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तो णेरिदि जल विस्सो बम्हा विष्ह वसूय वरुण अना॥ अहिवडिपसण अस्सा जमोवि भहिदेवदा कमसो ॥ ४३५॥ ततः नैतिः जल विश्वः ब्रम्हा विष्णुः वसुथ वरुणः अजः ॥ अभिवृद्धिः पूषा भवः यमोऽपि भधिदेवताः क्रमशः ॥४३५॥
अर्थ:--तहां पीछे नैऋति, नल, विश्व, ब्रमा, विष्णु, बसु, बरुण भज, अभिवृद्धि, पूषा, मश्व, यम, ए कृत्तिका मादि नक्षत्रनिके अनुक्रमकरि मषिदेवता । नक्षत्ररूप तारांनिके स्वामी जे देवं तिनके ए नाम जाननें ।। १३५॥
भागें नक्षत्रनिकी स्थितिविशेषका विधान कहैं हैं।कित्तियपडंतिसमये अहममपरिक्खमेदिमज्झण्हं ॥ .. भाराहारिक्खुदओ एवं सेसे वि मासिज्जो ॥ ४३६ ।। कृत्तिकापतनसमये अष्टमं महाभक्षं एति मध्याहम् ।। अनुराधामक्षोदयः एवं शेषेषु अपि भाषणीयं ॥ ४३६ ।।
मर्थ:-कृत्तिका नक्षत्रका पतन समय कहिये मस्त होने का काल तिहविर्षे इस कृत्तिकात माठवां मषा नक्षत्र सो मध्यान्ह कहिए वीषि प्राप्त हो है । बहुरि तीह मघात भाठवां अनुराधा नक्षत्र सो उदय होय है। ऐसे ही रोहिणी आदि नक्षत्रनिविर्षे जो नक्षत्र अस्त होइ तीह समय तीह नक्षत्रसौं भाठवां नक्षत्र मध्यान्हकों प्राप्त हो । भर तीहसौं भाठवां नक्षत्र उदयको प्राप्त होइ ऐसा करना ॥ ४३६ ।।
मागें चंद्रमाके पंद्रह मार्ग हैं लिनविर्षे इस मार्गवि . ए . नक्षत्र ति है। ऐसा तीन गाथानिकरि कहें हैं।
अभिजिणवसादि पुवुत्तरा य चंदस्स पढममग्गम्मि ॥ खदिएमषापुणवसुससमिए रोहिणी चित्ता ॥ १३ ॥