसठिवां भाग प्रमाण है ५१० । १८ तिस च्यार क्षेत्र विर्षे गली निका प्रमाण आगे कहेंगे तहां जिस गलीवि एकचंद्रमाका सूर्य गमन करै तिसही गली विर्षे दुसरा गमन कर है। ताते दोय दोय चंद्रमा व सूर्यप्रति एक एक चार क्षेत्र है ।। ३७४ ॥ ___मागें तिन चंद्रमासूर्यनिका जो चार क्षेत्र ताका विभागका नियम
जंबुरविंदू दीवे चरंति सीदि सदं च अवसेस । लवणे चरति सेसा सगखेत्तेव य चरंति ॥ ३७५ ॥ जंबरविंदवः द्वीपे चरंति अशीति शतं च अवशेषम् ॥ लवणे चरति शेपाः स्वकस्वकक्षेत्रे एव च चरंति ॥३७५॥
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( ७८ )
अर्थ-जंबू द्वीप संबंधी सूर्य वा चंद्रमा तो एकसौ असी योजनतौ द्वीपवि विचरें हैं । अब शेष लवण समुदविर्ष विचर हैं। बहुरि अवशेष सूर्यचंद्रमा अपनां क्षत्रही विर्षे विचर है। भावार्थःचार क्षेत्रका जो व्यास कशा तामें जवृद्वीपसंबंधी चंद्रमासयनिका एक सौ असी १८० योजन तो जवृद्वीपविय र तीनसौ तीस योजन अर अठतालीस भाग लवण समुद्रविर्ष चार क्षेत्रका व्यास जाननां । अवशेष पुष्करापर्यंत द्वीप वा समुद्रसंबंधी चंद्रसूर्यनिका चार क्षेत्र अपना अपनां द्वीपवासमुद्रही विप॑ नाननां ।। ३७५ ॥
मागें सूर्यचंद्रनिके वीथी जो गली तिनका प्रमाण कह है:पडिदिवसमेकत्रीथिं चंदाइचा चरति हु कमेण ॥ चंदरस य पण्णरसा इणस्स चउसीदिसयवीथी ।। ३७६ ।। प्रतिदिवसं एकवीथि चंद्रादित्याः चरति हि क्रमेण ॥ चंद्रस्य च पंचदश इनस्य चतुरशीतिशतं वीथ्यः ॥३७६॥
अर्थ:-दोय दोय मिलिकरि एक एक दिन प्रति एक एक वीथीप्रति चंद्रमा वा सूर्य विचरै हैं क्रमकरि । तहां चंद्रमाकी पंद्रह वीयी बहुरि इन कहिए सूर्य ताकी एक सो चौरासी गली हैं ; भावार्थ-जो चार क्षेत्र कह्या तिहविर्षे चंद्रमाकी तो पंद्रहगली है, सूर्यकी एकसौ चौरासीगली हैं तहां एक एक दिन प्रति एकएक गलीविष दोय चंद्रमा वा दोयसूर्य गमन करें हैं ॥ ३७६ ॥ आग वीथीनिका अंतराल करि दिवसप्रति गति विशेषकों कहें हैं-- पथवासपिण्डहीणा चारक्खेत्ते णिरेयपथमजिदे ।। वीथीण विच्चालं सगविवजुदोदु दिवसगदी ॥ ३७७ ॥ पथव्यासपिण्डहीना चारक्षेत्रे निरेकपथभक्त ।। . वीथीनां विचालं स्ववियुतं तु दिवसगतिः ॥ ३७७ ॥
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( ७९ )
अर्थ :--- पथव्यास पिण्ड कहिए बिंबका व्यासकरि गुण्या हुवा वीथीनिका प्रमाण तीह करि हीन जो चार क्षेत्र ताकों एक घाटि वीथीनिका प्रमाणका भाग दिएं वीथीनिका अंतरालका प्रमाण हो है । बहुरि स्त्रीय विप्रमाण तामै जोडें दिवस गतिका प्रमाण है । तहां बिंबका व्यास योजनका अठतालीस इकसठियां भाग ४८ तीहकरि बीथी६१ निका प्रमाण एकसौ चौरासीकों गुणिएं तब अय्यासीसै बत्तीसका इकसठिवां भाग प्रमाण होइ ८८३२ याकौं समछेद विधानछरि चार क्षेत्रका ६१ प्रमाण विषै घटाइए तहां पांच से दसयोजन मेंस्यों समछेद किएं इकतीस हजार एकसौ दशका इकसठिवां भाग होय ३१११० यामें सूर्य बिंष
६१
४८
प्रमाण अधिक था सो जोडे इकतीस हजार एकसौ अट्ठावनका इक
--
६१
इकसठवां भाग
सठिवां भाग भया
३११५८,
६१
८८३२ घटाइएं तब बाईस हजार तीनसै छब्बीसका इकस
---
६१
२२३२६
11
'या विषै पथव्यास पिण्ड अय्यासीसौ वपत्तीका
ठिव भाग होय
याक एक घाटि वीथीनिका प्रमाण एकसौ
६१
तियासी ताका भाग दीजिए वहाँ पूर्व भागहार इकसठ तार्को एकसौ तियासी करि गुणि भाग दीजिये तब बाईस हजार तीनसे छब्बीसकों ग्यारह हजार एकसौ तेरसठिका भाग दीजिए इतना
भया
२२३२६
तहां भाग दिएं दोय योजन पाए, सो दोय योजन प्रमाण
१११६३
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(८
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वीधीके बीच अंतरान है बरि वामें स्वकीय विच जो जो सर्पवितका प्रमाण योजना अडतालीस इकसठियां भाग सो मिला एकमो मतरिका इकसठियां भाग प्रमाण दिन दिन प्रति गानक्षेत्रका प्रमाण हो है। . भावार्थ:--पूर्वोक्त चार क्षेत्रका व्यासविष एकसी पौरासी पन करने की गली है। नहां प्रथम गली आ दुमरी गली दिप दोय योजनका अंतराल है ऐसे ही दोय दोय योजनका एक अंतराल जानना । बहुरि प्रथम गलीकी आदीत द्वितीय गलीकी आदि पर्यंत अंगाल जाननां ऐसे ही दिन दिन प्रति तात दुसरे दिन तिस प्रथम गली योजनका एक सौ सत्तरीका इकाठिवा भाग परै जाइ दुसरी गलीवित - गमन करें हैं। ऐसे दिन २ प्रति पैर पर गमन क्षेत्रका प्रमाण जाननां । बहुरि ऐसे ही चंद्रमाका चार क्षेत्र इकतीस हजार एक सी अठ्ठापन
____३११५८ योजन इकसठियां भाग प्रमाणता पथ व्यास पिण्ट माटो
चालीसका इकसठिवा भाग तामें घटाइ एक घाट चौदह १४का भाग दिएं पैंतीस योजन र दोईस चौदहका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण तौ वीथी वीथी विर्षे अंतराल हो हैं । यामें चंद्रविका प्रमाण 'मिलाए छत्तीस योजन भर एकसौ गुण्यासीका चारिस सत्ताईसा भाग प्रमाण दिन दिन प्रति गमन क्षेत्रका प्रमाण जाननां ॥३७७ ॥
ऐसे ल्याया लो दिन प्रति गमन प्रमाण ताको आश्रय करि मेहते मार्ग मार्ग प्रति अंतराल अर तिन मार्गनिका परिधिको कई हैं
सुरगिरिचंदनवीणं मग्गं पडिअंतरं च परिहिं च ।। दिणादित्तप्परिहीण खेवादो साइए कमसो ॥ ३७८ ॥ . सुरगिरिचंद्ररवीणां मागं प्रत्यंतरं च परिधिः च ॥ दिनतिन परिधीनां क्षेपात साधयेत क्रमश: ॥ ३७८॥
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१ः अर्थ :- मेरुगिर अर चंद्रमा सूर्यनिका मार्ग इनके वीचि अंतराल, बहुरि तिन मार्गनिका परिधि सो स्पावनां । कैसें सो कहिए हैं - जंबू· द्वीपका व्यासका एक लाख योजन तामै जंबूद्वीप के अंतर्ते एकसौ अस्सी : योजन उरैं अभ्यंतर मार्ग हैं । तातें सम्मुख दोऊ पार्श्वनिका द्वीपसंबंधी चारक्षेत्र मिलाए तीन से साठियोजन भए सो घटाएं निन्यानवें हजार छसै चालीस योजन प्रमाण अभ्यंतर वीथीका सूचीव्यास हो है। इतनांही अभ्यंतर वीथीवि तिष्ठते सन्मुख दोऊ सूर्य तिनकै बीच अंतराल है । बहुरि तामें मेरुका व्यास दशहजार योजन घटाइ ८९६४० आधा करिए तत्र चवालीस हजार आठसैवीस योजन प्रमाण मेरुगिरि भर अभ्यंतर वीथी विषै तिष्ठता सूर्य वीचि अंतराल हो हैं ।
बहुरि यामें दिनगतिका प्रमाण दोय योजन पर मठतालीसका एकसठिवां भागप्रमाण मिलाएं चवालीसहजार भाठसें बावीस योजन भर मठतालीसका इकसठवां भाग प्रमाण दुसरी वीथी विषै दिनगतिका प्रमाण मिलाएं उत्तरोत्तर पथ व तिष्ठता सूर्य र मेरुगिरिकै बीचि अंतरालका प्रमाण हो है । वहरि अभ्यंतर चीथीका सूचीव्यास ९९६४० विषै दुणा दिन गतिका प्रमाण तीनि चालीसा इकसठवां भाग ताका पांच योजन अर पैंतीसका इकसठवां भाग मिलाएं निन्यानवे हजार छसे पैंतालीस योजन योजनका पैंतीस इकसठिवां भाग प्रमाण वीथीविषै तिष्ठते दोक सूर्य तिनकै वीचि अंतराल हो है। इतनाही दूसरी वीथी दिपैं तिष्ठने दोऊ सूर्य तिसके बीच अंतराल हो है । इतनांही दुसरी वीथीका सूची व्यास हो है । ऐसें अपना अभ्यंतरवर्ती पूर्वपूर्व व्यासविपैं तिष्ठते दोऊ सूर्यनिकै बीच अंतराल हो है । बहुरि -
" विक्खभवग्गदहगुणकारिणी वट्टस्तपरिरहो होदि "
इस कारण सूत्रकरि अभ्यंतर परिधिका ( सूची व्यास ९९६४० का परिधि अनाईये | तब तीन लाख पंद्रह हजार निवासी ३१५०८९
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योजन प्रमाण होइ बहुरि यामे यामें दूना दिन गतिका प्रमाण ३४० का परिधिका) प्रमाण विष्कम ३४० का वर्ग दश गुणा ११५६००० ६१ ६१/६१ ताका वर्गमूल १०७५ ल्याइ अपना भाग हारका भागदिए सतरह योजन भर योजनका अठतीस इकसठ भाग होइ सो मिलाए तीन लाख पंद्रह हजार एक सौ छह योजन अर याजनका अठतीस इकसठियां भांग प्रमाण ३१५१०६ । ३८ द्वितीय वीथीका परिधि हो है । ऐसे ही दृणा | ६१
गतिका परिधिका प्रमाण पूर्व पूर्व वीथीका परिधिविषै जोडे उत्तर उत्तर वीथीका परिधि हो है। इस प्रकार करि दिन गतिके मिलावनेते अर दूणा दिन गतिका परिधि मिलावनतें क्रमतें मेरुगिरि सूर्यके बीच अंतराल भर वीथीनिका परिधि साधिए हैं ।। ३७८ ॥
आगे ऐसे कहा जु परिधि तिहविषै भ्रमण करता सूर्य ताके दिन रात्रिको कारणपनें भर तिन दिन रात्रनिका प्रमाण मार्गनिकी अपेक्षा करि कहे हैं
सूरादोदिणरती अहारस वारसा मुहुत्ताणं ॥ अन्भन्तरम्हि एवं विचरीयं वाहिर म्हि हवे || ३७९ ॥ सूर्यात् दिनरात्री अष्टादश द्वादश मुहूर्तानाम् ॥ अभ्यन्तरे एतत् विपरीतम् बाह्ये भवेत् ।। ३७९ ॥
अर्थः - सूर्यर्तें दिन रात्र अठारह मुहूर्त प्रमाण अभ्यंतर परिधि - विष हो है । यहु ही विपरीत उलटा बाह्य परिधविषै हो है । भावार्थ:- जंबूद्वीपकी वेदीतें उरै एक्सौ अस्सी योजन जो अभ्यंतर परिधि है तिहविषे सूर्य भ्रमण करें तिह दिन अठारह मुहूर्तका तो दिन हो है । अर बारह मुहूतेकी रात्र हो है । बहुरि लवण समुद्रविषै सूर्य वि प्रमाण करि अधिक तीन दस योजन पर जो बाह्य रिति
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वर्षे सूर्य भ्रमण करै तिह दिन बारह मुहूर्तका दिन हो है । अठारह मुहूर्तकी रात्रि हो है ॥ ३७९ ॥
आज सूर्यका अवस्थिति स्वरूप भर दिन सनिविर्षे हानिचय
ककडमयरे सव्यमन्तरवाहिरपहहि ओहोदि ॥ मुहभूमीण विसेसे वीथीणंतरहिदेय य चयं ॥ ३८० ॥ कर्कटमकरे सर्वाभ्यन्तर बाह्य पथस्थितो भवति । मुखभूम्योः विशेषे वीथीनामान्तरहिते च चयः ॥३८०॥
अर्थः-कट गरमकरविर्षे सर्व अभ्यन्तर वाह्यपथविर्षे तिष्ठतो सूर्य है । भावार्थ-राशिविर्षे सूर्य प्राप्त होई तब अभ्यतर वीथी विर्षे भ्रमण करें हैं। बहुरि मकरगशीविर्षे सूर्य प्राप्त होय तब वाह्य वीथी विर्षे भ्रमण कर है । बहुरि तिस राशिकी समाप्ततापर्यंत दिनरात्रीका प्रमाण तितनाही रहै हैं कि विशेष है । तहां कहिए हैं दिन दिन प्रति हानिचय हैं । कैसे? मुखतो बारह मुहूर्तक. दिन भर भूमि अठारह मुहूर्तका दिन तहां विशेषे कहिए भूमिमैंस्यौं मुख घटाएं अवशेष छह रहे इनको वीथी एकसौ चौरासी तिनकै वीचि अन्तराल एक्सौ तियासी सो इतनै दिननिविर्षे जो छह मुहूर्त होई तो एक अंतराल वि कितना मुहर्त होइ । ऐसे किएं छहका तीनसौ तिया सिर्वा भाग हो है। तहां तीन कर अपवर्तन कीए दोय मुहूर्तका इकसठिवां भाग प्रमाण दिन दिन प्रतिकानि चय होय है। ___ भावार्थ:- अभ्यन्तर वीथी विषै सूर्य जिह दिन भ्रमण करै तिह दिन अठारह मुहूर्तका दिन हो है । बहुरि तातै परें दूसरी वीथी विर्षे जिह दिन प्रमाण धेरै तिह दिन अठारह मुहूर्तमस्यों दोय मुहूर्तका इकसठिवां माग घटाइए इतने प्रमाण दिन हो है। ऐसेही दिन दिन प्रति घटना घटता वादावि सूर्य प्रमै विह दिन चारह मुहूर्तका दिन
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हो है । बहुरि तिसतें उरै मार्गविषै सूर्य मैं तिह दिन बारह मुहूर्तविपैं दोई मुहूर्तका इकसठवां भाग मिलाइए इतना दिन हो है । ऐसें हानि च जाननां । बहुरि तिस मुहूर्तका अहोरात्र है तामै जितने प्रमाण दिन होय सो घटाएं अवशेष तहां रात्रिका प्रमाण जाननां ॥ ३८० ॥
ऐसें कहे जु दिन रात्रि तिनविधै तौ ताप भर तमको वर्तमान काल है | दिनविपैं तौ ताप कहिए तावडा व है रात्रिवि तुमक कहिए अंधकार वर्ते है । तातैं तम तापका क्षेत्र प्रमाण निरूपण करत संता आचार्य श्रवण माह मासादिक निकै दक्षिणायन उत्तरायणको निरूप है
सावणमाघे सव्वमन्तरवाहिर पहहिहो होदि || सूरद्वयमासस्स य तावतमा सव्वपरिहीसु || ३८१ ॥ श्रावणमाघे सर्वाभ्यंतर बाह्यपथस्थितो भवति || सूर्य स्थितमासस्य च तापतमसी सर्वपरिधीषु ॥ ३८१ ॥
"
अर्थ:- श्रावण मासविखैतौ सूर्य अभ्यन्तर मार्ग विषै तिष्ठे है । माघमास - विषै सूर्य सर्व तैं बाह्यमार्गविपैं तिष्ठे है । तिस सूर्य तिष्ठनेको जुमा तिन विषै ताप भर तमके वर्तनेका प्रमाण सर्व परिधिनिविषै स्यानां । तहा छह महिनांके एकसौतियांसी दिन होय तौ श्रावण आदि एक- आदिक महिनाके केते दिन होइ । ऐसें कीएं श्रावण भएं 1 साढातीस, भादवा भए एकसठ असोज भए सादा इक्याणवै कार्तिक मए एक सौ बाईस मार्गशीर्ष भए एकसौ साढानावन पौष भए एकसौ तिवासी दिन हो हैं सो एतौ दक्षिणायन के दिन है । बहुरि माघ भए इकसठ चैत्र भएं साढाइक्यानवे, वैशाख भए एकसौ बाईस ज्येष्ठ भएं एकसौ साढाबावन, आषाढ भए एक सौ तिवासी ए उत्तरायणके दिन हैं ।। ३८१ ॥
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माग सर्व परिधिनि वि तापतमके माणल्यावका विधान कहे
गिरिमतरमज्झिमबाहिरजलछहभागपरिहिं तु ।। साहिरिदेपुरठियमुहत्तगुणिदे दु तावतमा ॥ ३८२ ॥ गिर्यभ्यंतरमध्यमबाबजलपष्ठभागपरिधि तु ।। पष्ठिहिते मूर्यस्थितमुहुर्तगुणितं तु तापतमसी॥ ३८२ ॥
अर्थ:- महगिर पर सभ्यंतर बोथी अर जल वि लवण समुद्राका व्यासका हा भाग पर जो जो परिधिका प्रमाण होई ताको साठिका माग दीजिए अर सूर्य जिस मास विपं तिट तिस मास विर्षे जो दिन रात्रिका मुहूर्ननिका प्रमाण तीहकरि गुणिर तब ए तब तोहगास विर्षे जो दिन रात्रिका प्रमाण तीहकरि गुणिय नय तीह मास विर्षे तापतमका विषयभूतक्षेत्रका प्रमाण आवे है। ___ तहाँ मेरुगिरिका व्यास तो दस हजार योजन है । बहुरि जंबुद्वीप का व्यास १००००० वि दीपका चार क्षेत्र १८० को दोऊ पार्धनिका ग्रहणके गर्थि दुणांकरि ३६० घटाइए तब अभ्यनर वीथीका मूची व्यास निन्याणये हजार छसे चालीस योजन हो है ९९६४० बहुरि नार क्षेत्रका प्रमाण ५१० को आषाकरि २५५ या में द्वीपसंबंधी चार क्षेत्र १८० घटाइ अवशेष ७५ को दोऊ पार्श्वनिका ग्रहणके भर्थि दणा १५० करि जेबूद्वीपका व्याप्त १००००० विर्षे मिलाएं एक लाख एकसौ पचास योजन प्रमाण मध्यम वीथीका सूची व्यास
बहुरि लवण समुद्र संबंधी चार क्षेत्र ३३० को दोऊ पार्बनिका ग्रहणक अर्थि दुणा ६६० करि जंबू द्वीपका व्यास १००००० विर्षे मिलाएं एक लाख छसै साठि योजन प्रमाण वाह्य वीथीका सूची व्यास होई बहुरि लवण समुद्रका व्यास २००.०० को छहका भाग देह
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रब्धराशि ३३३३३.२ को दोऊ पार्श्वनिकों ग्रहणके अर्थिदणा करि ६६६६६४ जंबूद्वीपके व्यास १००००० वि मिलाए एक लाख छासठि हजार छसै छासठि योजन पर अपवर्तन किए दोयका तीसरा भाग प्रमाण जल षष्ठ भागका व्यास हो है। ..
