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विधिरि मुहूर्त वा दिनकरि क्रमतें पंद्रह तीस पंद्रहकरि अपवर्तनकरि जो जो पावैं सो सो तिस तिस नक्षत्र विर्षे स्थापन करनां ॥ ४०८ ॥
आगै पुण्यविषै विशेष हैं ताके प्रतिपादन के अर्थ कहें हैं । - सतिपंचमचउदिवसे पुस्से गमियुत्तरायणसमत्ती || सेसे दक्खिण आदी सावणपडिवदि रविस्स पढमपहे ॥ सत्रि पंचमचतुर्दिवसान् पुष्ये गत्वा उत्तरायणसमाप्तिः ॥ शेपान् दक्षिणादिः श्रावणप्रतिपदि रवेः प्रथमपथे ॥ ४०९ ॥
४०९ ॥
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अर्थ:-- तीन दिनका पंचवा भाग सहित च्यारि दिन पुण्य नक्षत्रका भुक्तिकालविषै नाइकरि उत्तरायणकी समाप्तता हो है । एसें करि पूर्वोक्त प्रकार पुण्य नक्षत्र मुक्तिका कालकौं सहसठ दिनer diari प्रमाण ल्याई तामें तीनका पांचवां भाग सहित च्यारि दिनका समछेद किए तेईस दिनका पांचवा भाग भया सो ग्रहिकरि उत्तरायणकी समासताविषै देनां अवशेष चवालीस दिनका पांचवां भाग रखा तामें कोष्ट पूरण करने के अर्थ तितना ही तेईस दिनका पांचवां भाग ग्रहि करि दक्षिणायनका प्रथम फोटविषै दिए यहु ही श्रावण मासविषै पडिवाके दिन सूर्यका प्रथम मार्गविषै दक्षिणायनका आदि हो है । अवशेष इकईस दिनका पांचवां भाग द्वितीय कोष्ट विखै दैनां । बहुरि ऐसेही पूर्वाक्त प्रकार आइलेपा आदि उत्तराषाढा पर्यंत नक्षत्रनिकी सूर्यके भुक्तिका काल ल्याइ तिहतिe नक्षत्रविषै स्थापन करनां ।
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भावार्थ:-- सूर्यका उत्तरायणविषै प्रथम अभिजित नक्षत्रकी भुक्तिं हो हे ताका काल पूर्वोक्त प्रकार किएं इकईस दिनका पांचवां भाग प्रमाण है । पीछे क्रमतें श्रवण १ घनिष्ठा शतभिखा १ पूर्वाभाद्रपदा १ रेवती १ अश्विनी १ भरणी १ कृत्तिका १ रोहिणी १ मृगशीर्षा १ मार्दा १ पुनर्वसु १ इनकी मुक्ति हो है । तहां शतभिषा १ भरणी १ आर्द्रा १ ए तीन जघन्य नक्षत्र हैं तिनका तौ एक एकका भुक्तिकाल