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(२०) अर्थ---मनुष्यलोकके वि मेरकी प्रदक्षिणाझप है नित्यानि लिनकी ऐसे ज्योतिषी देव है।
वार्तिक-मरुप्रदक्षिणावपनं गत्यंतानित्ययं ॥ १ ॥ टीकामेरोः प्रदक्षिणा मेरुदक्षिणा इत्युच्यने किमर्थ गत्यंतरनिहत्यय वि रीता गतिर्मा भूत् ।। अर्थ-मेरुकी जो प्रदक्षिणा सो मेरु प्रदक्षिणा ऐसे कहिए है । प्रश्न-ऐसे कहा निमित लहिचे है। उत्तर-गन्यताकी निवृत्ति दर्थ करिये हैं । अर्थात् विपरीतगनि मति है 111 ॥
वार्तिक-गतःक्षणेक्षणेऽन्यत्यानित्यवाभाव इतिचंन्नाऽमीक्ष्यस्य विवक्षितचात् ॥ २ ॥ टीका-अयं निशब्दः कटम्प्वविचलेपु मावेषु वर्तत गतिश्च क्षणेक्षणऽन्येतिततोऽम्या नित्यति विशेषण नोपपद्यत इतिह किंकारणमामीशयाय विवक्षितत्वात | यथा नित्यप्रहसितो नित्यप्रति इति आमीक्ष्ण्यं गन्यत इति एवमिहापि नित्यगतयः अनुपरतगतय इत्यर्थः ।।
बर्थ-प्रश्न-यो नित्यशब्द कूटस्य अविचलमाव है तिनके वि प्रवत है । अर गति क्षणक्षणमें अन्यअन्य हैं । तात याको नित्य विशेषण नहीं उत्पन्न होय है । उत्तर-सो नहीं है ।। प्रश्न-कहा कारण ! उत्तरनिरंतरपणांका विवक्षितयणांत । सो जैसे कहिये है कि यो पुरुष नित्य प्रहसित है । तथा नित्यप्रजालियन है ऐसें कहने से निरंतरपणाने नणा. वे है। ऐसे ही इहां भी नित्यगतयः पद जो है सो निर्विन गतिमान है। एसा जनावनकै अर्थ है।
वार्तिक-अनकान्ताच्च ।। ३ ।। टीका-यथा सर्वभावपु द्वन्यार्थादेशात्स्यानित्यत्वं पर्यायादिशात्स्यादनित्यत्वा तथा गताबपति नित्वमविरुद्ध
अर्थ - जैसें सर्वभावनिकविर्ष द्रव्यार्थका पादेशत कयंचित् नित्यपणों अर पर्यावार्थका आदेशतकथंचित् नित्यपगों है । तैसँगतिविमी नित्यपणों अविरुद्ध है । क्योंकि उनकी गति अविच्छेदरूप है यति ।
नार्तिक-नलोकग्रहणं विषयाथै ॥ ६॥ टीका-स.तृतीयेषु