अब इस पांचौं व्यासनिकों-'विखं भवागदहगुणकारिणीवट्टस परिहियं होदि " इस करणसूत्रकरि परिधि का प्रमाण ल्याइये तब मेरुगिरिका परिघि इकतीस हजार छसे वाईस योजन ३१६२२ अभ्यंतर वीथीका परिधि तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन, मध्यम वीथीका परिधि तीन लाख सोलह हजार सातसे योनन, बाह्य वीथीका परिधि तीन लाख अठारह हजार तीनस चौदह योजन, जल षष्ठ भागका परिषि । पांच लाख सत्ताईस हजार छियालीस योजन प्रमाण है. ऐसे परिधिका प्रमाण ल्याइ इन परिधिनिवि जो विवक्षित परिधि होइ ताको साठिका भाग दिएं पांचसै सत्ताईस योजन पर एकका तीसवां भाग प्रमाण हो ।
बहुरि जिस मास विर्षे सूर्य तिष्ठ तिस मास संबंधी दिन रात्रिके मुहर्तनिका अठारहसौं लगाय बारहपर्यंत प्रमाण १८ । १७ । १६ । - १५ । १४ । १३ । १२ तिहकर गुणिर । जैसे पूर्वोक्त प्रमाण
५२७२ को अठारह करि गुणें चौराणवैसै छियासी योजन अर अठारहका तीसवां भागौं छहकरि अपवर्तन किए तिनका पांचवा भाग प्रमाण होह ९४८६ ऐसे किए जो जो प्रमाण आवै सो नाप तमका विषयभूत क्षेत्र जाननां ।
भावार्थ - मेरुगिरिका परिधि इकतीस हजार छसै वाईस योजन है ३१६२२ तीइदि३ श्रावण मासिविर्षे जहां मंठारह मुहकी रात्रि
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हो है वहां चौराणवस छियासी योजन भर योजनका तीन पांचवां भाग व तो एक सूर्यके निमित तावडा है । अर तिनके वीचि अंतशतविषै तरेसठ तेईस योजन पर दोयका पंचम भागविखें अंधकार है, भर ताके सन्मुख दूपरा अंतगलविपैं इतनाही अन्धकार है, अताके सन्मुख दुमरा अंतराल इतनाही अंधकार है इन सबनिको जोड़े ९४८३ १६ ॥ ६३६४ ।। ९४८६ | ॥ ६३२४ ॥ ६ ॥ इकतीस हजार छसे ब.वीस योजन प्रमाण परिधि हो है । ऐसेंही अन्य
परिधिनिवि जाननां ।
܀
साठिका भागा देइ एक मुहूर्त करि
बहुरि विक्षिन पर गुण जो प्रमाण निना मासप्रति तापतमका घटती चपती क्षेत्रका प्रमाणरून हानिचय जाननां तहां विवक्षिन मेरुगिरिका परिधिकों साठिका भाग देह एक मुहूर्त करि गुर्णे पांच सत्ताइस योजन पर एकका तीसवां भाग प्रमाण हानिचय होइ । एक मुहूर्त रात्रिदिन कैसे घटे वधै सो कहिए है | एक दिनवि दोय एकसटिवां भाग प्रमाण हानिचय होय तो सादा तीस दिनविप कितना हानिचय होइ ऐसें करतें अपवर्तनर्किए एक मुहूर्त एक मासविष आव हैं । बहुरि साठि मुहूर्त विषै सर्व परिधि प्रमाणविषं गमन कर तो एक मुहूर्तविषै कितना क्षेत्रविपैं गमन करें ऐसे परिधिका साठियां भाग प्रमाण एकमुहूर्तविषै गमन क्षेत्रका
मात्रार्थी - मेरुगिरिका परिधि इकतीस हजार छसे बाईस योजन दिन है ३१६२२ तीहविषे श्रावणमासविषै नहीं अठारह मुहूर्तका बारह मुहूर्त की रात्रि दो ढं तहां चौराणवैसे छियासी योजन पर योजनका तीन पांचवां भागविषै सौ एक सूर्य के निमित लावडा पाहर हैं । अर ताके सन्मुख इतनाहीं दूसरे सूर्यके निमित तावड़ा है। भर तिनके वीचि अंतराल विषै तरेसठस तेईस योजन भर दोषका पंचम भागविषै अंधकार है, पर ताके सम्मुख
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दूसरा अंतग़ल विषै इतनाहीं अंधकार हैं इन सबनिको जोड़े
३
९४८३ | - ॥। ६३२४ | ÷ ॥ ९४८६ ।
।
॥
॥ ૬૨૨૨ | ન ||
इकतीस हजार बाईस योजन प्रमाण परिधि हो । ऐमें ही अन्य परिविनिविएँ जाननां । बहुरि विवक्षित परिधिकों साठिका भाग देह एक मुहूर्त करि गुण जो प्रमाण जावें तितना मास प्रति ताप तमका घटती वती क्षेत्रका प्रमाणरूप हानिचय जाननां तहां fast ofगरिका परिधिकों साठिका भाग देह एक मुहूर्त करि गुण पांच सत्ताईस योजन भर एकका तीसवां भाग प्रमाण हानिचय होइ । एक मासविष एक मुहूर्त रात्रिदिन से सो कहिए हैं । एक दिनविषै दोय इकसठवां भाग प्रमाण हानिचय होय तो सादा तीस दिनविषै हानिचय होइ ऐसें करतें अपवर्तन किएं एक मुहूर्त एक मासविएँ आवहै ।
बहुरि साठि मुहूर्त वर्षे सर्व परिधि प्रमाण विषै गमन करें तो एक मुहूर्तविषै कितनां क्षेत्रविषै गमन करे ऐसें परिधिका साठवां भाग प्रमाण एक मुहूर्त गमन क्षेत्रका प्रमाण अ वैरै ।
भावार्थ:- मेरु गिरिका परिधिविपैं श्रावणमासतें माद्रवमासविषे पांचसै सताईस योजन अर एकका तीसवां भाग प्रमाण तापक्षेत्र घटतां है तम क्षेत्र बघता पाए है। तहां एक सूर्यसंबंधी तापक्षेत्र निवासी सें गुणसठि योजन पर सतरह तीसवां भाग पर इतनाही दूसरा सूर्य संबधी | बहुरि एक अंतराल विषै तम क्षेत्र अहपठिसें इक्यावन योजन पर ग्यारह सतरह वो भाग भर इतनांही दूसरा अंतरालविषै ऐसें सर्व मिलि मेरुगिरिका परिधित्रमाण हो है । ऐसेंडी पूस मास पर्यंत दक्षिणायन विषै तौ मास मास पर्यंत पांच सताईस योजन भर एकका तीसवां भाग प्रमाण आता क्षेत्र तौ घटना घटता भर तम क्षेत्र बघता जाननां ।
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बहुरि माघ फाल्गुनादिक आषाढ पर्यंत उत्तरायण विर्षे मास मास पर्यंत तितनाही ताप क्षेत्र बघता बघता अर तम क्षेत्र घटता घटता जानना । ऐसे ही सर्व परिधिनि विर्षे तापतम क्षेत्रका प्रमाण विवक्षित मास वि ल्यावनां । बहुरि इहां पांच परिधि विष मास मासनिकी अपेक्षा वर्णन किया है इस ही प्रकार विवक्षित क्षेत्र का परिविवि विवक्षिन दिन अपेक्षा तार तम क्षेत्रका प्रमाण त्यांवना । बहुरि इहां जंबूद्वीप संबंधी सर्यनिका लवण पमुद्रके व्यासका छठा भाग पर्यंत प्रकास है तीत तहां पर्यंत ग्रहण किया है । बहुरि जिस क्षेत्र विर्षे ताप है तहाँ दिन जानना जहां तम है तहां रात्रि जाननी ॥ ३८२ ॥
आग ऐसे ल्याया जु ताप तमका क्षेत्र ताका प्रवर्ततको हैं हैंपरिहिम्हि जम्हि चिहिदि सूरो तस्मैव तापमाणदलं ।। विध पुरदो पसप्पदि पच्छामागे य सेसद्ध । ३८३ ॥ परिधौ यस्मिन् तिष्ठति सर्यः तस्यैव तापमानदलम् ॥
विचपुरतः प्रसर्पति पश्चाद्धागे च शेपार्धम् ॥ ३८३ ॥ · अर्थ:-जिस परिधिविर्षे सूर्य तिष्ठ हैं तिस परिधिहीका तापका जो प्रमाण ताका आधा तो सूर्यके विवत भाग फलें है, अव शेष आधा पीछे फैले है।
भावार्थ:-परिधिविर्षे जो तापका प्रमाण वह्या तिह विष जहां सूर्यका विच पाइप तिड क्षेत्रकै आगै तिस प्रमाणते आधा ताए फैले है, पर बाधा पीछे फैले है ।
इहां प्रश्न-जो मेरुगिरिकी परिधीने आदि देकरि जिन परिधि. निवि सूर्यका गमन नाहीं तहां ताप कैसे फैलै है ? ताका समाधानसूर्य वियते सूधासन्मुख जो तिस विवक्षित परिधिवि. क्षेत्र तात आण वी आधा ताप फैले है । बहुरि ऐसा जानना जैसैं चिराक भाग
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पीछे प्रकाश हो है । बहुरि जैसे जैसे चिराक मागाने चाल तसे तैस
आगाने तो प्रकाश होता जाय पोछते अंधकार होता भावे तैसें ही सूर्य विन जैसे जैसे आगे चले तैसे तैसें भाग ताप फैलता जाय पीछे पछै तम होता आवै है ॥ ३८३ ।।
अब ताप तमकी हानि वृद्धिको कहै हैंपणपरिधीयो भजिदे दसगुण सूरंतरेण जल्लद्धं ॥ .. साहोदि हाणिवढी दिवसे दिवसे च तावतमे ।। ३८४ ।। पंच परिधिपु भक्तेपु दशगुण सूर्यातरेण यल्लब्धं ॥
सा भवति हानिवृद्धिर्दिवसे दिवसे च तापतमसा ॥३८॥
अर्थः-पांचो परिधिवि दशगुणां सूर्य के अंतरालनिका भांग दिए जो लब्धिराशि होइ सो दिन दिन वि तापतमकी हानि वृद्धीका प्रमाण जाननां । तहां पंच परिधिनिवि विवक्षिन मेरुगिरि परिधि तहां साठि मुहूर्त निविर्षे इकतीस हजार छहसै वाईस योजन प्रमाण क्षेत्रवि गमन करै तौ दोय मुहूर्तका इकस ठित्री भागमात्र दिनका वृद्धिहानिका जो प्रमाण तामैं कितनां गमन करे ऐसे तिस परिधिप्रमाणकौं साठिका भाग दिएं दोयका इकसठि भाग करि गुणे दोय करि अपवर्तन किएं सत्रह योजन अर पांच सौ बाराका अठारहसै तीसवां भाग प्रमाण भावै सोई सूर्यके गमन मार्गनिका अंतराल एकसौ तियासी ताकौं दसगुणां किएं अठारहसै तीस ताका भाग विवक्षित मेरुगिरिक परिधि प्रमाणकौं दीए प्रमाण आवै तातें ऐसा विचार आचार्यनै ऐसा कह्या कि विवक्षित परिधिकौं दशगुणां सूर्योतरालका भाग दिएं ताप तमका वृद्धिहानिका प्रमाण मावै है । ऐसें सतरह योजन अर पांचसै बारहका योजन अर पांचसै बारहका अठारहसे तीसवां भाग प्रमाण दिन दिन प्रति उत्तरायण विर्षे ताप वधै है तम घटे है, दक्षिणायन वि. तम व
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है ताप घंटे है । याही प्रकार अन्य परिधिनिविषै दिन दिन प्रति ताप तमका घटनां चधनां ल्यावनां ॥ ३८४ ॥
आगे पांचौ परिधिनिके सिद्ध भए अंकनिकौं दोय गाथानिकरि कहै हैं
चावीस सोल तिष्णिय उणण उदीपण्णमेकतीसं च ॥ दुखसत्तद्विगितीसं चोद्दस तेसीदि इगितीसं ॥ ३८५ ॥ द्वाविंशतिः पोडश त्रीणि एकोननवतिपंचाशदेकत्रिंशच्च ॥ द्विख सप्तषष्ठये कत्रिंशत् चतुर्दशव्यशीतिरेकत्रिंशत् ॥ ३८५|| अर्थ:-- वाईस सोला तीन ३ १६२२ इन अंक क्रम करि इकतीस हजार छसै वाईस योजन प्रमाण मेरुगिरिका परिधि है बहुरि निवासी पचास इकतीस ३१५०८९ इन अंक क्रमकरि तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन प्रमाण अभ्यंतर वीथीका परिधि है । बहुरि दोय बिंदी सदसठि इकतीस ३१६७०२ इन अंक क्रमकरि तीन लाख सोलह हजार सातसे दोय योजन प्रमाण मध्य वीथीका परिधि है । बहुरि चौदह तियासी इकतीस ३१८३१४ इन अंक क्रमणरि तीन लाख अठारह हजार तीनसौ चौदह योजन चाह्य वीथीका परिधि है ।। ३८५ ॥
छादालसुण्णसत्तयचावण्ण होंति मेरुपहुदीण ॥ पंचन्ह परिधीओ कमेण अंककमेणेव || ३८६ ॥ पट्चत्वारिंशच्छ्न्य सप्तकद्विपंचाशत् भवंति मेरुप्रभृतीनां ॥ पंचानां परिधयः क्रमेण अकक्रमेणैव ॥ ३८६ ॥
अर्थः- छियालीस सून्य सात वाचन ५२७०४६ इन अंक क्रमकरि पांच लाख सत्ताईस हजार छियालीस योजन प्रमाण जल पृष्ठभागका परिधि है । ऐसें भेरु आडि नै पंचनिका परिधि सो क्रमकरि कनिका अनुकमकरि जानना ॥ ३८६ ॥
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आगे जिनका प्रमाण समान नाहीं ऐसी जु अभ्यन्तरादि परिधि तिनकौं समान कालकरि कैसे समाप्त करें हैं सो कई हैं
णीयंता सिग्धगदी पविसंता रविससी दु मन्दगदी । विसमाणि परिरयाणि दु साहति पमाणकालन ।। ३८६ ॥ निर्यातौं शीघ्रगती प्रविशतो रविशशिनौ तु मंदगती ॥ विषमान परिधीस्तु साधयतः समानकालेन ॥ ३८७ ॥
अर्थ-सूर्य अर चंद्रमा ए निकसते हुए ज्यों ज्यों अगली परिधिकौं प्राप्त हुए त्यो त्यों शीघ्र गमनरूप हो हैं उतावले चले है । बहुरि पैसते हुए ज्यौं ज्यौं माहिली परिधिनिकों प्राप्त होइ त्यो त्यो मंद गमनरूप हो है धीरे चले हैं । ऐसे होइ समानकालकरि विपम प्रमाणको लिएं जू अभ्यंतरादि परिधि तिनको समाप्त करें हैं गमनकरि साधे हैं ॥३८॥ भाग तिन सूर्य चंद्रमानिका गभन विधान दृष्टांत मुखकार कहे हैं
गय हय केसरि गमणं पढमे ममंतिम य सूरस्स ॥ .. पडिपरिहिं रविससिणो मुहत्तगदिखेत्तमाणिज्जो ॥३८८॥ गजहरिकेसरि गमनं प्रथमे मध्ये अंतिमे च सूर्यस्य ।। प्रतिपरिधि रविशशिनोः मुहूर्तगतिक्षेत्रमानेयम् ॥ ३८८ ॥
अर्थ-गज घोटक केशरी गमन प्रथम मध्य अंतविर्षे सूर्य चंद्रमाके होहै । भावार्थ-सूर्य चंद्रभा अभ्यंतर परिधिविर्षे हस्तीवत् मंद गमन करें हैं, बहुरि मध्य परिधिविर्षे घोटकवत् 'तातें शीघ्र करें हैं । वहरि बाह्य परिधिवि. सिंहवत अति शीघ्र गमन करै है। - बहुरि अब सूर्य चंद्रमानिके परिघि परिधि प्रति एक मुहर्तविष गमनका प्रमाण ल्यावनां । कैसे सो.कहिए हैं-तहां सूर्यका परिधिविर्षे भ्रमणकी समाप्तताकी काल साठि मुहूर्त है। बहुरि अभ्यन्तर परिपिका प्रमाण तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन है सो सूर्यके साठ मही
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निका गमन क्षेत्र तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन हो तो एक मुहूर्तका कितना होइ । ऐसें परिधि प्रमाणकौं साठिका भाग दिएं पांच हजार दोयसौ इकावन भोजन अर गुणतीसका साठिवां भाग मात्र सूर्यका अभ्यंतर परिधिविर्षे एक मुहूर्त करि गमन क्षेत्रका प्रमाण होहै। ऐसे ही अन्य विवक्षित परिधिके प्रमाणकों साठिका भाग दिए सूर्यका विवक्षित परिधिविौं एक मुहूर्त करि गमन क्षेत्रका प्रमाण साधनां । वहुरि ऐसेही चंद्रमाका भी त्रैराशिक विधानकरि त्यावनां । तहां चंद्रमांका परिधिविष भ्रमणकी समाप्त ताका काल बासठि मुहूर्त अर तेईसका दोयसै इकईसवां भाग प्रमाण ६२।२३
२२१ याका विधान आगै "अहीसत्तरस" इत्यादि सूत्रकरि कहेंगे ॥ याको समच्छेदकरि मिलाएं तेरह हजार सातसै पच्चीसका दोयसै इकईसवां भाग मात्र भया सो इतने कालविर्षे मभ्यंतर परिधिका प्रमाण तीन लाख पंद्रह हनार निकासी योजनप्रमाण गमन क्षेत्र होइ तौ,एक मुहूर्तविय कितना होइ । प्रमाण १३७२५ फल ३१५०८९ इच्छा मु १ ऐसें करि लब्धि
२२१ राशि पांचहनार तहत्तरि योजन भर सात हजार सातसै चवालीसका तेरह हजार सातसै पच्चीसवां भाग मात्र ५०७३ । ७७४४ चंद्रभाका
१३७२५ अभ्यंतर परिधिवि● एक मुहुर्तका गमन क्षेत्रका प्रमाण आया । ऐसे ही अन्य विवक्षित परिधिक प्रमाणको बासठि , अर तेईसका दोयसै इकईसवां भागका भाग दिएं विवक्षित परिधिपि एक मुहतका गमन क्षेत्रका प्रमाण मावै है ।। ३८८ ॥
आणे अभ्यंतर वीथीवि तिष्ठता जु सूर्य ताका चक्षुःस्पर्शाध्वान जो दृष्टि वि भावनेका मार्ग लाको तीन गाथानिकरि मनावै है
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( ९४ )
सहिहिदपदमपरिहिं णवगुणिदे चक्खुफा सअद्वाणं || तेणूणं णिसहाचलचावद्धं जपमाणमिणं ॥ ३८९ ॥ पष्टिहित प्रथमपरिधौ नवगुणिते चक्षुःस्पर्शाचा ॥ तेनोनं निपधाचलचापार्धे यत् प्रमाणमिदम् || ३८९ ॥
अर्थः-- प्रनम परिधिका प्रभाणको साठिका भाग देह नवकरि गुणिए इतनां चक्षुस्पर्शमध्वान है। तहां साठि मुहूर्तनिका प्रथम परिधि तीन लाख पंद्रह हजार निवासी योजन प्रमाण गमन क्षेत्र होइ तौ नव मुहूर्तनिका कितना गमन क्षेत्र होइ ऐसें प्रथम परिधिकों साठिका भाग ही नवका गुणाकार भया । इनकी तीन करि अपवर्तन किए वीसका भागहार तीनका गुणाकार हो है । तहां प्रथम परिधिक ३१५०८९ वीसका भाग देइ ३१५०८९ तीनकरि गुणिए
२०
९४५२६७ तब अधराशि सैंतालीस हजार दोयसैतरे सठि योजन भर सातका वीसवां भाग मात्र चक्षुस्पर्शाध्वान हो है ।
भावार्थ:- अयोध्या नाम नगरकावासी महंत पुरुषनिकरि उत्कृष्टपने सैंतालीस हजार दोयसै तरेसठि योनन अर सातका बीसवाँ भाग मात्र क्षेत्रका अंतराल होतें सूर्य देखिए हैं इतना ही चक्षु इंद्रीका उत्कृष्ट विषय हैं याहीका नाम चक्षुस्पर्शाध्वान है ।
बहुरि इहां अठारह मुहूर्तका जु दिन ताका आधा भएं मध्यान्हविषै सुर्य अयोध्याकी बरोबरी आवे भर इहां उदय होता सूर्यका ग्रहण है तातें नवका गुणकार किया है । पर परिधिविषै भ्रमणकाल साठि मुहूर्त है तातें साठिका भागहार किया है ।
बहुरि निषेध नामा कुलाचल ताका चापका प्रमाण एक लाख तेईस - हजार सातसै अडसठि योजन अर अठारह उगणीसवां भाग ताका आधा इकसठ हजार आठसै चौरासी योजन पर नवका उगणीसवां
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( ९५ )
भाग तामैं पूर्वोक्त चक्षुःस्पर्शाध्वाका प्रमाण ४७२६३ घटाइए अव शेष जो प्रमाण रहै ॥ ३८९ ॥
सो गाथा हें हैं:
इगिवीस छदालयसं साहिय मागम्म णिसहउचरिमिणो || दिस्सदि अउज्झमझे ते णूणो णिसहपासभुजो || ३९० ॥ एकविंशतिपट्चत्वारिंशच्छतं साधिकं आगत्य निषधोपरि इनः eted अयोध्यामध्ये ते नोनः निपधपार्श्वभुजः ॥ ३९० ॥
अर्थ : - इक्वीस एकसौ छियालीस अंक क्रमकरि चौदह हजार छसे इकइस तौ योजन भर साधिक कहिए किछू अधिक कितनां चक्षुस्पर्शध्वानका अवशेष सातका विसवां भागको निषेध चापका अव शेष नवा उगणीसवां भागविषै समछेद विधानकरि १३३१८० घटाएं २००३८०
तालीका तीन सवां भाग ४७ मात्र अधिक जाननां । सो निषध ३८०
कुलाचल के ऊपर इतने १४६२१ । ४७ उ आइ करि सूर्य है सो
३८०
अयोध्या के मध्य मत पुरुषनिकरि देखिए हैं ।
भावार्थ. प्रथम वीथी विषै भ्रमण करता सूर्य सो निषेध कुलाचलका उत्तर तटतैं चौदह हजार छसे इकईस योजन अर सैंतालीस तोनसे अस्सीवां भाग उर आवै तत्र भरत क्षेत्रविषै उदय हो है । अयोध्यांके वासी महंत पुरुषनिकरि देखिए हैं । बहुरि निषधकी पार्श्वभुजा वीस हजार एकसै छिनवै योजन प्रमाण तामैं निषध उ आइ सूर्य देखनेका जो प्रमाण कला १४६२१ । ४७ ताकौं घटाइएं ॥ ३९० ॥
३८०
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( ९६ )
ܪ
आगे कहिए हैं सो हैं :
णिसहुवरिं गंतव्वं पणसगवण्णास पंचदेसूणा ॥ - तेत्तियमेत्तं गत्ता सिहे अत्थं च जादि रवी ॥ ३९१ ॥ निपधोपरि गंतव्यं पंचसप्तपंचाशत् पंचदेशोना || तावन्मात्रं गत्वा निपधे अस्तं च याति रविः ॥ ३९१ ॥
अर्थ :- निषध के ऊपर जानां पांच सत्तावन पांच इन अंक क्रमकरि पांच हजार पांच से पिचहत्तर योजन देशोन कहिए किछुघाटि इतना निषध पर्वत ऊपर नाइ सूर्य अस्तपनेकों प्राप्त होई ।
भावार्थ: परिधिविषं भ्रमण करतां सूर्य जब निपधपर्वतकः दक्षिण तटतैं पैरै किघाटि पचावनसै पिचहतरी योजन जाई तब अस्त हो है । अयोध्यादिक भरत क्षेत्र के वासिनी करि न देखिए ॥ ३९९ ॥
अव जाका प्रयोजन तिस चापके ल्यावनेकों तिसके बाण ल्यावका विधान कहें हैं, चापादिकका वर्णन तो आगे होइगा इहां प्रयोज - नंमृत वर्णन करिए हैं
—
- जंबूचारघरूणो हरिवस्ससरो य णिसहवाणो य ॥
इह वाणावहं पुण अभंतरवीहि वित्थारो ॥ ३९२ ॥ जंबूचारधरोनः हरिवर्षशरः च निपधत्राणश्च ॥ इह वाणवृत्तं पुनः अभ्यंतर वीथी विस्तारः ॥ ३९२ ॥
अर्थः- धनुषाकार क्षेत्र विषै जैसे धनुषका पीठ हो है तैसें जो : होइ ताका नाम धनुष है वा ताका नाम चाप भी है । बहुरि जैसे धनु- पकै हो है तैसें जो होइ ताका नाम जीवा है । बहुरि जैसें तिस धनुषका मध्यत जीवाका मध्य पर्यंत तीरका क्षेत्र हो है तैसे जो होई ताका नाम बाण है । सो इहां जबूद्वीपकी पेदी अर हरि क्षेत्र वा निषेध पर्वतके बीचि जो क्षेत्र सो धनुषाकार क्षेत्र हो है । तहां हरि क्षेत्र वा निषध
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।९७)
इसकतण गरिव
पर्वत लगाय वेदी पर्यंत अंतराल क्षेत्र सो वाण कहिए वेदी ताका प्रमाण ल्याइए हैं तहां भरत क्षत्रकी एक शलाका हिमवन पर्वतकी दोय इत्यादि विदेह पर्यंत दुणी दूणी पीछे आधी २ शलाका जो. सर्व जंबूद्वीपविर्षे एकसौ निवै शलाका कहिए विसवा हो हैं।
वहां भरतक्षेत्रतें लगाय हरिवर्ष पर्यंत जोड इकतीस शलाका होहैं । कैसे ?- " अंतषणं गुण गुणियं आदि विहीणं रूऊणुतर भजियं । " इस सूत्रकरि अंतवि हरिवषकी शलाका सोलह ताकौं भरतादिकतै दोयका गुणार है । तातै गुणकार दोय कर गुणे बत्तीस तामैं आदि भरत क्षेत्रकी शलाका एकसौ घटाएं इकतीस, याकौं एक धाटि गुणकार एक ताका भाग दीएं भी, ऐसे हरि वर्ष शलाका इकतीस है । बहुरि याही प्रकार निषधशलाका तेरसठि होहै । वहुरि एकसौ निवै शलाकानिका एक लाख योजन क्षेत्र होइ तौ इकतीस बा तेरसठि शलाकानिका केता होइ ऐसे किए हरि वर्षका बाण तो तीन लाख दश हजारका उगणीसवां भाग प्रमाण हो है।
बहुरि निषधका बाण छह लाख तीस हजारका उगणीसवां भाग प्रमाण हो है । वेदीके अर हरिवर्ष वा निपधकी वीचि इतनां अंतराल है। बहुरि यहां चक्षुःस्पर्शाअध्वान क्षेत्र कहनां । तहां अभ्यंतर वीथी पर हरि क्षेत्र वा निषध पर्वतके वीचि जो धनुषाकार क्षेत्र तहां वीथी की परिधि सो तो धनुष है। बहुरि वीथी अर हरि क्षेत्र वा निषधका पूर्वपश्चिमकी तरफ लंबाईका प्रमाण सो नीवा है । तहां पूर्वं जो हरिवर्ष वा निषध पर्वतका वाणका प्रमाण कह्या तामैं जंबूद्वीपसंबंधी चार क्षेत्र एकसौ असी योजन ताको उगणीसका भागहार करि समच्छेद किए चौतीसरे वीसका उगणीसवां भाग भया । सो इतनां घटाएं चक्षुःस्पध्विान क्षेत्र ल्यावने वि. तीन लाख छह हजार पांचसै अस्सीका उगणीसा
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(९८)
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भाग प्रमाण निषधका बाण हो है ३०६५८० ६२६५८० अब इन
का वृत्तविष्कम जो ऐसा क्षेत्र गोल होइ तब चौढाईका प्रमाण सो कहिए है
तहां जंबू द्वीपका वृत्तविष्कम एक लाख योनन नामें द्वीपसंबंधी चार क्षेत्र एकसो असीताको दोऊ पार्शनिका ग्रहण मर्थि देणाकरि ३६० यटाएं अभ्यंतर वीथीका सचि व्यास निन्याणवै हजार छसै चालीस योजन हो है ९९६४० । याको समच्छेद करनेके अर्थि उगणीसका भाग दोएं अठारह लाख तरेणवै हजार एकसौ साठीका उगणीसवां भाग होइ.
