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ज्योतिष्क विमानानां गतिहेत्वभावात्तद्वृत्यभाव इतिचेन्न, असिद्धत्वात् । गतिरताभियोग्यदेव प्रेरितगतिपरिणामात्कर्मविपाकस्य वैचित्र्यात्तेषां हि गतिमुखेनैव कर्म विपच्यत इति ॥ एकादशभियोजनशतैरेकविशेर्मेरुमप्राप्य ज्योतिष्काः प्रदक्षिणाश्चरन्ति ||
हिंदी वचनिका
भागे ज्योतिषीनिका गमनका विशेष जाननेके अर्थ कहते हैं
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अर्थात् मेरुप्रदक्षिणा ऐसा वचन हैं, सो गमनका विशेष जाननेकूं है । अन्य प्रकार गति मति जानुं । बहुरि नित्यगतयः ऐसा वचन है सो निरंतर गमन जनावने के अर्थ है । बहुरि नृलोकका ग्रहण है सो ढाई द्वीप दो समुद्र में नित्य गमन है अन्य द्वीप समुद्रनिमें गमन
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नाहीं ।
इह कोई तर्क करे हैं, ज्योतिषीदेवनिका विमाननिकै गमनका कारण नाहीं । ततै गमन नाहीं । ताकूं कहिये, यह कहना युक्त है । जातें तिनके गमनविर्षे लीन ऐसें आभियोग्य नातिके देव तिनका कीया गतिपरिणाम है । इन देवनिकें ऐसाही कर्मका विचित्र उदय है, जो गतिप्रधानरूप कर्मका उदय दे है ।
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बहुरि मेरुतें ग्यारह इकईस योजन छोड ऊपरें गमन करें हैं। सो प्रदक्षिणारूप गमन करें हैं । इन ज्योतिषीनिका अन्यमती कहै है, जो भूगोल भल्पसा क्षेत्र है । ताके ऊपर नीचे होय गमन है तथा कोई ऐसे कई है, जो ए ज्योतिषी तौ थिर है । अरु भूगोल अमे है । तातें लोककूं उदय अस्त दीखे हैं । बहुरि कहें हैं जो हमारे कहने तैं ग्रहण आदि मिले है । सो यह सर्व कहना प्रमाणबाधित है। जैनशास्त्र में इनका गमनादिकका प्ररूपण निर्वाध है । उदय अस्तका विधान सर्वत मिले है । याका विधिनिषेधकी चर्चा श्लोकवार्तिक में है । तथा गमनादिकका निर्णय त्रैलोक्यसार व्यादि ग्रंथनिय है, तहाँ ज्ञानना ॥
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