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________________ ( ७८ ) अर्थ-जंबू द्वीप संबंधी सूर्य वा चंद्रमा तो एकसौ असी योजनतौ द्वीपवि विचरें हैं । अब शेष लवण समुदविर्ष विचर हैं। बहुरि अवशेष सूर्यचंद्रमा अपनां क्षत्रही विर्षे विचर है। भावार्थःचार क्षेत्रका जो व्यास कशा तामें जवृद्वीपसंबंधी चंद्रमासयनिका एक सौ असी १८० योजन तो जवृद्वीपविय र तीनसौ तीस योजन अर अठतालीस भाग लवण समुद्रविर्ष चार क्षेत्रका व्यास जाननां । अवशेष पुष्करापर्यंत द्वीप वा समुद्रसंबंधी चंद्रसूर्यनिका चार क्षेत्र अपना अपनां द्वीपवासमुद्रही विप॑ नाननां ।। ३७५ ॥ मागें सूर्यचंद्रनिके वीथी जो गली तिनका प्रमाण कह है:पडिदिवसमेकत्रीथिं चंदाइचा चरति हु कमेण ॥ चंदरस य पण्णरसा इणस्स चउसीदिसयवीथी ।। ३७६ ।। प्रतिदिवसं एकवीथि चंद्रादित्याः चरति हि क्रमेण ॥ चंद्रस्य च पंचदश इनस्य चतुरशीतिशतं वीथ्यः ॥३७६॥ अर्थ:-दोय दोय मिलिकरि एक एक दिन प्रति एक एक वीथीप्रति चंद्रमा वा सूर्य विचरै हैं क्रमकरि । तहां चंद्रमाकी पंद्रह वीयी बहुरि इन कहिए सूर्य ताकी एक सो चौरासी गली हैं ; भावार्थ-जो चार क्षेत्र कह्या तिहविर्षे चंद्रमाकी तो पंद्रहगली है, सूर्यकी एकसौ चौरासीगली हैं तहां एक एक दिन प्रति एकएक गलीविष दोय चंद्रमा वा दोयसूर्य गमन करें हैं ॥ ३७६ ॥ आग वीथीनिका अंतराल करि दिवसप्रति गति विशेषकों कहें हैं-- पथवासपिण्डहीणा चारक्खेत्ते णिरेयपथमजिदे ।। वीथीण विच्चालं सगविवजुदोदु दिवसगदी ॥ ३७७ ॥ पथव्यासपिण्डहीना चारक्षेत्रे निरेकपथभक्त ।। . वीथीनां विचालं स्ववियुतं तु दिवसगतिः ॥ ३७७ ॥
SR No.010018
Book TitleJain Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankar P Randive
PublisherHirachand Nemchand Doshi Solapur
Publication Year1931
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size7 MB
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