बहुरि इहां प्रथम हरिक्षेत्रविर्षे कहिए है।
" इसुहीण विक्खंभ चउगुणिदिसुणा हेदु हु जीव कदी। वाण कदि छह गुणिदे तस्य जुदे धणु कदी होदि ॥ १ ॥ ऐस करण सूत्र आगें कहेंगे ताकरि वाणका प्रमाण ३०६४८० को विकभका प्रमाण
१८९३१६० मैं घटाइए १५८६५८० बहुरि बाणा जो प्रमाण
३०६४८० ताकौं चौगुणां किए १२२६३२० जो प्रमाण होई तीह
करि गुणिए-१९४५६५४७८५६०० तव जीवाकी कृति होइ ।
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याका वर्गमूल किएं जीवाका प्रमाण हो बहुरि बाण हो जु प्रमाण ३०६ ५८. ताका वर्ग करिऐ ९३९९१२९६९६४०० बहुरि याकौं छह गुणां करिए ५६३ ९४७७७८ ४०० बहुरि याकौं नीवाकी कृति
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(९९)
कही तिसविर्षे जोडिए २५०९६०२५६४०० ऐसे किएं धनुपकी
३६१
कृति होई, याका वर्गमूल ग्रहण किए १५८१४१७२ अपना भागहार
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का भाग दिएं सियासी हजार तीनसे सतहत्तरि योजन पर नव उगणीसवां माग प्रमाण हरि क्षेत्रका चाप हो हैं ८३३७७९ । बहुरि निषधपर्वतका
कहिए. है । " इमूहीण विखंभं० " इत्यादि सूत्रकरि निषधका वाणको ३२६५८० पूर्वोक्त वृतविष्कम १८९३१६० मस्यौं घटा
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से अवशेष रहैं १२६६५८० ताको चौगुणां वाणका प्रमाण
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२५०६३२० करि गुणिए ३१७४४५४७८५६०० तब निप
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धका जीवाको कृति होस् । याका वर्गमूल प्रमाण निषधकी जीवा है। . परि निषधका बाणकी जो कृति ३९२६०२४९६४००
३६१ ताको छह गुणां कहिग २३५५६१४९७८४०० याकौं जीवाड़ी कृति
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नो कही तिस वि जोडिए. ५५३०६९७६४००० तव धनुःकृति
३६१ होइ । याका वर्गमूल ग्रहण करि २३५१६१० अपना भाग
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( १०० )
हारका भाग दिए एक लाख तेईस हजार सातसे अडसठ योजन अर
१८
अठारह उगणीसवां भाग प्रमाण १२३७६८८, निषध कुलाचलका चाप हो हैं इस चात्रका अयोध्या के पास अर्धपणां है तातें इस चापक आघा किया । बहुरि अयोध्यातें चक्षुःस्पर्शाध्वान प्रमाणक्षेत्र पर सूर्यदी से ताक तिस आधा प्रमाणस्यों घटाएं अवशेष जो रह्या तितनें निपचचापविषै उत्तर तट उ आइ सूर्य भरत क्षेत्र विषै उदय हो हैं ऐसा भावार्थ जानना ।। ३९२ ॥
ऐसे ल्याए जु हरि क्षेत्र निषेध पर्वतके चाप तिनका कहा करनां सो कई हैं
हरिगिरिधणुसेसद्धं पासभुजो सत्तमगतिवेसीदी ॥ हरिवस्से णिसवष्णू अडछस्सगतीसवारं च ।। ३९३ ॥ हरि गिरिधनुः शेषार्थ पार्श्वभुजः सप्तसप्तत्रियशीतिः ॥ हरिवर्षे निपधधनुः अष्टपट्सप्तत्रिंशद् द्वादश च ॥ ३९३ ॥
अर्थः निधपर्वतका चापविषै हरिक्षेत्रका चाप घटाई ताका आधा करिए इतना निषेध पर्वतकी पार्श्व भुजा है । दक्षिण तट, उत्तर टपर्यंत चापका जो प्रमाण ताका नाम इहां पार्श्व भुजा नाननां । तहाँ निषघ पर्वतका धनुः १२३७६८ । १८ विषै हरिक्षेत्रका धनुः १९ ८३३७७ । ९ घटाइए तब अब शेष चालीस हजार तीनसै इक्याणवै १९
योजन अर नव उगणीसवां भाग प्रमाण होइ ४०३९१ ।९ याका १९
आधा करना तहाँ योजन प्रमाणस्यों एक घटाइ आधा करिए तब पीस हजार एक सौ विच्याण योजन होइ । बहुरि जो एक घटाया था
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ताश भाषा १ भर नव उगणीसवां भागका माधा ९ इनको सम
१९।२ च्छेद करि जोड २८ दोयका अपवर्तन किएं चौदह उगणीसवां भाग भर । सो याको किछू घाटि एक योजन मानि जो. किछू घाटि वीस हजार एकसौ छिन्व योजन प्रमाण निषध पर्वतकी पार्श्व भुजा हो है। सो इहां पार्श्वभुनावि उत्तर तटते चौदह हजार छसे इकईस योजन में यावत् सूर्य है तावत्र भरतक्षेत्रवाल वासीनीकौं दीसे पीछे न दीस तात पार्थ भुनावि इतनां घटाइ अव शेष किडू घाटि पनावनर्स पिचहत्तर योजन दक्षिण तटते निषधकै परि चार विष पर जाइ सूर्य अस्त होह ऐसा भावार्थ जानना
अब हरिक्षके निषघ पर्वतके धनुपके सिद्ध भए अंक कहे हैं । तहां सातसात तीन तियासी इन अंकनके क्रमकरि ८३३७७ तियासी इनार तीनसे मतहतरि योजन तो हरि वर्षका धनुः है। बहुरि आठ छ। सतीस वारा इन इन संकनिके क्रमकरि १२३७६८ एक लाख तेईस हजार सातस पडसाठ योजना निषधका धनुप है ॥ ३९३ ॥
आग कहे ज दोनिक धनुपका प्रमाण तहां अब शेष अधिकका प्रमाण वा बार्श्वभुजाके अंक तिनकों कहे हैं
माहवचंदुद्धरिया णवयकला पण य पदप्पमाणगुणा ॥ पासभुजी बोहसकादि वीससहस्सं च देसूणा ॥ ३९४ ॥ माधवचंद्रोद्धता नवककला नयपदप्रमाणगुणाः ॥ पार्श्वभुजः चतुर्दशकृतिः विंशसहस्रं च देशोनानि ॥३९४॥
अर्थ-हा पदार्थ नामकी संज्ञाकरि अंक कहे हैं सो भाषवचंद्र कहिए उगणीस जात माधव जो नारायण सो नग है । अश्यमान चंद्र पक है। इन दोऊ अंकनिकरि उगणीस भए तिनकरि उधृत नवकला!!
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(१०२)
भावार्थ-- एक योजनकों उगणीसका भाग दीजिए । तहां नवभाग प्रमाण तौं हरि क्षेत्रका चापका प्रमाण पूर्व कह्या तामें अवशेष अधिक जानना ।
बहुरि इहां नयस्थान कहिए नय नव हैं ताते नवकी जायगा नव ताकौं प्रमाण कहिए प्रमाणका भेद दोय है सो दोयकरि गुणिए तब एक योजनका उगणीस भागवि अठारह भाग प्रमाण होइ । सो इतना निषध पर्वतका चापका प्रमाण पूर्व योजनरूप कया तामें इतना अवशेष अधिक जाननां । बहुरि निषध पर्वतकी पार्श्वभुजा चौदहकी छती एकसौ छिनवै तिहकरि अधिक वीस हजार योजन २०१९६ प्रमाण है।३९४
आगें अयनविर्षे विभागों न करि सामान्यपनैं चार क्षेत्र विर्षे उदय प्रमाणका प्रतिपादनके अर्थि यहु सूत्र कहैं हैं
दिणगदिमाणं उदयो ते णिसहे णीलगे य तेसही ।। हरिरम्मगेसु दो दो सूरे णबदससवं लवणे ।। ३९५ ।। दिनगतिमानं उदया ते निपधे नीलके च त्रिपष्ठिः ॥ हरिरम्यकयोः द्वौ द्वौ सूर्ये नवदशशतं लवणे ॥ ३९५ ॥
अर्थ-एक दिन विर्षे चार क्षेत्रका व्यास विर्षे सूर्यका गमनका प्रमाण एक सौ सत्तरिका इकसठियां भाग प्रमाण कह्या था सो इतना दिन गति क्षेत्रविर्षे जो एक उदय होइ तौ चारक्षेत्रका पांचसै दशयोजनवि केते उदय होइ । ऐसें किएं लब्ध प्रमाण एकसै तियासी उदय आए।
बहुरि पर्यंत विर्षे चारक्षेत्रवि अवशेष सूर्य विब करि रोक्याहुवा आठतालीस इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र तिहविः एक उदय है ऐसे मिलि एकसौ चौरासी उदय है । जाते एक एक वीथी प्रति एक एक उदय संभवैहै । तहां निषध नीलविर्षे प्रत्येक तरेसठि अर हरिरम्यक क्षेत्रविबै दोय होय अर लवण समुद्रविष एकसौ उगणीस उदय हैं।
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भावार्थ -समस्त चारक्षेत्रवि सूर्यका उदय एकसौ चौरासी होहै। तहां भरत अपेक्षा तरेसठि तौ निपर्वतविर्षे होय हरिक्षेत्रविक् एकसौ उगणीस लवण समुद्रवि उदय स्थान है । अभ्यंतर वीथीते लाय तेरसठिवीं वीयी पर्यंत वि तिष्ठता सूर्यतौ निषध पर्वतकै ऊपरि उदय होहै। भात क्षेत्रके वासीनिकरि देखिए हैं। बहुरि चौसाठि सठिवीं वीथी विष तिष्ठता सूर्य हरिक्षेत्र उपरि उदय हो । बहुरि छयासठिवीते लगाय मंत्र पर्यंत वीथीविष तिष्ठता सूर्य लावण समुद्रकै ऊपरि उदय हो । ऐसेंटी ऐरावत अपेक्षा तरेसठि नील पर्वतविर्षे दोय रम्यक क्षेत्र. विष एकसौ उगणीस लवण समुद्रवि उदयस्थान जान ॥ ३९५ ॥
भाग दक्षिणायविर्ष चार भत्रका द्वीप वदिशा समुद्रका विभागकरि उदय प्रमाणका प्ररूपणकै अर्थी राशिककी उत्पति कई हैं
दीऊयहिचारखि वेदीए दिणगदीहिदे उदया । दीये चर चंदरस य लवणममुद्दम्हि दम उदया ॥ ३९६ ॥ द्वीपोदधिचारक्षेत्र पंद्यां दिनगतिहित उदयाः ॥ द्वीपे चतुः चंद्रस्य च लवणसमुद्रे दश उदयाः ॥ ३९६ ॥
अर्थ:--द्वीपगमुद संबंधी चा क्षेत्र अर वेदी इनको दिनगति प्रमाका माग दिग उदयनिता प्रमाण होहै । भावार्थ:--चार क्षेत्रका व्यासविर्षे वीथीनिवि सुर्यका जहां जहां जितने उदय पाइये है सो कहिए हैं। तहां वृ द्वीप संबंधी चार क्षेत्र एकसौ योजनमैस्यौं जंबूद्वीपकी वेदीका व्यास नार योजन है सो दुरि किए द्वीप चारक्षेत्र एकसौ छिहत्तर योजन है।
बहुरि च्यारि योजन वेदी उपरि चारक्षेत्र हैं। बहुरि तीनसैं तीस योजन अठनालीस मुझसठियां माग प्रमाण लवग समुद्र ऊपरि चारक्षेत्र हैं इनको दिन गतिका प्रमाण एकसी सतरिका एकसठिवां भाग प्र
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(१०४)
माण ताका भाग दिएं जितनां जितनां प्रमाण आवै तितना उदय जानने सो कहिए है । दिन गतिका प्रमाण एकसौ सतरिका इकसठिवां भाग १७० सो इतना क्षेत्र विषै एक उदय होय तो वेदिशश रहित द्वीप चार
क्षेत्रवि केते उदय होहिं ऐसें त्रैराशिक किए तरेसठि उदय पाए । तिनविर्षे अभ्यंतर वीथीका उदय पूर्वला उत्तरायणविर्षे गिनिए हैं तात वासठि उदय भए अर अवशेष छवीस एकसौ सत्तरिवां भाग प्रमाण उदयके अंग रहे । इहां द्वीप संबंधी अतका सूर्य सूर्यविर्षे अंतरालपर्यंत आए।
बहुरि अव शेष छवीस एकसौ सतरिवां भाग उदय अंश रहे थे तिनका योजन अंशरूप क्षेत्र करिये हैं । एक उदयका एकसौ सत्तरि योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र होइ तौ छवीस एकसौ सत्तरियां भाग प्रमाण उदय अशनिका केता क्षेत्र हो । ऐसें त्रैराशिककरि फल राशिकौं गुणें छवीस योननका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र भया । ए द्वीप संबंधी योजन अंश अगले किंवकरि रोक्या हुआ क्षेत्रविर्षे देना।
बहुरि एकसौ सत्तरिका इकसठिवा भागवि एक उदय होय तो च्यारि योजन प्रमाण वेदिका क्षेत्रवि केता उदय होइ ऐसें त्रैराशिक करि भागहारका भागहार इकसठिकरि च्यारिकौं गुणें दोयसै चवालीस भए । इनकौं एकसौ सत्तरि भागहारका भाग दिएं एक उदय पाया अवशेष चौतरिका एकसौ सत्तरिया भाग प्रमाण उदय अंश रहे । इनको पूर्वोक्त न्यायकरि क्षेत्ररूप किएं चहौतरि योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र भया इसविर्षे बाईस योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र अहि पूर्वोक्त द्वीपका अंत अवशेष क्षेत्र छन्वीस योजनका इकसठियां भाग प्रमाण तिहविच मिलाएं । अठतालीस योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण संर्यविभकारि रोक्या हुवा क्षेत्र संपूर्ण होहै।
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. ऐसे अभ्यंतर वीथी स्थिति सूर्य विवतै चौसाठि वीथी स्थित सूर्यविबका.व्यास छब्बीस इकसठिवां भागं तौ द्वीप चार क्षेत्रके भर बाईस इकसठिवां भाग वेदिका चार क्षेत्रको मिलिकरि सिद्ध होहै । इहां चौसठिवीं वीथी द्वीप अर वेदिकाकी संधिविर्षे है ऐसा तात्पर्य जाननां । ताके आगें दोय योजनका अंतराल हैं, ताके आगें सूर्यकरि सेक्या हुवा भठतालीस इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र है । तातै पैरें दावन योजनका इकसठिवां माग प्रमाण क्षेत्र रहा सो आगिला दोय योजनका अंतसलविष देनां । . . ,
ऐसें द्वीप वेदिका संधि वर्षे प्राप्त जो सूर्य विचका व्यास ताफौं प्राप्त भया बाईस योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र तिहिस्यों लगाइ वेदीकाका च्यारि योजन प्रमाण क्षेत्र समाप्त भया बहुरि लवण समुद्रविौं एक सौ सत्तरिका इकसठियां भागवि एक उदय होइ तो विम रहित समुद्र चार क्षेत्र तीनसै योजन सिंहविर्षे देते उदय होई एसैं
राशिककरि पाए उदय एकसौ अठारह । बहुरि अवशेष उदय अंश सतरि एकसौ सत्तरिया भाग प्रमाण इनका पूर्वोक्त प्रकार क्षेत्र किएं सत्तरि योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र भया । इनिकौं वेदीका संबंधी अंतरालविर्षे प्राप्त वादन योजनका इकसठिवां भाग मिलाएं भागहार इकसाठिका भाग दिएं दोय योजन प्रमाण अंतराल संपूर्ण हो है।
बहुरि थाने पर रविविध सहित अंतर प्रमाणरूप दिनगति शलाका अंतका अंतराल पर्यंत एक सौ पठारह है ते सुगम है। तहां उदय भी एकसौ अठारह है । तातै पर बाह्य वीथीविर्षे तिष्ठता सूर्य बिंबका व्यासविर्षे एक उदय है । ऐसें सर्वमिलिं लवण समुद्रविर्षे एकसौ उगणीस उदय है। ऐसे दाक्षायण विर्षे . एकसौ तियासी. उदय जाननें । इहां ऐसा भावार्थ जानना-वीथी विष तिष्ठता हुआ सूर्यका बिंब प्रमाण जो क्षेत्र ताका नाम प्रश्नपथव्यास है सो अठतालीस वोजनका
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इकसठिा भाग प्रमाण है । पर वीथी चीथनिकै वीचि जितनां चार क्षेत्र विर्षे अंतराल ताका नाम अंतर है सो दोय योजन प्रमाण है। तहां एकसौ छिहत्तरि योजन प्रमाण द्वीप संबंधी चार क्षेत्र वि प्रथम अभ्यंतर पंथव्यास है ताकै आगै प्रथम अंतराल है । ताकै आगे दूसरा पथभ्यास है । ताकै मागै दूसग अंतराल है।
ऐसही क्रमते अंतविर्षे तेरसठिवां पथव्यास भर ताके आगे तेरसठिवां अंतराल हो है । पर ताकै माग छन्वीस योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रह्या । बहुरि च्यारि योजन प्रमाण वेदिका संबंधी चार क्षेत्र हैं तामैं चाईस योजन इकसठिवां भाग काढि तिस द्वीप संबंधी अवशेष क्षेत्रवि. जो. चौसाठिवां पथव्यास हो है । चौसाठिवीं वीथी द्वीप पर वेदिकाकी संधिविर्षे है। बहुरि तिस पथव्यासकै भागे चौसठिवां अंतराल है ताके आगे बावन योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्रवे दिका चार क्षेत्रवि अवशेष रह्या बहुरि पथव्यास रहित समुद्र चार क्षेत्र तीनस तीस योजन प्रमाण है। तामैं सत्तार योजनका इकसठिवा भाग कादि वेदिका अवशेष क्षेत्र वर्षे जहैं पैंसठवां अंतराल हो है । ताके आगें पथव्यास है ताकै मांगें अंतर है।
ऐसे ही क्रमते अंतवि एकसौ तियासीनां अंतराल हो है । बहुरि ताकै माग पथव्यास प्रमाण अवशेष समुद्र चार क्षेत्रविर्षे एकसौ चौरासीवां पथन्यास है । बहुरि इहां जहां पथ व्यास है तहां वीथी जाननी । एक एक वीथीविषे प्राप्त होई सूर्यका दृष्टि विर्षे आवनां ताका नाम उदय जानना । ऐसें एकसौ चौरासी वीथीनिविर्षे एकसौ चौरासी उदय भए । तहां उत्तरायणमैंस्यौं भावता भावता सूर्य अभ्यंतर वीथीविष भावै सो वह उत्तरायणवि गिनि गिनि लिया पर लगता ही दूसरी. बार तहां उदय होइ नाहीं तातै दक्षिणायनविर्षे नाहीं गिना ऐसें करि एकसौ तियासी उदय जाननें ।
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( १०७ )
भागे उत्तरायणवि कहें हैं:--
aण समुद्र रवि त्रिसहित चार क्षेत्र तीनसे तीस योजन भर तालीस इकसठियाँ भाग प्रमाण है ताका समच्छेद करि जोडे बीस हजार एक सौ rasafter reafaai भाग प्रमाण होइ २०१७८ बहुरि एक सौ सतरिका इकसठिवां भाग क्षेत्रकी एक दिनક્
गति शलाका होई तौ बीस हजार एकसौ अठहतरिका इकसठिवां भागको केसी होइ ऐसें शशिक किए एक सौ अठारह दिनगति शलाका होइ | भर एकसौ सत्तरियां भाग अवशेष रहें इहां एक घाटि दिनगति शलाका प्रमाण उदय एक सौ सतरह है । काहेतें ! नातें बाल पत्र संबंधी उदय दक्षिणायन संबंधी है सो इढ न गिन्यां ।
बहुरि अवशेष एकसौ जठारहका एकसौ सतरियाँ भाग प्रमाण दम अंशनिका पूर्वोक्त प्रकार क्षेत्र किएं एक सौ अठारह योजनका इक्सठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रह्या, तिस विथी अठतालीस arater shafai भाग प्रमाण तौ भागिला पथन्यासविषै देना, तहाँ पन्यासविषै एक उदय है । पर पूर्वे एकसौ सतरह उदय मिलि उत्तरायणविषं समस्त उदय लवणसमुद्रविर्षे एक सौ अठारह हो है ।
महरि भवशेष सतरि योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्रलवण समुद्र र सो अगला अंतविष देनां ऐसें समुद्र चार क्षेत्र समाप्त भया । बहुरि कयारि योजन प्रमाण वेदिका क्षेत्रविषै पूर्वोक्त प्रकार त्रैराशिककर air rs उदय हो है । और अवशेष चौतरि योजनका इकसठवां भाग प्रमाण क्षेत्र रहे है । तिहविषै बावन योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्रकौं समुद्रका अवशेष क्षेत्रविषै मिलाएं दोय योजन प्रमाण अंतर संपूर्ण हो है । इस अंतर लागें एक दिनगसि
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(१०८)
विषं एक उदय होई मागे अवशेष वाईस योजनका इकसठियां भाग रह्या सो अगिला पथव्यास वि दैनां ।
ऐसे च्यारि योजन प्रमाण वेदिका क्षेत्रभी समाप्त भया आगे वेदिका रहित द्वीप चार क्षेत्र एक सौ छिहत्तर योजन प्रमाण तामैं अभ्यंतर पथन्यास अठतालीसका इकसठिवा भाग प्रमाण समछेद करि घटाएं दश हजार छसै अव्यासीको इकसठिवां भाग प्रमाण होइ १०६८८ बहुरि एक .
