________________
-
-
अर्थ-प्रथम अंतिम वीथीते दक्षिण उत्तर दिशाका अयनका प्रारम होहै । भावार्थ:-एकसौ चौरासी वीथिनिधि प्रथम अभ्यंतर वीथीविर्षे तिष्ठता सूर्यके दक्षिण अयनका प्रारंभ होहै । . अंतर बाह्य वीथीविर्षे तिष्ठता सूर्यकै उत्तर अयनका प्रारंभ होहै । बहुरि सोई दक्षिणायन भर उत्तरायणकी प्रथम आवृत्ति है। पूर्व अयनकों समाप्तकरि नवीन मयनका ग्रहण ताका नाम आवृत्ति जाननां । तहां एकको मादि देकरि दुगुत्तरा कहिए दोय वृद्धि प्रमाणलिएं दक्षिण आवृत्ति होई ।। ४१२॥
उत्तरायणकी आवृत्ति कैसे है सो कहते हैंउत्तरगा य दुआदि दुचया उभयस्थ पंचयं गच्छो ।।
विदिआउट्टी दु हवे तेरसि किण्हेसु मियसीसै ॥ ४१३ ।। उत्तरगा च द्वयादिः द्विचया उभयत्र पंचकं गच्छः ॥ - द्वितीयावृत्तिः तु भवेत् त्रयोदश्यां कृष्णेषु मृगशीर्षायाम् ॥४१३ ____ अर्थः- उत्तरायण संबंधी आवृत्ति सो दोयकों आदि देकर द्विचयाः कहिए दोयवृद्धि प्रमाण लिए हैं । बहुरि उभयत्र कहिए दोउ जायगा दक्षिणायन उत्तरायणविर्षे गच्छ कहिए स्थान प्रमाण सो पांच जाननां ॥ भावार्य पूर्व अयनकौं समाप्तकरि नवीन अयनका ग्रहण होते अयनकी जो पलटनी ताका नाम आवृत्ति है.। सो पंच वर्ष प्रमाण एक युगवि दश बार आवृत्ति हो है । तहां पहली तीसरी पांचवीं सातवीं नबमी आवृत्ति तौ दक्षिणायन संबंधी है । जाते तहां उत्तरायणकौं समाप्त करि दक्षिणायनका ग्रहण कीजिए है । बहुरि दूसरी चौथी छट्टी आठवी दशमी आवृत्ति उत्तरायण संबंधी है । जाते तहां दक्षिणायनकौं समाप्तकरि उत्तरायणको ग्रहण कीजिये हैं तहां दक्षिणायन संबंधी आवृत्ति श्रावण मासविर्षे हो है ! सो प्रथम आवृत्ति तो पूर्व कही थी, बहुरि दुसरी आवृत्ति कृष्णपक्षविर्षे तेरसिके दिन चंद्रमा ‘मृगशीर्षा नक्षत्रका भुक्तिकालविर्षे हो है ॥ ४१३ ॥