Book Title: Bhav Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव त्रिभ त्रिभङ्गी Estication International आर्चाय श्री श्रुतमुनि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री श्रुतमुनि विरचित भाव त्रिभङ्गी अनुवाद / संपादन ब्र. विनोद कुमार जैन, शास्त्री ब्र. अनिल कुमार जैन, शास्त्री श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल पिसनहारी मढ़ियाजी पिसनहारी मढ़िया जी जबलपुर जबलपुर प्रकाशक गंगवाल धार्मिक ट्रस्ट नयापारा, रायपुर (म.प्र.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 कृति - भाव त्रिभङ्गी प्रणेता - आचार्य श्री श्रुतमुनि 0 अनुवाद /संपादन ब्र.विनोद जैन ब्र.अनिल जैन 0 प्रथम संस्करण मई 2000 - 1100 प्रतियाँ 0 सहयोग राशि . 25/- मात्र प्राप्ति स्थान - (1) श्री केसरी लाल कस्तूरचंद गंगवाल नयापारा, रायपुर (म.प्र.) (2) ब्र. जिनेश जैन संचालक - श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल पिसनहारीमढ़िया, जबलपुर (म.प्र.) (3) ब्र.विनोद जैन श्री दिग. जैन अतिशय क्षेत्र पपौराजी, जिलाटीकमगढ़ (म.प्र.) फोन - 07683-32378 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय ब्र. विनोद जी, का रायपुर आना पर्व में हुआ था । आपकी सारगर्भित वाणी से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ। मैं प्रतिवर्ष धार्मिक कार्यों में वार्षिक - व्यय करता रहता हूँ। इस बार मैने ब्रह्मचारी जी से किसी उपयोगी कार्य हेतु दान देने बावत पूछा तो आपने "भाव त्रिभङ्गी' नामक ग्रन्थ की चर्चा की। मैंने सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी। इस ग्रन्थ का प्रकाशन पूज्य पिता श्री कस्तूरचंद जी गंगवाल एवं माता श्रीगुलाब बाईगंगवाल की स्मृति में उनकी पुत्रवधु श्रीमती उर्मिला गंगवाल कर रही हैं। श्रीमती उर्मिला जी पिता श्री कस्तूरचंद एवं माताश्री गुलाब बाई के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। श्री कस्तूरचंद एवं गुलाब बाई जी के बारे में क्या कहा जाये। आप दोनों ही सरल एवं उदार हृदय व्यक्ति थे। आप दोनों की धर्म में अगाढ़ श्रद्धा थी। निरन्तर जीवन में कर्त्तव्यपथ के साथ-साथ जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की तरफ अपका सदैव ध्यान बना रहता था। श्रावक के षट् - आवश्यक कर्त्तव्यों का निर्दोष और समीचीन रीति से पालन करते थे। तीर्थ वन्दना में आपकी अत्यधिक रुचि थी। यही कारण था कि आप दोनों ने समस्त तीर्थों की श्रद्धा से पूर्ण वन्दना की थी। निरन्तर धर्म में समय व्यतीत हो ऐसी भावना के कारण आप लघु शान्ति विधान से लेकर सिद्धचक्र विधान यथा काल सम्पन्न करवाते रहते थे। आपकी दृष्टि गुणग्राही थी। सज्जनों का सम्मान तथा दुर्जनों के प्रति मध्यस्थ भाव ये दोनों भाव आप दोनों के व्यक्तित्व में पूर्णतः समाये हुये थे। साधु-सन्तों के प्रति पूर्ण सर्मपण था। इन सभी गुणों के कारण आज हम लोग भी धर्म में पूर्ण आस्थावान् हैं। इस कृति का साधु-समाज में पूर्णरूपेण उपयोग हो ऐसी मनोभावना है। प्रकाशक गंगवाल धार्मिक ट्रस्ट नयापारा, रायपुर (म.प्र.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् श्री ब्रह्मचारी विनोद कुमार जी एवं ब्र. अनिल कुमार जी निरन्तर स्वाध्याय में लीन रहते हैं। श्री वर्णी दिग. जैन गुरुकुल के उच्चतम स्नातक हैं। अनेक वर्षों तक यहाँ अध्ययन कर आप दोनों ने चारों अनुयोगों का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया है। उसके फलस्वरूप आपके द्वारा अनूदित / सम्पादित प्रकृतिपरिचय, सिद्धान्त - सार, ध्यानोपदेश-कोष प्रकाशित हो चुके हैं। जिन्हें विद्वत् - समाज ने सम्मानित किया है। दोनों ही ब्रह्मचारी प्रगतिशील हैं अब आपके द्वारा "भाव त्रिभङ्गी" आचार्य श्री श्रुतमुनि विरचित प्रकाश में आ रही है। इसका प्रकाशन गंगवाल धार्मिक ट्रस्ट, नयापारा, रायपुर की ओर से हो रहा है। दोनों ब्रह्मचारी विद्वान् इसी तरह अपने अध्ययन का मधुरफल समाज को प्रदान करते रहें ऐसी मनोभावना है। विनीत डा. पं. पन्ना लाल जैन साहित्याचार्य Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयोद्गार भारतीय दर्शनों में प्रायः करके सभी दर्शनकारों ने कर्म के अस्तित्व को स्वीकार किया है। उसके विषय में जो विवेचनायें प्राप्त होती हैं - उसमें सर्वाधिक सूक्ष्म व्याख्या जैन दर्शन की प्राप्त होती है। यही कारण है कि जैन सम्प्रदाय में कर्म सिद्धान्त विषयक विपुल प्राचीन साहित्य प्राप्त होता है। जीव के द्वारा जो भी कर्म किया जाता है - उसका फल किंमात्मक होता है ? और उसका फल कितने काल तक जीव को भोगना पड़ता है ? इसका विशद निरूपण कर्मकाण्डादि ग्रन्थों में देखने को प्राप्त होता है। भाव, परिणाम एकार्थक शब्द हैं। जीव के पाँच असाधारण भाव होते हैं और उन्हीं भावों के उत्तर भेद 53 हो जाते हैं । ये सभी 53 भाव गुणस्थान एवं मार्गणाओं में सद्भाव, अभाव और व्युच्छित्ति रूप से देखे जाते हैं। उनका विशद निरूपण करने वाला एक मात्र आचार्य श्री श्रुतमुनि विरचित ग्रन्थ भाव त्रिभङ्गी है। जिसका प्रचार-प्रसार अधिक नहीं हुआ है। श्रीवर्णी दिग. जैन गुरुकुल के सुधी ब्रह्मचारी द्वय श्री विनोद जी एवं श्री अनिलजी, ने इस ग्रन्थ में दी गई संदृष्टियाँ विशेष रूप से निरूपित करके ग्रन्थ को सामान्य जन के लिये सुलभ बना दिया है। आप दोनों ही भाईयों का अधिकाधिक समय श्रुताराधना में व्यतीत होता है। " परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के आशीर्वाद एवं प्रेरणा से नवीन परिवेष में स्थापित गुरुकुल निरन्तर प्रगतिशील है। गुरुकुलवासी ब्रह्मचारीगण समाजोपयोगी कार्य के साथ-साथ स्वहित में भी संलग्न है। यह सब कुछ आचार्य श्री जी एवं श्री डा.पं. पन्नालाल जी की ही कृपा का फल है। दोनों ब्रह्मचारी भाई गुरुकुल में अध्ययन - अध्यापन के साथसाथ अप्रकाशित महत्वपूर्ण ग्रन्थों कीखोजकर अनुवाद/संपादन का कार्य कर रहे हैं। यह कार्य स्तुत्य है। इसी प्रकार श्रुताराधना में संलग्न रहे ऐसी मेरी मनोभावना है। ब्र. जिनेश जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पपौरा जी सरस्वती भवन के अवलोकन के दौरान "भाव संग्रहादि" नामक ग्रन्थ प्राप्त हुआ था । भाव त्रिभङ्गी आचार्य श्री श्रुतमुनि द्वारा विरचित उसी के पृष्ठ भाग में प्रकाशित हुई है। ग्रंथ का पूर्ण अवलोकन करने के उपरान्त ऐसा अहसास हुआ कि यह ग्रंथ मोक्ष साधकों के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। संयोगसे आर्यिका दृढ़मतीमाताजी का वर्षाकाल मढ़िया जी में हो रहा था । माताजी को जब वह ग्रंथ दिखाया माताजी को यह ग्रंथ अत्यधिक उपयोगी प्रतीत हुआ हमलोगों ने ग्रन्थ की उपयोगिता जानकर ग्रंथ का अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया। अनुवाद पूर्ण होने पर पूज्य आर्यिकाश्री दृढमति माताजी से मूलानुगामी अन्वयार्थ के साथ संदृष्टियों को स्पष्टीकरणार्थ हम लोगों ने समय चाहा । माताजी से प्रातःकाल का समय मिल गया । माताजी द्वारा अन्वयार्थ, संदृष्टियाँ तथा आवश्यक भावार्थ एक बार सरसरी दृष्टि से अवलोकन कर लिये गये। हमलोगों को आन्तरिक संतुष्टि हुई। ग्रंथपूर्ण होने उपरान्त व्यवस्थित कम्प्यूटर कम्पोजिंग के लिए दे दिया गया ।कुछ दिनों के पश्चात् यह ज्ञात हुआ कि आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमति माताजी द्वारा इस ग्रन्थ का अनुवाद, पूर्व में किया जा चुका है तथा वह दि. जैन त्रिलोक शोधसंस्थान, मेरठ से प्रकाशित भी हुआ है। प्रयास करने पर माताजी द्वारा अनुवादित प्रति भी उपलब्ध हो गई । माताजी की प्रति मुख्यता से प्रबुद्ध साधकों के लिए उपयोगी जान पड़ी किन्तु संदृष्टियों का विशेष खुलासा होने की दृष्टि से हमलोगोंने जो कार्य कियाथावह उपयोगीजान पड़ा। अतः इसके प्रकाशन का विचार किया फलतः यह कृति आपके सम्मुख है। इस प्रकार ग्रंथ का प्रकाशन संभव हो रहा है। फिर भी कुछ त्रुटियाँ संभव हैं - आशा है कि विवक्षित -विषयज्ञ त्रुटियों की जानकारी अवश्य ही प्रेषित करेंगे। ग्रन्थ में प्रतिपाद्य विषय - आचार्य श्री श्रुतमुनि ने पंचपरमेष्ठी को नमस्कार कर, स्वरूप की सिद्धि के लिए भव्य जीवों को सूत्रकथित मूलोत्तर भावों का स्वरूप प्रतिपादन करूँगा ऐसी, प्रतिज्ञा कर, भावों के भेद-प्रभेदों Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उल्लेख कर, गुणस्थानों और मार्गणाओं में संभव भावों का क्रमशः निरूपण किया है । ग्रन्थ के अन्त में संदृष्टियाँ प्रस्तुत की है। उन संदृष्टियों में प्रथम विवक्षित गुणस्थान अथवा मार्गणा में होने वाली भाव व्युच्छित्ति, पश्चात् भाव सद्भाव और अंत में अभाव स्वरूप भावों का कथन किया है। ग्रन्थ में विशेषताएँ - प्रायः ग्रंथकार ग्रंथ के आदि में मंगलाचरण करते हैं अथवा आदि और अंत में करते हैं किन्तु श्री श्रुतमुनि ने ग्रंथ में तीन बार आदि, मध्य और अंत में मंगलाचरण प्रस्तुत किया है। भावों का स्वरूप बतलाते हुए गाथा 22 में क्षयोपशम भाव की परिभाषा करते हुये कहा है कि - “उदयो जीवस्स गुणो रखओवसमिओ हवे भावो ||22|| अर्थात् जीव के गुणों का उदय क्षयोपशम भाव है । क्षयोपशम भाव की यह परिभाषा शब्द संजोयना की अपेक्षा से नवीनता प्रकट करती है ठीक इसी प्रकार औदयिक भाव की परिभाषा कायम करते हुये कहा है - "कम्मुदयजकम्मुगुणो ओदयियो होदि भावो हु' ||23|| अर्थात् कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्मगुण - औदयिक कहलाते हैं । यह परिभाषा शब्द - संयोजना अपेक्षा विशिष्टता रखती है । - श्री श्रुतमुनि ने औपशमिक चारित्र का सद्भाव 11 वें गुणस्थान में, क्षायिक चारित्र का अस्तित्व 12 वें गुणस्थान से 14वें गुणस्थान तक तथा सराग चारित्र को 6-10 तक स्वीकार किया है। कर्मकाण्ड ग्रंथराज में भावों का कथन गुणस्थानों में विवेचित किया गया किन्तु मार्गणाओं में 53 भावों की संयोजना करने वाला यह एक मात्र अनुपम ग्रंथ है। ग्रन्थ में विचारणीय बिन्दु - मिश्र गुणस्थान में आचार्य श्री ने अवधिदर्शन का सद्भाव स्वीकार किया है। जबकि धवलाकार ने मिश्र गुणस्थान में चक्षु, अचक्षु दर्शन का ही उल्लेख किया है। तथा अन्य कर्म ग्रन्थों में भी दो दर्शनों का सद्भाव देखने को मिलता है । वैक्रियिक मिश्र काययोग में चतुर्थ गुणस्थान में स्त्रीलिंग को स्वीकार किया गया क्योंकि यहाँ 32 भावों का सद्भाव कहा गया है। वैक्रियिक मिश्रकाय योग चतुर्थ गुणस्थान में स्त्रीलिंग का सद्भाव यह विचारणीय विषय है। आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग की संदृष्टि में 6 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावों की व्युच्छित्ति दर्शायी गयी है। 6 भावों की व्युच्छित्ति किस प्रकार संभव है यह विचारणीय है । गाथा 64 में भावस्त्री में सरागचारित्र और क्षायिक सम्यक्त्व का निषेध आपत्तिजनक है । क्रोध, मान, माया की संदृष्टि में सद्भाव स्वरूप 40 भाव वर्णित किये गये हैं जबकि वहाँ पर 41 भावों का सद्भाव पाया जाता है । भव्य मार्गणा में सभी भावों का सद्भाव गाथा 107 में बतलाया है। जबकि वहाँ पर अभव्य भाव कैसे संभव यह विचारणीय है ? तथा ठीक उसी प्रकार अभव्य में मिथ्यादर्शन गुणस्थान में 34 भावों का सद्भाव स्वीकार किया है जबकि यहाँ भव्यत्व भाव को कम करके 33 भाव ही संभव हैं । आहार मार्गणा के अनाहारक संदृष्टि में 1, 2, 4, 13 ये चार गुणस्थान स्वीकार किये हैं जबकि वहाँ 1, 2, 4, 13, 14, इन पाँच गुणस्थानों का सद्भाव पाया जाता है । इस ग्रन्थ पर कार्य करना गुरुओं की कृपा से संभव हो सका है। पूजनीया आर्यिका श्री दृढमती जी सिद्धान्तज्ञ, सरल, उदार होने के साथ-साथ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी है। आपके जीवन का प्रत्येक क्षण श्रुताराधना में व्यतीत होता है। आपके आशीष से हम लोग भी यही कामना करते हैं कि हम लोगों का समय भी श्रुताराधना में व्यतीत हो । इस ग्रन्थ के संपादन कार्य में वर्णी गुरुकुल के संचालक श्री ब्र. जिनेश का अत्यधिक सहयोग रहा है। जब जिस सामग्री की आवश्यकता पड़ी वह समय पर प्राप्त हो गई। हम दोनों आपका अत्यधिक आभार व्यक्त करते हैं । आशा है कि विद्वत्जन के साथ-साथ सामान्य जन लोग इस कृति से लाभ प्राप्त कर सकेंगे । विजय दशमीं 20.10.99 ब्र. विनोद जैन ब्र. अनिल जैन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थकर्ता का परिचय __ आचार्यश्रुतमुनि श्रीडॉ. ज्योतिप्रसादजी ने 17 श्रुतमुनियों का निर्देश किया है। पर हमारे अभीष्ट आचार्य श्रुतमुनि परमागमसार, भाव, आसव, त्रिभंगी, आदि ग्रन्थों के रचयिता हैं । ये श्रुतमुनि मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ और कुन्दकुन्द आम्नायके आचार्य हैं। इनके अणुव्रतगुरु बालेन्दुया बालचन्द्र थे। महाव्रतगुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तदेव एवं शास्त्रगुरु अभयसूरि और प्रभाचन्द्र थे। आस्रवत्रिभंगी के अन्त में अपने गुरु बालचन्द्र का जयघोष निम्न प्रकार किया है - इदि मग्गणासु जोगो पच्चयभेदो मया समासेण । कहिदो सुदमुणिणा जो भावइ सो जाइ अप्पसुहं ॥ पयकमलजुयलविणमियविणेय जणक्यसु पूयमाहप्पो । णिज्जियमयणपहावो सो बालिंदो चिरं जयऊ । आरा जैन सिद्धान्त भवन में भावत्रिभंगी की एक ताड़पत्रीय प्राचीन प्रति है, जिसमें मुद्रित प्रति की अपेक्षा निम्नलिखित सात गाथाएँ अधिक मिलती हैं। इन गाथाओं पर से ग्रन्थ रचयिता के समय के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है - "अणुवदगुरुबालेन्दु महन्वदे अभयचं कसिद्धं ति । सत्थेऽभयसूरि-पहाचंदा खलु सुयमुणिस्य गुरु ॥ सिरिमूलसंघदेसिय पुत्थयगच्छ कोड कुंदमुणिणाहं (?) । परमण्ण इंगलेसबलम्मिजादमुणिपहद (हाण) स्स ॥ सिद्धताहयचंदस्स य सिस्सो बालचंदमुणिवपरो । सो भवियकुवलयाणं आणंदकरो सया जयऊ ॥ सद्दागम - परमागम - तक्कागम-निरवसेसवेदी हु । विजिंदसयलण्णवादी जयऊ चिरं अभयसूरिसिद्धं ति ।। णयणिक्खेवपमाणं जाणित्ता विजिदसयलपरसमओ | वरणिवइणिवहवं दियपयपम्मो चारुकित्तिमुणी ॥ णादणिखिलत्थसत्थो सयलणरिंदेहिं पूजिओ विमलो। जिणमग्गगमणसूरो जयउ चिरं चारुकित्तिमुणी ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका क्र. विषय 1. मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा वचन 2. मतिज्ञानादि भावों की उत्पत्ति व्यवस्था 3. भावों के मूल व उत्तर भेद 4. चौदह गुणस्थानों में मूलभाव 5. मिथ्यात्व गुणस्थान में चौंतीस भाव 6. चौदह गुणस्थानों में भाव व्युच्छित्ति 7. गुणस्थानों में सद्भाव रूप भाव 8. गुणस्थानों में अभाव भावों का कथन 9. चौदह गुणस्थानों में भाव त्रिभङ्गी एवं संदृष्टि (1) 10. मध्य मंगलाचरण व प्रतिज्ञा वचन 11. तीन सम्यक्त्वों का सद्भाव 12. नरकगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (2-11 ) 13. तियंचगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (12-18 ) 14. मनुष्यगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (19-27 ) 15. देवगति में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था गाथा स. पृष्ठ सं. 1-2 1 3-20 2-10 21-28 10-12 29-33 13-15 34 15 35-41 16-20 20-21 21 235 42 43 44 45-48 49-52 53-60 61-70 71-77 एवं संदृष्टि याँ ( 28-42 ) 16. इन्द्रिय एवं काय मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (43-47) 17. योग मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (48-55 ) 18. वेद मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (56-58) 19. कषाय मार्गणा एवं अज्ञानत्रय में भाव त्रिभङ्गी 92-93 व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (59-61) 78-80 80-89 90-91 22-29 29 30-32 32-35 35-45 45-57 46-58 58-74 59-74 74-86 76-86 87-88 87-90 88-102 91-103 104 104-107 107-108 108-111 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94-97 111-115 8-102 112-116 116-120 117-121 103-104 122 105-106 20. ज्ञान मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (62-64) 21. संयम मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (65-70) 22. दर्शन मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (71-73) 23. लेश्या मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टि याँ (74-76) 24. भव्य एवं सम्यक्त्व मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (77-84) 25. संज्ञी मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (85-86) 26. आहारक मार्गणा में भाव त्रिभङ्गी व्यवस्था एवं संदृष्टियाँ (87-88) 27. अंतिम मङ्गलाचरण एवं लघुता प्रदर्शन 107-109 122-125 125-127 126-129 129-132 131-137 133 139-141 140 141-142 143-144 110-111 112-114 115-116 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 1-14 भाव __ "भावो णाम दव्व परिणामो” द्रव्य के परिणाम को भाव कहते हैं। जीव द्रव्य में पाँच मुख्य भाव पाये जाते हैं। औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक। ये पाँचों भाव जीव के स्वतत्त्व और असाधारण भाव कहे गये हैं। कारण है कि ये भाव जीव के अलावा अन्य द्रव्यों में नहीं देखे जाते हैं। इन भावों के भेद -प्रभेद तथा गुणस्थानों में इनका सद्भाव निम्न प्रकार से है - क्र.