सौ सत्तरिका इकसठिवां भाग क्षेत्रकी एक दिनगति शलाका होइ तो दश हजार छसै अव्यासीका इकसठिवां भागकी केती दिनगति शलाका होह ऐसें त्रैराशिक किए बासठि.दिनगति शलाका पावै सो इतनाही उदय जानना । : . . ____ अव अवशेष एकसौ अठतालीसका एकसौ सत्तरियां भाग प्रमाण उदय अंश हैं । इनका पूर्वोक्त प्रकार क्षेत्र किए एकसौ मठतालीस योजनका इकसठियां भांग प्रमाण होइ तीह विछवीस योजनका इकसठिवां भाग मात्र क्षेत्र तो वेदिका अर द्वीपफी संघिवि पथव्यास है तहाँ दैनां तब सा पथव्यास संपूर्ण होइ अवशेष एकसौ बाईसका इकसठिवां भागहार करि भाजिए तब दोय योजन पाए सो संधि पथव्यासकै माग अंतरालविर्षे देना । बहुरि तातै पर वासठि दिनगति शलाका हैं तहां तितने ही उदय है। .
आण अभ्यंतर पथव्यासविर्षे एक एक उदय है ऐसें वेदिका रहित दीप चार क्षेत्रवि संघि. उदयसहित चौसाठि उदय हो है। ऐसे मिलिकरि उत्तरायणविर्षे सूर्यकै एकसौ तियासी उदयं जाननें । इहां ऐसा. भावार्थ जानना । अंतरका वा पथव्यासका स्वरूप प्रमाण पूर्वे. कधा था तहां लवण समुद्रका चार क्षेत्रविः प्रथम पथव्यास है। आज अंतराल है ताकै भाग अंतराल है ताकै आज पथन्यास है । ऐसे ही क्रम एकसौ
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( १०९ )
अठारहवां अंतरालकै आगे एकसौ उगणीसवां पथव्यास है अवशेष सत्तरि योजनका इकसठवां भाग प्रमाण क्षेत्र रहे है । बहुरि वेदिकाका चार क्षेत्र विषै बावन योजनका इकसठवां भाग ग्रहि तामै मिलाएं समुद्र वेदिकाकी संधिविषै एकसौं उगणीसवां अंतराल हो है, ताके आगे एकसौ वीसवां पथव्यास है ।
a gaat areai अंतराल है ताकै आगे बाईस योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रहे हैं । बहुरि द्वीपचार क्षेत्रविपैं छवीस योजनका इकसठवां भाग ग्रहि तामें मिलाएं एकसौ इकईसवां पथव्यास हो । तार्के आगे एक्सौ इकसवां अंतर है ऐसें कमतें अंतर्विषै एकसौ तियासीवां अंतरके आगे एकसौ चौरासीवां पथव्यास है तहां एकसौ चौरासी पथवास प्रमाण उदयनिविपैं वाह्य वीथीका उदय पूर्वदक्षिणायणविषै गिनिए हैं । पर लगता तहां उदय न होई ता समुद्रका आदि उदय घटाए उत्तरायणविषै सूर्यके उदय एकसौ तियासी ऐसें जाननें ।
+
उदयादिका स्वरूप पूर्वोक्त कहा ही था । बहुरि चंद्रमाका भी ear भेद किए विना द्वीप चार क्षेत्र १८० विषै पांच उदय भर समुद्र
४८
६१
चार क्षेत्र ३३० वि दश उदय हैं मिलिकरि पंद्रह उदय हो । आगे दक्षिणायणवि कहें हैं। अथवा " रापिंडहीणे " इत्यादि पूर्वोत सूत्रकरि चंद्रमाका दिनगति क्षेत्र पंद्रह हजार पांचसे इकावन योजनका च्यारिसें सताईसर्वा भाग प्रमाण है सो इतना १५५१ क्षेत्रविषै जो एक
४२७
उदय होय तो एक सौ अस्सी योजन प्रमाण द्वीप चार क्षेत्रवि कितने उदय होंहि ऐसें त्रैराशिक किए चारि उदय पाए ।
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वहुरि अवशेष चौदह हजार छस् छप्पनका पंद्रह हजार पांच इक्कावनवां भाग प्रमाण उदय अंश रहै । बहुरि एक उदयका पंद्रह हजार पांचसे इकावनका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र होइ चौदह हजार छसै छप्यनका पंद्रह हजार पाँचस इकावना भाग प्रमाण उदय अंशनिका केता क्षेत्र होइ ऐसें त्रैराशिक करि तिर्यच फलाशिक भाज्य करि इच्छा राशिके भागका अपवर्तन किए चौदह हजार छौ छप्पन योजनका च्यारिसे सत्ताइसवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रह्या ।
बहुरि चंद्रमाका पथन्यासका प्रमाण छप्पन योजनका इकसठियां माग ताका सात करि समच्छेद किए तीनस वाणवे योननका च्यारिस सत्ताईसवां माग प्रमाण मया सो इतनां तिस अवशेष क्षेत्रवि अहि अगिला पथव्यासविष देनां । तहां उदय एक, एसें जवृद्धीपविर्षे पांचर्स उदय है तिनवि मभ्यंतर पथका उदय उत्तरायण संबंधी है तात ताका न ग्रहण करनेते द्वीपविय च्यारि उदय हैं । द्वीप चार क्षेत्रविष अवशेष चौदह इनार दोयसै चौसाठका च्यारिसे सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र रह्या । सो यहु भागाहारका भाग दिएं तेतीस योजन अर एकसौ तहे. तरिका च्यारिस सचाईसवां भागप्रमाण क्षेत्र है । सो याकी मगले अंत. तरालविर्षे दैनां । . .
माग समुद्रवि चार क्षेत्र तीनस तीस योजन अर अडतालीसका इकसठियां भाग प्रमाण है । ताका समच्छेदकरि मिलाएं वीस हनार एकसौ मठहरिका इकसठिवां भाग प्रमाण मया । सो पंद्रह हजार पांचर्स इक्कावन योजनका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्रवि एक उदय होइ तौ वीस हजार एकसौ अठहत्तरिका इकसठियां भाग प्रमाण क्षेत्र - वि कितने उदय होहिं ।
ऐसें. तैराशिक किए इकसठिकरि अपवर्तनकरि सातकरि गुणें रन्धराशि एक लाख इकतालीस. हजार दोयसै छियालीसका पंद्रह हजार
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( १११ )
पांचसे इकावनवां भाग प्रमाण आया सो भागहारका भाग दिए नव उदय पाए भर अव शेष चारहसैं सत्यासीका पंद्रह हजार पांचसै इकावनवाँ भाग प्रमाण उदय अंश रहे इनका पूर्वोक्तप्रकार क्षेत्र किएं बारह सित्यासी योजना च्यारिसे सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रक्षा ।
या मैं सौ चंद्रत्रिका प्रमाण छप्पन योजनका इकसठवां भाग प्रमाण ताक सातकरि समच्छेद किएं तीनसै वाणवैका च्यारिस सत्ताइसवां भाग प्रमाण ग्रहि करि बाह्य पथविषै देना । तहां एक उदय ऐ लवण समुद्रविषै दश उदय हैं । बहुरि अवशेष आठसै पिच्याणवै योजनका च्यारिसै सताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र रह्या सो अपना भागहारका भाग दिएं दोय योजन भर इकतालीसका च्यारिसे सत्ताइसवाँ भाग प्रमाण क्षेत्र भया सो याकों द्वीपविषै अवशेष तेतीस योजन पर एकसौ तहेतरिका च्यारिसे सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्रविषै जोढे पैंतीस योजन भर दोयस चौदहका च्यारिसे सत्ताईसवां भाग प्रमाण पांचवां अंतराल संपूर्ण हो हैं । ऐसें चंद्रमाका दक्षिणायनविषै द्वीप समुद्रका मिलि चौदह उदय हो है ।
इहां ऐसा भावार्थ जानना - चंद्रमाका चार क्षेत्रविषै पंद्रह वीथी है तिनविर्षे चद्रमाका दृष्टिविषै आवना सोई उदय है । तहां वीथीनि. विषै जहां चंद्रबिंब छप्पन योजनका इकसठिवां भाग प्रमाण क्षेत्र रोकै ताका नाम पथव्यास है । वहुरि वंथी निके वीचि वीचि पैंतीस योजन अर दोयसै चौदहका च्यारि सत्ताईसवां भागप्रमाण जो अंतराल ताका नाम अंतर है । दोऊनिकों मिराएं पंद्रह हजार पांचसै इकावनका च्यारिसे सत्ताइसवां भाग प्रमाण दिनगति क्षेत्र हो । तहां द्वीप संबंधी एकसौ असी योजन प्रमाण चार क्षेत्र विषै प्रथम अभ्यंतर वीथी है तहां पथव्यास प्रमाण क्षेत्र है । ताकै आगैं प्रथम अंतर है ताकै आगे दूसरा पथन्यास है । ऐसें क्रमते चौथा अंतर के आगे पांचवां पथव्यास है ताकै भागें
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द्वीप चार क्षेत्रवि तेतीत योनन-भर एकसौ तहेरिका च्यारिस सत्ताईसा भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रहे हैं।
बहुरि लवण समुद्रका चार क्षेत्र तीनसे तीस योजन पर भटतालीसा इकसठिवां भाग प्रमाण तिहवि दोय योजन अर दोयस चौदहका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र द्वीप अवशेष क्षेत्र विष जोडे । द्वीप पर समुद्रकी संधिवि पांचवां अंतराल होई । तार्क माग छठा पथव्यास है । ताके माग छठा अंतराल है । ऐसे क्रमत अंतविष चौदहवां अंतगलके भाग पंद्रहवां वास पयास है । इन पदइ पथ. व्यासनिविप जे पंद्रह उदय तिनविष द्वीपचार क्षेत्रवि पहला अभ्यंतर वीथीका उदय उत्तरायण संबंधी है । नाते बदमाके दक्षिणायनविर्ष ऐसे चौदह उदय जानने ।
आगै उत्तरायणवि ऐसे कई है। समुद्रका चार क्षेत्र तीनसतीस योजन अर पठतालीसका इफसठिवां भाग प्रमाण है। तहां पूर्वोक्त प्रकारकरि ल्याएं नव उदय पाए । अर अवशेष उदय असं मारहस सित्यासीका पंद्रह हजार पांचर्स इकावना भागप्रमाण रहे इनका पूर्वोक्त प्रकार क्षेत्र किए बारहसै सित्यासी योजनका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण हो है । बहुरि यामें चन्द्रविका प्रमाण छप्पन योजनका इकसठियां भाग मात्र ताका सातकरि समछेदकिएं तीनसे बाणवैका च्यारिस सत्तावीसवां भागप्रमाण हीको प्रहिकरि बाम पयत लगाय नवमां अंतरालकै आगे जो पथन्यास तामें देना वा तहां एक उदय ऐसे समुद्रवि दस उदय भए इनविर्षे वाम पथका उदय दक्षिणायन संबंधी है । तात ताका ग्रहण न करना ऐसे नव उदय रहे, बहुरि समुद्र चार क्षेत्रवि अवशेष दोय योजन अर इकतालीसका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र रथा सो दशवां अंतरालविष देना। ऐसे किएं समुद्रका चार क्षेत्र समाप्त भया । .
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(११३)
गै द्वीप चार क्षेत्रवि पूर्वोक्तपनका पंद्रह हजार पाँचस इकावन. वां भाग प्रमाण उदय मश रहे इनका पूर्वोक्त प्रकार क्षेत्र किएं चौदह हजार छसै छप्पनका च्यारिसै सत्ताईस योजनका च्यारिसै सत्ताईसवां भाग प्रमाण होइ याने पचीस योजन अर एक सौ तहेतरिका च्यारिसै सत्ताईसवां भागका समन्छेद किए चौदह हजार दोयसै चौसठिका च्यारिसै सत्ताईसवां भाग होइ सो अहिकरि दशवां अंतरालवि देना ऐसे पैतीसै योजन पर दोयसै चौदहका च्यारिसे सत्ताईसवां भाग प्रमाण दशवां अंतराल संपूर्ण हो है।
बहुरि अवशेष तीनसै वाणवै योजनका च्यारिसै सत्ताईसवां भाग प्रमाण रया । ताको सातकरि अपवर्तन किए छप्पनका इकसठियं भाग प्रमाण होई सो यहु अभ्यंतर पथव्यासविष देना । इसविर्षे चंद्रमाका उत्तरायणविर्षे पांच उदय हैं । इहां ऐसा भावार्थ जानना-चंद्रमाका पथव्यास अंतरादिकका स्वरूप प्रमाण तो पूर्वोक्त जाननां । तहां लवण समुद्रका अर क्षेत्रवि प्रथम बाह्य पथव्यास हैं। ताफै अभ्यंतरवर्ती मागै आगै प्रथम अंतर है । ताके आगें द्वितीय पथव्यास है ताकै आगे द्वितीय अंतर है। ऐसे क्रमतें नवमां अंतरकै आगै दशवां पथव्यास है। ताकै याग दोय योजन भर इकतालीसका च्यारिस सत्ताईसवां भाग प्रमाण क्षेत्र अवशेष रह्या । बहुरि माग द्वीप चार क्षेत्रवि तेतीस योजन अर एकसो तहेतरिका च्यारिसै सत्ताइसवां भाग प्रमाण क्षेत्र ग्राहि पर समुद्रका अवशेष क्षेत्र ग्रहि दशवां अंतरालको दिएं समुद्र अर द्वीपकी संधि वि दशवां अंतराल संपूर्ण हो है। ताकै आगै ग्यारहवां पथव्यास है ताकै आगें ग्यारहवां अंतराल है। ऐसै क्रमतें अंतविर्षे चौदहवां अंगके आगे पंद्रहवां अभ्यंतर पथव्यास है।
ऐसे इन पंद्रह पथव्यासनिवि पंद्रह उदय हैं । तिनिविष समुद्र संबंधी प्रथम व्यास विर्षे जो उदय है सो दक्षिणायन संबंधी ही है।
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जातें लगताः दुसरीधार तहां उदय न हो है तातै चंद्रमाका' उत्तरायणविर्षे नव समुद्रविर्षे पांच द्वीपविर्षे ऐसे चौदह उदय जानने वहुरि इहां सूर्य व चंद्रमाका उत्तरायणवि. उदयका विभाग मूलसूत्र कानै कह्या । तथापि दक्षिणायनका उदयमार्गकरि टीकाकार विचार करि कया
अब हक्षिण उत्तर उर्व अध विर्षे सूर्यके भातापका क्षेत्र विभाग कहे हैं
मन्दरगिरिमझादो जावय लवणुवहि छहभागो दु॥ हेठा अहरससया उवरि सयजोयणा ताओ ॥ ३९७ ॥ मंदरगिरिमध्यात यावत् लवणोदधि षष्ठमागस्तु ॥ अधस्तनो अष्टदशशतानि उपरि शतयोजनानि तापः॥३९७/
अर्थ:--मेरुगिरिके मध्यतै लगाय यावत् लवण समुद्रका छठा भाग पर्यंत सूर्यका आतार फलै है । ताका उदाहरण अभ्यंतर वीथी विक् तिष्ठता सूर्यकी अपेक्षा कहिए हैं। जंबू द्वीपका आधा क्षेत्र पचास हजार योननं तामैं द्वीप चार क्षेत्र एकसो अस्सी घटाएं गुणचास हजार आठसै वीस योजन प्रमाण तो मेरुगिरिके मध्य लगाय अभ्यंतर वीथी पर्यंत उत्तर दिशाविर्षे आताप फल है । बहुरि लवण समुद्रका व्यास दोय लाख योजन ताका छठा भाग तेत्तीस हजार तीनसै तेत स योजन अर एकका तीसरा भाग प्रमाण यामैं द्वीर चार क्षेत्र एक सौ अस्सी योजन मिलाएं तेतीस हजार पांचसै तेरह योजन अर एकका तीसरा भाग प्रमाण अभ्यंतर वीथीत लगाय लवण समुद्रका छठा भाग . पर्यंत दक्षिण दिशा विरे आताप फैले है । बहुरि ऐसे ही अन्य वीथीनिविर्षे भी जाननां । बहुरि सूर्य विवते नीचे अठारहसै योजन पर्यत अधः दिशाविर्षे. आताप फैले है।
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( ११५ )
भावार्थ:- सूर्यविचतै नीचे आठसे योजन तौ समभूमि है अर तातें नीच हजार योजन पर्यंत चित्रापृथ्वी है तहां पर्यंत सूर्यका आताप फेले है । बहुरि सूर्यबिंबतें उपरि सौ योजन पर्यंत उर्ध्व दिशा विषै आताप फैलै है । विशेषार्थः -- सूर्यविधतें ऊपर सौ १०० योजन पर्यंत ज्योति है तहां पर्यंत सूर्यका आताप फैले हैं। ऐसे परिनिधि विष तो आताप फैलने का प्रमाण पूर्वे कया था इहां दक्षिण उत्तर उर्ध्व अधः दिशाविषै आताप फैलनेका प्रमाण कथा || ३९७ ॥
।
'आगें चंद्रमा सूर्य ग्रह इनके नक्षत्रमुक्ति के प्रतिपादन करनेकौ चाहता आचार्य सो प्रथम एक एक नक्षत्र संबंधी मर्यादारूप गगनखण्डनिक कहे हैं। -
अभिजिस्स गगणखण्डा छस्सयतीसं च अवरमज्झवरे ॥ छप्पर से छके इगिदुतिगुणपणयुतसहस्सा ।। ३९८ ॥ अभिजितः गगनखण्डानि पट्शतत्रिंशत् च अवरमध्यचराणि ॥ षट् पंचदशे पट्के एक द्वित्रिगुणपंचयुतसहस्राणि ॥ ३९८ ॥ अर्थः- अभिजित नक्षत्र के गगनखंड उसे तीस हैं । बहुरि जघन्य मध्य उत्कृष्ट नक्षत्र क्रमतैं छह प्रमाणकौं घर तिनकै एक दोय तीन गुणां पांच संयुक्त एक हजार प्रमाण गगनखण्ड हैं ।
भावार्थ:---- परिधिरूप जो गगन कहिए आकाश ताके एक लाख नव हजार आठ खण्ड करिए तामें एक चंद्रमा संबंधी अभिजित नक्षत्र के छसै तीस गगनखण्ड है । छसै तीस खण्ड प्रमाण परिधिरूप आकाश क्षेत्र विषै अभिजित नक्षत्रकी सीमा मर्यादा है । बहुरि ऐसें ही छह जघन्य नक्षत्र तिन एक एकके एक हजार पांच गगनखण्ड है । बहुरि पंद्रह मध्य नक्षत्र तिन एक एकके दोय हजार दश गगनखण्ड हैं । बहुरि छह उत्कृष्ट नक्षत्र तिन एक एकके तीन हजार पंद्रह गगनखण्ड है । बहुरि छह उत्कृष्ट नक्षत्र तिन एक एकके तीन हजार पंद्रह
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( ११६ )
गगन खण्ड हैं । बहुरि इतने इतने ही दूसरा चंद्रमा संबंधी है । यहां नक्षत्रनिके जघन्य मध्य उत्कृष्टपना गगनखण्ड निका. थोडा बहुत अति बहुतकी अपेक्षा कला है स्वरूपादिक अपेक्षा नाहीं कहा हैं ||३९८ ||
आगे तिन जघन्य मध्यम उत्कृष्ट नक्षत्रनिकों दोय गाथानिकरि
कहैं हैं
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सदभिस भरणी अद्दा सादी असिलेस्स जेट मचत्वरा || रोहिणि विसाह पुणव्वसु तिउत्तरा मज्झिमा सेसा ॥ ३९९ ॥ शतभिषा भरणी आर्द्रा स्वातिः आश्लेषा ज्येष्ठा अवराणि चराणि रोहणी विशाखा पुनर्वसुः ध्युत्तराः मध्यमा शेषाः || ३९९ ॥
अर्थः-- शतभिषक कहिये शतमिपा १, भरणी २, आर्द्रा ३, स्वाति ४, आइलेपा ५, ज्येष्ठा ६, ए छह जघन्य नक्षत्र हैं । बहुरि रोहिणी १, विशाखा २, पुनर्वसु ३, उत्तरा कहिए उत्तरा फाल्गुनी ४ उत्तराषाढा ५, उत्तरा भाद्रपदा ६ ये छइ उत्कृष्ट नक्षत्र हैं । बहुरि अवशेष नक्षत्र मध्यम हैं ॥ ३९९ ॥
ते अवशेष कौन सो कहे हैं ।
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अस्सिणि कित्तिय मिसिर पुरुस महा हत्थ चित्त अणुहारा ॥ पुव्वतिय मूलसवणा सघणिहा रेवदी य मज्झिमया ॥ ४०० ॥ अश्विनी कृत्तिका मृगशीर्षा पुष्यः मघा हस्तः चित्रा अनुराधा ॥ पूर्वत्रिका मूलं श्रवणे सघनिष्ठा रेवती च मध्यमाः ॥ ४०० ॥
अर्थ :- अश्विनी १, कृतिका २, मृगशीर्षा ३, पुष्य ४, मघां ५, हस्व ६, चित्रा ७, अनुराधा ८, पूर्वत्रिका कहिए पूर्वा फाल्गुनी ९, पूर्वाषाढा १०, पूर्वाभद्रपदा ११, मूल १२, श्रवण १३, धनिष्ठा १४, रेवती १५ ए पंद्रह मध्यम नक्षत्र हैं ।। ४०० ॥
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(११७)
आगे कहे जु ए गगनखण्ड तिनकों इकटेकरि चंद्रमा सूर्य नक्षत्रनिकी परिधिवि भ्रमण कालका प्रमाण कहैं हैं।
दो चंद्राणं मिलिदे अठसयं णवसहस्समिगिलक्खं ॥ सगसगमुहुत्तगदि णभखण्डहिदे परिधिगमुहुत्ता ॥ १०१॥ द्वि चन्द्रयोः मिलिते अष्टशतं नवसहस्र एकलक्षं ॥ स्वक स्त्रक मुहुर्तगति नभाखण्डहिते परिधिमुहर्ताः ॥ ४.१॥ __ अर्थ:-- दोय चंद्रमानिके मिलाए पाठस सहित नव हजार मधिक एक लाख गगनखण्ड हो हैं । कैसे ? जघन्य- मध्य उत्कृष्ट नक्षत्रनिका गगनखण्ड क्रमतें एक हजार पांच दो हजार दश तीन हजार पंद्रह इनको अपने नक्षत्र प्रमाण छह पंद्रह छहकरि गुणे जघन्य नक्षत्रनिके छह हजार तीस मध्य नक्षत्रनिके तीस हजार एकसौ पचास, उत्कृष्ट नक्षत्रनिके मठारह हजार निवै गगनाखण्ड होहैं ।ए खण्ड भर छसै तीस अभिजितके खण्ड मिलाएं चौवन हजार नवसै भए ।
वहरि एक परिधिविर्षे दोय चंद्रमा हैं। ताते तिनको दुणांकरि मिलाइए तब एक लाख नव हजार आठसै गगनखण्ड परिधिविष हो हैं। बहुरि इन गगनखण्डनिकौं अपना अपना एक मुहूर्तवि. गमनप्रमाण ने गगनखण्ड तिनका भाग दिएं परिधिविष भ्रमण कालका प्रमाण भावै है। कैसे सो कहिए है
चंद्रमा सतरहसें अडसठि गगनखण्डनिविर्षे एक मुहूर्तकरि गमन कर तो एक लाख नव हजार आठसै गगनखण्डनिवि केते मुहूर्तनिकरि गमन करे ऐसे त्रैराशिक किएं चंद्रमाका परिधिविर्षे भ्रमण करनैका काल वासठि मुहूर्त आएं, पर एकसौ चौरासीका सतरहसै अडसठिवां भागका आठ कर अपवर्तन किए तेइस मुहूर्तका दोयसै इकईसवां भाग आया । बहुरि याही प्रकार सूर्य अठारहरी तीस गानण्हवि एक
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(१८)
मुहूर्त करि गमन करे तो एक लाख नव हजार माठसै गगनखण्ड विर्षे केते मुहूर्त निकरि गमन कर ऐसें त्रैराशिक किएं सूर्यका परिधिविष भ्रमण करनेका काल साठि मुहूर्त आधै है। .
