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आगे कहिए हैं सो हैं :
णिसहुवरिं गंतव्वं पणसगवण्णास पंचदेसूणा ॥ - तेत्तियमेत्तं गत्ता सिहे अत्थं च जादि रवी ॥ ३९१ ॥ निपधोपरि गंतव्यं पंचसप्तपंचाशत् पंचदेशोना || तावन्मात्रं गत्वा निपधे अस्तं च याति रविः ॥ ३९१ ॥
अर्थ :- निषध के ऊपर जानां पांच सत्तावन पांच इन अंक क्रमकरि पांच हजार पांच से पिचहत्तर योजन देशोन कहिए किछुघाटि इतना निषध पर्वत ऊपर नाइ सूर्य अस्तपनेकों प्राप्त होई ।
भावार्थ: परिधिविषं भ्रमण करतां सूर्य जब निपधपर्वतकः दक्षिण तटतैं पैरै किघाटि पचावनसै पिचहतरी योजन जाई तब अस्त हो है । अयोध्यादिक भरत क्षेत्र के वासिनी करि न देखिए ॥ ३९९ ॥
अव जाका प्रयोजन तिस चापके ल्यावनेकों तिसके बाण ल्यावका विधान कहें हैं, चापादिकका वर्णन तो आगे होइगा इहां प्रयोज - नंमृत वर्णन करिए हैं
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- जंबूचारघरूणो हरिवस्ससरो य णिसहवाणो य ॥
इह वाणावहं पुण अभंतरवीहि वित्थारो ॥ ३९२ ॥ जंबूचारधरोनः हरिवर्षशरः च निपधत्राणश्च ॥ इह वाणवृत्तं पुनः अभ्यंतर वीथी विस्तारः ॥ ३९२ ॥
अर्थः- धनुषाकार क्षेत्र विषै जैसे धनुषका पीठ हो है तैसें जो : होइ ताका नाम धनुष है वा ताका नाम चाप भी है । बहुरि जैसे धनु- पकै हो है तैसें जो होइ ताका नाम जीवा है । बहुरि जैसें तिस धनुषका मध्यत जीवाका मध्य पर्यंत तीरका क्षेत्र हो है तैसे जो होई ताका नाम बाण है । सो इहां जबूद्वीपकी पेदी अर हरि क्षेत्र वा निषेध पर्वतके बीचि जो क्षेत्र सो धनुषाकार क्षेत्र हो है । तहां हरि क्षेत्र वा निषध
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