भाव गुणस्थान क्र.भाव गुणस्थान 1. औपशमिक भाव 2 भेद 27. क्षायो. सम्यक्त्व 4-12 1. औपशमिक सम्यक्त्व 4-11 28. क्षायो. चारित्र (स.चा.) 6-10 2. औपशमिक चारित्र 29. संयमासंयम 2. क्षायिक भाव 9 भेद 4. औदयिक भाव 21 भेद 3. क्षायिक ज्ञान 13-14 30. नरकगति 1-4 4. क्षायिक दर्शन 13-14 31. तिर्यंचगति 1-5 5. क्षायिक दान 13-14_32. मनुष्यगति 6. क्षायिक लाभ 13-14 33. देवगति 1-4 7. क्षायिक भोग 13-14 34. क्रोध कषाय 1-9 8. क्षायिक उपभोग 13-14 35. मानकषाय 1-9 9. क्षायिक वीर्य 13-14 36. माया कषाय 1-9 10. क्षायिक सम्यक्त्व 4-14 37. लोभ कषाय 1-10 11. क्षायिक चारित्र 12-14 38. स्त्रीवेद 3. क्षायोपशमिक भाव 18 भेद 39. पुरुष वेद 1-9 12. मति ज्ञान 4-12 40. नपुंसक वेद 1-9 13. श्रुत ज्ञान 4-12 41. मिथ्यात्व 14. अवधि ज्ञान 4-12 42. अज्ञान 1-12 15. मनःपर्यय ज्ञान 4-12 43 असंयम 1-4 16. कुमति ज्ञान 1-2 44. असिद्धत्व 1-14 17. कुश्रुत ज्ञान 1-2 45. कृष्णलेश्या 1-4 18. कुअवधि ज्ञान 1- 2 46. नीललेश्या 1-4 19. चक्षुदर्शन 1-12 47. कापोत लेश्या 1-4 20. अचक्षु दर्शन 1-12 48. पीतलेश्या 1-7 21. अवधि दर्शन • 4-12 49. पद्म लेश्या 1-7 22 क्षायो. दान 1-12 50. शुक्ल लेश्या 1-13 23. क्षायो. लाभ 1-12 5. पारिणामिक भाव 3 भेद 24. क्षायो. भोग 1-12 51. जीवत्व 1-14 25. क्षायो. उपभोग 1-12 52. भव्यत्व 1-14 26. क्षायो. वीर्य 1-12 53. अभव्यत्व 1-9 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री-श्रुतमुनि-विरचिता भाव-त्रिभङ्गी भावसंग्रहापरनामा। (संदष्टि-सहिता) खविदघणघाइकम्मे अरहते सुविदिदत्थणिवहे य । सिद्धद्वगुणे सिद्धे रयणत्तयसाहगे थुवे साहू ॥1॥ क्षपितघनघातिकर्मणोऽर्हतः सुविदितार्थनिवहांश्च । सिद्धाष्टगुणान् सिद्धान् रत्नत्रयसाधकान् स्तौमि साधून् ।। अन्वयार्थः- (खविदघणघाइकम्मे) घातियाकर्मो के समूह को जिन्होंने नष्ट कर दिया है (य) और (सुविदिदत्थणिवहे) पदार्थों के समूह को अच्छी तरह जान लिया है ऐसे (अरहते) अरहंतों की (सिद्भट्ठगुणे) प्राप्त किया है आठ गुणों को जिन्होंने ऐसे सिद्धे) सिद्धों की (रयणत्तयसाहगे) रत्नत्रय के साधक (साहू) साधुओं की (थुवे) मैं स्तुति करता हूँ अर्थात् उनकी वंदना करता हूँ। इदि वंदिय पंचगुरु सरुवसिद्धत्थ भवियबोहत्थं। सुत्तुत्तं मूलुत्तरभावसरूवं पवक्खामि ॥2॥ इति वन्दित्वा पंचगुरुन् स्वरूपसिद्धार्थ भविकबोधार्थं । सूत्रोक्तं मूलोत्तरभावस्वरूपं प्रवक्ष्यामि ॥ अन्वयार्थ:- (इदि) इस प्रकार (पंचगुरू) पंच परमेष्ठियों को(वंदिय) नमस्कार करके (सरूवसिद्धत्थ) स्वरूप की सिद्धि के लिए और (मवियबोहत्थं) भव्य जीवों के ज्ञान के लिए (सुत्तुत्तं) सूत्र में कहे गये (मूलुत्तरभावसरूव) मूल उत्तर भावों के स्वरूपको (पवक्खामि) कहूँगा। भावार्थ :- इस गाथा का प्रथम पद "इदि पंचगुरू वंदिय” पूर्व की मङ्गलाचरण रूपगाथा सूत्र से सम्बन्ध रखता है पश्चात् आचार्य महाराज ने ग्रंथ करने के हेतुका प्रतिपादन किया है कहा है कि मैं जो भावों के स्वरूप का कथन करूंगा। वह निज शुद्धात्मा के स्वरूप सिद्धि में तथा जो भव्य मोक्षेच्छुक है. उन्हें भावों के यथार्थ स्वरूप के बोध में कारण होगा तथा (1) Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान कहते हैं। दसणवरणक्खयदो केवलदसण सुणामभावो हु। चक्खुइंसणपमुहावरणीयखओवसमदो य ।।5।। दर्शनावरणक्षयतः के वलदर्शनं सुनामभावो हि । चक्षुर्दर्शनप्रमुखावरणीयक्षयोपशमतश्च ॥ चक्खुअचक्खूओहीदंसणभावा हवंति णियमेण । पणविग्घक्खयजादा खाइयदाणादिपणभावा ।।6।। चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनभावा भवन्ति नियमेन । पंचविघ्नक्षयजाताः क्षायिक दानादिपंचभावाः ॥ अन्वयार्थ 5-6 (दंसणवरणक्खयदो) दर्शनावरणीय के क्षय से (सुणामभावो) सार्थक नामवाला (केवलदसण) केवल दर्शन होता है (य) और (चक्खुद्दसणपमुहावरणीय) चक्षुदर्शन है प्रथम जिसमें अर्थात् चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण के (खओवसमदो) क्षयोपशम से (णियमेण) नियम से (चक्खुअचक्खू ओहीदसणभावा) चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शन ये तीन भाव होते हैं। (पणविग्घक्खयजादा) पाँच विघ्न अर्थात् अन्तराय कर्म के क्षय से (खाइयदाणादिपणभावा) क्षायिक दान आदि क्षायिक पाँच भाव प्रगट होते हैं। विशेष - क्षायिक भाव किसे कहते हैं ? । कर्मों के क्षय होने पर उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक है, तथा कर्मों के क्षय के लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकार कीशब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए। खाओवसमियभावो दाणं लाहं च भोगमुवभोगं । वीरियमेदे णेया पणविग्घखओवसमजादा ॥ 7 ॥ क्षायोपशमिकभावो दानं लाभश्च भोग उपभोगः । वीर्यमेते ज्ञेया पंचविघ्नक्षयोपशमजाताः ॥ अन्वयार्थ 7- (पणविग्घखओवसम) पाँचों अन्तराय कर्मों के क्षयोपशम से (खाओवसमियभावो) क्षायोपशमिक भाव रूप (दाणं) (4) Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशम से (उवसमं चरण) उपशम चारित्र (खयदो खइयं) क्षय से क्षायिक चारित्र (खओवसमदो) क्षयोमशम से (सरागचारित्तं) सराग चारित्र अर्थात् क्षायोपशमिक चारित्र (होदि) होता है। भावार्थ - मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियाँ होती हैं। जिनमें से चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों अर्थात् अप्रत्याख्यान-क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान - क्रोध, मान, माया, लोभ, संज्वलन- क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसक वेद इन प्रकृतियों के उपशम से उपशम चारित्र प्रगट होता है। यह चारित्र ग्यारहवेंगुणस्थान अर्थात् उपशान्त मोह नामक गुणस्थान में पाया जाता है तथा चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों के क्षय से जो चारित्र प्रगट होता है उसे क्षायिक चारित्र कहते हैं यह चारित्र क्षीण मोह अर्थात् वारहवें गुणस्थान से प्रारंभ होकर अयोग केवली तथा सिद्धों के भी पाया जाता है। चारित्र मोहनीय की 21 प्रकृतियों के क्षयोपशम से सराग चारित्र अर्थात् क्षायोपशमिक चारित्र होता है यह चारित्रछटवेंगुणस्थान से दसवेंगुणस्थान तक पाया जाता है ऐसा आचार्य महाराज का अभिमत है। आदिमकसायबारसखओवसम संजलणणोकसायाणं। उदयेण (य) जं चरणं सरागचारित्त तं जाण ||1|| आदिमकषायद्वादशक्षयोपशमेन संज्वलननोकषायाणां। उदयेन 'च' यच्चरणं सरागचारित्रं तज्जानीहि ।। . अन्वयार्थ - (आदिमकसायबारसखओवसम) आदि की बारह कषाय के क्षयोपशम से और (संजलणणोकसायाणं) संज्वलन कषाय और नव नोकषाय के उदय से(जं चरणं) जो चारित्र होता है (तं) उसको (सरागचारित्तं) सरागचारित्र अर्थात् क्षायोपशमिक चारित्र (जाण) जानना चाहिए। भावार्थ - अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, क्रोध, मान, माया और लोभ इन बारह कषायों के क्षयोपशम तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और नवनो कषाय के उदय सेतो चारित्र होता है उसको सराग चारित्र कहते हैं। (6) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्झिमकसायअड उवसमे हु संजलणणोकसायाणं । खइउवसमदो होदि हु तं चैव सरागचारित्तं ॥ 12 ॥ मध्यमक षायाष्टोपशमे हि संज्वलननोकषायाणां । क्षयोपशमतो भवति हि तच्चैव सरागचारित्रं ॥ अन्वयार्थ - ( मज्झिमकसाय अड उवसमे ) मध्य की आठ अर्थात् अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों का उपशम होने पर (च) तथा (संजलणणोकसायाणं) संज्वलन कषाय और नो नव कषायों के (खइउवसमदो) क्षयोपशम से जो चारित्र ( होदि) होता है, (तं एव) वही (सरागचारित्रं) सरागचारित्र है । जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो बाहिरेहिं पाणेहिं । अब्भंतरेहिं णियमा सो जीवो तस्स परिणामो ॥ 13 ॥ जीवति जीविष्यति यो हि जीवितः बाह्यैः प्राणैः । अभ्यन्तरैः नियमात् स जीवस्तस्य परिणामः || अन्वयार्थ - (जो ) जो (बाहिरे हिं) इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास रूप बाह्य तथा (अब्भंतरेहिं) ज्ञान दर्शन रूप अभ्यन्तर (पाणेहिं) प्राणों से (जीवदि) जीता है, ( जीविस्सदि ) जीवेगा और (जीविदो ) जीता था (सो णियमा) वह नियम से (जीवो) जीव है (तस्स) उस जीव का (परिणामो) परिणाम जीवत्व भाव है । भावार्थ- जो पाँच इन्द्रिय- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र तीन बल - मनबल, वचन बल और काय बल, आयु और श्वासोच्छवास इन दस बाह्य प्राणों से तथा ज्ञान, दर्शन रूप अभ्यन्तर प्राणों से जीता है, जीता था तथा जीवेगा वह जीव है । अभ्यन्तर प्राण से तात्पर्य जीव का ज्ञान दर्शन रूप उपयोगात्मक परिणाम है । यहाँ पर " तस्स परिणामों " शब्द से जीव के पारिणामिक भावों में से जीव के जीवत्व भाव का ग्रहण किया गया है क्योंकि आगामी गाथा में भव्यत्व और अभव्यत्व के स्वरूप का कथन करते हु दो पारिणामिक भाव कहे गये है अतः उपर्युक्त गाथा में तीसरे जीवत्व रूप पारिणामिक भाव को ग्रहण करना चाहिए । (7) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणत्तयसिद्धीएऽणंतचउट्ट यसरुवगो भविदुं । जुग्गो जीवो भव्वो तविवरीओ अभब्वो दु ।। 14 ।। रत्नत्रयसिद्वयाऽनन्तचतुष्ट यस्वरूपको भवितुं । योग्यो जीवो भव्यः तद्विपरीतोऽभव्यस्तु । अन्वयार्थ 14- (रयणत्तय सिद्धीए) रत्नत्रय की सिद्धि से (अणंतचउट्टयसरूवगो)अनन्त चतुष्टय स्वरूप(भवितुं जुग्गो) होने के योग्य (मव्वो) भव्य है (तन्विवरीओ) इसके विपरीत (जीवो) जीव (अभव्वो दु) अभव्य है। भावार्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यञ्चारित्ररूपरत्नत्रय की सिद्धि और अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख तथा अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करने की क्षमता वाला जीव भव्य है। जो सम्यग्दर्शन आदि गुणों की प्रगट करने की योग्यता से रहित है वह अभव्य है। जीवाणं मिच्छु दया अणउदयादो अतच्चसद्धाणं । हवदि हुतं मिच्छत्तं अणंतसंसारकारणं जाणे ॥ 15 ॥ जीवानां मिथ्यात्वोदयादनोदयतोऽतत्त्वश्रद्धानं । भवति हि तन्मिथ्यात्वं अनंतसंसारकारणं जानीहि ॥ अन्वयार्थ - (जीवाणं) जीवों के (मिच्छु दया) मिथ्यात्व के उदय से और (अणउदयादो) अनन्तानुबंधी के उदय से जो (अतच्चसद्धाणं) अतत्त्व श्रद्धान (हवदि) होता है (तं) उस (मिच्छत्त) मिथ्यात्व कहते हैं। (हु) निश्चय से (अणंतसंसारकारणं) उसको अनन्त संसार का कारण (जाणे) जानो। अपचक्खाणुदयादो असंजमो पढमचऊगुणट्ठाणे । पच्चक्खाणुदयादो देसजमो होदि देसगुणे ।। 16 ।। अप्रत्याख्यानोदयात् असंयमः प्रथमचतुर्गुणस्थाने । प्रत्याख्यानोदयाद्देशयमो भवति देशगुणे ॥ अन्वयार्थ - (पढ मचऊगुणट्ठाणे) प्रथम चार गुणस्थानों में (अपचक्खाणुदयादो) अप्रत्याख्यान के उदय से (असंजमो) असंयम होता है एवं (देसगुणे) देशविरत गुणस्थान में (पच्चखाणुदयादो) (8) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान के उदय से (देसजमो) देश संयम (होदि) होता है। गदिणामुदयादो (चउ) गदिणामा वेदतिदयउदयादो। लिंगत्तयभाव (वो) पुण कसायजोगप्पवित्तिदोलेस्सा॥17॥ गतिनामोदयात् गतिनामा वेदत्रिकोदयात् । लिंगत्रयभावः पुनः कषाययोगप्रवृत्तितो लेश्याः ॥ अन्वयार्थ -(गदिणामुदयादो) गतिनाम कर्म के उदय से(गदिणामा) नरक गति आदि चार गति होती है । (वेदतिदयउदयादो) तीन वेदों अर्थात् स्त्रीवेद, पुरुषवेदएवं नपुंसकवेद के उदय से(लिंगत्तयभाव) तीन लिंग रूप भाव होते हैं (पुण) तथा (कसाय जोगप्पवित्तिदो) कषाय से युक्त योग की प्रवृत्ति को(लेस्सा) लेश्या कहते हैं। जाव दु केवलणाणस्सुदओ ण हवेदि ताव अण्णाणं । कम्माण विप्पमुक्को जाव ण तावदु असिद्धत्तं ॥18॥ यावत्तु के वलज्ञानस्योदयो न भवति तावदज्ञानं । कर्मणां विप्रमोक्षो यावन्न तावत्तु असिद्वत्वं ॥ अन्वयार्थ 18- (जाव दु) जब तक (केवलणाणस्सुदओ) केवल ज्ञान का उदय (ण हवेदि) नहीं होता है (ताव दु) तब तक (अण्णाण) अज्ञान है (जाव) जबतक (कम्माण विप्पमुक्को ण) कर्मों से रहित नहीं होता है (ताव) तब तक (असिद्धत्व) असिद्धत्व रूप औदयिक भाव (हवेदि) होता है। कोहादीणुदयादो जीवाणं होति चउकसाया हु । इदि सव्वुत्तरभावुप्पत्तिसरूवं वियाणाहि ॥ 19 ॥ क्रोधादीनामुदयात् जीवानां भवन्ति चतुष्कषाया हि । इति सर्वोत्तरभावोत्पत्तिस्वरूपं विजानीहि ॥ अन्वयार्थ - (कोहादीणुदयादो) क्रोधादि के उदय से (जीवाणं) जीवों के (हु) निश्चय से (चउकसाया) चार कषायें (होति) होती है। (इदि) इसी प्रकार (सव्वुत्तरभावुप्पत्तिसरूव) सभी उत्तर भावों की उत्पत्ति के स्वरूप को (वियाणाहि) जानना चाहिए। (9) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवसमसरागचरियं खइया भावायणवयमणपज्जं । रयणत्तयसंपत्तेसुत्तममणुवेसु होति खलु ॥ 20 ॥ उपशमसरागचारित्रं क्षायिका भावाश्च नव च मनःपर्ययः । रत्नत्रयसम्प्राप्तेषु मनुष्येषु भवन्ति खलु ॥ अन्वयार्थ - (खलु) निश्चय से (उवसमसरागचरियं) उपशम चारित्र, सरागचारित्र (य) और (णव) नौ (भावा) भाव (खइया) क्षायिक (य) और (मणपज्जं) मनःपर्ययज्ञान ये सभी भाव (रयणत्तयसंपत्तेसुत्तममणुवेसु) रत्नत्रय से सहित उत्तम मनुष्यों (मुनिगणों) में (होति) होते हैं। इति पीठिका - विचारणं । भावा खइयो उवसम मिस्सो पुण पारिणामिओदइओ। एदेसं (सिं) भेदाणवदुग अडदसतिण्णि इगिवीसं॥21॥ भावाः क्षायिक औपशमिको मिश्रः पुनः पारिणामिक औदायिकः। एतेषां भेदा नव द्वौ अष्टादश त्रय एकविंशतिः ॥ अन्वयार्थ - (खइयो) क्षायिक (उवसम) औपशमिक (मिस्सो) मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक (पारिणामिओदइओ) पारिणामिक और औदयिक ये पाँच (भावा) भाव है (एदेसं भेदा) इन भावों के भेद क्रमशः (णव) नौ (दुग) दो (अडदस) अठारह (तिण्णि) तीन और (इगिवीसं) इक्कीस हैं। भावार्थ - क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव हैं। क्षायिक भाव के नो भेद, औपशमिक भाव के दो भेद, क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद औदयिक भाव के इक्कीसभेद तथा पारिणामिक भाव के तीन भेद होते हैं। इन भेदों के नाम आगे की गाथाओं से जानना चाहिए। कम्मक्खए हु खइओ भावो कम्मुवसमम्मि उवसमियो। उदयो जीवस्स गुणो खओवसमिओ हवे भावो ॥ 22 ॥ कर्मक्षये हि क्षयो भावः कर्मोपशमे उपशमकः । उदयो जीवस्य गुणः क्षयोपशमको भवेत् भावः ॥ (10) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणणिरवेक्खभवो सहावियो पारिणामिओ भावो॥ कम्मुदयजकम्मुगुणो ओदयियो होदि भावो हु ।। 23 ।। कारणनिरपेक्षभवः स्वाभाविकः पारिणामिको भावः। कर्मोदयजकर्मगुणः औदयिको भवति भावो हि ॥ अन्वयार्थ - (कम्मक्खए) कर्मों के क्षय से(खइओ भावो) क्षायिक भाव (कम्मुवसमम्मि) कर्मों का उपशम होने पर (उवसमियो) औपशमिक भाव (जीवस्य गुणो उदयो) जीव के गुणों का उदय अथवा क्षयोपशम रूप भाव से (खओवसमिओ) क्षायोपशमिक (भावो हवे) भाव होता है। (कारणणिरवेक्खभवो) कारणों की अपेक्षासे रहित होने वाला अर्थात् कर्मों के उदय, उपशम आदिकी अपेक्षासेरहित(सहावियो) स्वभाविक (पारिणामिओ) पारिणामिक (भावो) भाव होता है । (कम्मुदयजकम्मुगुणो) कके उदयसे उत्पन्न होने वाले कर्मके गुणभाव (ओदयियो) औदयिक (भावो) भाव (होदि) कहलाते हैं। भावार्थ- कर्मों के क्षय से क्षायिक, उपशम से औपशमिक भाव होते हैं तथा क्षायोपशमिक भाव की परिभाषा करते हुये आचार्य महाराज कहते हैं कि जीव के गुणों का उदय क्षायोपशमिक भाव है अर्थात् यहाँ इस भाव में जीव के कुछ गुण प्रकट रहते हैं इस प्रकार जानना चाहिये । कारणों से निरपेक्ष अर्थात् कर्मों के उदय, उपशम आदि की अपेक्षा रहित पारिणामिक भाव कहलाते हैं तथा कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले कर्मभाव औदयिक भाव कहे जाते हैं, अर्थात् कर्मों के उदय में होने वाले भाव औदयिक भाव जानना चाहिए। केवलणाणं दंसण सम्म चरियं च दाण लाहं च । भोगुवभोगवीरियमेदे णव खाइया भावा ॥