बहुरि नक्षत्र अठारहस..पैतीस गगनखण्ड निविर्षे एक मुहूर्तकरि गमन करै तौ एक लाख नव हजार आठसै गगनखण्ड निवि केते मुहूर्तनिकरि गमन करै ऐसें त्रैराशिक किए नक्षत्रनिका परिधिविर्षे भ्रमण करनेका काल गुणसठि तौ मुहूर्त हाए अर अवशेष पंद्रहस पैंतीसका अठारहवें पैंतीसवां भाग ताका पांचकरि अपवर्तन किए तीनसैं सात मुहूर्तनिका तीनसैं सतसठिवां भाग आया । या प्रकार एक बार संपूर्ण एक परिधि'विर्षे भ्रमण करनेका काल प्रमाण कया ॥ ४०१ ॥
____ भाग सो एक मुहूर्तकरि अपना अपनां गगनखण्डनिवि गमन करनेका प्रमाण कहा सो कहै हैं
अठी सत्तरसयमिदू वावहि पंचअहियकर्म । गच्छति सररिक्खा णभखण्डाणिगिमुहुत्तेण ।। ४०२ ॥
अष्टषष्ठिः सप्तदशशतं इंदुः द्वापष्ठिा पंचाधिकक्रमाणि ।। ..... -गच्छन्ति सूर्यऋक्षाणि नमाखंडानि एकमुहूर्तेन ॥४०२॥
अर्थः-अहसठि अधिक सतरहसै १७६८ गगनखण्डनिकौं चंद्रमा एक मुहूर्तकरि गमन करै है । बहुरि तिनतै बासठि अधिक का अठारहसै तीस गगनखण्ड निकौं सूर्य अर इन पांच अधिक ताका मठा. रहसै पैंतीस गानखण्डनिकों नक्षत्र एक मुहूर्तकरि गमन करें हैं।१२। ... आगें चंद्रमादि तारापर्यंत ज्योतिषीनिकै गमन विशेषका स्वरूप
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चंदो मंदो गमणे सुरों सिग्यो तदो गहा तत्तों ॥ तत्तो रिक्खा सिंग्या सिग्घयरा तारया तत्तो ॥ ४०३ ॥ चंदो मंदो गमने सुरः शीघ्रः ततो ग्रहाः ततः ॥ ततः ऋक्षाणि शीघ्राणि शीघ्रतराः तारकाः ततः ॥४.३॥
अर्थ--सर्वते गमनविर्षे चंद्रमा मंद हैं मंद गमन कर है । ताते सूर्य शीघ्र गमन कर है । तात ग्रह शीघ्र गमन फर हैं, ग्रह ताते नक्षत्र शीघ्र गमन करै हैं । तात अतिशीघ्र तारे गमन कर हैं। ४०३।
मार्गे अब चंद्रमा सूर्यके नक्षत्र भुक्तिकों कई हैं।इंदुरवीदो रिक्खा सत्तही पंच गगणखण्डहिया ॥ अहियहिद रिक्खखण्डा रिक्खे इंदुरवि अत्थणमुहुत्ता ।४०१ इंदुरवितः ऋक्षाणि सप्तपष्ठिः पंच गगनखण्डाधिकानि ॥
अधिकहित ऋक्षखण्डानिऋक्षे इंदुरविअस्तमनमुहूर्ताः॥४०.
अर्थ:-चंद्रमा सूर्यके गानखण्डनित क्रमत सडसठि पर पांच गगन खण्ड अधिक नक्षत्र निकै एक मुहुर्तकरि गमन अपेक्षा गगनखण्ड है । सो इस अधिकका भाग अपने अपने नक्षत्र खण्डनिको दिएं नक्षत्र ' अर चंद्र वा सूर्यका आसन्न मुहर्तनिका प्रमाण आवै है सो कहिये ।
एक ही बार चंद्रमा भर नक्षत्र साथि गमनका प्रारंभ किया. तहां एक मुहूर्तवि चंद्रमा तो सतरहसे अडसठि गगनखण्डनिप्रति गमन । किया भर नक्षत्र अठाहस पैतीस गान खण्डनि प्रति गमन किया । वहां चंद्रमा नक्षत मतसठि गगनखण्ड पीछै रह्या । तहां अभिजित नक्षत्र पर चंद्रमा दोऊ साथि गमनका प्रारंभकरि एक मुहूर्तविपै मभित--. तते चंद्रमा सदसठि गगनखण्ड पीछे रखा , बहुरि दुसरा मुहूर्तविष और सतसठि गगनखण्ड पीछे रहा । ऐसें पीछै रहता रहता जितनें कालकरि . छप तीस अभिजितके सर्व खण्डनिको छोडि पीछै रहै तितना काल
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अभिजित नक्षत्र अर चंद्रमाका आसन्न मुहूर्त कहिए । सो asafa अधिक खण्डनिके पीछे छोड़ने में एक एक मुहूर्त होड़ तो उसे तीस अभिजित खण्डनिके पीछे छोड़ने में केते मुहूर्त होइ । ऐसें त्रैराशिक करि अधिक प्रमाण सतसठिकां भाग अपने छसे तीस खण्डनिकों दिएं लव्धराशि नव मुहूर्त सताईसका सतसठिवां भाग मात्र अभिजित भर चंद्रमाका आसन्न मुहूर्तका प्रमाण आया ।
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इतने काल चंद्रमा अभिजित संबंधी गगनखण्डनिके निकटवर्ती रहे है । तातें आसन्न मुहूत कहिए । बहुरि इस आसन्न मुहूर्त काल ही विषै नक्षत्रभुक्ति कहिए । यावत्काल चंद्रमा अभिनित संबंधी गगनखण्ड निके समीपवर्ती रहे तावत्काल चंद्रमाकै अभिजित नक्षत्रका भोगवनां कहिए । बहुरि इसही कालविषै योग कहिए यावत्काल जंद्रमा अर अभिजित संबंधी गगनखण्डनिका संयोग रहें तावत्काल चंद्रमा अर अभिजितका योग कहिए । बहुरि याही प्रकार अधिक प्रमाण सतसठिका भाग जघन्य मध्यम उत्कृष्ट नक्षत्रनिके क्रमतें एक हजार पांच दोय हजार दस तीन हजार पंद्रह गगनखण्डनिकों दिएं नघन्य नक्षत्रनिका पंद्रह मुहूर्त मध्य नक्षत्रनिका तीस मुहूर्त उत्कृष्टनिका पैंतालीस मुहूर्त मात्र आसनमुहूर्त हो ।
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बहुरि तीस मुहूर्तका एक दिन होइ तौ पंद्रह आदि मुहूर्तनिका ता हो ऐसें कहि पंद्रहका अपवर्तन किएं जघन्य नक्षत्रनिका आधा दिन मध्यम नक्षत्रनिका एक दिन उत्कृष्ट नक्षत्रनिका ड्योढ दिन प्रमाण चंद्रमाको नक्षत्रमुक्ति काल हो है । बहुरि याही प्रकार अधिक प्रमाण पांचका भाग अपने अपने नक्षत्र संबंधी गगनखण्डनिकों दिएं • दिनादिक किए सूर्य के अभिजितका च्यारि दिन छह मुहूर्त जघन्य नक्षत्र - का छह दिन इस मुहूर्त मध्यम नक्षत्रका तेरह दिन बारह मुहूर्त उत्कृष्ट नक्षत्रका वीस दिन तीन मुहूर्त प्रमाण नक्षत्र भुक्तिको काल ज्ञाननां ॥ ४०४ ॥
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मागे राहुका गगनखण्ड कहिकरि ता नक्षत्रभुक्ति कहे हैंरविखण्डादो चारसभागृणं वज्जते जदो राहू ॥ तुम्हा तत्तो रुक्खा चार हिहिदिगिसहिखण्डहियो || ४०५ ॥ रविखण्डतः द्वादशभागोनं व्रजति यतो राहुः ॥ तस्मात्ततः ऋक्षाणि द्वादशहिर्तकपष्टिखण्डाधिकानि ॥४०५ अर्थ :- जाँत सूर्यकें खण्डनिते एकका बारहवां भाग घांटि राहु गमन करे हे । सूर्यका अठारह से तीस गगनखण्डन विषै एकका नारहवां भाग घटाएं अठारह गुणतीस गगनखण्ड अर ग्यारहका बारहवां भाग मात्र राहु एक मुहूर्त विप गमन करनेका प्रमाण हो है । इनतं इकसठका बारहवां भाग अधिक नक्षत्रनिक गमन करनेका प्रमाण हो है । कैसे
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११.
इतना अधिक हो ? राहुका गगनखण्ड १८२९ नक्षत्रका गगन
१२
खण्ड १८३५ स्याँ घटाएं ग्यारहका बारहवां भाग घटाएं इकसठिका बारहवां भाग अधिकका प्रमाण हो है । बहुरि " अहियदि रिक्खखंडे " इस सूत्र के न्यायकरि अधिकका भाग अपने अपनें नक्षत्रखण्ड निक दीएं शहके नक्षत्र का काल भाव है ।
asi rafठका बारहवां भाग छोडनेंदिपैं एक मुहूर्त हो तो उसे सीस अभिजित खण्डनि छोडनॅविप केते मुहूर्त होइ ऐसें उसे तीसकों trafor arrai भागका भाग देनां तहां भागहारका भागहार बारह ताक से तीसा गुणकारकरि साफ इकसठिका भाग देनां ६३० । १२ बहुरि इनको तीस सहित छहकर अपवर्तन करना १२६ । २
६१ ६१ याकों अपने गुणकार करि गुण २५२ भागहारका भाग दिए च्यारिं
६१
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दिन-भर आठका इकसठवां भाग प्रमाण शहके अगिजित नक्षत्रका भुक्तिका काल है ।
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या ही प्रकार राहू के जघन्य नक्षत्रका छड़ दिन भर छत्तीसका इकसठिवां भाग मध्य नक्षत्रका तेरह दिन भर ग्यान्हका इकसटिवां भाग उत्कृष्ट नक्षत्रका उगणीस दिन भर सैंतालीसका इकसटियां भाग प्रमाण भुक्तिकाल जाननां ॥ ४०५ ।।
आगें अन्य प्रकारकरि राहु के नक्षत्र भुक्तिकों कहें हैं । -
णक्खत सूरजोगज मुहुत्तरासि दुवेहि संगुणिय || एकद्विहिदे दिवसा हवंति णक्खत्तराहुजोगस्स ॥ ४६ ॥ नक्षत्र - सूरयोगज मुहूर्त राशि द्वाभ्यां संगुण्य || एकपष्ठिते दिवसा भवंति नक्षत्रराहुयोगस्य ॥ ४०६ ॥
अर्थ :- नक्षत्र पर सूर्यका योग कर उत्पन्न जो मुहूर्तनिका प्रमाणरूप राशि ताकौं दोष करि गुणि इकसटि भाग दौएं जो प्रमाण यांतित नक्षल भर रहके योगविषै दिननिका प्रमाण जाननां । तहाँ सूर्यकै अभिजित नक्षत्रका मुक्तिकाल च्यारि दिन छह मुहूर्त है । दिननिकौं तीस गुणांकरि मुहूर्त किएं सर्व एत्र सौ छबीस मुहूर्त भए । इनकों दोय करि गुण दोयसे घावनं भए । इनको इकसठिका भाग दिएं च्यारिअर आठका इकसठिवां भाग आया । सोई राहु अभिजित नक्षत्रका मुक्तिकाल च्यारि दिन भर अटका इकसठीवां भाग प्रमाण है । ऐसी अन्य नक्षलनिका भी विधान करनां ॥ ४०६ ।
आगे एक अयनविषै नक्षत्र भुक्ति सहित वा रहित जे दिन तिनकों कहैं हैं---
अभिजादि तिसीदिसय उत्तरअयणस्स होंति 'दिवसाणि || अधिकदिणाणि तिर्णिय गढ़दिवसा होंति हगि अयणे ॥ ४०७ ॥
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अभिजिंदादित्र्यशीतिंशतं उत्तरायणस्य भवंति दिवसानि || अधिक दिनानां त्रीणि च गतदिवसानि भवंति एकस्मिन् अयने ॥
अर्थ:- अभिजित नादि दै करि पुण्य प्रर्यंत जे जघन्य मध्य उत्कृष्ट नक्षत्र तिनके एक्सौ. तिपासी दिन उत्तरायणके हो हैं ।' बहुरि इनतें अधिक दिन तीन एक अयनविषैः गत दिवस हो' हैं । ४०७ ।
आगे अधिक दिननिकी उत्पत्ति को कहें हैं
एक पहलवणंपडि जदि दिवसिगिसद्विभागमुबद्धं ॥ किं तसीदिसदस्सिदि गुणिदि वे होंति अहियदिशा |४०८ | एकपथलंचनंप्रति यदि दिवसकपष्ठिभाग उपलब्ध ॥ किं व्यशीतिशतस्येंति गुणिते ते भवंति अधिक दिनानि ॥ ४०८ ॥
अर्थ :- वीथीरूप एक सूर्यका मार्ग ताका उलंघनप्रति जो एक दिनका इकसठवां भाग पावैं तौ एक्सौ तियासि मार्गनिका उल्लंघन - प्रति केते दिवस - पावें ऐसें त्रैराशिक करि तह इकसठ करि अपवर्तनः करि गुणें अधिक दिन- तीन होहे । बहुरि एक भयनविषै एकसौ तियासी दिन कैसे हैं सो ऋहिए हैं ।
- एक मुहूर्त विषै गमन योग्य सूर्यके अठारह से तीस खण्ड भर नक्षल के अठारह पैंतीस खण्ड तातैं सूर्य के नक्षलते पांच खण्ड छोडनें विपैं एक मुहूर्त होइ तौ अभिजित नक्षत्र के छ तींस खण्ड छोडने
विषै केते मुहूर्त होइ ऐसें मुहूर्त करि
६३.०:
६३० ताकौं तीसका भाग देह - दिन
करने बहुरि भाज्य भाजकक तीस करि अपवर्तन किएं इकईस
-
५३०
दिनका पांचवां भाग प्रमाण अभिजितका भुक्तिकाल आया । ऐसें दी जघन्य मध्य उत्कृष्ट नक्षत्र श्रवण आदि पुनर्वसु पर्यंत तिनके त्रैराशिक
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विधिरि मुहूर्त वा दिनकरि क्रमतें पंद्रह तीस पंद्रहकरि अपवर्तनकरि जो जो पावैं सो सो तिस तिस नक्षत्र विर्षे स्थापन करनां ॥ ४०८ ॥
आगै पुण्यविषै विशेष हैं ताके प्रतिपादन के अर्थ कहें हैं । - सतिपंचमचउदिवसे पुस्से गमियुत्तरायणसमत्ती || सेसे दक्खिण आदी सावणपडिवदि रविस्स पढमपहे ॥ सत्रि पंचमचतुर्दिवसान् पुष्ये गत्वा उत्तरायणसमाप्तिः ॥ शेपान् दक्षिणादिः श्रावणप्रतिपदि रवेः प्रथमपथे ॥ ४०९ ॥
४०९ ॥
.
अर्थ:-- तीन दिनका पंचवा भाग सहित च्यारि दिन पुण्य नक्षत्रका भुक्तिकालविषै नाइकरि उत्तरायणकी समाप्तता हो है । एसें करि पूर्वोक्त प्रकार पुण्य नक्षत्र मुक्तिका कालकौं सहसठ दिनer diari प्रमाण ल्याई तामें तीनका पांचवां भाग सहित च्यारि दिनका समछेद किए तेईस दिनका पांचवा भाग भया सो ग्रहिकरि उत्तरायणकी समासताविषै देनां अवशेष चवालीस दिनका पांचवां भाग रखा तामें कोष्ट पूरण करने के अर्थ तितना ही तेईस दिनका पांचवां भाग ग्रहि करि दक्षिणायनका प्रथम फोटविषै दिए यहु ही श्रावण मासविषै पडिवाके दिन सूर्यका प्रथम मार्गविषै दक्षिणायनका आदि हो है । अवशेष इकईस दिनका पांचवां भाग द्वितीय कोष्ट विखै दैनां । बहुरि ऐसेही पूर्वाक्त प्रकार आइलेपा आदि उत्तराषाढा पर्यंत नक्षत्रनिकी सूर्यके भुक्तिका काल ल्याइ तिहतिe नक्षत्रविषै स्थापन करनां ।
"
भावार्थ:-- सूर्यका उत्तरायणविषै प्रथम अभिजित नक्षत्रकी भुक्तिं हो हे ताका काल पूर्वोक्त प्रकार किएं इकईस दिनका पांचवां भाग प्रमाण है । पीछे क्रमतें श्रवण १ घनिष्ठा शतभिखा १ पूर्वाभाद्रपदा १ रेवती १ अश्विनी १ भरणी १ कृत्तिका १ रोहिणी १ मृगशीर्षा १ मार्दा १ पुनर्वसु १ इनकी मुक्ति हो है । तहां शतभिषा १ भरणी १ आर्द्रा १ ए तीन जघन्य नक्षत्र हैं तिनका तौ एक एकका भुक्तिकाल
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सडसठि दिनका दशवां भाग प्रमाण है । बहुरि श्रवण १ घनिष्ठा १ पूर्वाभाद्रपदा १ रेवती १ अश्विनी १ कृत्तिका मृगशीर्षा ए सात मध्य नक्षत्र हैं सो इनका एक एकका भुक्तिकाल सतसठि दिनका पांचवां माग प्रमाण है।
बहुरि उत्तराभाद्रपदा रोहिणी पुनर्वसु ए तीन उत्कृष्ट नक्षत्र हैं सो . इनका एक एकका मुक्तिका दोयसै एक दिनका दशवां भाग प्रमाण है बहुरि पीछे पुष्य नक्षत्रका मुक्तिकाल सडसठि दिनका पांचवा भाग प्रमाण तामें तेईस दिनका पांचवां भाग मात्र काल पर्यंत पुष्य नक्षत्रकी मुक्ति इस अयनविर्षे हो है । ऐसें सर्व कालकों समच्छेद करि होहैं सूर्यके उत्तरायणवि एकसौ तियासी दिन हो हैं । बहुरि दक्षिणायनका पारंम श्रावण कृष्णकी पडिवाके दिन हो हैं । वहां प्रथम पुष्य नक्षत्र भोगिए हैं । पुष्य नक्षत्रका भुक्तिकाल सडसठि दिनका पांचवा भागविर्षे तेईस दिनका पांचवां भाग तो उत्तरायणविर्षे भए थे अवशेष चौवालीस दिनका पांचवा भाग इस अयनकी मादिवि भोगिए हैं । तहां उत्तरायण समान कोठे पूर्ण करनको प्रथम कोठवि तौ तेईसका पांचवां भाग देना । दूसरा कोठवि अभिजितकी जायगा । इकईसका पांचवां भाग
देना।
ऐसें प्रथम पुष्य नक्षत्रका भुक्तिकाल भएं पीछे क्रमते आश्लेषा १ मघा १ पूर्वा १ फाल्गुनी १ उत्तरा फाल्गुनी १ हस्त १ चित्रा १ स्वाति १ विशखा १ अनुराधा १ ज्येष्ठा १ मुल १ पूर्वाषाढा १ उत्तरापाढा इन नक्षत्रनिको भोगवै है। तहां माश्लेषा १. स्वाति १ ज्येष्ठा १ ये तीन जघन्य नक्षत्र है सो इनका तो एक एक एकका मुक्तिकाल सतसठि दिनका दशवां भाग प्रमाण है । बहुरि मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा ये सात मध्य नक्षत्र है। सो इन एक एकका भुक्तिकाल सतसठि दिनका पांचवां भाग
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प्रमाण है । बहुरि उत्तरा फाल्गुनी, विशाखा, उत्तरापाढा ये तीन उत्कृष्ट नक्षत्र है । सो इन सर्व भक्तिकालनिको जोस सूर्य दक्षिणायनविप एकसौ तियासी दिन हो।
बहुरि अब चंद्रमाका कहिप हैं। पूर्वात महार चंद्रमाका भुक्तिकाल इकईस दिनका सतसटिवां भाग प्रमाण रयाई. तिस चंद्रमाहीक 'जघन्य मध्य उत्कृष्ट नक्षत्रनिका भुक्तिकालविपं.श्रवण आदि पुनर्वसु पर्यंत नक्षत्रनिकी पूर्वोक्त प्रकरर मुक्तिल्याइ.तिहविर्षे सर्वत्र. सदसठिको भाजक. करि भाज्यका अपवर्तन करि बहुरि भाजक तीस भर माज्यका - जघन्य. उचट नक्षत्रनिका. पंद्रहकरि अपवर्तनकरिअर मध्यमनिक तीसके. अपवर्तनकरि जो जो पावै सो सो तिस तिस नक्षत्र विर्ष स्थापन करना । बहुरि पुप्यवि सूर्यके मुक्ति सतमठि दिनका पांचवां भाग मात्रविष. चंद्रमाके भुक्ति एक दिन प्रमाण होइ तो पुप्यवि सूर्यकतेईस दिनका. पांचवां भागविः चंद्रमाकै केती होइ. ऐसे राशिक करि आई. जो तेईसका सतसठिवां भाग भाग प्रमाण भुक्ति सो उत्तरायणकी समाप्तताविक् दैनी ऐसेही दक्षिणायनविय विधान करना ।
भावार्थ-चंद्रमाकै उत्तरायणविर्षे पहले. अभिजितकी मुक्ति हो । ताका काल इकईस दिनका सतसठिवां भाग मात्र है । पीछे श्रवण
आदि. पुनर्वसु पर्यंत. नक्षत्र क्रमत भोगिए हैं। तहां तीन जघन्य नक्षत्रनिवि-एक एकका भुक्तिकाल- अर्थ दिन है सात मध्य नक्षत्रनिविर्षे एक एकका मुक्तिकाल. एक दिन: है। तीन उग्कृष्ट नक्षत्रनिविर्षे एक.. एकका भुक्तिकाल ड्यौढ दिन है । बहुरि तहां पीछे पुष्य नक्षत्रका - भुक्तिकाल एक दिनवि तेईसः दिनका सतराठिवां भाग कालप्रमाण. पुष्य नक्षत्र भोगिए हैं। ऐसें सर्वकाल. जो चंद्रमाका. उत्तरायणवियः तेरह दिन अर चवालीसके सहसठिवा भाग मात्र काल होह! .
