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सगरविदलविणा लवणादी सग दिवायरहिया ॥ मुरंतरं तु जगदी आसण्ण पहंतरं तु तस्सदलं ॥ ३७३ ।। स्वकरविदलवियोनं लवणादेः स्वकदिवाकरार्धाधिकं ॥ सूर्यातरं तु जगत्यासन्नपथांतरं तु तस्यदलम् ॥ ३७३ ॥
अर्थ-अपना अपना जहां जेते सूर्य हैं तहां तितनां सूर्यनिका प्रमाणते अर्घ प्रमाणकरि सूर्यके विवनिका प्रमाणको गुणिकरि जो प्रमाण होहताकौं लवणादिकका व्यासमैस्यों घटाइए जो प्रमाण रहै ताको स्वकीय सूर्यनिका प्रमाणते आषां प्रमाणका भाग दीजिए यों किए नेता प्रमाण आवै तितनां सूर्य सूर्यवि. अंतराल जाननां । वहुरि जगती कहिए वेदी तिह थकी " आसन्नपथांतरं " कहिए निकटवर्ती सूर्य विषका अंतराल सो तिहस्यों अर्ध प्रमाण जाननां । तहां उदाहरणलवण समुद्रवि सूर्य च्यारि हैं ताका अर्घ प्रमाण दोय तीह करि सूर्य विषका प्रमाण मठतालीसका इकसठिवां भाग ताकौं गुणे छिनवैका इकसठियां भाग होइ ९६ याको लवण समुद्रका व्यास दोय लाख योजन तामैं समच्छेद विधान करि घटाइए तब एक कोडि इकईस लाख निन्याणवे हजार नवसैच्यारिका इकसठिवां भाग प्रमाण होई १२१९९९०४ बहुरि एक तो सूर्यविर्षे अंतराल पर सूर्यते अभ्यंतर वेदिकाका भर द्वितीय सूर्यंत बाह्य वेदिका मिलि करि एक अंतराल ऐसे दोय अंतराल विर्षे इतनां १२१९९९०४ अंतराल होई तौ एक अंतराल विर्षे केता
अंतराल होई ऐसेंकरि ताकौं अपने सूर्यनिका प्रमाण च्यारि ताते आषा दोय ताका भागदीएं निन्याणवें हजार नवस निन्याणवै योजन अर एक योजनका एकमो चाईम भागविौं छन्त्रीस भागताका दोयकरि अपवर्तन