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________________ ( १०० ) हारका भाग दिए एक लाख तेईस हजार सातसे अडसठ योजन अर १८ अठारह उगणीसवां भाग प्रमाण १२३७६८८, निषध कुलाचलका चाप हो हैं इस चात्रका अयोध्या के पास अर्धपणां है तातें इस चापक आघा किया । बहुरि अयोध्यातें चक्षुःस्पर्शाध्वान प्रमाणक्षेत्र पर सूर्यदी से ताक तिस आधा प्रमाणस्यों घटाएं अवशेष जो रह्या तितनें निपचचापविषै उत्तर तट उ आइ सूर्य भरत क्षेत्र विषै उदय हो हैं ऐसा भावार्थ जानना ।। ३९२ ॥ ऐसे ल्याए जु हरि क्षेत्र निषेध पर्वतके चाप तिनका कहा करनां सो कई हैं हरिगिरिधणुसेसद्धं पासभुजो सत्तमगतिवेसीदी ॥ हरिवस्से णिसवष्णू अडछस्सगतीसवारं च ।। ३९३ ॥ हरि गिरिधनुः शेषार्थ पार्श्वभुजः सप्तसप्तत्रियशीतिः ॥ हरिवर्षे निपधधनुः अष्टपट्सप्तत्रिंशद् द्वादश च ॥ ३९३ ॥ अर्थः निधपर्वतका चापविषै हरिक्षेत्रका चाप घटाई ताका आधा करिए इतना निषेध पर्वतकी पार्श्व भुजा है । दक्षिण तट, उत्तर टपर्यंत चापका जो प्रमाण ताका नाम इहां पार्श्व भुजा नाननां । तहाँ निषघ पर्वतका धनुः १२३७६८ । १८ विषै हरिक्षेत्रका धनुः १९ ८३३७७ । ९ घटाइए तब अब शेष चालीस हजार तीनसै इक्याणवै १९ योजन अर नव उगणीसवां भाग प्रमाण होइ ४०३९१ ।९ याका १९ आधा करना तहाँ योजन प्रमाणस्यों एक घटाइ आधा करिए तब पीस हजार एक सौ विच्याण योजन होइ । बहुरि जो एक घटाया था
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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