बहुरिदक्षिणायनविर्षे पहले पुष्य नक्षत्र भोगिएं हैं तहां पुण्य
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नक्षत्रका मुक्तिकाल एक दिन विपैं तेईस दिनका सतसठियां भाग मात्र काल उत्तरायणविपैं गया अब शेष चचालीसका सांभर प्रमाण काल इहां भोंगिए हैं । बहुरि आलेपा आदि उत्तरापःडा पर्यंत नक्षत्र क्रमते भोगिए हैं। तहाँ तीन नम्रभ्य नक्षत्र सात मध्य नक्षत्र तीन उत्कृष्ट नक्षत्रनिका मुक्तिकाल क्रमतैं एक एकका आधा दिन एक दिन ड्योढ दिन जाननां । सर्वकाल मिलाएं चंद्रमात्रा दक्षिणायन विष तेरह दिन अर 'चवालीसका 'सडसंठित्रों भाग प्रमाण काल हो है ।
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अब राहुका कहिए हैं राहुके अभिजित आदि पुनर्वसु पर्यंत नक्षत्रकी भुक्तिच्या तिस तिस नक्षत्रविखें स्थापना करनां । बहुरि पुण्यविएँ सूर्य सपठि दिनका पांचवां माग प्रमाण भुक्ति होतें राहुके आठ च्यारिका इकसटिवां भाग प्रमाण भुक्ति होइ तो सूर्यके 'तेईस दिनका पनियां भाग प्रमाण मुक्ति होते राहू केती भुक्ति होइ ऐसेंल्याइ अपर्वतन करें दोयस छिहतरि दिनका इकसठवां भाग प्रमाण भुक्ति उत्तरायणकी समाप्तिविषै पुण्यकी स्थापना करनी बहुरि पूर्ववत् दक्षिणायन विषै विधान करना ।
भावार्थ - राहुकै उत्तरायणविषै प्रथम अभिजितकी भुक्ति हो है ताका काल दोयस चावन दिनका इकसठवां भाग मात्र है पीछे श्रवणादि पुनर्वसु पर्यंत नक्षत्रनिकी भुक्ति क्रमतें होडे । तिन विषे तीन जघन्य सात मध्य तीन उत्कृष्ट नक्षत्रनिका भुंक्तिकाल कमतें च्यारिसे दोयका इकसठिवां भाग बारहसै छैका इकपठियां भाग प्रमाण हो । पं पुष्यकी भूक्ति हो ताका काल आठसेच्यारि दिनका इकस ठिवाँ भागविषै दोयस छिइंतरि दिनका ईक्सठिवां भाग मात्र पुष्यकी मुक्तिका काल हो है । ऐसें सर्वकाल मिलि राहूकै उत्तरायण वि एकसौ सी दिन हो ।
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बहूरिराहू दक्षिणायनविषै प्रथम पुण्यका मुक्तिकालविषै अवशेष पांचसे अठाईस दिनका इकसठिवां भाग प्रमाण काल पर्यंत तौ पुण्यकी भुक्ति हो । पीछे आलेपादि उत्तराषाढ पर्यंत नक्षत्रनिकी मुक्ति क्रमतें 1 हो । तहां तीन जघन्य सात मध्य तीन उत्कृष्ट नक्षत्रनिका भुक्तिकाल कम च्यारिसे दोयका इकसठवां भाग माउसै च्यारिका इकसठियां भाग चारहसै छैका इकसठिवां भाग मात्र है । ऐसें सर्वकाल मिलि राहुके दक्षिणायनचिषै एकसौ असी दिन हो । याप्रकार नक्षत्र भूक्तिक समच्छेद करि जोडें चंद्रमा के अयन के दिन तेरह अर चवालीसका सतसठिवां भाग हो । बहुरि दोक अयन मिलाएं वर्ष के दिन सताईस इकतीसका इकसठवां भाग हो । बहूरि सूर्यकै अयन दिन एकसौ तियासी वर्ष दिन तीनसै छपासठि हो है । वहुरि राहुकै अयनदिन एक असी वर्ष दिन तीनसें साठि हो हैं ॥ ४०९ ॥ आर्गै अधिक मासका प्रतिपादन के अर्थ सूत्र कहैं हैंइगिमा से दिणवति वस्से चारह दुवस्सगेसदले || अहिओ मासो पंचयवासप्पजुगे दुमासहिया ॥ ४१० ॥ . एकस्मिन् मासे दिनवृद्धि वर्षे द्वादश द्विवर्षके सदले ॥ अधिक मासः पंचवर्षात्मकयुगे द्विमासो अधिकौ ॥ ४१० ॥ अर्थ:- एक मासविपैं एक दिनकी वृद्धि होइ अढाई वर्षं विषै एक मास अधिक हो | पंच वर्षका समुदाय सोई हैं स्वरूप नाका ऐसा युग तिहविषै बारह दिन बर्षे तो अढाई वर्षविषै कितने दिन बधै ऐसें किएं लब्धराशि तीस दिन होइ । ऐसें ही युगविषै भी त्रैराशिक करना ।
भावार्थ:-- एक वर्षके वारह मास एक मासके तीस दिन तहां इकसठिवें दिन एक तिथि घटे तातै वर्षके तीनस चौवन दिन होइ । मर सूर्यके वीनसै छासठि दिन है । सो बारह दिन एक वर्षविष
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aad भए सो अढाई वर्ष व्यतीत भएं एक अधिक मास होह तब तेरह मासका वर्ष होइ । बहुरि ऐसें ही मढाई वर्ष और भए एक मास अधिक होइ । या प्रकार पांच वर्ष प्रमाण जो युग तिहविषै दोय अधिक मास होइ ॥ ४१० ॥
अब पूर्व गाथाका जु अर्थ ताहीको आठ गाथानिकरि वर्णन करें
आसाढ पुष्णमीए जुगणिप्पत्ती दु सावणे किण्हे || अभिजिम्हि चंदजोगे पाडिवदिवस म्हि पारभो ॥ ४११ ॥ आपाठपूर्णिमायां युगनिष्पत्तिः तु श्रावणे कृष्णपक्षे ॥ अभिजिति चंद्रयोगे प्रतिपदिवसे प्रारंभो ॥ १११ ॥
अर्थः- आषाढ मासविषै पृन्यौकेँ दिन उपरान्त समय उत्तरायणकी समाप्तता होते पंच वर्ष स्वरूप युगकी निष्पत्ति कहिए संपूर्णता सो हो है । बहुरि श्रावण मास कृष्ण पक्षविषै अभिजित नक्षत्र भर चंद्रमाका योग होते पडिवा दिन दक्षिणायनका प्रारंभ हो है ।
भावार्थ:-- आषाढ सुदिपून्यौं अपराण्हविषै तौ पूर्व युगकी समासता भइ | बहुरि श्रावण वदि एकै दिन जहां चंद्रमा के अभिजित नक्षत्रका मुक्तिकाल होह तहां सूर्यका दक्षिणायनका आरंभ हो है । सोई नवीन पांच वर्ष स्वरूप जो युग ताका प्रारंभ जानना ॥ ४११ ॥
किस वीथीविपैं किस अयनका प्रारंभ हो है सो कहें हैं— पढमंतिमवीहीदो दक्खिणउत्तरदिगगणपारंभो ॥ आउट्टी एगादीदुगुत्तरा दक्खिणाउट्टी ॥ ४१२ ॥ प्रथमांतिमवीथीतः दक्षिणोत्तरदिगयनप्रारंभः । आवृत्तिः एकादिद्विकोत्तरा दक्षिणावृत्तिः ॥ ४१२ ॥
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अर्थ-प्रथम अंतिम वीथीते दक्षिण उत्तर दिशाका अयनका प्रारम होहै । भावार्थ:-एकसौ चौरासी वीथिनिधि प्रथम अभ्यंतर वीथीविर्षे तिष्ठता सूर्यके दक्षिण अयनका प्रारंभ होहै । . अंतर बाह्य वीथीविर्षे तिष्ठता सूर्यकै उत्तर अयनका प्रारंभ होहै । बहुरि सोई दक्षिणायन भर उत्तरायणकी प्रथम आवृत्ति है। पूर्व अयनकों समाप्तकरि नवीन मयनका ग्रहण ताका नाम आवृत्ति जाननां । तहां एकको मादि देकरि दुगुत्तरा कहिए दोय वृद्धि प्रमाणलिएं दक्षिण आवृत्ति होई ।। ४१२॥
उत्तरायणकी आवृत्ति कैसे है सो कहते हैंउत्तरगा य दुआदि दुचया उभयस्थ पंचयं गच्छो ।।
विदिआउट्टी दु हवे तेरसि किण्हेसु मियसीसै ॥ ४१३ ।। उत्तरगा च द्वयादिः द्विचया उभयत्र पंचकं गच्छः ॥ - द्वितीयावृत्तिः तु भवेत् त्रयोदश्यां कृष्णेषु मृगशीर्षायाम् ॥४१३ ____ अर्थः- उत्तरायण संबंधी आवृत्ति सो दोयकों आदि देकर द्विचयाः कहिए दोयवृद्धि प्रमाण लिए हैं । बहुरि उभयत्र कहिए दोउ जायगा दक्षिणायन उत्तरायणविर्षे गच्छ कहिए स्थान प्रमाण सो पांच जाननां ॥ भावार्य पूर्व अयनकौं समाप्तकरि नवीन अयनका ग्रहण होते अयनकी जो पलटनी ताका नाम आवृत्ति है.। सो पंच वर्ष प्रमाण एक युगवि दश बार आवृत्ति हो है । तहां पहली तीसरी पांचवीं सातवीं नबमी आवृत्ति तौ दक्षिणायन संबंधी है । जाते तहां उत्तरायणकौं समाप्त करि दक्षिणायनका ग्रहण कीजिए है । बहुरि दूसरी चौथी छट्टी आठवी दशमी आवृत्ति उत्तरायण संबंधी है । जाते तहां दक्षिणायनकौं समाप्तकरि उत्तरायणको ग्रहण कीजिये हैं तहां दक्षिणायन संबंधी आवृत्ति श्रावण मासविर्षे हो है ! सो प्रथम आवृत्ति तो पूर्व कही थी, बहुरि दुसरी आवृत्ति कृष्णपक्षविर्षे तेरसिके दिन चंद्रमा ‘मृगशीर्षा नक्षत्रका भुक्तिकालविर्षे हो है ॥ ४१३ ॥
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तीसरी मादि आवृत्ति कब होत है सो कहै हैं।. सुक्कदसमीविसाहे तदिया सत्तमिगकिण्हरेवदिए । तुरिया दु पंचमी पुण सुक्कचउत्थीए पुवफग्गुणिये ।। ४१४ शुक्लदशमीविशाखे तृतीया सप्तमी कृष्णरेवत्याम् ॥ तुरिया तु पंचमी पुन: शुक्कचतुथ्यों पूर्वफाल्गुन्याम् ॥४१४
अर्थः--शुक्ल पक्ष दशमी तिथिवि विशाखा नक्षत्रका योग होते तीसरी भावृत्ति हो है । बहुरि कृष्ण पक्षकी सप्तमी तिथिविर्षे रेवती नक्षत्रका योग होते चौथी आवृत्ति हो है। बहुरि शुक्लपक्षकी चौथी तिथिविर्षे पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रका योग होते पांचवी आवृत्ति हो है ॥ ४१४॥ इन करि कहा हो है सो कहैं हैं।दक्षिणअयणे पंचसु सावणमासेसु पंचवस्सेसु ॥ एदाओ मणिदाओ पंचणियट्टीउ सूरस्स ॥४१५॥ दक्षिणायने पंचसु श्रावणमासेसु.पंचवर्षेषु ।। एतः भणितः पंचनिवृत्तयः सूर्यस्य ४१५ ॥
अर्थः-दक्षिणायनविर्षे पांच जे श्रावण मास पांच वर्षनिविर्षे होइ तिनविर्षे ए पांच आवृत्ति सूर्यकी कही हैं ॥ ४१५ ॥
उत्तरायणविर्षे भावृत्ति कैसे हे सो कहैं हैं।माघे सत्तमि किण्हे हत्थे विणिवित्तिमेदि दक्खिणदो ॥ विदिया सदभिससुक्के चोत्थीए होदि तदिया दु ॥४१६।। माघे सप्तम्यां कृष्णे हस्ते विनिवृत्ति एति दक्षिणतः ॥
द्वितीया शतभिशुक्ल चतुर्यो भवति तृतीया तु ॥ ४१६ ॥ • अर्थ:-माघमासविर्षे उत्तर आवृत्ति हो है तहां कृष्ण पक्षकी सप्तमी तिथिविर्षे चंद्रमाके हस्त नक्षत्रकी मुक्ति होते अयनपलटै है
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सोई उत्तरायणवि प्रथम भावृत्ति है । बहुरि दूसरी बावृत्ति शतभिषक नक्षत्रका योग होते शुक्ल पक्षकी चौथी तिथिविष हो है ॥ ४१६ ॥
बहुरि तीसरी बादि आवृत्ति कैसे सो कहैं हैं।पडवदि किण्हे पुस्से चोत्थीमूले य किण्हतेरसिए ॥ कित्तिय रिक्खे सुके दसमीए पंचमी होदि ॥ ४१७ ॥
प्रतिपदि कृष्णे पुण्ये चतुर्थी मुले च कृष्णत्रयोदश्याम् ॥ - कृत्तिका ऋक्षे शुक्ले दशम्यां पंचमी भवति ॥४१७॥
अर्थ-कृष्ण पक्षकी पडिवातिथिवि पुष्य नक्षत्रका योग होते तीसरी आवृत्ति होहै । बहुरि चौथी आवृत्ति कृष्ण पक्षको त्रयोदशी तिथिवि मूल नक्षत्रका योग होते हो है। बहुरि शुक्ल पक्षको दशमी तिथिवि कृत्तिका नक्षत्रका योग होते पांचवी आवृत्ति हो है ॥४१७॥ कह्या अर्थको जोडै हैंताओ उत्तरअयणे पंचसु वासेसु माघमासेसु ॥ . आउट्टीओ भणिदा सूरस्सिह पुचरीहिं ॥ ४१८ ।। ताः उत्तरायणे पंचसु वर्षेषु माघमासेषु ॥ आवृत्तयः भणिताः सूर्यस्येह पूर्वसरिमिः ॥ ४१८ ॥
अर्थ-ते ए आवृत्ति उत्तरायणविर्षे पांच वर्षनिवि जे पांच माघमास होहि तिनविर्षे पूर्व आचार्यनिकरि सूर्यकी कही हैं । अब कही . जु गाथा तिनका रचनाका उद्धार करनेका विधान कहिए हैं। पांच वर्षका समुदाय सो. युग है । जाते युगके भारंभ पांच वर्ष व्यतीत भए तिथि मादि रचना जैसे पहिले युगविर्षे गी तेसै ही है । सो युगविर्षे दक्षिणायनका प्रारंभ तो पांच श्रावण मासनिविर्षे होई अर उत्तरायणका प्रारंभ पांच माघमासनिविर्षे होइ । बहुरि वीचिविर्षे दक्षिणायनविर्षे . फाल्गुन बादि मास होहैं। .