24 ।। केवलज्ञानं दर्शनं सम्यक्त्वं चारित्रं च दानं लाभश्च । भोगोपभोगवीर्य एते नव क्षायिका भावाः ।। अन्वयार्थ - (केवलणार्ण) केवलज्ञान (दसण) केवलदर्शन (सम्म) सम्यक्त्व (चरिय) चारित्र (दाणं) दान (लाह) लाभ (भोगुवभोगवीरियमेदे च) भोग, उपभोग और वीर्य ये (णव) नव (खाइया भाव) (11) Page #25 --------------------------------------------------------------------------  Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलभाव (विसुद्धे) विशुद्धि की अपेक्षा (णायव्वा) जानना चाहिए। भावार्थ - मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक ये तीन भाव, असंयत, देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में पाँचोंभाव, उपशम श्रेणी के चार गुणस्थानों में पाँचों भाव, क्षपक श्रेणी में औदयिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक ये चार भाव तथा सयोग, अयोग केवली के क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक तीन भाव। इस प्रकार गुणस्थानों में मूल भावों की संयोजना जानना चाहिए। खयिगो हु पारिणामियभावो सिद्धे हवंति णियमेण। इत्तो उत्तरभावो कहियं जाणं गुणट्ठाणे ।। 31 ।। क्षायिको हि पारिणामिकभावः सिद्धे भवतः नियमेन । इत उत्तरभावं कथितं जानीहि गुणस्थाने ॥ अन्वयार्थ -(सिद्धे) सिद्धों में (णियमेण) नियम से (खयिगो) क्षायिक और (पारिणामियभावो) पारिणामिक भाव (हवंति) होते है (इत्तो) इसके आगे (गुणठाणे) गुणस्थानों में (उत्तरभावो) उत्तर भावों को (कहियं) कहते हैं सो (जाणं) जानो। अयदादिसु सम्मत्तति-सण्णाणतिगोहिदसणं देसे । देसजमो छट्ठादिसुसरागचरियंचमणपज्जो।। 32 ।। अयदादिषु सम्यक्त्वत्रिसज्ज्ञानत्रिकावधिदर्शनं देशे । देशयमः षष्ठादिषु सरागचारित्रं च मनःपर्ययः ॥ अन्वयार्थ - (अयदादिसु) चतुर्थ आदि गुणस्थानों में (सम्मत्तति) तीन सम्यक्त्व (सण्णाणतिग) तीन सम्यग्ज्ञान (ओहिदसणं) अवधि दर्शन (देसे) देशव्रत अर्थात् पंचम गुणस्थान में (देसजमो) देशसंयम (छट्ठादिसु)छठवे आदि गुणस्थानों में सरागचरियं) सरागचारित्र (च) और (मणपज्जो) मनःपर्ययज्ञान होता है। भावार्थ- चौथे गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थान तक उपशम सम्यक्त्व, चौथेसेसातवेंगुणस्थान तक वेदकसम्यक्त्वएवं चौथेसेचौदहवेंगुणस्थान तक क्षायिक सम्यक्त्वा इस प्रकार चतुर्थ गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान (14) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक तीनों सम्यक्त्वों का उपरोक्त प्रकार से कथन जानना चाहिये। चौथे से बारहवें तक मति, श्रुत, अवधि ये तीन सम्यग्ज्ञान और अवधिदर्शन पाये जाते हैं। पंचम गुणस्थान में देशसंयम, छठे से दसवें तक सरागचारित्र और छठे से लेकर बारहवें तक मनः पर्ययज्ञान होता है। संते उवसमचरियं खीणे खाइयचरित्त जिण सिद्धे। खाइयभावा भणिया सेसं जाणेहि गुणठाणे।। 33 ।। शान्ते उपशमचरितं क्षीणे क्षायिकचरितं जिने सिद्धे । क्षायिक भावा भणिताः शेषं जानीहि गुणस्थाने । अन्वयार्थ - (संते) उपशान्त मोह गुणस्थान में (उवसमचरियं) उपशम चारित्र (खीणे) क्षीणमोह गुणस्थान में (खाइयचरित्त) क्षायिक चारित्र एवं (जिण) जिन अर्थात् तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में तथा (सिद्धे) सिद्धों में (खाइयभावा) क्षायिक भाव (भणिया) कहे गये । (सेस) तथा शेष भावों को (गुणठाणे) गुणस्थानों में (जाणेहि) जानना चाहिये। ओदइया चक्खुदुगंऽण्णाणति दाणादिपंच परिणामा । तिण्णेव सव्व मिलिदा मिच्छं चउतीसभावाहु ।। 34 ।। औदयिकाः चक्षुर्द्विकं अज्ञानत्रिकं दानादिपंच परिणामाः । त्रय एव सर्वे मिलिता मिथ्यात्वे चतुस्त्रिंशद्भावाः स्फुटं ॥ अन्वयार्थ -(ओदइया) इक्कीस औदयिक भाव (चक्खुदुर्ग) चक्षु, अचक्षु दर्शन (अण्णाणति) अज्ञान तीन (दाणादिपंच) दानादि पाँच लब्धियाँ (परिणामा तिण्णेव) तीनों पारिणामिक भाव ये (सव्व) सभी (मिलिदा) मिलकर (चउतीसभावा) चौतीस भाव (मिच्छं) मिथ्यात्व गुणस्थान में होते हैं। भावार्थ - गति 4, कषाय 4, लिंग 3, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, लेश्या 6, असिद्धत्वये औदयिक भाव के 21 भेद, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, दान, लाभ भोग, उपभोग, वीर्य, जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व इस प्रकार सभी संयुक्त करने पर चौतीस भाव मिथ्यात्व गुणस्थान में जानना चाहिए। (15) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुभि ति भ विग-त्ति दुग दुण्णितेरं च । इगि अड छे दो भावस्सऽजोगिअंतेसु ठाणेसु ॥ 35 | द्विक- त्रिक- नमः षट् - द्विक नभः - त्रि-नमः - द्वित्रिक - द्विका - द्वौ त्रयोदश च । अष्टौ छेदः भावस्यायोग्यन्तेषु स्थानेषु - एकः || अन्वयार्थ - (दुग) दो (तिग) तीन (णभ) शून्य (छ) छह (दुग) दो (भ) शून्य (ति) तीन (णभ) शून्य (विग त्ति) दो गुणस्थानों में तीन-तीन (दुग) दो (दुण्णि) दो (तेरं) तेरह (इगि) एक (च) और (अड) आठ (भावस्स ) भाव की (अजोगिअंतेसु ठाणेसु) अयोग केवल गुणस्थान पर्यन्त क्रमशः (छे दो) व्युच्छित्ति होती है। भावार्थ - इस गाथा में प्रथम गुणस्थान से अयोग केवली गुणस्थान तक भावों की व्युच्छित्ति का क्रम का निरूपण किया गया है। प्रथम गुणस्थान दो भावों की दूसरे सासादन में तीन भावों की, तीसरे गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है । चौथे गुणस्थान में छह भावों की, पाँचवे गुणस्थान में दो भावों की, छठवें प्रमत्त संयत गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है। सातवें में तीन भावों की, आठवें में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं, नवमें में छह अर्थात् सवेद भाग के अन्त में तीनों वेदों की एवं अवेद भाग के अन्त में क्रोध, मान, माया की व्युच्छित्ति होती है। दसवें में दो, ग्यारहवें में दो, बारहवें में तेरह, तेरहवें में एक और चौदहवें में आठ भावों की व्युच्छित्ति होती है । विशेष - जो भाव जिस गुणस्थान तक पाया जाता है आगे के गुणस्थान में उसका अभाव हो जाता है उस भाव की उसी गुणस्थान के अन्त में व्युच्छित्ति समझना चाहिये । यथा - मिथ्यात्व भाव मिथ्यात्व गुणस्थान तक ही रहता है आगे दूसरे सासादन में इंसका अभाव है, अतः प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति हो जाती है । मिच्छे मिच्छ मभव्वं साणे अण्णाणतिदयमयदम्हि । किण्हादितिणि लेस्सा असंजमसुरणिरयगदिच्छे दो ॥ 36 | (16) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वे मिथ्यात्वमभव्यत्वं साणेऽज्ञानत्रितयमयते । कृष्णादितिस्रो लेश्याः असंयमसुरनरकगतिच्छे दः ॥ अन्वयार्थ - (मिच्छे) मिथ्यात्व गुणस्थान में (मिच्छ मभव्वं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व (साणे) सासादन गुणस्थान में (अण्णाणतिदयं) तीन अज्ञान (अयदम्हि) असंयतगुणस्थान में (किण्हादितिण्णि) कृष्णादि तीन (लेस्सा) लेश्यायों की (असंज) असंयम, (असुरणिरयगदि) देवगति और नरक गति की (छे दो)व्युच्छित्ति होती है। . भावार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व और अभव्यत्व इन दो भावों का व्युच्छेद होता है। सासादन गुणस्थान में तीन अज्ञान-कुमति, कुश्रुत और विभङ्गावधि इन तीन क्षायोपशामिक भावों काव्युच्छेदहोजाता है। तीसरे गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है, तथा अविरत गुणस्थान में कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या, असंयम, देवगति और नरकगति इन छह औदयिक भावों का विच्छेद हो जाता है। देसगुणे देसजमो तिरियगदी अप्पमत्तगुणठाणे । तेऊपम्मालेस्सा वेदगसम्मत्तमिदि जाणे ।।37।। देशगुणे देशयमस्तिर्यग्गतिः अप्रमत्तगुणस्थाने । तेजःपद्मलेश्ये वेदक सम्यक्त्वमिति जानीहि ॥ अन्वयार्थ 37- (देशगुणे) देशव्रत गुणस्थान में (देसजमो) देशसंयम और (तिरियगदी) तिर्यंच गति (अप्पमत्तगुणठाणे) अप्रमत्तगुणस्थान में (तेऊ पम्मालेस्सा) पीत, पद्मलेश्या तथा (वेदगसम्मत्तमिदि) वेदक सम्यक्त्व की व्युच्छित्ति होती है। इस प्रकार (जाणे) जानना चाहिए। भावार्थ - पाँचवें गुणस्थान में संयमासंयम और तिर्यंचगति इन दो की व्युच्छित्ति; प्रमत्त.संयत गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं एवं सातवें गुणस्थान में पीत लेश्या, पद्म लेश्या और वेदक सम्यक्त्व इन तीन भावों की व्युच्छित्ति हो जाती है। अणियट्टिदुगदुभागे वेदतियं कोह माण मायं च । सुहमेसरागचरियं लोहोसंतेदुउवसमाभावा।।38।। (17) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवृत्तिद्विद्विभागे वेदत्रिकं क्रोधो मानो माया च । सूक्ष्मे सरागचारित्रं लोभः शान्ते तु उपशमौ भावौ ॥ अन्वयार्थ - (अणियट्टि दुगदुभागे) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के दो भागों में अर्थात् सवेद भाग और अवेद भाग में क्रमशः (वेदतियं) तीन वेद (च) और (कोह माण मायं) क्रोध, मान, माया (सुहमे) एवं सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में (सरागचरियं) सरागचारित्र (लोहो) और लोभ (संते) तथा उपशांत मोह गुणस्थान में (उवसमा भावा) औपशमिक भावों की व्युच्छित्ति होती है । भावार्थ- आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के दो भाग हैं - वेद सहित और वेदरहित । वेदसहित - सवेद भाग में पुंवेद, स्त्रीवेद और नपुंसक इन तीन वेदों की तथा वेदरहित भाग के अन्त में क्रोध, मान, माया इन कषायों की, इस प्रकार इस गुणस्थान में छह भावों की व्युच्छित्ति होती है । दसवें गुणस्थान में सरागचारित्र और लोभ कषाय इन दो भावों की व्युच्छित्ति होती है एवं उपशान्त मोह गुणस्थान में औपशमिक सम्यक्त्व (द्वितीयोपशम सम्यकत्व) और औपशमिक चारित्र इन भावों की व्युच्छिति हो जाती है । खीणकसाए णाणचउक्कं दंसणतियं च अण्णाणं । पण दाणादि सजोगे सुक्कलेसे गवो छे दो ||39|| क्षीणकषाए ज्ञानचतुष्कं दर्शनत्रिकं चाज्ञानं । पंच दानादयः सयोगे शुक्ललेश्याया गतः छेदः ॥ अन्वयार्थ - ( खीणकसाए) क्षीणकषाय गुणस्थान में (णाणचउक्कं ) चारज्ञान (दंसणतियं) तीन दर्शन (अण्णाणं) अज्ञान (च) और (दाणादि) क्षायोपशमिक दानादि (पण) पाँच की लब्धियों और (सजोगे) सयोग केवल गुणस्थान में (सुक्कलेसे) शुक्ललेश्या का ( गवो छे दो) अभाव अर्थात् व्युच्छित्ति हो जाती है । भावार्थ - बारहवें गुणस्थान में मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, अज्ञान, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य पाँच क्षायोपशमिक लब्धियाँ। इस प्रकार कुल 13 भावों की व्युच्छित्ति 12 वें (18) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान में जानना चाहिए तथा सयोग केवली गुणस्थान में शुक्ल लेश्या मात्र की व्युच्छित्ति जानना चाहिये। दाणादिचऊ भव्वमसिद्धत्तं मणुयगदि जहक्खादं । चारित्तमजोगिजिणे वुच्छे दो होति भावे दो ॥401 दानादिचतुः भव्यत्वमसिद्धत्वं मनुष्यगतिः यथाख्यातं । चारित्रमयोगिजिने व्युच्छेदः भवतः भावौ द्वौ ।। अन्वयार्थ - (अजोगिजिणे) अयोग केवली गुणस्थान में (दाणादिचऊ) दानादि चार अर्थात् दान, लाभ, भोग, उपभोग (भव्वमसिद्धत्तं) भव्यत्व, असिद्धत्व (मणुयगदि) मनुष्यगति (जह-क्खादं चारित्तं) यथाख्यात चारित्र इन आठ भावों की (वुच्छे दो) व्युच्छित्ति (होति) होती है। (भावे दो) मात्र दो भाव पाये जाते हैं। यहाँ दो भाव से क्षायिक और पारिणामिक भाव ग्रहण करना चाहिये। ऐसा यहाँ आचार्य महाराज का अभिप्राय ज्ञात होता है। भावार्थ - अयोगकेवली गुणस्थान में क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग ये चार भाव एवं भव्यत्व, असिद्धत्व, मनुष्यगति और यथाख्यात चारित्र इन आठ भावों की व्युच्छित्ति हो जाती है। अयोगकेवली के क्षायिक दानादि की व्युच्छित्ति कैसे घटित होती है तो इसका समाधान इस प्रकार है कि अभयदान आदि के लिए शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है। जबकि सिद्ध परमेष्ठियों में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म का अभाव है। किन्तु सिद्ध परमेष्ठी के क्षायिक दानादिलब्धियों का सद्भाव आगम में कहा गया है। इस विषय में सर्वार्थ सिद्धि में आगत शंका समाधान दृष्टव्य है। शंका - यदिक्षायिक दान आदि भावों के निमित्त से अभयदान आदि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन अभयदान आदि के होने में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है। परन्तु सिद्धों के शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्म नहीं होते, अतः उनके अभयदान आदि प्राप्त नहीं होते। (19) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका - तो सिद्धों के क्षायिक दान आदिभावोंकासद्भाव कैसेमाना जाय? समाधान- जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञान रूप से अनन्तवीर्य का सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानन्द और अव्याबाध रूपसे ही उनका सिद्धों के सद्भाव है। (स.सि. 2/4). केवलणाणं दंसणमणंतविरियं च खइयसम्मं च । जीवत्तं चेदे पण भावा सिद्धे हवंति फुड ॥41।। केवलज्ञानं दर्शनमनन्तवीर्यं च क्षायिकसम्यक्त्वं च । जीवत्वं चैते पंच भावा सिद्धे भवन्ति स्फुट । अन्वयार्थ - (सिद्धे) सिद्धों में (फुड) निश्चय से (केवलणाणं) केवलज्ञान (दसणमणंतविरियं) केवलदर्शन अनन्तवीर्य (खइयसम्म) क्षायिक सम्यक्त्व (च) और (जीवत्तं) जीवत्व (एदे) ये (पण) पाँच (भावा) भाव (हवंति) होते हैं। चदुतिगद्गछत्तीसं तिसुइगितीसंच अडडपणवीसं। दुगइगिवीसं वीसं चउद्दस तेरस भावा हु ।।42|| चतुस्त्रिकद्विकषत्रिंशत् त्रिषु एकत्रिंशच्च अष्टाष्टपंचविशति। द्विकैकविंशतिः विंशतिः चतुर्दश त्रयोदश भावा हि ॥ अन्वयार्थ - मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में क्रमशः (चदुदुगतिगछत्तीस) चौतीस भाव, बत्तीस भाव, तेतीस भाव, छत्तीस भाव(तिसु) और तीन गुणस्थानों में ५वें, ६३७वेंगुणस्थान में (इगितीसं) इकतीसइकतीस भाव, (अडड पणवीसं) अट्ठाइस-अट्ठाइस, पच्चीस भाव (दुगइगिवीसं) वाईस भाव, इक्कीस भाव (बीसं) बीस भाव (चउद्दस) चौदह भाव (च) और (तेरस भावा हु) तेरह भाव होते हैं। भावार्थ - प्रथम गुणस्थान में चौंतीस भाव होते हैं, दूसरे सासादन गुणस्थान में बत्तीस, तीसरे में तेतीस. चौथे गुणस्थान में छत्तीस, पाँचवें, छठवें, सातवें गुणस्थानों में इकतीस -इकतीस, अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में अट्ठाईस नवमें के सवेदभाग में अट्ठाईस, अवेदभाग में पच्चीस, दसवें में बाबीस, ग्यारहवें में इक्कीस, बारहवें में बीस, तेरहवें में चौदह और चौदहवें गुणस्थान में तेरह भाव होते हैं। (20) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष - गाथा में प्रथम चरण 'चदुतिगदुगछत्तीसं तिसु' इसमें तिग के स्थान पर दुग और दुग के स्थान तिग पाठ कर दिया है - कर्मकाण्ड ग्रन्थ के आधार पर। उणइगिवीसं वीसं सत्तरसं तिसु य होति वावीसं । पणपण अट्ठावीसं इगदुगतिगणवयतीसतालसमभावा।।43।। एकान्नैकविंशतिः विंशतिः सप्तदश त्रिषु च भवन्ति द्वा विंशतिः । पंचपंचाष्टाविंशतिः एकद्विकत्रिकनवकत्रिंशच्चत्वारिंशद्भावाः ॥ अन्वयार्थ - मिथ्यात्वादि चार गुणस्थानों में क्रमशः (उणइगिवीसं) उन्नीस भाव इक्कीस भाव (वीसं) वीस भाव (सत्तरसं) सत्तरह भाव (तिसु) तथा तीन गुणस्थानों में अर्थात् ५वें, ६वें और ७ वें गुणस्थान में (वावीसं) वाईस -वाईस , (पणपणअट्ठावीसं) पच्चीस भाव, पच्चीस, अट्ठाईस (इग दुगतिगजणवयतीस) इकतीस , उनतालीस और (तालसमभावा) चालीस भाव क्रमशः अभाव रूप होते हैं। भावार्थ - प्रथम गुणस्थान में उन्नीस भावों का अभाव, दूसरे गुणस्थान में इकतीस, तीसरे में बीस, चौथे में सत्तरह, पाँचवें, छठवें, सातवें में बाईसबाईस, आठवें गुणस्थान में एवं नवमें गुणस्थान के सवेदभाग में पच्चीसपच्चीस, नवमें गुणस्थान के अवेदभाग में अट्ठाईस, दसवें में इकतीस, ग्यारहवें में बत्तीस, बारहवें में तेतीस, तेरहवें में उनतालीस और चौदहवें गुणस्थान में चालीस भाव अभावरूप होते हैं। गुणस्थानत्रिभङ्गी समाप्सा (21) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.1 गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व | 34 [चक्षु दर्शन, | 19 [औपशमिक, अभव्यत्व) अचक्षुदर्शन, कुमति, सम्यक्त्व, औपशमिक, कुश्रुत,कुअवधि ज्ञान चारित्र, क्षायिक पांच क्षायोपशमिक पांच लब्धि- दान, लाभ, लब्धि, (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, भोग, उपभोग, वीर्य) केवलज्ञान, चार गति ,मनुष्यगति, केवलदर्शन,क्षायिक तिथंच गति, देव गति, सम्यक्त्व, क्षायिक नरक गति) (कृष्ण, चारित्र, मतिज्ञान, श्रुत नील, कापोत, पीत, ज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पद्म, शुक्ल लेश्या, पर्यय ज्ञान,अवधिदर्शन, स्त्री लिंग, पुल्लिंग, 'क्षायोपशमिक नपुंसक लिंग) चार सम्यक्त्व, सराग कषाय (क्रोध, मान, चारित्र, संयमासंयम] माया, लोभ) अज्ञान असिद्धत्व,असंयम, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 (जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व)] सासादन 3 (कुमति, | 32 ( चक्षुदर्शन, औपशमिक, कुश्रुत, | अचक्षुदर्शन, कुमति, | सम्यकत्व, औपशमिक कुअवधि, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान चारित्र, क्षायिक पांच ज्ञान) क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, केवलज्ञान, केवल लब्धि, चार गति, दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, लेश्या 6, तीन लिंग, क्षायिक चारित्र, मति, चार कषाय, अज्ञान श्रुत, अवधि, मनः पर्यय असिद्धत्व, असंयम, ज्ञान, अवधि-दर्शन, जीवत्व, भव्यत्व] क्षायोपशमिक सम्यक्त्व,सराग चारित्र, संयमासंयम,मिथ्यात्व, अभव्यत्व (22) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 3. मिश्र (33) [चक्षुदर्शन, | (20) औपशमिक अचक्षुदर्शन, सम्यक्त्व, औपशमिक अवधिदर्शन, चारित्र, क्षायिक पाँच क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, केवल ज्ञान,केवल लब्धि , चार गति, |दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, लेश्या 6, तीन लिंग, क्षायिक चारित्र, मति श्रुत चार कषाय, अज्ञान अवधि मनः पर्यय ज्ञान, असिद्धत्व असंयम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व जीवत्व, भव्यत्व, मति-सराग चारित्र, कुमति श्रुत -कुश्रुत, संयमांसंयम मिथ्यात्व अवधि कुअवधि मिश्र | अभव्यत्व + कुज्ञान 3 तीन ज्ञान] | मिश्रज्ञान 3] 4. अविरत 6 [नरक गति, (36) [औपशमिक 17[औपशमिक चारित्र, देवगति, सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायिक पाँच लब्धि, कृष्ण, नील | सम्यक्त्व,मति श्रुत, केवलज्ञान, केवलदर्शन, कापोत | अवधिज्ञान चक्षुदर्शन, क्षायिक चारित्र लेश्याये, अचक्षुदर्शन, |मनः पर्यय ज्ञान, कुमति असंयम] | अवधिदर्शन, क्षायोप |कुश्रुत,कुअवधि ज्ञान शमिक पाँच लब्धि सराग चारित्र, क्षायोपशमिक संयमासंयम, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, चार गति, अभव्यत्व लेश्या 6, तीन लिंग, चार कषाय,अज्ञान, असिद्धत्व असंयम जीवत्व, भव्यत्व (23) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 5. 2 31 [औपशमिक 22 [औपशमिक चारित्र देशविरत ||संयमासंयम, सम्यक्त्व, क्षायिक । क्षायिक पॉच लब्धि, तिर्यञ्च गति] सम्यक्त्व, मति, श्रुत, | केवलज्ञान, केवलदर्शन, अवधि ज्ञान, चक्षुदर्शन क्षायिक चारित्र, मनः अचक्षुदर्शन, अवधि | पर्यय ज्ञान, कुमति, दर्शन, क्षायोपशमिक कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, पॉच लब्धि, सराग चारित्र, नरक गति, क्षायोपशमिक देव गति, कृष्ण, नील सम्यक्त्व, संयमासंयम | कापोत लेश्या, असंयम, मनुष्य गति,तिर्यञ्च | मिथ्यात्व, अभव्यत्व गति, पीत,पद्म शुक्ल लेश्या,तीन लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व] 6. प्रमत्त ko) संयत (31) [औपशमिक | 22 [औपशमिक चारित्र सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायिक पॉच लब्धि सम्यक्त्व, मति श्रुत, केवलज्ञान, केवल दर्शन, अवधि, मनः पर्यय क्षायिक चारित्र कुमति, ज्ञान, चक्षु दर्शन, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, अचक्षुदर्शन, अवधि संयमासंयम, तिर्यश्चगति दर्शन, क्षायोपशमिक नरकगति, देवगति, पाँच लन्धि, कृष्ण, नील, कापोत क्षायोपशमिक लेश्या, असंयम, सम्यक्त्व, सराग मिथ्यात्व, अभव्यत्व] चारित्र मनुष्यगति, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, तीन लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्वजीवत्व भव्यत्व (24) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव पीत पदम |(31) [औपशमिक 1(22) (औपशमिक अप्रमत्त सम्यक्त्व, चारित्र, क्षायिक पाँच संयत क्षायोपशमिक । क्षायिकसम्यक्त्व मात, लब्धि केवलज्ञान, सम्यक्त्व] श्रुत, अवधि, मनःपर्यय केवलदर्शन क्षायिक ज्ञान, चक्षुदर्शन, चारित्र, कुमति कुश्रुत अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, कुअवधि ज्ञान क्षायोपशमिक पाँच संयमासंयम ,तिर्यञ्च गति लब्धि, क्षायोपशमिक, नरक गति, देव गति, कृ सम्यक्त्व, सराग ष्ण, नील, कापोत लेश्या, चारित्र, मनुष्यगति, असंयम मिथ्यात्व, पीत, पद्म शुक्ल अभव्यत्व] लेश्या, 3 लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व 8. अपूर्व-10) करण (28) औपशमिक (25) (औपशमिक चारित्र सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायिक पॉच लब्धि, सम्यक्त्व, मति, श्रुत, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अवधि, मनः पर्यय |क्षायिक चारित्र, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिज्ञान, ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अवधि दर्शन, संयमासंयम, तिर्यश्च, थायोपशमिक पाँच नरक, देवगति, कृष्ण लब्धि, सराग चारित्र, नील, कापोत पीत, पद्म मनुष्य गति, शुक्ल लेश्या, असंयम मिथ्यात्व, लेश्या, तीन लिंग, अभव्यत्व) चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्वजीवत्व, भव्यत्व (25) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 9. (3) (पुल्लिंग, |(28) [औपशमिक (25) (औपशमिक चारित्र, अनिवृत्ति-स्त्रीलिंग, सम्यक्त्व, क्षायिक पॉच क्षायिक लब्धि करण नपुंसकलिंग] सम्यक्त्व, मति, श्रुत, केवलज्ञान, केवलदर्शन सवेद अवधि, मनःपर्यय ज्ञान क्षायिक चारित्र, कुमति चक्षु, अचक्षु, अवधि कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, दर्शन, क्षायोपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पॉच लब्धि, सराग संयमासंयम, तिर्यञ्च, चारित्र, मनुष्यगति, नरक, देव गति, कृष्ण, शुक्ल लेश्या, तीन नील, कापोत, पीत, पद्म लिंग, चार कषाय, लेश्या असंयम, मिथ्यात्व अज्ञान असिद्धत्व, अभव्यत्व) जीवत्व, भव्यत्व 9. (3) अनिवृत्ति-क्रोध, मान, करण माया कषाय) अवेद (25) [औपशमिक (28) [औपशनिक चारित्र सम्यक्त्व, क्षायिक | पाँच क्षायिक लब्थि, सम्यक्त्व, मति, श्रुत, केवल ज्ञान, केवलदर्शन, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान क्षायिक चारित्र, कुमति चक्षु, अचक्षु, अवधि | कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान दर्शन क्षायोपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, पाँच लब्धि, सराग संयमासंयम, तिर्यश्च, चारित्र, मनुष्यगति नरक, देव गति कृष्ण, शुक्ल लेश्या, चार नील, कापोत, पीत, पद्म कषाय, अज्ञान, लेश्या, तीन लिंग, असिद्धत्व, जीवत्व, असंयम मिथ्यात्व, भव्यत्व) अभव्यत्व (26) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 10 सूक्ष्म (2) [सराग |(22) (औपशमिक (31) [औपशमिक सांपराय चारित्र, लोभ |सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक पाँच कषाय सम्यक्त्व, मति, श्रुत लब्धि, केवलज्ञान केवल अवधि, मनःपर्यय ज्ञान दर्शन, क्षायिक चारित्र, चक्षु, अचक्षु, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि अवधिदर्शन, ज्ञान, क्षायोपशमिक क्षायोपशमिक पाँच सम्यक्त्व, संयमासंयम, लब्धि, सराग चारित्र तिर्यञ्च, नरक, देव गति मनुष्यगति, शुक्ल कृष्ण, नील कापोत, पीत, लेश्या, लोभ कषाय, पद्म लेश्या तीन लिंग, अज्ञान, असिद्धत्व, क्रोध, मान, माया कषाय, जीवत्व, भव्यत्व असंयम मिथ्यात्व,अभव्यत्व 11. 2) उपशांत {औपशमिक मोह सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र) (21) {औपशमिक (32) {क्षायिक पांच |सम्यक्त्व, औपशमिक | लब्धि, केवलज्ञान केवल चारित्र,क्षायिक दर्शन, क्षायिक चारित्र, सम्यक्त्व,मति, श्रुत कुमति, कुश्रुत, कुअवधि अवधि, मनः पर्यय ज्ञान, क्षायोपशमिक ज्ञान, चक्षु, अचक्षु | सम्यक्त्व, सराग चारित्र, अवधि दर्शन, संयमासंयम, तिर्यंच, क्षायोपशमिक पाँच नरक, देव गति, कृष्ण, लब्धि, मनुष्य गति, नील, कापोत, पीत, पद्म शुक्ल लेश्या, अज्ञान | लेश्या, तीन लिंग चार असिद्धत्व, जीवत्व कषाय, असंयम मिथ्यात्व, भव्यत्व) अभव्यत्व (27) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 12. क्षीण |(13) [चार |(20) {क्षायिक (33) {औपशमिक मोह ज्ञान, तीन सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, औपशमिक दर्शन, चारित्र, मति, श्रुत, |चारित्र, क्षायिक पाँच क्षायोपशमिक, अवधि, मनः पर्यय ज्ञान लब्धि, केवलज्ञान, पाँच लब्धि, चक्षु, अचक्षु, अवधि । केवलदर्शन, कुमति, अज्ञान}]] दर्शन, क्षायोपशमिक' | कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, पाँच लब्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मनुष्यगति, सराग चारित्र, संयमाशुक्ललेश्या, अज्ञान संयम, तिर्यञ्च, नरक, असिद्धत्व, जीवत्व, देव गति, कृष्ण, नील, भव्यत्व) कापोत, पीत, पद्म लेश्या, तीन लिंग, चार कषाय, असंयम मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 13. सयोग (1) (14) {क्षायिक (39) {औपशमिक केवली (शुक्ल लेश्या) सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र, क्षायिक पाँच चारित्र, मति आदिचार लब्धि, केवलज्ञान, ज्ञान, तीन दर्शन, केवलदर्शन, मनुष्य क्षायोपशमिक पाँच गति, असिद्धत्व, शुक्ल | लब्धि, तीनकुज्ञान, लेश्या,जीवत्व, भव्यत्व}| क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, सराग चारित्र, संयमासंयम, तिर्यञ्च, नरक, देव गति कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म लेश्या, तीन लिंग, चार कषाय, अज्ञान, मिथ्यात्व, असंयम, अभव्यत्व) (28) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3Dविभिभाव - - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति 14. अयोग (8) . (13) {क्षायिक केवली {क्षायिक पाँच लब्धि, दानादि, चार क्षायिक सम्यक्त्व, लब्धि, क्षायिक केवलज्ञान, चारित्र, मनुष्य केवलदर्शन,मनुष्य गति, गति, असिद्धत्व, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) भव्यत्व) अभाव 1(40) औपशमिक सम्यक्त्व औपशमिक चारित्र, मति आदि चार ज्ञान, 3 कुज्ञान, तीन दर्शन क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, सराग चारित्र, संयमासंयम, लेश्या 6, तीन लिंग, चार कषाय,३ गति, मिथ्यात्व, असंयम अज्ञान, अभव्यत्व) सुयमुणिविणमियचलणं अणंतसंसारजलहिमुत्तिण्ह । णमिऊण वड्डमाणं भावे वोच्छामि वित्थारे ॥44।। श्रुतमुनिविनतचरणं अनन्तसंसारजलधिमुत्तीर्णं । नत्वा बर्धमानं भावान् वक्ष्यामि विस्तारे ॥ अन्वयार्थ - (अणंतसंसारजलहिंमुत्तिण्ह) अनन्त संसार रूपी समुद्र को पार कर लिया है ऐसे (वडमाणं) वर्धमान स्वामी के (चलणं) चरणों को (सुयमुणिविणमिय) मैं श्रुतमुनि नम्रतापूर्वक (णमिऊण) नमस्कार करके (वित्थारे) विस्तार से (भावो) भावों को (वोच्छामि) कहूँगा। भावार्थ - श्री श्रुतमुनि ने ग्रन्थ के मध्य में मङ्गलाचरण करके वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके आगे गति आदि 14 मार्गणाओं में भावों को कहूँगा इस प्रकार प्रतिज्ञावचन इस गाथा में प्रस्तुत किया है। विशेष -पूर्व कालीन आचार्यों ने जो शास्त्रों के आदि में मङ्गलाचरण का उल्लेख किया है। उस मंगलाचरण को नियम से शास्त्रों के आदि, मध्य और अन्त में करना चाहिए। शास्त्र के आदि में मङ्गल के पढ़ने पर शिष्य लोगशास्त्र के पारगामी होते हैं, मध्य में मङ्गल के करने पर निर्विघ्न विद्या की प्राप्ति होती है और अन्त में मङ्गल के करने पर विद्या का फल प्राप्त होता है। (29) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदिमणिरए भोगजतिरिए मणुवेसु सग्गदेवेसु । वेदगखाइयसम्मं पज्जत्तापज्जत्तगाणमेव हवे ||45|| आदिमनरके भोगजतिरश्चि मनुजेषु स्वर्गदेवेषु । 'वेदक क्षायिक सम्यक्त्वं पर्याप्तापर्याप्तकानामेव भवेत् ॥ अन्वयार्थ - (आदिमणिरए) प्रथम नरक में (भोगजतिरिए मणुवेसु) भोगभूमि के तिर्यञ्च व मनुष्यों के (सग्गदेवेसु) स्वर्ग के देवों के अर्थात् सौधर्मादि स्वर्ग के देवों में (पज्जत्तापज्जत्तगाणमेव ) पर्याप्त, अपर्याप्त अवस्था में (वेदगखाइयसम्मं ) वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व (हवे) होता है । भावार्थ- मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों में से मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति एवं अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं तथा इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षायोपशम से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे क्षायोपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं । ये दोनों सम्यग्दर्शन प्रथम नरक के नारकियों के भोग भूमिज तिर्यंच, मनुष्यों के तथा सौधर्मादि स्वर्ग के देवों के पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में पाये जाते हैं विशेषता यह है कि प्रथम नरक में भोग भूमिज तिर्यंच एवं मनुष्यों के जो वेदक सम्यग्दर्शन कहा गया है उससे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दर्शन समझना चाहिए। यह कृतकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक पाया है। पढ मुवमसम्मत्तं पज्जते होदि चादुगदिगाणं । विदिउवसमसम्मत्तं णरपज्जत्ते सुरअपज्नत्ते ||4611 प्रथमोपशमसम्यक्त्वं पर्यासे भवति चातुर्गतिकानां । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं नरपर्याप्ते सुरापर्याप्ते || अन्वयार्थ - ( पढ मुवसमसम्मत्तं) प्रथमोपशम सम्यक्त्व (चादुगदिगाणं) चारों गतियों के जीवों की (पज्जते ) पर्याप्त अवस्था में ही होता है । (विदिउवसमसम्मत्तं) द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ( णरपज्जते) मनुष्यों के पर्याप्त अवस्था में (सुरअपज्जते) एवं देवों की अपर्याप्त अवस्था में (होदि) होता है । (30) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों उपशम से जो सम्यग्दर्शन होता है वह औपशमिक सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस सम्यग्दर्शन के दो भेदों का कथन अर्थात् प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन का प्राप्त होता है । उसमें प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने वाला जीव पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, गर्भज, पर्याप्त और सर्व विशुद्ध जानना चाहिए । यह सम्यग्दर्शन चारों गतियों के जीवों के पर्याप्त अवस्था में होता है तथा चतुर्थ गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक पाया जाता है। तथा उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षयोपशम सम्यग्दर्शन से जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य व निर्वृत्यपर्याप्त वैमानिक देवों में ही होता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतादि से उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है। अप्रमत्त गुणस्थान में उत्पन्न करके, ऊपर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक जाकर फिर नीचे उतरते हुए असंयत गुणस्थान तक भी सम्भव है । जिन जीवों के श्रेणी के उतरते समय मरण हो जाता है ऐसे जीवों के ही देव गति की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सम्भव है। तथा निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था के पूर्ण होते ही द्वितीयोपशम का सद्भाव पर्याप्त अवस्था में नहीं पाया जाता है । सक्करपहुदीणरये 1 वणजोइसभवणदेवदेवीणं सेसत्थीणं पज्जत्तेसुवसम्मं वेदगं होइ ||47|| शर्कराप्रभृतिनरके वाणज्योतिष्क भवनदेवदेवीनां । शेषस्त्रीणां पर्याप्तेषु उपशमं वेदकं भवति ॥ अन्वयार्थ - (सक्करपहुदीणरये) शर्करा आदि पृथ्वी के नारकियों में अर्थात् दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी के नरक के नारकियों के तथा (वणजोइसभवणदेवदेवीणं ) व्यंतर, ज्योतिष्क वासी और भवनवासी देव देवियों के और (सेसत्थीणं) शेष सभी स्त्रियों के (पज्जत्तेसुवसम्मं) पर्याप्त अवस्था में ही उपशम सम्यक्त्व तथा (वेदगं) वेदक सम्यक्त्व (होइ) होता है । (31) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ- दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक भवनबासी, व्यंतर, ज्योतिष्कवासी देव देवियों तथा शेष स्त्रियों के अर्थात् कल्पवासी देवियों, मनुष्यनियों तिर्यंचनियों के पर्याप्त अवस्था में ही उपशम तथा वेदक सम्यक्त्व होता है। अपर्याप्त अवस्था में नहीं, क्योंकि इन स्थानों में कोई भी जीव सम्यक्त्व सहित उत्पन्न नहीं होता है तथा भवनत्रिक, देवदेवी, कल्पवासी देवियों में उत्पन्न होने वाला जीव पूर्व पर्याय में सम्यक्त्व के साथ मरण नहीं करता है । कम्मभूमिजतिरिक्खे वेदगसम्मत्तमुवसमं च हवे । सव्वेसि सण्णीणं अपजत्ते णत्थि वेभंगो ||48 || कर्मभूमिजंतिरश्चि वेदक सम्यक्त्वमुपशमं च भवेत् । सर्वेषां संज्ञिनां अपर्याप्ते नास्ति विभंगः ॥ अन्वयार्थ - (कम्मभूमिजतिरिक्खे) कर्म भूमिज तिर्यञ्चों के (वेदगसम्मत्तमुवसमं च) वेदक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्व (हवे) होता है । (सव्वेसिं) सभी (सण्णीणं) संज्ञी जीवों के (अपजत्ते) अपर्याप्त अवस्था में (वेभंगो) विभंगावधि ज्ञान ( णत्थि ) नहीं होता है । 111 भावार्थ - कर्म भूमिज तिर्यंचों के पर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व होता है अपर्याप्त अवस्था में कोई भी सम्यक्त्व नहीं होता है पर्याप्त अवस्था में वेदक तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व ही होता है अन्य नहीं । संज्ञी जीवों के अपर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान नहीं होता है क्योंकि विभंगावधि. ज्ञान पर्याप्त अवस्था में ही होता है । रिये इयरगदी सुहले सतिथीपुंसरागदेसजमं । मणपज्नवसमचरियं खाइयसम्मूणखाइया ण हवे ||49|| नरके इतरगतयः शुभलेश्यात्रयस्त्रीपुं ससरागदेशयमं । मन:पर्ययशमचारित्रं क्षायिकसम्यक्त्वोनक्षायिका न भवन्ति ॥ अन्वयार्थ - (णिरये) नरक गति में (इयरगदी) नरकगति को छोड़कर अन्य तीन गति (सुहलेसति) तीन शुभ लेश्या अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या ( थी) स्त्री वेद (पुं) पुरुष वेद (सराग) सराग चारित्र (देसजमं) देशसंयम (मणपज्जवसमचरियं) मनः पर्यय ज्ञान उपशम (32) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र (खाइयसम्मूणखाइया) क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर शेष क्षायिक भाव (ण हवे) नहीं होते हैं। भावार्थ - नरक गति में तिर्यञ्च गति, मनुष्यगति, देवगति, तीन शुभ लेश्या, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सराग चारित्र, देशसंयम, मनःपर्ययज्ञान, उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानादिपाँच लब्धियाँ, केवलज्ञान और केवल दर्शन ये बीस भाव नहीं होते हैं। शेष तेतीस भाव होते हैं वे तेतीस भाव इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशम लब्धि 5, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति, क्रोधादि कषाय 4, नपुंसकवेद, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । पढमदुगे कावोदा तदिए कावोदनील तुरिय अइनीला। पंचमणिरये नीला किण्णा य सेसगे किण्हा ||50॥ प्रथमद्विके कापोता तृतीये कापोतनीले तुर्येऽतिनीला। पंचमनरके नीला कृष्णा च शेषके कृष्णा ॥ अन्वयार्थ - (पढ मदुगे)प्रथम और दूसरे नरक में (कावोदा) कापोत लेश्या (तदिए) तीसरे नरक में (कावोदनील) कापोत और नील लेश्या (तुरिय) चौथे नरक में (अइनीला) उत्कृष्ट नील लेश्या (पंचमणिरये) पाँचवें नरक में (नीला किण्णा) नील कृष्ण लेश्या (य) और (सेसगे) शेष नरकों में अर्थात् छठवें सातवें नरक में(किण्हा) कृष्ण लेश्या होती है। भावार्थ -पहली पृथ्वी में कापोत लेश्या का जघन्य अंश, दूसरी पृथ्वी में कापोत का मध्यम अंश, तीसरी पृथ्वी में कापोत का उत्कृष्ट अंश और नीललेश्या का जघन्य अंश, चौथी में नील का मध्यम अंश, पाँचवीं में नील का उत्कृष्ट अंशएवं कृष्णलेश्या काजघन्य अंश, छठी में कृष्णलेश्या का मध्यम अंश एवं सातवीं में कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट अंश पाया जाता है। इसमें विशेषता यह है कि उत्कृष्ट नील लेश्या पंचम नरक में ही होती है चौथे नरक में मध्यम नील लेश्या होती है किन्तु चौथी पृथ्वी में जो अति (33) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नील शब्द का प्रयोग हुआ है । यहाँ यह अभिप्राय ज्ञात होता है कि चौथी पृथ्वी में तीसरी पृथ्वी की अपेक्षा अधिक संक्लेश रूप परिणाम होते हैं - इस अपेक्षा से आचार्य महाराज ने यहाँ पर "अति नील" शब्द प्रयोग किया है। अन्यथा अन्य आचार्यों प्रणीत ग्रन्थों सेमत-भिन्न होने की संभावना उत्पन्न होती है। विदियादिसु छ सु पुढ विसु एवं णवरि असंजदट्ठाणे । खाइयसम्म णत्थि हु सेसं जाणाहि पुव्वं व ॥51|| द्वितीयादिषु षट्सु पृथिवीषु एवं णवरि असंयतस्थाने । क्षायिकसम्यक्त्वं नास्ति हि शेष जानीहि पूर्ववत् ॥ अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (विदियादिसु) दूसरी आदि (छसु) छह(पुढ विसु)पृथ्वियों में (णवरि) विशेषता यह है कि (असंजदाणे) असंयत गुणस्थान में (खाइयसम्म) क्षायिक सम्यक्त्व (णत्थि) नहीं होता है। (सेस) शेष कथन (पुव्वं व जाणाहि) पूर्ववत् अर्थात् प्रथम नरक के समान जानना चाहिए। भावार्थ - दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों के असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि जिसने पूर्व में नरक आयु का बंध कर लिया ऐसे बद्धायुष्यकजीव का क्षायिक सम्यक्त्व होने पर प्रथम नरक से आगे जन्म नहीं होता है अतः क्षायिक सम्यक्त्व का सद्भाव दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक संभव नहीं है। दूसरीसे सातवीं पृथ्वी तक पर्याप्त अवस्था में उपशम एवं वेदक सम्यक्त्व हो सकता है। सामण्णणारयाणमपुणाणं घम्मणारयाणं च । वेभंगुवसमसम्मंण हिसेसअपुण्णगेदुपढमगुणं ।।52।। सामान्यनारकाणामपूर्णानां घम्मानारकाणां च । वेभंगोपशमसम्यक्त्वं न हि शेषापूर्णके तु प्रथमगुणस्थानं । अन्वयार्थ - (सामण्णणारयाणमपुणाणं) सामान्य से नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में (च) तथा (घम्मणारयाणं) प्रथम नरक के नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में (वेभंगुवसमसम्म) विभंगावधि और उपशम सम्यक्त्व (ण हि) नहीं होता है (सेसअपुण्णगे) शेष अर्थात् दूसरी आदि (34) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वी के नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में (पढमगुण)प्रथम गुणस्थान ही होता है। भावार्थ- सभी नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान एवं उपशम सम्यक्त्व नहीं होता है। प्रथम नरक के नारकियों की अपर्याप्त अवस्था में पहला और चौथा ये दो गुणस्थान तथा शेष दूसरी आदि सभी पृथ्वियों में अपर्याप्त अवस्था में पहला मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। इति नरक-रचना संदृष्टि नं.2 सामान्य नरक रचना {33 भाव) नरक गति में पर्यास अवस्था में 33 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3; क्षायोपशमिक लब्धि 5, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति, कषाय 4, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के चार होते हैं गुणस्थानों में भाव आदि का कथन इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव {26} {चक्षुदर्शन, I7) {औपशमिक मिथ्यात्व (मिथ्यात्व, अचक्षु दर्शन, कुमति, | सम्यक्त्व, क्षायिक अभव्यत्व कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, सम्यक्त्व, मति, श्रुत क्षायोपशमिक पाँच । अवधि ज्ञान, लब्धि, नरक गति, क्षयोपशमिक कृष्ण, नील, कापोत | सम्यक्त्व, अवधि लेश्या, नपुंसक लिंग दर्शन} अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, असंयम, चार कषाय, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व (2) (35) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति {3} सासादन {कुमति, 2. कु श्रुत, कु अवधि ज्ञान} 3. मिश्र {0} 4. अविरत {5} { नरकगति, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या असंयम } भाव {24} {चक्षु, अचक्षु, दर्शन, कुमति, कुश्रुत, कु अवधि ज्ञान, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, नरकगति, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग अज्ञान, असिद्धत्व असंयम, चार कषाय, | जीवत्व, भव्यत्व } {25} {चक्षु अचक्षु अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, नरक गति, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, अज्ञान, असिद्धत्व असंयम, चार कषाय, जीवत्व, भव्यत्व, मति कुमति, श्रुत-कुश्रुत, अवधि - कु अवधि } तीन मिश्र ज्ञान {28} {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, | क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, नरकगति, कृष्ण, नील, कपोत लेश्या, नपुंसक लिंग, अज्ञान, असिद्धत्व असंयम, चार कषाय, जीवत्व, भव्यत्व } अभाव {9} {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, क्षयोपशम सम्यक्त्व, अवधि दर्शन, मिथ्यात्व, अभव्यत्व } (8) {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व + कुज्ञान 3 - मिश्रज्ञान 3 } क्षयोपशमिक (5) {कुमति, कुश्रुत कुअवधि ज्ञान, मिथ्यात्व, अभव्यत्न} (36) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 3 सामान्यनरक अपर्याप्त भाव {31} नरक गति में अपर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- क्षायिक सम्यक्त्व, कुज्ञान2, ज्ञान3, दर्शन 3, लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, नरकगति, कषाय 4, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । मिथ्यात्व और असंयत ये गुणस्थान दो होते हैं । भाव आदि का कथन नरक गति की पर्याप्त अवस्था वत् जानना चाहिए। विशेषता यह है कि अपर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान न होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में 25 भाव होते हैं तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही कृष्ण नील लेश्या की व्युच्छिति हो जाने से एवं उपशम सम्यक्त्व का अभाव होने से चौथे गुणस्थान में 25 भाव होते हैं । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 1. (6) {मिथ्यात्व {25} {चक्षु अचक्षु दर्शन, कुमति, कुश्रुत क्षायोपशमिक ज्ञान, पाँच लब्धि, नरकगति, कृष्ण, नील कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, असंयम, जीवत्व भव्यत्व अभव्यत्व) मिथ्यात्व अभव्यत्व, कृष्ण, नील लेश्या, कुमति कुश्रुत ज्ञान } 4. अविरत {3} { नरक गति, कापोत लेश्या, असंयम} {25} {क्षायिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, चक्षु | अचक्षु, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरक गति, कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व भव्यत्व } (37) (6) ( क्षायिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व, अवधिदर्शन } (6) (कुमति कुश्रुत ज्ञान, कृष्ण, नील लेश्या, मिथ्यात्व, अभव्यत्व } Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 4 घम्मा पृथ्वी {31 भाव) सामान्य नरक में कहे गये 33 भावों में से कृष्ण, नील, लेश्या कम करने पर प्रथम नरक में 31 भाव होते हैं क्योंकि यहां कृष्ण, नील, लेश्या का अभाव रहता है । घम्मा पृथ्वी में आदि के चार गुण स्थान ही होते हैं। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 1. 2} {मिथ्यात्व, |{24} {चक्षु अचमु.. |(1) {औपशमिक मिथ्यात्व अभव्यत्व |दर्शन, कुमति, श्रुत, सम्यक्त्व, क्षायिक कुअवधि ज्ञान, सम्यक्त्व, मति, श्रुत क्षायोपशमिक पाँच अवधिज्ञान, अवधि लब्धि, दर्शन,क्षायोपशमिक नरकगति,कापोत सम्यक्त्व) लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, मिथ्यात्व, जीवत्व भव्यत्व, अभव्यत्व 2. {3} {कुमति, I (22} {चक्षु, अचक्षु |(9) {औपशमिक सासादन कुश्रुत, दर्शन, कुमति, कुश्रुत, सम्यक्त्व , क्षायिक कुअवधि ज्ञान}| कुअवधि ज्ञान सम्यक्त्व,मति, श्रुत क्षायोपशमिक पाँच |अवधिज्ञान, अवधि लब्धि , |दर्शन,क्षायोपशमिक नरकगति,कापोत सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, लेश्या, नपुंसक लिंग, अभव्यत्व) चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व) (38) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - गुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति भाव . । अभाव 3. मिश्र {0} {23} {चक्षु अचक्षु (8) {औपशमिक अवधि दर्शन, सम्यक्त्व, क्षायिक क्षायोपशमिक पाँच . सम्यक्त्व, मति, श्रुत लब्धि , अवधि ज्ञान, नरकगति,कापोत क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, लेश्या, नपुंसक लिंग, मिथ्यात्व, अभव्यत्व+ चार कषाय, अज्ञान कुज्ञान - 3 मिश्रज्ञान} असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व, मति कुमति, श्रुत कुश्रुत अवधि कुअवधि तीन मिश्र ज्ञान 4. अविरत {3} [नरक 26} {औपशमिक {5}{कुमति कुश्रुत गति, कापोत सम्यक्त्व, क्षायिक कुअवधि ज्ञान, मिथ्यात्व लेश्या, सम्यक्त्व, मति, श्रुत अभव्यत्व) असंयम] अवधिज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन,क्षायोपशमिक सम्यक्त्व,क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व भव्यत्व - (39) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.5 धम्मा अपर्याप्त (29 भाव) सामान्य नरक रचना में कहे 3 भावों में से उपशम सम्यक्त्व,कुअवधि ज्ञान,कृष्ण नील लेश्या के अभाव में 29 भाव ही होते हैं। गुणस्थान मिथ्यात्व और अविरत दो ही होते हैं। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अभाव - भाव - 1. 14} {मिथ्यात्व |(23} {चक्षु, अचक्षु (6){क्षायिक सम्यक्त्व, मिथ्यात्व अभव्यत्व, दर्शन, कुमति, कुश्रुत मति, श्रुत अवधि ज्ञान, कुमति, कुश्रुत ज्ञान, क्षायोपशमिक अवधिदर्शन, ज्ञान} पांच लब्धि, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व} नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, मिथ्यात्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व 2. अविरत {3} {नरक गति, कापोत लेश्या, असंयम} |{25} {क्षायिक (4) {कुमति, कुश्रुत ज्ञान, |सम्यक्त्व, मति, श्रुत |मिथ्यात्व, अभव्यत्व} अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन,क्षयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि , नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व} (40) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 6 वंशा पृथ्वी भाव {30} नोट-दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता है तथा अपर्याप्त अवस्था में पहला गुणस्थान ही होता है। वंशा - वंशा पृथ्वी में धम्मा पृथ्वी में कहे गये 31 भावों में से क्षायिक सम्यक्त्व कम करने पर 30 भाव होते हैं वे इस प्रकार हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति, कषाय 4, नपुंसक लिंग, कापोत लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिदत्व, पारिणामिक 3 भाव | इस पृथ्वी में केवल क्षायिक सम्यक्त्व मात्र का अभाव होता है। शेष कथन धम्मा पृथ्वी के समान ही जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव K2} {मिथ्यात्व, [{24} {चक्षु अचक्षु |6) {औपशमिक मिथ्यात्व अभव्यत्व) दर्शन, कुमति, कुश्रुत, सम्यक्त्व , मति, श्रुत कुअवधि ज्ञान, अवधि ज्ञान, अवधि क्षायोपशमिक पाँच दर्शन,क्षयोपशमिक लब्धि , सम्यक्त्व} नरकगति,कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, मिथ्यात्व, जीवत्व भव्यत्व, अभव्यत्व 2. 1{3} {कुमति, सासादन कुश्रुत , कुअवधि ज्ञान} (22} {चक्षु अचक्षु |(8) {औपशमिक दर्शन, कुमति, कुश्रुत, सम्यक्त्व, मति, श्रुत कुअवधि ज्ञान, अवधि ज्ञान, अवधि क्षायोपशमिक पाँच दर्शन,क्षयोपशम लब्धि , सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, नरकगति,कापोत अभव्यत्व) लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व (41) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति 3. मिश्र {0} 4. अविरत {3} {नरक गति, कापोत लेश्या, असंयम } भाव {23} {चक्षु अचक्षु अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, नरकगति, कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व, मति - कुमति, श्रुतकुश्रुत अवधि - कु अवधि तीन मिश्र ज्ञान } {25} {औपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, नरकगति, कापोत लेश्या, नपुंसक लिंग, चार कषाय, अज्ञान असिद्धत्व, असंयम, जीवत्व, भव्यत्व } (42) अभाव (7) औपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, | क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व + कुज्ञान 3 - 3 मिश्रज्ञान} (5) [कुमति, कुश्रुत कुअवधि ज्ञान, अभव्यत्व ] मिथ्यात्व Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदृष्टि नं.7 मेघा पृथ्वी भाव {31} मेघा - मेघा पृथ्वी का कथन वंशा पृथ्वी के ही समान ही जानना चाहिए केवल वंशा पृथ्वी में कथित 30 भावों में यहां नील लेश्या और जोड़ देने पर 31 भाव होते हैं । इस पृथ्वी में आदि के चार गुणस्थानों का सद्भाव जानना चाहिए। इनकी संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव - मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत संदृष्टि नं.8 अंजना पृथ्वी भाव {30 } अंजना - अंजना पृथ्वी का कथन वंशा पृथ्वी के ही समान जानना चाहिए। वंशा पृथ्वी में ग्रहीत कापोत लेश्याके स्थान पर यहां अंजना पृथ्वी में नील लेश्या का ग्रहण करनााचहिए।