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स्वभाउते है, सो सार्थिक है । वहरि सूर्य चंद्रमा ग्रह नक्षत्र प्रकीर्णक तारका ऐसी पांच विशेष संज्ञा हैं । सो यह नामकर्मके उदयके विशेषत भई है । बहुरि सूर्याचद्रमसौ ऐसी. इन दोयकै न्यारी विभक्ति करी सो इनका प्रधान पणा जनावनेके अर्थि है । इनके प्रधान पणा इनके प्रभाव आदिकरि किया है।
बहुरि इनके आवास कहां है, सो कहिय है। इस मध्यलोककी समान भूमिके भागते सातसे नव योजन उपरि जाय तारानिक विमान विचरै हैं । ते सर्व ज्योतिषीनिके नीचे जानना । इनते दश योजन उपरि जाय सूर्यनिके विमान विचरे हैं। तात अशी योजन उपरि नाय चंद्रमानिके विमान हैं । तात तीनि योजन पर नाय नक्षत्रनिके बिमान हैं । तात तीनि योजन ऊपर जाय वुधनिके विमान हैं। तात तीमि योजन ऊपरि जाय वृहम्पतिके विमान है । ताते चारि योजन ऊपर जाय मंगलके विमान हैं। तातें चारि योजन ऊपर जाय शनैश्चरके विमान है। यह ज्योतिष्क मंडलका आकाशमें तले ऊरि एकसौ दश योजन माहीं जानना । बहुरि तिर्य विस्तार असंख्यात द्वीपसमुद्रपमाण घनोदधिवात वलय पर्यंत जानना । इहां उक्तंच गाथा है ताका अर्थ-सातसे नवे, देश, अशी, च्यारि त्रिक, दोय चतुष्क ऐसे एते योजन अनुक्रमते-तारा ७९० । सर्य १० । चंद्रमा ८० । नक्षत्र ३ । वुध ३। शुक्र ३ । बृहस्पति ३ । मंगल ४ । शनैश्चर ४ । इनका विचरना नानना ।।
ज्योतिष्काणां गतिविशेषप्रतिपत्यर्थमाह-- मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३ ॥
(श्रीमदुमास्वामिकृत ) टीका-मेरो प्रदक्षिणा मेरुप्रदक्षिणा । मेरुप्रदक्षिणा इतिवचनं । गतिविशेषप्रतिपत्यर्थ विपरीतगतिर्मा विज्ञायीति ॥ नित्यगतय इति । विशेषणमनुपरतक्रियाप्रतिपादनार्थ । नृलोकग्रहणं विषयाथ । अर्धतृतीयेषु द्वीपेसु द्वयोश्च समुद्रयोज्योतिष्का नित्यगतयो नान्यत्रेति ॥