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तहां एक एक मासकी इकतीस तिथि स्थापन करनी। काहेत ? एक मासकी तीस तिथि होहै । अर-" इगिमासं दिणवड्ढी " इस सूत्र करि एक मासविर्षे एक दिन वधै ताते इकतीस तिथि स्थापन करना । इहां पंद्रह पंद्रह दिनका पक्ष ग्रहण किया तातै एक मासके तीस दिनही ग्रहण किए । बहुरि नो तिथि घटै है तिहकी विवक्षा किए पक्षविर्षे भी घटती दिन कहना होह मासविर्षे मी कहना होइ ताते भावार्थ:- एक जानि तीस दिनही मासके ग्रहण कीए । तहां युगवि. दक्षिणायनविर्षे प्रथम श्रावण मासविर्षे कृष्ण पक्षके पंद्रह शुक्लके पंद्रह कृष्णका एक दुसरेवि कृष्णके तीन शुक्ल के पंद्रह कृष्णके तेरह, तीसरेविर्षे शुक्लके छह कृष्णके पंद्रह शुक्लके दश, चौथेविर्षे कृष्णके नव शुक्लके पंद्रह रुष्णके सात, पांचवां विर्षे शुक्लके बारह कृष्णके पंद्रह शुक्लके च्यारि दिन
बहुरि उत्तरायणविर्षे प्रथम माषविर्षे कृष्ण पक्षके सात, दूसरेविखें शुक्ल के बारह कृष्णके पंद्रह कृष्णके एक चौथेविर्षे कृष्णके तीन शुक्ल के पंद्रह कृष्णके तेरह, पांचवां माघविर्षे शुक्लके छह कृष्णके पंद्रह शुक्लके दश दिन होहै । बहुरि दक्षिणायनवि वीचि जे भाद्रपदादिक मास अर उत्तरायणविर्षे वीचि फाल्गुन आदि मास तिनविर्षे भादिवि एक एक घटता पर अंतविपैं एक एक बधता दिन स्थापन करिए ऐसे एक एक मासविषै इकतीस तिथी स्थापन किए तीह मासविर्षे वा तीह तीह मयनविषै अधिक दिन आते हैं। ___ भावार्थ:--प्रथम भावणविषै वदि एकैसे लगाय पंद्रह तिथी कृष्ण पक्षकी अर पंद्रह शुक्ल पक्षकी पर एक भाद्रपदका कृष्णकी मिली एकतीस तिथि होई । वहरि भाद्रपदविर्षे पंद्रह तिथि कही थी तामें एक घटाएं दोय अश्विनके कृष्ण पक्षकी मिलाएं इकतीस तिथि हो है। बहुरि अश्विनीविर्षे मादिमें एक घटाएं तेरह कृष्ण
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पक्षकी पंद्रह शुक्ल पक्षकी अंतविखें एक वधाएं तीन कार्तिक कृष्ण पक्षकी मिलाएं इकतीस तिथी हो हैं । ऐसे ही कार्तिकवि बारह कृष्णकी पंद्रह शुक्लकी च्यारि कृष्णकी मार्गशीर्प विष ग्यारह कृष्णकी पंद्रह शुक्लकी पांच कृष्णकी पौषविर्षे दश कृष्णकी पंद्रह शुक्लकी छह कृष्णकी तिथि मिले इकतीस तिथि होई। . - बहुरि उत्तरायणविर्षे माघवदी सात ते नव कृष्णकी इत्यादि रचना किए बहुरि दक्षिणायनविर्षे द्वितीय श्रावणमास वि श्रावण वदी त्रयोदशीत लगाय तीन कृष्णकी पंद्रह शुक्लकी तेरह कृष्णकी तिथि हो हैं। बहुरि भाद्रपदादिकवि रचना करानी । ऐसें रचना किएं मासविष अयनवि अधिक दिन आवै है। इस क्रमकरि पंचवर्षात्मक युगविय दोय अधिक मास हो हैं। ॥ ४१८ ॥ ____आरौं दक्षिणायन और उत्तरायणके प्रारंभ विर्षे नक्षत्र ल्यावका विधान कहैं हैं।
रूऊणाउद्विगुणं इगिसीदिसदं तु सहिद इगिवीसं ।। - तिघणहिदे अवसेसा अस्सिणि पहुदीणि रिक्खाणि १४१९॥
रूपोनावृत्तिगुणं एकाशीतिशतं तु सहितं एकविंशत्या ॥ • निधनहते अवशेषाणि आश्विनी प्रभृतीनि ऋक्षाणि ।४१९। ... मर्थः-रूपोनावृत्ति कहिए जेथवी आवृत्ति होइ तामें एक घटाएं जो प्रमाण होइ तिहकरि गुण्या हुवा एकसौ इक्यासी तामें इकईस नोडिए अर ताकौं तीनका धन जो सत्ताईस ताका भाग दिएं नेता अवशेष रहै तेथवा नक्षत्र अश्विनी आदितै नाननां । उदाहरण-जैसे विवक्षित आवृत्ति प्रथम तामैं एक घटाएं शुन्य अवशेष रहै तीहकरि एकसौ-इक्यासीको गुणिए सो शून्य करि गुण्या हुवा अंक शून्य ही होइ तातै गुण भी शून्य ही पाया। तीह बिदिविर्षे इकईस जो. इकईस ही भए ।
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बहुरि इहां सचाईस तैं अधिक होता तौ सत्तइसका भाग देते तातें इकईस ही रहे सो अश्विनी भरणी कृत्तिका आदि अनुक्रमतें गिनें अश्विनी तें लगाय जो ईकईसवां नक्षत्र होइ सोई प्रथम आवृत्तिविषै नक्षत्र होइ सो अश्विनीतें लगाय Feed नक्षत्र उत्तराषाढा है । परंतु इहां अभिजितका ग्रहण करना । काहे सो कहिए हैं । यद्यपि नक्षत्र अठ्ठाइस है । तथापि नहीं नक्षत्रनिकी गणनादिक करिए हैं तहां सत्ताईस नक्षत्र निहीका ग्रहण कीजिए हैं । अभिजित नक्षत्रका ग्रहण न कीजिए हैं जातें याका साघन सूक्ष्म है तातें इहां प्रथम आवृत्तिविषै स्थूलपर्ने साधन किए उत्तराषाढ भावै परंतु सूक्ष्मपर्ने साधन किए अभिजित नक्षत्र जाननां । आगेंमी अश्विनी आदिकर्ते वा कार्तिक आदिकतें नक्षत्र गणना विषै अभिजित नक्षत्रका ग्रहण करना नाहीं ।
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या प्रकार दक्षिणायनका प्रारंभविषै प्रथम श्रावण मासविषै नक्षत्र ल्यावनैका विधान ह्या । अब दूसरा उदाहरण कहिए हैं । विवक्षित दूसरी आवृत्ति तामैं एक घटाएं एक रक्षा तीह करि एकसौ इक्यासी कौं गुण एकसौ इक्यासीst हुवा इनमें इकईस मिलाएं दोयसै दोय भए इनको सताईसका भाग दिएं अवशेष तेरह रहे सो अश्विनी नक्षत्रत तेरन्हीं नक्षत्र हस्त सो उत्तरायणका प्रारंभविषै प्रथम माघ मासविषै हस्त नक्षत्र पाईए हैं। ऐसेही तीसरी पांचवी सातवी नवमीं आवृत्तिविषै दक्षिणायनका प्रारंभ श्रावण मासविषै होहै । तहां अर चौथी छठी आठवी दशव आवृत्तिवि उत्तरायणका प्रारंभ माघ मासविपैं हो हैं । तहां नक्षत्र साधन करनां ॥। ४१९ ॥
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आगे दक्षिणायन उत्तरायणकै पर्व वा तिथि ल्यावनैविपैं सूत्र कहे हैं -
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- वेगाउद्विगुण तेसीदिसदं सहिद तिगुणगुणरूवे ॥ .: पण्णरमजिदे पव्वा सेसा तिहिमाणमयणस्स ॥ ४२.॥
व्येकावृत्तिगुणं त्र्यशीतिशतं सहितं त्रिगुणगुणरूपेण ।।
पंचदशभक्त पर्वाणि शेष तिथिमानं अयनस्य ।। ४२०॥ 'अर्थः-व्येका वृत्ति कहिए जेथवी विवक्षित आवृत्ति होइ तामें एक घटाएं जो प्रमाण रहै तिहकरि एक सौ तियासीको गुणिए, बहुरि जितनें गुणकारक एकसौं तियासीकौं गुणकरि ताकौं तिगुणाकरि तामें जोडिएं । वहुरि एक और जोडिए जो प्रमाग होइ ताको पंद्रहका भाग दोजिए जो लब्ध प्रमाण भावे तितने तो पर्व जाननें अवशेष रहे सो तिथि प्रमाण नाननां । दक्षिणायन वा उत्तरायणका ऐसही जाननां उदाहरण विवक्षित आवृत्ति प्रथम तामैं एक घटाएं विदीही तिहकरि एकसौ तियासीकों गुणों हिंदी करि गुणे बिंदीही होइ इस न्यायकरि विदीही भाई। ... बहुरि इहां गुणकार विंदी ताको तिगुणां किएभी बिंदीविष बिंदी जो. बिंदी ही भई । बहरि तामैं एक नो. एक भया योको पंद्रहका भाग लागै नहीं तातै पर्वका तो अभाव जाननां । अर अवशेष एक रह्या सौ तिथिका प्रमाण जानना ऐसे प्रथम मावृति दक्षिणायनका प्रारंभविर्षे प्रथम श्रावण मासवि, पर्वका तो अभाव आया पक्षकी पूर्णताभएं पूर्णमा वा अमावस्था जो होइ ताका नाम पर्व है । सो युगका आरंभ भएं पीछे जेते पर्व व्यतीत होइ सोई . इहां पर्वनिकी संख्या नाननी । सो प्रथम आवृत्तिविर्षे कोऊ भी पर्व-व्यतीत भया तातै पर्वका अभाव जाननां । अर तिथिका. प्रमाण एक जाननां ।
बहुरि दूसरा उदाहरण विवक्षित आवृत्ति दूसरी तामैं एक घटाएं एक रया तीहकरि एकसौ तियासीकौं गुणे एकसौ तियासी भए । बहुरि गुणकारको प्रमाण एक ताको तिगुणा किए तीनसौ मिलाय एफैसौ छियासी भये । बहुरि तामैं एक और जोडें एकसौ सित्यासी भए ।
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(१३७)
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बहुरि तामैं एक और जोडे एकसौ सित्यासी भए । इनको पंद्रहका भाग दिएं बारह पाएं सो बारह तौ पर्वको प्रमाण भया । युगका प्रारंभ वारह पर्व व्यतीत भएं पीछे दूसरी आवृत्ति हो है। भर अवशेष सात रहे सो सात तिथि जाननी । ऐसें दूसरी आवृत्ति उत्तरायणका प्रारंभ होते प्रथम माघमासवि होई तहां युगके आरंभ बारह तौ पर्व व्यतीत भए जानने भर सातै तिथि जाननी । याही प्रकार अन्य आवृत्तिनिविर्षे भी पर्व वा तिथीका प्रमाण ल्यावनां ॥ ४२०॥
आगै दिन वा रात्रिका प्रमाण निहिकालवि समान होइ ताका नाम विपुप हैं तिह विपुपविक् पर्व वा तिथि वा नक्षत्रानिकौं छह गाथानिकरि युगके दश अयनिवि कहे हैं:
छम्मासद्धगयाण जोइसयाण समाणदिणरत्ती ॥ तं इसुपं पढमं छसु पन्त्रसु तीदेखें तदिय रोहिणिए ।।४२०॥ पण्मासार्धगतानां ज्योतिप्काणां समानदिनरात्री । तत् विषुवं प्रथमं षट्सु पर्वसु अतीतेषु तृतीया रोहिप्याम् ॥
अर्थः-छह मासका अर्द्ध ज्योतिषीनिक भएं समान रात्रि हो है सोई विषुप है। भावार्थ:--एक अयन छह मासका हो है। तहां आधा अयन भएं दिन भर रात्रिका प्रमाण समान हो है।' सो जिस कालविर्षे दिन रात्रि होई ताका नाम विपुप है । सौ पंचे वर्ष प्रमाण युगवि दश विपुप हो हैं। पांच तौ दक्षिणायनका अर्द्धकालविर्षे पर पांच उत्तरायणका अर्द्धकालविर्षे हो है तहां पहला विषुप दक्षिणायनका अर्धकालविर्षे दूसरी उत्तरायणका अकोलंवि ऐसै क्रमत जाननें । तहां प्रथम विपुप मृगके आरंभः छह पर्व व्यतीत भएं तृतीय तिथिविर्षे रोहिणी भक्ति चंद्रमाकै होत होत सो हो सते हो है ॥ ४२१॥
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विगुणणवपव्वतीदे णवमीए विदियगं धणिहाए ॥ इगितीसगदे तदियं सादीए पण्णरसमहि ॥ ४२२ ॥ द्विगुणनवपर्यातीतेषु नवभ्यां द्वितीयकं धनिष्टायाम् || एकत्रिंशग्ते तृतीयं स्वातौ पंचदशाम् ॥ ४२२ ॥
अर्थ :-- दुगुण नव जो युग के आरंभ पीछे अठारह पर्व व्यतीतमएं नवमी तिथिविषै घनिष्ठा नक्षत्रका योग चंद्रमा होतें दुतीय विपुष हो । बहुरि इकतीस पर्व व्यतीत भएं तीसरा विपुप स्वाति नक्षत्र सन्तै पंचदशी तिथिविप हो । सो कृष्णपक्ष पक्ष पनेतै भर्थतें अमावास्या विषय हो है || ४२२ ॥
वेदालगदे तुरियं छडिपुणन्वसुगयं तु पंचमयं ॥ पणवण्णपव्वतीदे वारसिए उत्तराभद्दे || ४२३ ॥ त्रिचत्वारिंशद्गतेषु तुरीयं षष्ठीपुनर्वसुगतं तु पंचमयं ॥ पंचपंचाशत्पर्वातीतेषु द्वादश्यां उत्तराभाद्रे ॥ ४२३ ॥
अर्थः-- तियालीस पर्व व्यतीत भए चौथा विपुप पष्ठीविषै पुनर्नसु नक्षत्रकौं प्राप्त भएं हो है । बहुरि पांचवां विषय पञ्चावन पर्व व्यतीत भएं द्वादशी तिथिविषै उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र होत संतै हो है ॥४२३॥
असहिगदे तदिए मित्ते छहे असीदिपव्गदे ||
वमिधा सत्तममिह तेणउदिगदे द अनुपयं ॥ ४२४ ॥ दु अष्टषष्ठिगतेषु तृतीयायां मैत्रे पष्ठं अशीतिपर्वगतेषु ॥ नवमीमघायां सप्तमं इह त्रिनवतिगतेषु तु अष्टमम् ॥४२४ ॥
अर्थः- अडसठि पर्व गएं तृतीय तिथिदिपैं मैत्र जो अनुराधा नक्षत्र ताक होत संतैं छठा विषुप हो है । बहुरि असी पर्व गएं नवमी तिथिवि मघा नक्षत्र होते सातवां विषुप हो है । बहुरि इहां तेरणचे पर्व गएं आठवां विषुप हो है ॥ १२४ ॥
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अस्सिणि पुण्णे पव्वे णवम पुण पंचजुद सए पव्वे ।। तीते छट्टि तिहीए णक्खत्ते उत्तरासाढे ॥ ४२५ ॥ अश्विनी पूर्णे पर्वणि नवमं पुनः पंचयुत शतेपु पर्वेषु ।। अतितेपु षष्टी तिथी नक्षत्रे उत्तरापाढे ॥४२५ ।। .
अर्थ:--सो आठवां विपुप अश्विनी नक्षत्र होते पूर्ण जो अमावस्या तिडविर्षे हो है । बहुरि नवमां विपुप एकसौ पांच वर्ष व्यतीत भएं षष्ठी तिथिचि उत्तरापाढ नक्षत्र होते हो हैं ॥ ४२५ ॥
चरिमं दसम विसुपं सत्तरहसुत्तर सएसु पव्वेसु ॥ तीदेसु बारसीए जाइति उत्तरगफग्गुणिए ॥ ४२६ ।। चरम दशमं विपुर्व सप्तदशोत्तर शतेषु पर्वेषु ॥ : अतीतेषु द्वादश्यां जायते उत्तराफाल्गुन्याम् ॥ ४२६ ॥
मर्थः- अंतका दशवां विपुप एकसौ सतरह पर्व व्यतीत भएं द्वादशी तिथिविर्षे उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र होते हो है ॥ ४२६ ॥
आगें विपुपविर्षे पर्व वा तिथि स्थापनकौं सूत्र कहे है।विगुणे सगिइसुपे रूऊणे छग्गुणे हवे पव्वं ।। तप्पबदलं तु तिथी पवट्टमाणस्स इसुपस्स ।। ४२७ ॥ द्विगुणे स्वकेटविपुपे रूपोने पड्गुणे भवेत् पर्व ॥ तत्पवदलं तु तिथि: प्रवर्तमानस्य विपुवस्य ॥ ४२७ ॥
अर्थः-- अपना इष्ट विपुप नेथवा होइ तीह प्रमाणको दुणाकरिएं तामैं एक घटाइए बहुरि अवशेषकों छइ गुणा किएं पर्वनिका प्रमाण आवै है । बहुरि तिस पर्व प्रमाणका आधा सो प्रवर्तमान विवक्षित विपुपका तिथि प्रमाण हो है । तीह पर्वका आधा प्रमाण पंद्रहत अधिक होइ तो पंद्रहका भाग दिएं जो लब्ध प्रमाण होइ सो तो पर्व संख्याविर्षे जोलिए अर अवशेष रहै सो तिथिका प्रमाण हो है । इहां उदाहरण इष्ट
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(१४०)
विषुप पहला तार्को दुर्गां किए दोय तामैं एक घटाएं अबशेष एक ताक छह गुणां किएं छइसो प्रथम विपुपविषै युग आरंभतें व्यतीत पर्वनिका प्रमाण छह है । बहुरि तीह पूर्व प्रमाणका आधा तीनसो प्रथम विपुपविषै तिथि तृतीया है । दूसरा उदाहरण - इष्ट विपुप दशवां ताक दूणा किएं वीस तामें एक घटाएं उगणीस ताक छह गुणा किएं एक सौ चौदह सो पर्व प्रमाण ताका आधा सत्तावन ताक पंद्रहका भाग भाग दिएं तीन पाए सा पर्व संख्याविषै मिलाएं अंत विपुपविषै एकसौ सत्तरह तौ पर्वनिका प्रमाण है । अर अवशेष बारह रहे सो तिथि द्वादशी । ऐसें अन्य विपुपनिविषै भी जाननां ॥ ४२७ ॥
आगैं आवृत्ति अर विपुपविषै तिथि संख्याको कहें हैं, --- वेगपद छग्गुणं इगितिजुद आउहि सुपतिहिसंखा || विसमतिहीए कि हो समतिथिमाणो हवे सुक्को ॥ ४२८ ॥ व्येकपदं पड्गुणं एकत्रियुतं आवृत्तिविपुपतिथिसंख्या ॥ विपमतिथौ कृष्णः समतिथिमानो भवेत् शुक्लः ॥ ४२८ ॥
अर्थः - इष्ट भूतं जेथवीं आवृत्ति होइ तिस आवृत्ति स्थानक - मैस्यों एक घठाइए अवशेष - छह गुणाकरि दोय जायगा स्थापिए तहां एक जायगा एक और मिलाइए एक जायगा तीन और मिला क्रमतें आवृत्ति पर विपुपविषै तिथिको संख्या हो है तिनिविषै जो एक तृतीया पंचमी आदि विषम गणनारूप तिथि होइ तौ तहाँ कृष्ण पक्ष है । बहुरि द्वितीया चतुर्थी षष्ठी आदि समतिथि हैं तो वहां शुक्ल पक्ष है । उदाहरण इष्ट आवृत्ति प्रथम तामैं एक घटाएं शून्य ताकौं छह गुणा किएं भी शून्य होइ ताकौं दोय जायगा स्थापि तातैं एक जायगा एक जोड़ें एक होइ सो प्रथम आवृत्ति विषै तिथि एक है सो यह विषम तिथि है तातें इहां कृष्ण पक्ष जाननां । बहुरि दूसरी जायगा तीन जोडै तीन होइ सो प्रमथ् यावृत्ति संबंधी
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प्रथम विपुपविर्षे तिथिका तृतीया है । यहुभी विषम तिथि है तातै इहां भी रुष्ण पक्ष ही जाननां ।
बहुरि दूसरा उदाहरण-इष्ट भावृत्ति दशमी तामै एक घटाए नव ताकौं छह गुणा किए चौवन तिनको दोय नायगा स्थापि एक जायगा एक और मिलाएं पचावन होई ताकौं पंद्रहका भाग दिएं अवशेष दश रहे सोई दशवीं भावृत्तिविष दशमी तिथि है। इहां शुक्ल पक्ष जाननां । बहुरि दूसरी जायगा तीन और मिलाएं सत्तावन होइ ताको पंद्रहका भाग दिएं अवशेष बारह रहे सोई दशवां विषुपविषै तिथि द्वादशी है । यह भी सम तिथि हैं । तातै इहां भी शुक्ल पक्ष नाननां । ऐसेही अन्य आवृत्ति वा विपुपविष साधन करना ॥४२८॥ ___आगें विपुपवि नक्षत्रनिका वा सर्व तिथि ल्यावनैका विधान
आउहिलद्धरिक्खं दहजुद छहदसमगेणूणम् ॥ . इपुपे रिक्खा पण्णरगुणपव्वाजुदतिही दिवसा ।। ४२९ ।। आवृत्तिलब्धऋक्षं दशयुतं पष्ठाटदशमके एकोनं ॥ विपुवे ऋक्षाणि पंचदशगुणपर्वयुततिथयः दिवसानि ॥४२९
अर्थः-आवृत्तिविर्षे जो नक्षत्र पाया ताका मागला नक्षत्रसौं लगाय जो दशबा नक्षत्र होइ सो तीह आवृत्ति संबंधी नक्षत्र जाननां । तहां छठा आठवां दशवां विषुपविष एक घटावनां जो नवमां ही नक्षत्र होइ सो तीह विषुपविष जाननां । उदाहरण-दूसरी भावृत्ति विर्षे हस्त नक्षत्र है । तात मागें चित्रात लगाय दशां नक्षत्र धनिष्ठा है। सोई दूसरा विषुपवि. नक्षन जाननां । बहुरि दूसरा उदाहरण छठी आवृत्तिविष पुष्य नक्षत्र है। तातै पगिला आश्लेषात लगाय नवमा नक्षत्र रोहिणी है सोई छटा विपुपविर्षे नक्षत्र जानना इहां छटा भाववा
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दशवावि एक घाटि कहा है । तातै नवमां नक्षत्र ही ग्रहण किया। इहां गणनांविर्षे अभिजितका ग्रहण करना । ऐसे ही अन्य विपुपनिविष नक्षत्र साधन करना । बहुरि आवृत्ति वा विपुपविक् पर्व प्रमाणकों पंद्रह गुणां करि ताम तिथिप्रमाण मिलाएं समस्त दिननिका प्रमाण हो है। ___ उदाहरण दूसरी आवृत्तिविर्षे पर्वप्रमाण वारह तिनकों पंद्रह गुणां किएं एकसौ असी भएं, तहां तिथि प्रमाण सात मिलाएं एकसौ सित्यासी भए सोई युगके भारंभ एकसो सित्यासी दिन व्यतीत भएं दूसरी आवृत्ति हो है। इहां एकसौ तियासी दिन व्यतीत भए ही दूसरी भावृत्ति हो है तथापि घटती तिथिफी विवक्षा न करि पक्षके पंद्रह दिन गिणि ऐसा कथन किया है। ऐसे ही अन्य आवृत्ति का विपुपनिवि साधन करना ॥ ४२९ ॥
आग विपुपविर्षे नक्षत्रका त्यापना अन्य प्रकारकी दोय गाथानिकरि कहै हैं---
आउट्टिरिक्खमस्सिणिपहुदीदो गणिय तत्थ अजुदे ॥ इसुपेसु होति रिक्खा इह गणना वित्तियादीदो ॥ ४३०॥ आवृत्तिऋक्षं अश्विनीप्रभृतितः गणयित्वा तत्र अष्ट्युते ॥ विपुपेयु भवन्ति ऋक्षाणि इह गणना कृत्तिकादितः ॥४३०
अर्थ-आवृतिका नक्षत्रकों अश्विनी नक्षत्रतें लगाय गिणिए जेथवा होइ तिहविर्षे आठ मिलाएं जो प्रमाण होइ तिहविर्षे आठ मिलाए
जो प्रमाण होई तेथवा नक्षत्र विषुपवि५ जाननां इहां गणना कृत्तिका । आदितै करनी । उदाहरण-विवक्षित तीसरी आवृत्तिका नक्षत्र मृगशीर्षा
सो अश्विनी मृगशीर्ष नक्षत्र पांचवो है । बहुरि पांचविर्षे आठ मिलाए "तेरह होई तो कृत्तिका नक्षत्र तेरहवां नक्षत्र स्वाति है। सोई गणना किए तीसरा विषुपंविष स्वाति नक्षत्र जाननां ।। १३० ॥
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आगै आवृत्ति नक्षत्रका प्रमाणविर्षे आठ मिलाए नक्षत्र प्रमाणते राशि अधिक होइ तौ कहा करिए सो कहे हैं
यहियंकादडवीसं छंडेज्जो विदियपंचमठाणे ।। एक णिरिखवछठे दसमेवि य एकमवाणिज्जो ॥ ४३१ ।। अधिकांकादष्टविंशं त्याज्याः द्वितीयपंचमस्थाने । एक निक्षिपषष्ठे दशमेऽपिच एकमपनेयम् ॥ ४३१ ॥
अर्थ-आवृत्ति नक्षत्रकों अश्विनी गिनैं नेथवा होइ तामैं आठ मिलाए जो अट्ठाईसते अधिक राशि होइ तौ तिहमैंयौं अठाइस घटाए । अर दूसरा पांचवां आवृत्तिस्थानविर्षे आठ मिलाए जो राशि होइ तामैं एक और घटाइए । अर छटा दशवां भावृत्ति स्थानमेंस्यौं एक घटाइए इनका उदाहरण चौथी पावृत्तिविर्षे शतभिषक नक्षत्र है सो अश्विनीत पचीसवां है । तामें आठ मिलाए तेत्तीस होइ तिनमें सों अठाइस घटाए पांच रहे सो कृत्तिकात पांचवां नक्षत्र पुनर्वसु हैं । सोइ चौथा विषुपविर्षे जाननां ऐसे अन्यत्र भी जाननां । बहुरि दुसरी आवृत्तिविर्षे हस्त नक्षत्र है सो अश्विनीत तेरहवां है तामैं आठ मिलाएं इकईस होई एक और मिलाए बाईस होइ सो कृत्तिकात वाईसवां धनिष्ठा है सोई दूसरा विषुपविष जाननां । ऐसे पांचवां स्थानविपैं जानि लेना । बहुरि छट्ठी आवृत्तिविष पुष्य नक्षत्र है सो अश्विनीते आठवां है । तामैं आठ मिलाए सोलह होई तामैं एक घटाए पंद्रह रहें सो कृत्तिकातै पंद्रहवां नक्षत्र अनुराधा है। सोई पांचवां विपुपविर्षे नक्षत्र हैं। ऐसे दहवां स्थानविपैं भी जानि लेनां । इहा अट्ठाईस नक्षत्रकी विवक्षा है तातै गणनाविर्षे अभिजितका भी ग्रहण करनां ।। ४३१ ॥
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(१४४ )
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मागे नक्षत्रनिके नाम अनुक्रमतें कहैं हैं।कित्तिय रोहिणी मियसिर अद्दपुणव्वसु सपुस्स असिलेस्सा
महपुव्वुत्तर हत्था चित्ता सादी विसाह अपुराहा ॥४३२॥ कृत्तिका रोहिणी मृगाशीर्षा आद्रा पुनर्वसुः सपुष्यः आश्लेपा। मघां पूर्वा उत्तरां हस्तः चित्रा स्वातिः विशाखा अनुराधा ॥
अर्थ:-कृत्तिका, रोहिणी, मृगशीर्षा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा ।। ४३२ ॥
जेहा मुल पुवुत्तर आसाढा अभिजिसवण सधणिष्ठा । तो सदमिस पुव्वुत्तर भद्दपदा रेवस्सिणी भरणी ॥ ४३३ ॥ ज्येष्ठा मुलं पूर्वोत्तरी आपाढौ अभिजित श्रवणः सधनिष्ठा । ततः शतभिपा पूर्वोत्तर भाद्रपदा रेवती अश्विनी भरणी ॥
अर्थ:-- ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ, उत्तरापाढ, अभिजित, श्रवण, . धनिष्ठा, शतभिषक, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा,. रेवती, अश्विनी, भरणी, ए अट्ठाईस नक्षत्रनिके नाम हैं। गणनाविर्षे इस क्रमते गिननँ ।४३३। . आगै नक्षत्रनिके अधिदेवतानिकौं दोय गाथानिकरि कहैं हैं । -
अग्गि पयावदि सोमो रुद्दोदिति देवमंति सप्पो य ॥ पिदुभग अरियमदिणयर तोहणिलिंदग्गिमित्तिदा ॥ ४३४॥
अग्निः प्रजापतिः सोमः रुद्धः अदितिः देवमंत्री सर्पश्च ।। "पिताभगः अर्यमादिनकरः त्वष्टा अनिलंद्राग्निमित्रंद्राः ॥१३४॥
अर्थः-- अग्नि, प्रजापति, सोम, रुद्र, दिति, देवमंत्री, सर्प, पिता. भग, पर्यमा; दिनकरः त्वष्टा, अनिल, इंद्रनि, मित्र, इंद्र ॥ ४३४ ।।
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तो णेरिदि जल विस्सो बम्हा विष्ह वसूय वरुण अना॥ अहिवडिपसण अस्सा जमोवि भहिदेवदा कमसो ॥ ४३५॥ ततः नैतिः जल विश्वः ब्रम्हा विष्णुः वसुथ वरुणः अजः ॥ अभिवृद्धिः पूषा भवः यमोऽपि भधिदेवताः क्रमशः ॥४३५॥
अर्थ:--तहां पीछे नैऋति, नल, विश्व, ब्रमा, विष्णु, बसु, बरुण भज, अभिवृद्धि, पूषा, मश्व, यम, ए कृत्तिका मादि नक्षत्रनिके अनुक्रमकरि मषिदेवता । नक्षत्ररूप तारांनिके स्वामी जे देवं तिनके ए नाम जाननें ।। १३५॥
भागें नक्षत्रनिकी स्थितिविशेषका विधान कहैं हैं।कित्तियपडंतिसमये अहममपरिक्खमेदिमज्झण्हं ॥ .. भाराहारिक्खुदओ एवं सेसे वि मासिज्जो ॥ ४३६ ।। कृत्तिकापतनसमये अष्टमं महाभक्षं एति मध्याहम् ।। अनुराधामक्षोदयः एवं शेषेषु अपि भाषणीयं ॥ ४३६ ।।
मर्थ:-कृत्तिका नक्षत्रका पतन समय कहिये मस्त होने का काल तिहविर्षे इस कृत्तिकात माठवां मषा नक्षत्र सो मध्यान्ह कहिए वीषि प्राप्त हो है । बहुरि तीह मघात भाठवां अनुराधा नक्षत्र सो उदय होय है। ऐसे ही रोहिणी आदि नक्षत्रनिविर्षे जो नक्षत्र अस्त होइ तीह समय तीह नक्षत्रसौं भाठवां नक्षत्र मध्यान्हकों प्राप्त हो । भर तीहसौं भाठवां नक्षत्र उदयको प्राप्त होइ ऐसा करना ॥ ४३६ ।।
मागें चंद्रमाके पंद्रह मार्ग हैं लिनविर्षे इस मार्गवि . ए . नक्षत्र ति है। ऐसा तीन गाथानिकरि कहें हैं।
अभिजिणवसादि पुवुत्तरा य चंदस्स पढममग्गम्मि ॥ खदिएमषापुणवसुससमिए रोहिणी चित्ता ॥ १३ ॥
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: अभिजिन्नवस्वातिः पूर्वोत्तरा च चंद्रस्य प्रथममार्गे | - तृतीये मघा पुनर्वसु सप्तमे रोहिणी चित्राः ॥ ४३७॥ .