शेष समस्त भाव प्रणालीवशासदृश जानना चाहिए। गुणस्थान आदि के चार जानना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत (43) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.9 अरिष्टा भाव{31} अरिष्टा - अरिष्ट । पृथ्वी का कथन वंशा पृथ्वी के ही समान है। केवल यहां पर कापोत लेश्या के स्थान पर नील लेश्या एवं कृष्ण लेश्या ग्रहण करना चाहिए। इसमें 31 भाव होते हैं इस पृथ्वी में आदि के चार गुणस्थानों का सद्भाव जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्तिा भाव अभाव - मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत संदृष्टि नं. 10 मघवा-मघवी भाव (30) मघवी-माधवी - इन दोनों पृथ्वियों का कथन भी वंशा पृथ्वी के ही समान है मात्र कापोत लेश्या के स्थान पर कृष्ण लेश्या ग्रहण करना चाहिए। भाव ३० होते हैं। इस पृथ्वी में आदि के चार गुणस्थानों का सद्भाव जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व सासादन । मिश्र अविरत (44) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 11 षण्णारकापर्याप्त (2-7 पृथ्वी की अपर्याप्त अवस्था) भाव {23} दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक अपर्याप्त अवस्था में 23 भाव होते हैं । गुणस्थान एक मिथ्यात्व होता है । 23 भाव इस प्रकार हैं - कुशान2, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि 5, नरकगति, कषाय 4, नपुंसकलिंग, विवक्षित कोई एक लेश्या ( कृष्ण, नील कापोत में से), मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3, संदृष्टि इस प्रकार है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति। मिथ्यात्व 23 (उपर्युक्त) भाव अभाव सासणठिअऽणाणदुगं असंजदठियकिण्हनीललेसदुग। मिच्छमभव्वं च तहा मिच्छाइट्ठिम्मि वुच्छे दो।।53।। सासादनस्थिताज्ञानद्विकं असंयतस्थितकृष्णनीललेश्याद्विकं । मिथ्यात्वमभव्यत्वं च तथा मिथ्यादृष्टौ व्युच्छेदः ॥ अन्वयार्थ - निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में भोगभूमिज तिर्यंच के (सासणठि अऽणाणदुर्ग) सासादन गुणस्थान में दो अज्ञान अर्थात् कुमति ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान (असंजदठियकिण्हनीललेसदुगं)तथा चौथे गुणस्थान में स्थित कृष्ण नील लेश्यायों की सासादन गुणस्थान में व्युच्छित्ति हो जाती है (मिच्छाइदिम्मि) मिथ्यात्व गुणस्थान में (मिच्छ मभव्वं च) मिथ्यात्व और अभव्यत्व की (वुच्छे दो)व्युच्छित्ति होती है। भावार्थ-निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में भोगभूमिज तिर्यंच के 31 भाव होते हैं गुणस्थान प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ ये तीन होते हैं। इन 31 भावों में से प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व और अभव्यत्व इन दो भावों की, दूसरे गुणस्थान में कुमतिज्ञान, कुश्रुत ज्ञान, कृष्ण लेश्या एवं नील लेश्या इन चार भावों की व्युच्छिति हो जाती है - कारण यह है कि निवृर्त्यपर्याप्तक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती भोग भूमिज तिर्यंच के कृष्ण, नील लेश्या कासद्भाव नहीं पाया जाता है - वहाँ कापोत लेश्या का जघन्य अंश पाया जाता है किन्तु पर्याप्त होते ही शुभ लेश्याये हो जाती हैं तथा चौथे गुणस्थान में (45) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कापोत लेश्या, असंयम एवं तिर्यंचगति इन तीनकीव्युच्छित्ति हो जाती है। टिप्पण - 1. भोगभूमिजतिर्यनिर्वृत्यपर्याप्तस्य सासादनगुणे तत्रस्थमतिश्रुताज्ञान द्वयस्य असंयतस्थित कृष्णनीललेश्याद्विकस्य च व्युच्छेदः। इत्यस्याः पूर्वार्धगाथाया भावः। कम्मभूमिजतिरिक्खे अण्णगदीतिदयखाइया भावा। मणपज्जवसमचरणं सरागचरियं च णेवत्थि |541 कर्मभूमिजतिरश्चि अन्यगतित्रितयक्षायिका भावाः । ... मनःपर्ययशमचरणं सरागचारित्रं च नैवास्ति ।। अन्वयार्थ - (कम्मभूमिजतिरिक्खे) कर्म भूमिज तिर्यञ्चों में (अण्णगदीतिदयखाइया भावा) तिर्यञ्च गति को छोड़कर अन्यतीन गतियाँ, क्षायिक भाव, (मणपज्जवसमचरणं) मनः पर्ययज्ञान, उपशमचारित्र (च) और (सरागचरियं) सरागचारित्र (णेवत्थि) नहीं होता है। संदृष्टि नं. 12 कर्म भूमिज तिर्यञ्च पर्याप्त (38 भाव) कर्म भूमिज तिर्यचों के पर्याप्त अवस्था में 38 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक पांच लब्धि, संयमासंयम, तिर्यञ्च गति, क्रोध, मान, माया लोभ, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, चक्षु दर्शन अचक्षु दर्शन, अवधिदर्शन, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व, गुणस्थान आदि के पाँच होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्तिा भाव । अभाव मिथ्यात्व | {2} (मिथ्यात्व |{31} {चक्षु अचक्षु (1)औपशमिक अभव्यत्व) दर्शन, कुमति, सम्यक्त्व, मति, श्रुत कुश्रुत, कुअवधि . अवधि ज्ञान, अवधि ज्ञान, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, दर्शन,क्षयोपशमिक तिर्यञ्चगति, क्रोध, सम्यक्त्व, संयमासंयम} मान, माया, लोभ, कृष्ण नील कपोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, (46) - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | भाव अभाव लिंग तीन,असिद्धत्व, असंयम, अज्ञान, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व) सासादन {3}{कुमति, ॥ | {29} {कुमति, |७) {औपशमिक, | कुश्रुत, कुश्रुत, कुअवधि सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक कुअवधि ज्ञान} ज्ञान, चक्षु अचक्षु सम्यक्त्व, मति, श्रुत, दर्शन, क्षायोपशमिक अवधिज्ञान, अवधिदर्शन, पाँच लब्धि, संयमासंयम, मिथ्यात्व, तिर्यशति, क्रोध, | अभव्यत्व) मान, माया लोभ, ३ लिंग कृष्ण,नील, कापोत, पीत, पद्म शुक्ल लेश्या, असिद्धत्व, असंयम, अज्ञान, जीवत्व, भव्यत्व मिश्र 10} {30} (तीन मिश्र - 168) {औपशमिक ज्ञान, चक्षुदर्शन, सम्यक्त्व , क्षायोपशमिक अचक्षुदर्शन सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधिदर्शन, . अवधि ज्ञान, क्षायोपशमिक पाँच संयमासंयम,मिथ्यात्व, लब्धि, तिथंच गति, अभव्यत्व) क्रोध, मान, माया, लोभ, 3 लिंग, कृष्ण नील कापोत पीत पद्म, शुक्ल लेश्या, असिद्धत्व, असंयम, अज्ञान, जीवत्व भव्यत्व (47) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अविरत {4} {कृष्ण, नील, कापोत, लेश्या, असंयम } देशविरत |{2} (संयमासंयम, तिर्यंच गति) भाव {32} {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधिज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यञ्चगति, क्रोध, मान, माया, लोभ, तीन लिंग, श्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व {29} {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, संयमासंयम, तिर्यंच गति, क्रोध, मान माया लोभ, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, पीत पद्म, शुक्ल लेश्या असंयम, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व } (48) अभाव (6) {कुमति, कुश्रुत कु अवधि ज्ञान, संयमासंयम, मिथ्यात्व, अभव्यत्व} (१) (कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, कृष्ण, नील कापोत, लेश्या असंयम, मिथ्यात्व, अभव्यत्व} Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेसिमपज्जत्ताणं सण्णाणतिगोहिदंसणं च वेभंगं । वेदगमुवसमसम्म देसचरित्तं च णेवत्थि ।।55।। तेषामपर्याप्तानां सज्ज्ञानत्रिकावधिदर्शनं विभंगः । वेदकमुपशमसम्यक्त्वं देशचारित्रं नैवास्ति ।। अन्वयार्थ - (तेसिमपज्जत्ताणं) उन्हीं की अर्थात् कर्मभूमिज तिर्यञ्चों की अपर्याप्त अवस्था में (सण्णाणतिगोहिदंसणं) तीन सम्यग्ज्ञान अवधिदर्शन (च) और (वेभंगं) विभंगावधि ज्ञान (वेदगमुवसमसम्म) वेदक सम्यक्त्व, उपशमसम्यक्त्व (च) और (देसचरित्तं) देश चारित्र (णेवत्थि) नहीं होता है। भावार्थ -कर्मभूमिज तिर्यंच की अपर्याप्त अवस्था में तीन सम्यग्ज्ञान, विभंगावधि ज्ञान, अवधिदर्शन, वेदक सम्यक्त्व, देश संयम, उपशम सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन के साथ तिर्यंच गति में उत्पन्न होने का अभाव है। संदृष्टि नं. 13 कर्मभूमिज अपर्याप्त तिर्यञ्च भाव (30) अपर्याप्त कर्म भूमिज तिर्यञ्च के 30 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - कुमति, कुश्रुत ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिथंच गति, कोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, कृष्ण, नील, कापोत, पीत पद्म, शुक्ललेश्या, मिथ्यादर्शन, असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व । गुणस्थान आदि के दो होते हैं संदृष्टि निम्न प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव - - मिथ्यात्व |{2} मिथ्यात्व | {30} उपर्युक्त कहे गये (0) अभव्यत्व समस्त भाव जानना चाहिए। (49) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव - - सासादन |{2} {कुमति, |{28} {कुमति, कुश्रुत |(2){मिथ्यात्व, अभव्यत्व) ज्ञान, कुश्रुत ज्ञान चक्षु, अचक्षु दर्शन, ज्ञान} क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यञ्चगति, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, कृष्ण नील, कापोत, पीत पद्म शुक्ल लेश्या असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व एवं भोगजतिरिए पुण्णे किण्हतिलेस्सदेसजमं । थीसंढ ण हि तेसिं खाइयसम्मत्तमत्थित्ति ।।56।। - एवं भोगजतिरश्चि पूर्णे कृष्णत्रिलेश्यादेशसंयमं । स्त्रीषण्डं न हि तेषां क्षायिक सम्यक्त्वमस्तीति ।। अन्वयार्थ - (एवं) इसी प्रकार (भोगजतिरिए) भोगभूमिज तिर्यञ्चों के (पुण्णे) पर्याप्त अवस्था में (किण्हतिलेस्स) कृष्णादितीन लेश्याएँ, (देसजम) देशसंयम, (थीसंद) स्त्रीवेद, नपुसंकद (ण हि) नहीं होता है (तेसिं) उनके (खाइयसम्मत्तमत्थित्ति) क्षायिक सम्यक्त्व होता है। भावार्थ - भोग भूमिज पुरुषवेदी तिर्यंच के पर्याप्त अवस्था में कृष्णादि तीन लेश्याएं, देश संयम, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद नहीं होता है तथा उनके क्षायिक सम्यक्त्व होता है। इस कथन का खुलासा इस प्रकार है भोग भूमि में पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं अतः कृष्णादिलेश्याओं का अभाव कहा गया है। जिस मनुष्य ने पहले अशुभ परिणामों के निमित्त से तिर्यंच आयु का बंध कर लिया है बाद में उसने केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया तो वह जीव मरकर भोग भूमि के (50) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यंच में उत्पन्न होगा। अतः इस प्रकार भोग भूमि के तिर्यंचों के क्षायिक सम्यग्दर्शन का सद्भाव पाया जाता है । संदृष्टि नं. 14 पर्याप्त भोगभूमिज तिर्यञ्च भाव ( 33 ) पर्याप्त भोग भूमिज तिर्यञ्च के 33 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक सम्यक्त्व, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पांच लब्धि, तिर्यक्च गति, क्रोध, मान, माया लोभ, पुल्लिंग, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व | गुणस्थान आदि के चार होते हैं । संदृष्टि इस प्रकार है - - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व {2} {मिथ्यात्व, अभव्यत्व } सासादन {3}{कुमति, कुश्रुत, | कुअवधि ज्ञान} भाव {26} {कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, चक्षु अचक्षु दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यञ्चगति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, पुल्लिंग, पीत पद्म शुक्ल लेश्या मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व {24} {कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यंच गति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, पुल्लिंग, पीत पद्म शुक्ल लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व } अभाव (7) {क्षायिक सम्यक्त्व, औपशमिक सम्यक्त्व, | क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत अवधि ज्ञान, अवधि दर्शन } (9) {क्षायिक सम्यक्त्व, औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, अवधिदर्शन, मिथ्यात्व, अभव्यत्व + कु ज्ञान 3 मिश्रज्ञान 3 } (51) - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिश्र o} | {25} {उपर्युक्त 24 भाव (8) {उपर्युक्त नौ भाव - + अवधि दर्शन + तीन अवधि दर्शन + कुज्ञान 3 मिश्र ज्ञान-तीन कुज्ञान - मिश्र ज्ञान 3} अविरत |{2} (असंयम, | {28} {क्षायिक 65) {कुमति, कुश्रुत तिर्यञ्चगति) सम्यक्त्व, औपशमिक कुअवधि ज्ञान, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अभव्यत्व) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि , तिर्यचगति,क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय, पुल्लिंग, पीत पद्म, शुक्ल लेश्या असंयम, अज्ञान असिद्धत्व,जीवत्व भव्यत्व) णिव्वत्तिअपज्जत्ते अवणिय सुहलेस्स किण्हतिहजुत्ता। वेभंगुवसमसम्म ण हि अयदे अवरकावोदा ।।57।। निर्वृत्यपर्याप्ते अपनीय शुभलेश्याः कृष्णात्रिकयुक्ताः । विभंगोपशसम्यक्त्वं न हि अयते अवरकापोता ।। अन्वयार्थ - भोगभूमिज पुरुषवेदी तिर्यञ्चों की (णिव्वत्तिअपज्जते) निर्वत्यपर्याप्त अवस्था में (सुहलेस्स) तीन शुभलेश्याएँ (अवणिय) रहित अर्थात् तीन शुभ लेश्याएं नहीं होती हैं (किण्हतिहजुत्ता) कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएँ पायी जाती हैं । (वेभंगुवसमसम्म) विभंगावधि और उपशम सम्यक्त्व (ण हि) नहीं भी होता है (अयदे) चौथे गुणस्थान में (52) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अवरकावोदा) जघन्य कापोत लेश्या होती है। भावार्थ - भोग भूमि के तिर्यंचों के पर्याप्त अवस्था में 33 भाव होते हैं। निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में तीन शुभ लेश्याओं का अभाव होता है क्योंकि इनके निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में तीन अशुभलेश्याएँ ही पायी जाती हैं अतः 33 भावों में से तीन शुभलेश्याएँ कम करके तीन अशुभ लेश्याएं मिला देना चाहिए। तीनों अशुभ लेश्याएँ प्रथम एवं द्वितीय गुणस्थान में ही संभव है चौथे गुणस्थान में केवल कापोत लेश्या का जघन्य अंश पाया जाता है। इनके निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान एवं उपशम सम्यक्त्व का भी अभाव पाया जाता है। संदृष्टि नं. 15 भोगभूमिज तिर्यञ्च अपर्याप्त भाव (31) अपर्याप्त भोग भूमिज तिर्यंच के 31 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - पर्याप्त भोगभूमिज तिर्यंच के 33 भावों में उपशम सम्यक्त्व एवं कुअवधि ज्ञान कम करने पर 31 भाव शेष रहते हैं । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और असंयत ये तीन होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान| भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व {2} (मिथ्यात्व, |{25} {कुशान 2, 166){क्षायिक सम्यक्त्व, अभव्यत्व) |दर्शन 2, क्षायोपशमिक |क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, लब्धि 5, तिर्यंच गति, ज्ञान 3, अवधिदर्शन} कषाय 4, पुल्लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3} अभाव सासादन|{4}(कुमति , {23} {उपर्युक्त 25 - |(8) {उपर्युक्त 6 + कुश्रुत ज्ञान, मिथ्यात्व, अभव्यत्व} | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) कृष्ण, नील लेश्या) (53) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संदृष्टि नं. 15 भोगभूमिज तिर्यञ्च अपर्याप्त भाव (31) अपर्याप्त भोग भूमिज तिर्यच के 31 भाव होते है जो इस प्रकार हैं - पर्याप्त भोगभूमिज तिर्यंच के 33 भावों में उपशम सम्यक्त्व एवं कुअवधि ज्ञान कम करने पर 31 भाव शेष रहते हैं । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और असंयत ये तीन होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव अविरत |{3}(कापोत |{25} {सम्यक्त्व 2, 6) {कुमति, कुश्रुत लेश्या, ज्ञान 3, दर्शन 3, ज्ञान, मिथ्यात्व असंयम, क्षायोपशमिक लब्धि 5,| अभव्यत्व, कृष्ण, नील तिर्यञ्च गति) तिर्यंचगति, कषाय4, | लेश्या) पुल्लिंग 1, कापोत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) लद्धिअपुण्णतिरिक्खे वामगुणट्ठाणभावमज्झम्मि । थीपुंसिदरगदीतिग सुहतियलेस्सा ण वेभंगो ।।5।। लब्ध्यपूर्णतिरश्चि वामगुणस्थानभावमध्ये । स्त्रीपुंसितरगतित्रिकं शुभत्रिकलेश्या न विभंगः ॥ अन्वयार्थ - (लद्धिअपुण्णतिरिक्खे) लब्ध्यपर्याप्त तिर्यञ्चों के (वामगुण ठाणभावमज्झम्मि) मिथ्यात्व गुणस्थान रूप भाव में (थीपुंसिदरगदीतिग) स्त्रीवेद, पुरुषवेद, तिर्यञ्च गति से अन्य तीन गतियाँ (सुहतियलेस्सा) तीन शुभ लेश्याएँ (वेभंगो) विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है। विशेषार्थ -गाथा में आगत 'वाम' शब्द का विपरीत अर्थ ग्रहण करना चाहिए। प्रसङ्ग में मिथ्यात्व गुणस्थान ग्रहण जानना चाहिए। (54) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 16 लब्धपर्याप्तक तिर्यञ्च (25 भाव) लब्ध पर्याप्तक तिर्यञ्च के 25 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- कुमति, कुश्रुत ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यंचगति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय नपुंसक लिंग, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, - इनके मात्र एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व {0} भाव {25} उपर्युक्त 25 भाव (0) ही जानना चाहिए । भोगजतिरिइत्थीणं अवणिय पुंवेदमित्थिसंजुत्तं । तासि वेदगसम्मं उवसमसम्मं च दो चेव ||59|| भोगजतिर्यक्स्त्रीणां अपनीय पुंवेदं स्त्रीसंयुक्तं । तासां वेदकसम्यक्त्वं उपशमसम्यक्त्वं च द्वे चैव ॥ अन्वयार्थ (भोगजतिरिइत्थीणं) स्त्रीवेदी भोग भूमिज तिर्यञ्चों के पर्याप्त अवस्था में (पुंवेदं अवणिय) पुरुषवेद को कम करके अर्थात् छोड़कर (इत्थिसंजुत्तं) स्त्रीवेद मिलाकर (तासिं) उनके (वेदगसम्मं ) वेदकसम्यक्त्व (च) और (उवसमसम्मं) उपशम सम्यक्त्व (दो) ये दो (चेव) सम्यक्त्व ही होते हैं । भावार्थ - भोग भूमिज स्त्रियों में पर्याप्तक अवस्था में पुरुषवेद के 33 भावों में से पुरुष वेद घटाकर स्त्रीवेद मिलाकर तथा स्त्रीवेदियों में क्षायिक सम्यग्दर्शन का अभाव होने से केवल उपशम सम्यक्त्व एवं वेदक सम्यक्त्व ही पाया जाता है । (55) अभाव Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 17 भोगभूमिज तिर्यञ्चिनी पर्याप्त (32 भाव) भोगभूमिज तिर्यञ्चनी पर्याप्त के भोगभूमिज तिर्यञ्चनी पर्याप्त 32 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, कुमति, कुश्रुत,कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन, क्षयोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यञ्चगति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, स्त्रीलिंग, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व, अभव्यत्व । गुणस्थान आदि के चार पाये जाते हैं । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव . मिथ्यात्व (2} {मिथ्यात्व, [26} {कुमति, 6){औपशमिक अभव्यत्व} कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चक्षु अचक्षु दर्शन, सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन) लब्धि, तिर्यच गति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, स्त्रीलिंग, पीत, पद्म,शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व) सासादन {3}(कुमति । 124} {उपर्युक्त भावों (8) {उपर्युक्त 6 भावों में कुश्रुत, से मात्र मिथ्यात्व और | मिथ्यात्व एवं अभव्यत्व अभव्यत्व अलग करने जोड़ने से 8 भाव हो जाते पर 24 भाव शेष रहते मिश्र |{0} (25} {उपर्युक्त 24 + अवधि दर्शन + मिश्रज्ञान} (7) {उपर्युक्त 8 - अवधिदर्शन, 3 मिश्र ज्ञान+ 3 कुज्ञान} (56) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अविरत {2} { तिर्यञ्च गति, असंयम } भाव {27} {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, | क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यंच गति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, स्त्रीलिंग, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व } अभाव (5) {कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मिथ्यात्व, अभव्यत्व } तासिमपज्जत्तीणं किण्हातियलेस्स हवंति पुण । ण सण्णाणतिगं ओही दंसणसम्मत्तजुगलवेभंगं ||60|| तासामपर्याप्सीनां कृष्णत्रिकलेश्या भवन्तिः पुनः । न सज्ज्ञानत्रिकं अवधिदर्शनसम्यक्त्वयुगलविभंगं ॥ अन्वयार्थ - (तासिमपन्नत्तीणं) उनकी अर्थात् स्त्रीवेदी भोगभूमिज तिर्यञ्च के अपर्याप्त अवस्था में (किण्हातियलेस्स) कृष्णादि तीन लेश्याएं ( हवंति) होती है ( सण्णाणतिगं) तीन सम्यग्ज्ञान (ओहीदंसण) अवधि दर्शन (सम्मत्तजुगलवेभंग) दोनों सम्यक्त्व अर्थात् उपशम, वेदक सम्यक्त्व विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है । भावार्थ - स्त्रीवेदी भोग भूमिज तिर्यंच के निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में कृष्णादि तीन लेश्याएँ ही होती हैं। तीन सम्यग्ज्ञान, अवधि दर्शन, उपशम वेदक सम्यक्त्व और विभंगावधि ज्ञान नहीं होता है। तथा इस अवस्था में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान ही होते हैं । (57) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 18 भोगभूमिज तिर्यञ्चनी अपर्याप्त (25 भाव) भोगभूमिज तिर्यञ्चनी निर्वृत्यपर्याप्त के 25 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - कुमति, कुश्रुत ज्ञान, दर्शन 2, क्षायोपशिमक लब्धि 5, तिर्यचगति, कषाय 4, स्त्रीलिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान आदि के 2 पाये जाते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व मिथ्यात्व, |{25} {उपर्युक्त कथित (0) अभव्यत्व समस्त भाव} भाव अभाव - सासादन ka} कुमति |{23} {उपर्युक्त 25 - |(2) {मिथ्यात्व, ज्ञान, कुश्रुत मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अभव्यत्व} ज्ञान मणुवेसिदरगदीतियहीणा भावा हवंति तत्थेव । णिव्वत्तिअपज्जत्ते मणदेसुवसमणदुगं ण वेभंगं 161॥ मनुष्येष्वितरगतित्रिकहीना भावा भवन्ति तत्रैव । निर्वृत्यपर्याप्तं मनोदेशोपशमनद्विकं न विभंगं ॥ अन्वयार्थ - (मणुवेसिदरगदीतियहीणा) मनुष्यगति में इतर तीन गतियों से रहित (भावा) शेष सम्पूर्ण ५० भाव (हवंति) होते हैं (तत्थेव) उसी मनुष्य गति में (णिव्वत्तिअपज्जते) निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में (मणदेसुवसमणदुर्ग) मनः पर्ययज्ञान, देशसंयम, उपशम सम्यक्त्व, उपशमचारित्र (वेभंगं) विभंगावधि ज्ञान ये आठ भाव(ण) नहीं होते हैं। साणे थीसंढच्छि दी मिच्छे साणे असंजदपमत्ते । जोगिगुणेदुगचदुचदुरिगिवीसंणवच्छिदी कमसो॥2॥ सासादने स्त्रीषंढच्छित्तिः मिथ्यात्वे सासादने असंयतप्रमत्ते । योगिगुणे द्विकचतुःचतुरेकविंशतिः नवच्छि त्तिः क्रमशः ।। अन्वयार्थ - तथा उपर्युक्त निर्वृत्यपर्याप्तक अवस्था में (साणे) सासादन (58) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान में (थीसंढ च्छि दी स्त्रीवेद, नपुंसकवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है। तथा उक्त अवस्था में (मिच्छे) मिथ्यात्व गुणस्थान में (दुग) दो की (साणे) सासादन में (चदु )चार की (असंजद) चौथे गुणस्थान में (चदु) चार की (पमत्ते) प्रमत्तगुणस्थान में (इगिवीसं) इक्कीस की (जोगिगुणे) सयोगकेवली गुणस्थान में (णवच्छिदी) नौ भावों की व्युच्छित्ति होती है। भावार्थ- इस गाथा का प्रथम चरण गाथा 61 से जुड़ा हुआ है तथा आचार्य महाराज यहां यह बतलाना चाहते हैं कि निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में कर्मभूमि के मनुष्यों के मिथ्यात्व, सासादन, असंयत, प्रमत्त संयत और सयोग केवली ये पाँच गुणस्थान होते हैं। 1; 2, 4, 6, और 13 वें गुणस्थान में क्रमशः 2, 4, 4, 21,9 भावों की व्युच्छित्तिजानना चाहिए। प्रथम गुणस्थान, द्वितीय गुणस्थान व असंयत गुणस्थान में जन्म के समय पर्याप्तियाँ पूर्ण होने के पूर्व प्रमत्तगुणस्थान में आहारक समुद्धात के समय एवं सयोगकेवली के केवली समुद्धात के समय निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था होती है। संदृष्टि नं. 19 कर्म भूमिज पर्याप्त मनुष्य भाव (50) कर्मभूमिज पर्याप्तक मनुष्य के 50 भाव होते हैं जो इस प्रकार से हैं - औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र, केवल ज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान आदि पांच लब्धि, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान, कुमति,कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान, चक्षु, अचक्षु अवधि दर्शन, क्षायोपशमिक पॉच लन्धि क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र (सराग चारित्र), संयमासयम, मनुष्यगति, क्रोधमान, माया, लोभ चार कषाय, मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व,कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, स्त्रीलिंग पुल्लिंग नपुंसक लिंग, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्वप्रथम गुणस्थान से लेकर सभी चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं संदृष्टि निम्न प्रकार है - (59) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व (2) (मिथ्यात्व. (31) (कुमति, कुश्रुत, (19) (औपशमिक अभव्यत्व) कुअवधि ज्ञान चक्षु, सम्यक्त्व, औपशमिक अचक्षु दर्शन, चारित्र, केवलज्ञान, केवल क्षायोपशमिक पाँच दर्शन, क्षायिक पाँच लब्धि, मनुष्यगति, लब्धि, क्षायिक सम्यक्त्व, क्रोध, मान, माया, क्षायिक चारित्र, मति, लोभ कषाय, स्त्रीलिंग, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय पुल्लिंग, नपुंसक ज्ञान, अवधि दर्शन, लिंग, कृष्ण, नील, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, कापोत, पीत, पद्म, क्षायोपशमिक चारित्र, शुक्ल लेश्या, संयमासंयम) मिथ्यात्व, असंयम असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व) सासादन|(3) कुज्ञान 3 | (29) (उपरोक्त (21) (उपरोक्त 19 भावो अभावों में से मिथ्यात्व में मिथ्यात्व एवं एवं अभव्यत्व को कम | अभव्यत्व को जोड़ने पर करने पर शेष 29 भाव | 21 भाव हो जाते हैं। रहते हैं। मिश्र ) (30) (चक्षु अचक्षु अवधि दर्शन क्षयोपशमिक पाँच लब्धि, मनुष्य गति, कोध, मान, माया, लोभ चार कषाय, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, नपुंसक लिंग, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, असंयम, असिद्धत्व, अज्ञान, जीवत्व, भव्यत्व, 3 मित्र ज्ञान) (60) |(20)(उपशम सम्यक्त्व , उपशम चारित्र, क्षायिक | पाँच लब्धि, केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक चारित्र, मति | श्रुत, अवधि, मनः पर्यय ज्ञान, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायो. चारित्र, संयमासंयम, मिथ्यात्व - 3 मिश्र ज्ञान +3 कुज्ञान) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभाव गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अविरत (4) (अशुभ 23(सम्यक्त्व 3, ज्ञान लेश्या 3, 3, दर्शन 3, असंयम) क्षायोपशमिक लब्धि 5 मनुष्य गति, कषाय 14, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) 17 (औपशमिक चारित्र, क्षायिक 5 लब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक चारित्र, मनःपर्यय ज्ञान, कुज्ञान 3, सराग चारित्र, संयमासंयम, मिथ्यात्व, अभव्यत्व) देशसंयत (1)(संयमा संयम) 30 (सम्यक्त्व 3, 20 (औपशमिक चारित्र, ज्ञान3, दर्शन3, क्षायो. क्षायिक भाव 8, कुज्ञान3, लब्धि 5, मनुष्य गति, मनः पर्ययज्ञान, सराग, कषाय 4, लिंग 3, |चारित्र, मिथ्यात्व, अशुभ शुभ लेश्या3, |लेश्या3, असंयम संयमासंयम, अज्ञान अभव्यत्व) असिद्धत्व,जीवत्व, भव्यत्व) प्रमत्त | 0 संयत (31) उपरोक्त 30 भावों में से संयमासंयम कम करके सरागचारित्र और मनःपर्यय ज्ञान जोड़ देवें। | 19 (उपशम चारित्र, क्षायिक भावः, कुज्ञान, संयमासंयम, मिथ्यात्व, . |अशुभ लेश्या3, असंयम, अभव्यत्व) अप्रमत्त संयत छठवें गुण. के समान | 19 (पूर्वोक्त) 3 (क्षायो. सम्यकत्व, पीत पद्म लेश्या) (61) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अपूर्व- 0 करण अनिवृत्ति 3 ( 3 लिंग) करण सवेद भाग अनिवृत्ति 3 (क्रोध, मान माया तीन, करण अवेद कषाय) भाग सूक्ष्म 2 (लोभ, सांपराय सराग चारित्र) उपशांत मोह सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र) भाव 28 (उपर्युक्त 31क्षायो. सम्यकत्व पीत पद्म, लेश्या), 28 ( उपर्युक्त) 25 ( उपर्युक्त 28- तीन लिंग) 22 (उपर्युक्त 25 क्रोध, मान, माया) 2. ( औपशमिक 21 ( उपर्युक्त 22- सराग | चारित्र, लोभ कषाय + औपशमिक चारित्र) · (62) अभाव 22 (पूर्वोक्त 19+ पीत, पद्म लेश्या, क्षायोपशमिक, सम्यक्त्व) 22 ( उपर्युक्त ) 25 (उपर्युक्त 25 - 3 वेद) 28 (25 पूर्वोक्त + क्रोध, मान माया) 29 ( क्षायिक भाव 8, कुज्ञान3, क्षायोपशिमक सम्यक्त्व, सरागसंयम, संयमासंयम, कषाय चार, लिंग 3, मिथ्यात्व, असंयम, लेश्या 5, अभव्यत्व) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति क्षीण मोह 13 ( मति आदि 4 ज्ञान, चक्षु आदि 3 दर्शन, सयोग केवली अयोग के वली क्षायोपशमिक 5 लब्धि, अज्ञान) 1 ( शुक्ल लेश्या) 8 ( क्षायिक दानादि चार लब्धि, क्षायिक चारित्र, मनुष्यगति, असिद्धत्व, भव्यत्व) भाव | 20 ( क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र, मति आदि 4 ज्ञान, चक्षु आदि 3 दर्शन, क्षायोपशमिक 5 लब्धि, गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व 2 ( मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मनुष्य गति, शुक्ल लेश्या, अज्ञान, | असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व 14 ( क्षायिक भाव 9, मनुष्य गति, असिद्धत्व, शुक्ल लेश्या, जीवत्व, भव्यत्व) 13 ( उपर्युक्त 14 - शुक्ल लेश्या) संदृष्टि नं. 20 निर्वृत्य पर्याप्त मनुष्य भाव (45) निर्वृत्यपर्याप्त मनुष्य के 53 भावों में से नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति, उपशम सम्यक्त्व, उपशम चारित्र, विभंगावधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, संयमासंयम भावो को छोड़कर शेष 45 भाव होते है । गुणस्थान- मिथ्यात्व, सासादन, असंयत प्रमत्त विरत एवं सयोग के वली ये पाँच पाये जाते हैं । संदृष्टि इस प्रकार है अभाव 30 ( उपर्युक्त 29 - क्षायिक चारित्र + औपशमिक सम्यक्त्व, औपशमिक चारित्र ) भाव 30 ( कुज्ञान 2, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, (63) 36 (औपशमिक भाव 2, क्षायोपशमिक भाव 18, कषाय 4, मिथ्यात्व, असंयम, कृष्णादि लेश्या 5 अज्ञान, अभव्यत्व, लिंग 3) 37 ( उपर्युक्त 36+ शुक्ल लेश्या) अभाव 15 ( क्षायिक भाव 9, मति आदि 3 ज्ञान, अवधि दर्शन, क्षायो. सम्यक्त्व क्षयों, चारित्र) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन 4 (कुज्ञान 2, 28 (उपर्युक्त 30- 17 (उपर्युक्त 15 + स्त्री, नपुंसक मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) वेद) अविरत 4 (असंयम, 30 (ज्ञान 3,दर्शन 3, 15 (क्षायिक भाव 8, अशुभ लेश्या 3) क्षायोपशमिक लब्धि |कुशान 2, क्षयोपशमिक 5, क्षयो. सम्यक्त्व चारित्र स्त्री नपुंसक वेद, क्षायिक सम्यक्त्व, | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मनुष्यगति, कषाय 4, पुल्लिंग, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान,असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) प्रमत्त 21 (पीत, पद्म 27 (ज्ञान 3, दर्शन 3, 18 (क्षायिक भाव 8, विरत लेश्या,क्षायो. क्षायोपशमिक कुशान 2, वेद 2, सम्यक्त्व, पुरुष सम्यक्त्व, क्षायिक मिथ्यात्व, अभव्यत्व, वेद, कषाय 4, सम्यक्त्व, सराग अशुभ लेश्या 3, चारित्र, क्षायो.5 सराग चारित्र, लब्धि, मनुष्य गति, | असंयम) आदिके ज्ञान 3, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ दर्शन 3, क्षायो- लेश्या 3, अज्ञान, पशमिक लब्धि | असिद्धत्व, जीवत्व, 15, अज्ञान) भव्यत्व) सयोग (शुक्ल |14 (क्षायिक भाव 9, 31 (ज्ञान 3, कुज्ञान 2 केवली लेश्या, आदि मनुष्य गति, शुक्ल |दर्शन 3, सराग चारित्र, की क्षायिक 4 | लेश्या, असिद्धत्व, क्षयो. लब्धि 5 अज्ञान, लब्धि, भव्यत्व, जीवत्व, भव्यत्व) वेद 3, लेश्या 5, कषाय 4, असिद्धत्व मिथ्यात्व, अभव्यत्व, मनुष्यगति, असंयम, क्षयोपशम क्षायिक चारित्र) सम्यक्त्व) (64) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लद्धिअपुण्णमणुस्से वामगुणट्ठाणभावमन्झिम्हि । थीपुंसिदरगदीतियसुहतियलेस्सा ण वेभंगो ॥