अर्थः- अभिजित आदि नव सो अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा, रेवती, अश्विनी, भरणी, अर ए मंत्र स्वाति, पूर्वाफागुनि, उत्तराफाल्गुनि ए बारह तो चंद्रमाके प्रथम मार्ग विर्षे विचरे हैं । चंद्रमाका प्रथम अभ्यंतर वीथीरूप परिधि तीहंविर्षे भूषण करे हैं। ऐसे ही तीसरा मार्गवि मघा पुनर्वसु ए दोय नक्षत्र विचरै हैं । सातवां मार्गवि रोहिणी चित्रा एं दोय नक्षत्र विचरें
. . छहमदसमेयारसमे कित्तिय: विसाह अणुराहा:
जेष्टा कमेण सेसा पण्णारसमम्हि अहेव ।। ४३८॥ . पृष्ठाटमदशमैकादशे कृत्तिका: विशाखा अनुराधा ।। ज्येष्ठा- क्रमेण शेषाणि पंचदशे अष्टैव ।।-४३८ ॥
अर्थः- छट्टा मार्गविषै कृत्तिका आठवांविष विशाखा दशवांविर्षे अनुराधा ग्यारवांविर्षे ज्येष्ठा क्रमकरि विचर हैं। अवशेष आठ . नक्षत्र पंद्रहवां अंतका मार्गके ऊपरि विचर हैं ॥ ४३८ ॥
ते शेष पाठ नक्षत्र कौन सो कहैं हैं:-- ..... । हत्थं मूलतियं विय मियसिरदुग पुस्सदोणि अवग।
अंठपहेणखत्ता तिहतिहु वारसादीया ॥ ४३९को हस्त मूलत्रयं अषि-मृगशीपादिकं पुष्यद्वयं अष्टैव . अष्टपथे नक्षत्राणि तिष्ठति हि द्वादशादीनि ॥.४३९।
अर्थः हस्त, मूल त्रय कहिए-मूल पूर्वाषाढ, उत्तराषाढा, मृगशीर्षा द्विक कहिए-मृगशीर्षा, आर्हा, पुष्यद्वयं कहिए-पुष्य, आश्लेषा
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( १.१७).
ए.माठ अवशेष जाननें । ऐसें प्रथमादिक पथनिवि आदि नक्षत्र चंद्रमाके माठ पथनिकै ऊपरि तिठे हैं ॥ ४३९ ॥. .
मागें नशत्रनिके तारानिकी संख्या दोय गाथानिकरि कहै हैं।कित्तिय पहुदिसु तारा छप्पणतियएकछत्तिछक्कचऊ ॥
दो दो पंचेकेकं चउछत्तियणवचउकचऊ ॥ १४० ॥ . कृत्तिका प्रभृतिषु ताराः षट्पंचतिस्रः एकपत्रिपट्चतु ॥
द्वे द्वे पंच एकैका चतुः पत्रिकनवचतुष्काः चतसः ॥४४०॥
अर्थ:-कृत्तका आदि नक्षत्रनिके तारे अनुक्रमकरि छह पांच तीन एक छह तीन छ। च्यारि दोय दोय पांच एक एक च्यारि छह तीन नव च्यारि च्यारि ॥ ४४०॥ .
तिय तिय पंचेक्कारहियस य दो दो कमेण बत्तीसा ॥ पंच य तिण्णि य तारा अहावीसाण रिक्खाणं ।। ४४१ ॥
तिसः तिस्रः पंचकादशाधिकशतंद्वे द्वे क्रमेण द्वात्रिंशत् ॥ '.. पंच च तिस्रः च तारा अष्टाविंशानां ऋक्षाणां ।। ४४१ ।।
मर्थः-तीन तीन पांच ग्यारह अधिक एक सौ दोय दोय बत्तीस पांच तीन ऐसे ए तारा क्रमकरि अट्ठाईस नक्षत्रनिके हैं ।। ४४१ ।। मार्गे तिन तारानिका आकार विशेषकों तीन गाथानिकरि कहैं हैं:.वीयणसअलुद्धीए मियसिरदीवे य तोरण छत्ते ॥
पम्हियगोमुत्ते विय सरजुगहन्थुप्पले दीवे ॥ ४४.२ ॥ . वीजनशकटी द्धिका मृगशिदीपे च त रणे छने ।
वल्मीकगोमूत्र अपि शरयुगहस्तात्पले दंपे ॥ ४४२ ॥ अर्थ:- 'त्रका नक्षत्रके छह तारे हैं तिनका आकार व जना दृश है। ऐसेही रोहिणी आदि नक्षत्रके तारानिका आकार. क्रमते गाडेकी
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(१४८) अद्धिका, हिरणका मस्तक, दीपक, तोरण, छत्र, बंबई, गऊका मूत्र, शरफायुगल, हाथ, कमळ, दीपक ॥ ४४२ ॥
अधियरणे वरहारे वीणासिंगे य विच्छिए सरिसा ।। दुक्कयवावीहरिगजकुंभे मुरवे पतंतपक्खीए ॥ अधिकरणे वरहारे वीणाश्रृंगे च वृश्चिकेन सदृशाः ॥
दुष्कृतवापीहरिगजकुम्भेन मुरजेन.पतत्पक्षिणा ॥ ४४३ ॥ मर्थः- पहिरिणी, उत्कृष्टहार, वीणाका शृंग, वीछू जीर्णा वावडी, सिंहका कुंभस्थल, मृदंग, पडतापंखी ॥ ४४३ ॥
सेणागयपुव्वावरगत्ते णावाहयस्स सिरसरिसा ॥ . चुल्लीपासाणणिमा कित्तिय आदीणि रिक्खाणि ॥४॥ सेनागजपूर्वावरगाने नावाहयस्य शिरसाः सदृशाः ॥ 'चुल्लीपाषाणनिमाः कृत्तिकादीनि ऋक्षाणि ॥ १४ ॥
मर्थ:-सेना, हस्तीका मागिला शरीर, हस्तीका पाछिला शरीर, नाष, घोडेका मस्तक, चुल्हाको पाषाण समान कारकों धरै हैं तारे जिनके ऐसे कृत्तिकादि नक्षत्र जानने ॥ ४४४ ॥ . . .
भाग कृत्तिकादि नक्षत्रनिके परिवाररूप तारानिकों कहैं हैंएकारसयसहस्सं सगसगतारापमाणसंगुणिदं ॥ परिवारतारसंखा कित्तियणक्खत्तपहुदीणं ॥ ४४५ ॥ एकादशशतसहस्र स्वकस्वकताराप्रमाणसंगुणितम् ।।
परिवारतारा संख्या कृत्तिका नक्षत्रप्रभृतीनाम् ॥ ४४५ ॥ ' अर्थ:--ग्यारह अधिक-एकसौ सहित एक हजारकौं अपने अपने तारानिका प्रमाणकरि गुणे जो प्रमाण होइ सो कृतिका नक्षत्र मादि नक्षत्रनिको परिवाररूप तारेनिकी संख्या जाननी। ' ' . .
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. उदाहरण----कृतिका नक्षत्रके मुलतारे छह हैं इनिकौं ग्यारहस ग्यारहकरि गुणे छह हजार छइसै छासठि तारे कत्तिका नक्षत्रके परिवार के हैं। ऐसे ही रोहिणी भादिक भी जानने नक्षत्रनिके जे भाषिदेवता तिनिके अनुसारी इनिविर्षे वसै है ॥ ४४५ ॥ .. . . आगें पंच प्रकार ज्योतिषी देवनिकी आयु प्रमाण कहैं हैं. इंदिणसुकगुरिंदरेलक्खसहस्सासयं च सहपल्लं ॥
पलंदल तु तारे वरावरं पादपादद्धं ॥ ४४६ ॥ . :. इंद्विनशुक्रगुर्वितरेपुलक्षले सहस्रशतं च सहपल्यम् ॥
पल्यदलं तु तारा सुवरमवरं पादपादार्धम् ॥ ४४६ ॥ : .
अर्थः-चंद्रमा सूर्य शुक्र बृहस्पति इतर इनविर्षे क्रमते लाख हनारसौ वर्षसहित पल्य अर्द्धपल्य प्रमाण आयु है । भावार्थ:-चंद्रमाका आयु लाख वर्ष सहित पल्य प्रमाण है। सूर्यका आयु' हजार वर्षसहित पल्य प्रमाण है । शुक्रका आयु सौ वर्षसहित पल्य प्रमाण है . बृहस्पतिका मायु पल्य प्रमाण है । इतर बुध मंगल शनैश्वरादिकका भायु.माध पल्य प्रमाण है । बहुरि तारे कहिए तारा भर नक्षत्र इनका आयु उत्कृष्ट तो पाद काहिए पत्यका चौथा भाग प्रमाण है। भर जपन्य. पदार्थ. कहिए पत्यका बाठवां भाग प्रमाण है ॥ १४६ ॥ .. आगें चंद्रमा सूर्यनिकी देवांगनानिकौं दोय गाथानिकरि कहै हैं
चंदामा य सुसीमापहंकरा अचिमालिणी चंदें । सुरेदुदिमुरपहापहंकराअचिमालिणी देवी ॥ १४७॥ चंद्रामा च सुसीमाप्रमंकरा अर्चिमालिनी चंद्रे ॥
सूर्ये धुतिः सूर्यप्रभा प्रभंकरा अर्चिमालिनी देव्यः ।।४४७, - अर्थ-चंद्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा, अर्चिमालिंनी ए च्यारि चंद्रमाकै पट्ट देवांगना है। बहुरि सूर्यके धुति, सूर्यप्रभा, प्रभंकरा, अर्चिमालिनी ए च्यारि- पट्टदेवी हैं ॥ ४४७ ॥
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(१५)
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जेहा ताओं पुह पुह परिवारचंदुस्सहस्सदेवीण ॥ : परिवारदेविसरिसं पत्तेयमिमा विउव्यन्तिः ॥ ४४८ ॥ ज्येष्ठाता पृथक् पृथक् परिवारचतुः सहस्रदेवीनाम् ।। परिवारदेवीसदृशं 'प्रत्येकमिमाः विकुर्वन्ति ॥ ४४८ ॥
अर्थ-ते ज्येष्ठ कहिए पट्ट देवी पृथक् पृथक् च्यारि हजार परिवार देवनिकी हैं। भावार्थ:-च्यारि च्यारि हजार परिवार देवांगनानिकी एक एक पट्ट देवांगना है। बहुरि इस परिवार देवी समान संख्याकों प्रत्येक विक्रिया करै हैं । स्पष्टीकरण:- एक एक पट्टदेवांगना. विक्रिया करै तौ च्यारि हजार हो हैं ।। ४ ४८॥ .
थाज्योतिष्क देवांगनानिक आयु प्रमाण कहै हैंजोइसदेवीणाऊ सगसगदेवाणमय होदि ॥ सव्वणिगिसुराणां बत्तीसा होंति देवीओ ॥ ४४९ ।। ज्योतिष्कदेवीनामायुः स्वकस्वकदेवामधं भवति ॥
सर्वनिकृष्टसुराणां द्वात्रिंशत् भवंति देव्यः ॥ ४४९ ॥ - अर्थ-ज्योतिष्क देवांगनाका, आयु · अपने अपने भार देवनिका आयुतै अर्घप्रमाण जाननां । बहुरि इहां सर्वते निकृष्ट हीन पुन्यवान देवतिनकै बत्तीस देवांगना हो हैं। मध्यविर्षे यथायोग्य देवांगनानिकी संख्या जाननी ॥ ४१९॥
आरौं भवनत्रिकविर्षे जे जीव उपजें है तिनकौं कहैं हैं., . उम्मग्गचारिसणिदाणणलादि मुदा अकामणिज्जरिणो ॥ - कुदवा सबलचारित्ता भवणतियं जंति ते जीवा ।४५०॥ : उन्मार्गचारिणः सनिदाना: अनलादिमृता अकामनिर्जरिणः ।।
कृतपसः शबलचारित्रा भवनत्रये यांति ते जीवाः ॥ ४५.॥
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( १५१ )
मर्थ-" मार्गचारी ॥ कहिए जिनमततै विपरीत धर्मके भाचरनवाले, बहुरि " सनिदानाः " कहिए निदानजिननें किया होइ । बहुरि " अनलादिमृता" कहिए अमि जल झंपापात आदिकतै मूए, बहुरि " अकामनिरिणः " कहिए विना अभिलाष बंधादिकके निमित परीषह सहनादि करि जिनकै निर्जराभई बहुरि " कुतपसः" कहिए पंचाग्नि आदि खोटे तपके करनेवाले बहुरि “शवल चारित्राः " कहिए सदोष चारित्रके धरनहारे जे जीव हैं ते भवत्रय जो भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी तिनविर्षे जाय उपजै हैं ।। ४५० ॥
ऐसें ज्योतिर्लोकका अधिकार समाप्त भया। इति श्री नेमिचंद्राचार्य विरचित त्रिलोकसारमें
चौथा ज्योतिर्लोकका अधिकार
समाप्त भया ॥ ४॥
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निर्माल्यसंबंधी ध्यानमें रखनेयोग्य श्लोक.
पुत्तकलत्तविहीणो दारिदो पंगुमूकबहिरंषो। चाण्डालाइकुजादो पजादाणाइ दव्वहरो ॥ ३२ ॥ .
(कुंदकुंदाचार्यकृत रयणसार ) . " देवतानिवेद्यानिवेद्यग्रहणम् ॥
(श्रीअकलंकाचार्यकृत रानजातिक) प्रमादाद्देवतादत्तनैवेद्यग्रहण तथा ॥ .. ++ + इत्येवमतरायस्य भवन्त्यास्रबहेतवः ।।
(श्रीमभृतचंद्रसरिकृत तत्वार्थसार) देवशास्त्रगुरूणां भो निर्माल्यं स्वीकरोति यः॥ वंशच्छेद परिप्राप्य स पश्चादुर्गतिं व्रजेत् ॥ ६३ ॥
(श्रीसकलकीर्तिकृत सुभाषितावलि) इत्यादिवर्णनोपेत नरके निषेधकाः। लभते च महादुःखं पूजाद्रव्यापहारिणः ॥ ८०॥ निर्माल्यभक्षका ये च मानवा मदमोहिताः। तेऽपि तत्र महादुःखभाजिनः स्युन संशयः ॥ ८३ ॥
(श्रीसकलभूषणकृत-उपदेशरत्नमाला) देवार्चकश्च निर्माल्यभोक्ता जीवविनाशकः ॥ . . * * * इत्यादिदुष्टसंसगै सत्यजेत्पक्तिभोजने ॥.
' (पं० सोमसेनकृत त्रिवर्णाचार) परस्त्रीगमने नूनं देवद्रव्यस्य भक्षणे । सप्तमं नरकं यान्ति प्राणिनो नात्र संशयः॥
सोमकीर्तिरिकत-पद्युम्नचरित्र) जो ण य भक्खेदि सयं तस्सण अण्णस्स जुज्जदे दादुं ।। भुत्तस्स.भोजितसहि णस्थि विसेसो तदों कोवि ॥ ७९ ।।
... ( स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षा)
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धर्म हो ? तुह्यास जर जैनधर्माचं खरें रहस्य समजून घ्यावयाच असेल तर हीं पुस्तकें मागविण्यास विसरू नका.
अवश्य मागवा.
शासन देवता पूजनचर्चा, निर्माल्यद्रव्यचर्चा, भूमिशयनचर्चा अशौचनिर्णय, खरीपूजा - डोली पूजा - भाडोत्री पूजा वगैरे महत्वाच्या विषयांवर ज्यामध्ये शास्त्रीय प्रमाणे च मोठमोठया विद्वान लोकांचे अभिप्राय देऊन निभीडपणाने चर्चा केली आहे अशी हिंदी व मराठी पुस्तकें अवश्य मागवा. शासनदेवतापूजनचर्चा मराठी
| कार्तिकेयानुप्रेक्षातील गृहस्थधर्म -+मिश्र विवाह चर्चा
भाग पहिला हिंदी भाग दुसरा
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शासनदेवतापूजन व रत्नकरंड
टीकाकार प्रभाचंद्र 6
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शासनदेवता व सहा आणे अंतर शासनदेवता घरीं भाल्यावेळीं
सत्कार करूं नये यागम - प्रमाणता में शास्त्रार्थ
1
-11- वेश्यानृत्य करविल्यामुळे तेरापंथी
पणास बाधा येईल काय ? ८अशौच निर्णय
4.
निर्माल्य द्रव्यचर्चा परिशिष्ट सचित्र सम्यक्त्वर्धक मासिकांत आलेले
बावीस लेख
४el
•1.
62
भूमिशयन मूलगुण चर्चा नवधाभक्तिचर्चा मराठी
6
हिंदी भाग २-1पं. पाशास्त्री के लेखका खंडन ४सम्वत्ववर्धक पत्रका उद्देश आदि अनेक लेख
अदृष्ट लेख निर्माल्यद्रव्यचर्चा मराठी भाग १ - खरीपूजा, डौलीपूजा, भाडोत्रीपुजा Satate क्षेपांचे निरसर.४= शासनदेवता पूजन चर्चा मराठी
ण्याचा उपाय
रत्नकरंड श्रावकाचार वचनीकेचे
मराठी भाषांतर
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सत्तावीस लेख
सहेचाळीस लेख
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पापण्यांची कारण व्यंतरांच्या आराधनेपासून नुकसान४प्रोषध शब्दासंघाचे
नाली ग्रंथका नमुना -1- पंचामृताभिषेक चर्चा
पूर्वाचार्यांचे उतारे पुरुषार्थसिद्धयुपाय सार्थ मराठी -III- गुरुपास्ति कां होत नाहीं ?
निर्माल्याच्या पापापासून चच
अकलंक प्रतिष्ठापाठकी जांच. तत्वार्थमूत्रादि पंचथावकाचार | सकलकीर्ति श्रावकाचाराचे मराठी भाषांतर -
जैन वक डेपो ल
रु. २
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१॥
भाग २ रा.
जैनधर्माचे प्राचीनत्व (ले- बॅरिस्टर tata इंग्शि ग्रंथाचे मराठी भाषांतर)
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