63 ।। लब्ध्यपूर्णमनुष्ये वामगुणस्थानभावमध्ये । स्त्रीपुंसितरगतित्रिकशुभत्रिकलेश्या न विभंगं ॥ अन्वयार्थ -(लद्धिअपुण्णमणुस्से) लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य के (वामगुणट्ठाणभावमज्झिम्हि) मिथ्यात्व गुणस्थान में होने वाले भावों के मध्य में (थीपुंसिदरगदीतियसुहतियलेस्सा) स्त्रीवेद, पुरुषवेद मनुष्यगति से अन्य तीन गतियाँ, तीन शुभलेश्याएँ, (वेभंगो) विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है। विषय स्पष्टीकरण के लिए देखें संदृष्टि 23 | संदृष्टि नं. 21 लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य भाव (25) लब्ध्यपर्याप्त अवस्था में मनुष्य के 25 भाव होते है जो इस प्रकार है कुज्ञान 2, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि 5,मनुष्यगति, कषाय 4, नपुंसक वेद, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणमिक भाव 31 गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही होता है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व 25 (उपर्युक्त) - भाव अभाव मणुसुव्व दव्वभावित्थी पुंसंढ खाइया भावा । उवसमसरागचरणं मणपज्जवणाणमविणत्थि॥6॥ मनुष्यवद्रव्यभावस्त्रीषु पुंषण्ढ क्षायिका भावाः । , उपशमसरागचरणं मनःपर्ययज्ञानमपि नास्ति ॥ अन्वयार्थ - (मणुसुव्व) मनुष्य के समान (दव्वभावित्थी) द्रव्य और भाव स्त्री वेदी में (पुंसंढखाइया भावा) पुरुष वेद, नपुसंकवेद, नव क्षायिक भाव (उवसमसरागचरणं) उपशम चारित्र, सराग चारित्र (मणपज्जवणाणमवि) मनः पर्यय ज्ञान (णत्थि) नहीं होता है। भावार्थ -सामान्य मनुष्य में जो 50 भावों का सद्भाव बतलाया गया है, वेसभी भाव द्रव्यस्त्री एवं भावस्त्री में जानना चाहिए किन्तु विशेषता यह है (65) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि द्रव्य एवं भावस्त्री में पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्षायिक भाव, उपशम चारित्र, सराग चारित्र और मनः पर्यय ज्ञान नहीं पाया जाता है। इस गाथा का कथन द्रव्य स्त्रीवेद की अपेक्षा समझ में आता है क्योंकि भावस्त्री वेदी के सराग चारित्र होने का निषेध नहीं है तथा भावस्त्री वेदी के क्षायिक भाव के नौ भेदों में से क्षायिक सम्यक्त्व भी हो सकता है। गाथा में आगत भावस्त्री शब्द विचारणीय है। तासिमपज्जत्तीणं वेभंगं णत्थि मिच्छ गुणठाणे । सासादणगुणठाणे पवट्टणं होदि नियमेण || 65 ॥ तासामपर्याप्तीनां विभंगं नास्ति मिथ्यात्वगुणस्थाने । सासादनगुणस्थांने प्रवर्तनं भवति नियमेन || अन्वयार्थ - (तासिमपज्जत्तीणं) मनुष्यगति में स्त्रियों के अपर्याप्त अवस्था में (वेभंग) विभंगावधि ज्ञान (णत्यि) नहीं होता है तथा (नियमेण) नियमसे (मिच्छ गुणठाणे)मिथ्यात्वगुणस्थान में (सासादणगुणठाणे) एवं सासादन गुणस्थान में (पवट्टणं)प्रवर्तन (होदि) होता संदृष्टि नं. 22 पर्याप्त स्त्री भाव (36) पर्याप्त स्त्री के 36 भाव होते है जो इस प्रकार है - औपशमिक, सम्यक्त्व, 3 ज्ञान, 3 कुज्ञान, 3 दर्शन, क्षायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, क्षयोपशम सम्यक्त्व, स्त्रीलिंग, लेश्या 6, संयमासंयम, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान आदि के पांच होतेहै । संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व, 129 (कुज्ञान 3, दर्शन 2,17 (औपशमिक सम्यक्त्व, अभव्यत्व) क्षयोपशम लब्धि 5, मति आदि 3 ज्ञान, अवधि मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीलिंग, लेश्या 6, दर्शन,क्षायोपशम मिथ्यादर्शन, असंयम | सम्यक्त्व, संयमासंयम) अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) (66) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति सासादन 3 ( कुज्ञान 3) मिश्र 0 4. 4 (अशुभ अविरत लेश्या 3, असंयम) भाव 27 (पूर्वोक्त 29 - मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 28 (मिश्र रूप ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयोपशमिक लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीलिंग, लेश्या - 6, असंयम असिद्धत्व, अज्ञान, पारिणामिक भाव 2) 30 ( औपशमिक सम्यक्त्व, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्य गति, कषाय 4 स्त्रीलिंग, लेश्या 6, असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व भव्यत्व) सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, मनुष्यगति, स्त्रीलिंग, शुभ लेश्या 3, संयमासंयम, 5. 27 ( औपशमिक 9 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व, देशसंयम (संयमासंयम) सम्यक्त्व, क्षयोपशमिक कुज्ञान 3, असंयम, अशुभ लेश्या 3 ) असिद्धत्व, अभाव 9 (पूर्वोक्त 7 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अज्ञान, जीवत्व भव्यत्व) 8 (पूर्वोक्त 9- अवधि दर्शन) 6 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व, कुज्ञान 3, संयमासंयम ) (67) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 23 निवृत्यपर्याप्त स्त्री भाव (28) निर्वृत्यपर्याप्त स्त्री के 28 भाव होते है जो इस प्रकार है- कुज्ञान 2 चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, क्षायोपशमिकलब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन दो होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्तिा भाव अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, 28 (उपर्युक्त समस्त | अभव्यत्व) भाव जानना चाहिए। 2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) |26 (उपर्युक्त 28- मिथ्यात्व, अभव्यत्व) उवसमखाइयसम्मं तियपरिणामा खओवसमिएसु। मणपज्जवदेसजमं सरागचरिया ण सेस हवे ।।66।। उपशमक्षायिकसम्यक्त्वं त्रिकपरिणामाः क्षायोपशमिकेषु । मनः पर्ययदेशयमं सरागचारित्रं न शेषा भवन्ति ।। ओदइए थी संढे अण्णगदीतिदयमसुहतियलेस्सं । अवणिय सेसा हुंति हु भोगजमणुवेसु पुण्णेसु ।।6।। औदयिके स्त्री षंढं अन्यगतित्रितयमशुभत्रिकलेश्याः । अपनीय शेषा भवन्ति हि भोगजमनुष्येषु पूर्णेषु ।। अन्वयार्थ - (पुण्णेसु) पर्याप्त (भोगजमणुवेसु) भोग भूमि के मनुष्यों (पुरुषवेदी) में (उवसमखाइयसम्म) उपशम और क्षायिक सम्यक्त्व होते हैं। (खओवसमिएसु) क्षायोपशमिक भावों में से (मणपज्जव) मनः पर्ययज्ञान, (देसजमं) देशसंयम और (सरागचरिया) सरागचारित्र (तियपरिणामा ण) इन भावों को छोड़कर (सेस) शेष पन्द्रह भाव (हवे) होते हैं। (ओदइए) तथा औदयिक भावों में से (थी (68) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संढ' ) स्त्रीवेद नपुंसक वेद, (अण्णगदीतिदयमसु हतियले स्सं ) मनुष्यगति से अन्य तीन गतियाँ, तीन अशुभ लेश्याएँ (अवणिय) कम करके (सेसा) शेष 13 औदयिक भाव (हुँति हु) होते हैं । भावार्थ - भोग भूमिज पर्याप्तक मनुष्यों के 2 औपशमिक भावों में से उपशम सम्यक्त्व तथा 9 क्षायिक भावों में से क्षायिक सम्यक्त्व मात्र होता है। 18 क्षायोपशमिक भावों में से मनःपर्यय ज्ञान, देशसंयम और सरागचारित्र इन तीन भावों को छोड़कर शेष पन्द्रह भाव होते हैं । वे पन्द्रह भाव इस प्रकार हैं - तीन सम्यग्ज्ञान, तीन कुज्ञान, तीन दर्शन, पाँच क्षायोपशमिक लब्धि और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व | 21 औदयिक भावों में से स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, नरकगति, तिर्यंचगति, देवगति, कृष्ण, नील और कापोत श्या ये आठ भाव कम करने पर शेष 13 भाव होते हैं । वे तेरह भाव इस प्रकार हैं - पुरुष वेद, मनुष्यगति चार कषाय, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व तीन शुभ लेश्याएँ । संदृष्टि नं. 24 भोगभूमिज मनुष्य पर्याप्तक भाव ( 33 ) भोगभूमिज मनुष्य के पर्याप्तक अवस्था में 33 भाव होते है । जो इस प्रकार है सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, कु ज्ञान3, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिथ्यात्वादि 4 होते है गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व 2 ( मिथ्यात्व, अभव्यत्व) सासादन 3 ( कुज्ञान 3) भाव 26 ( कु ज्ञान 3, दर्शन 2, क्षायो लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3) 24 (उपर्युक्त 26मिथ्यात्व, अभव्यत्व) (69) अभाव 7 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अवधि दर्शन ) 9 ( उपर्युक्त 7 + मिथ्यात्व अभव्यत्व) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव. अभाव मिश्र 25 (उपर्युक्त 18 (उपर्युक्त 9- अवधि P4+अवधिदर्शन + 3 दर्शन) मिश्रज्ञान - कुज्ञान 3) असंयत 1 (असंयम) 28 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 35 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, दर्शन 3, क्षायोपशमिक अभव्यत्व) लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व जीवत्व और भव्यत्व) तण्णिव्वत्तिअपुण्णे असुहतिलेस्सेव उवसमं सम्मं । वेभंगं ण हि अयदे जहण्णकावोदलेस्सा हु ।।68।। तन्निर्वृत्यपूर्णे अशुभत्रिलेश्या एव, उपशमं सम्यक्त्वं । विभंगं न हि अयते जघन्यकापोतलेश्या हि ॥ अन्वयार्थ - (तण्णिव्वत्तिअपुण्णे) भोग भूमिज मनुष्यों के निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में (असुहतिलेस्सेव) तीन अशुभ लेश्याएँ ही होती हैं। (उवसमं सम्म) उपशम सम्यक्त्व (विभंगं) विभंगावधि ज्ञान (ण हि) नहीं होता है। (अयदे) तथा चतुर्थ गुणास्थान में (जहण्णकावोदलेस्सा हु) जघन्य कापोत लेश्या होती है। संदृष्टि नं. 25 भोगभूमिज मनुष्य निर्वृत्यपर्यासक (31) भोगभूमिज मनुष्य के निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते है। जो इस प्रकार है -क्षायिक सम्यक्त्व, कृतकृत्य वेदक, ज्ञान 3, कुज्ञान 2, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, अशुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन, और असंयत ये तीन ही होते है। (70) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - गुणस्थान| भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व अभव्यत्व) 16 (सम्यक्त्व 2, ज्ञान 3, अवधिदर्शन) 125 (कुज्ञान 2, क्षायो. लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, 3 अशुभ लेश्या, अज्ञान असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3) 23 (उपर्युक्त 25मिथ्यात्व, अभव्यत्व) सासादन |4(कुज्ञान 2, कृष्ण, नील लेश्या) 8 (उपर्युक्त 6+ मिथ्यात्व, अभव्यत्व) असंयत |2 (असंयम, 125 (वेदक, क्षायिक 16 (कुज्ञान 2, कृष्ण, कापोत लेश्या) सम्यक्त्व 2, ज्ञान 3, | नील लेश्या 2, मिथ्यात्व, दर्शन 3, क्षायोपशमिक | अभव्यत्व) लब्धि 5, असंयम मनुष्यगति, कषाय 4, पुरुषवेद, कापोत लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 2) एवं भोगत्थीणं खाइयसम्मं च पुरिसवेदं च । ण हि थीवेदं विज्जदि सेसं जाणाहि पुव्वं व 169|| एवं भोगस्त्रीणां क्षायिकसम्यक्त्वं च पुरुषवेदं च । न हि, स्त्रीवेदो विद्यते शेषं जानीहि पूर्वमिव ।। अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (भोगत्थीणं) भोगभूमिज स्त्रियों के (खाइसम्म) क्षायिक सम्यक्त्व (च) और (पुरिसवेदं) पुरुषवेद (ण हि) नहीं होता है (थीवेदं) स्त्री वेद (विज्जदि) होता है (सेसं) शेष कथन (पुव्वं व) पूर्ववत् (जाणाहि) जानना चाहिए। (71) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - संदृष्टि नं. 26 भोगभूमिज स्त्री पर्याप्तक भाव (32) भोगभूमिज स्त्री के पर्याप्तक अवस्था में 32 भाव होते है जो इस प्रकार है- भोग भूमिज पर्याप्त मनुष्य के 33 भावो में सेक्षायिक सम्यक्त्व कम करने पर 32 भाव यहां जानना चाहिए । गुणस्थान आदि के चार ही होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व (26) (कुज्ञान 3, दर्शन 6 (उपशम, क्षयो, अभव्यत्व) 2, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, ज्ञान 3, अवधि लब्धि 5, असंयम, दर्शन) मनुष्य गति, कषाय 4, स्त्रीवेद, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन]3 (कु ज्ञान3) 24 (उपर्युक्त 26- 2 8 (उपर्युक्त 6+ मिथ्यात्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अभव्यत्व) मिश्र 25 (मिश्र ज्ञान 3, 17 (उपशम, क्षायो. दर्शन 3, सम्यक्त्व, ज्ञान 3, क्षायोपशमिक लब्धि | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, शुभ लेश्या3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) अविरत । (असंयम) (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 127 (औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, शुभ लेश्या 3,अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 2) (72) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (खाइयं) क्षायिक (सम्म) सम्यक्त्व (ण हि) नहीं होता है । भावार्थ - देवों के देव गति होती है शेष भाव पर्याप्त भोग भूमिज मनुष्य के समान है । भवनत्रिक देव देवियों में एवं कल्पवासी देवियों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है क्योंकि जिन जीवों ने क्षायिक सम्यग्दर्शन होने के पूर्व देवायु का बंध कर लिया है ऐसे मनुष्य देव पर्याय में उत्पन्न होने पर भी भवनत्रिक देव देवियों एवं कल्पवासी देवियों में उत्पन्न न होकर कल्पवासी देवों में ही उत्पन्न होते हैं । भवणतिसोहम्मदुगे तेउजहण्णं तु मज्झिमं तेऊ । साणक्कुमारजुगले तेऊवर पम्मअवरं खु || 72|| भवनत्रिकं सौधर्मद्विके तेजोजघन्यं तु मध्यमं तेजः । सनत्कुमारयुगले तेजोवरं पद्मावरं खलु ॥ अन्वयार्थः--(भवणति) भवनत्रिको के (तेउजहणणं) जघन्य पीतलेश्या (सोहम्मदुगे) सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में (मज्झिमं तेऊ) मध्यम पीत लेश्या (साणक्कुमारजुगले) सानत्कुमार युगल अर्थात् सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में (तेऊवर) उत्कृष्ट पीत और (पम्मअवरं खु) जघन्य पद्म लेश्या होती है । बह्माछक्के पम्मा सदरदुगे पम्मसुक्क लेस्सा हु । आणदतेरे सुक्क सुक्कुक्कसा अणुदिसादीसु ||73|| ब्रह्मषट् के पद्मा सतारद्विके पद्मशुक्ललेश्ये हि । आनत्रयोदशसु शुक्ला शुक्लोत्कृष्टा अनुदिशादिषु || अन्वयार्थ :- (बह्माछक्के) ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कातिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र कल्पों में (पम्मा) मध्यम पद्म लेश्या तथा (सदरदुगे) शतार और सहस्रार कल्प में (पम्मसुक्कलेस्सा) उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्या (आणद तेरे) आनत स्वर्ग को आदि लेकर तेरह स्थानों में अर्थात् आनत आदि चार और नव ग्रैवेयक में (सुक्का) मध्यम शुक्ल लेश्या (अणुदिसा दीसु) तथा अनुदिश और अनुत्तर विमानों में (सुक्कुक्कसा) परमशुक्ल लेश्या पाई जाती है । भावार्थ - भवनत्रिक में तेजोलेश्या का जघन्य अंश है, सौधर्म, ईशान (73) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदपज्जत्तीसु हवे असुहतिलेस्सा हु मिच्छदुगठाणं। वेभंगं चण विज्जदि मणुवगदिणिरूविदा एवं ||7011 तदपर्याप्सिकासु भवेदशुभत्रिलेश्या हि मिथ्यात्वद्विकस्थानं । विभंगं च न विद्यते मनुष्यगतिर्निरूपिता एवं ॥ अन्वयार्थ - (तदपञ्जत्तीसु) भोग भूमिज निर्वृत्य पर्याप्तक स्त्रियों के अपर्याप्त अवस्था में (असुहतिलेस्सा) तीन अशुभ लेश्याएँ (मिच्छ दुगठाणं)मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। (च) और (वेभंग) विभंगावधि ज्ञान (ण विज्जदि) नहीं होता है (एवं) इस प्रकार (मणुवगतिणिरुविदा) मनुष्यगति का निरूपण किया। संदृष्टि नं. 27 भोगभूमिज स्त्री निर्वृत्यपर्याप्त (25) भोगभूमिज स्त्री के निर्वृत्यपर्यास अवस्था में 25 भाव होते है । जो इस प्रकार हैकुज्ञान 2, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय, स्त्रीवेद, अशुभ 3 लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3। गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व 2(मिथ्यात्व 25 (उपर्युक्त) ० (उपर्युक्त) अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) |23 (उपर्युक्त 25- 2 12 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिथ्यात्व, अभव्यत्व) देवाणं देवगदी सेसं पज्जत्तभोगमणुसं वा । भवणतिगाणं कपित्त्थीणं ण हिखाइयं सम्मं |1|| देवानां देवगतिः शेषाः पर्याप्तभोगमनुष्यवत् । भवनत्रिकाणां कल्पस्त्रीणां न हि क्षायिकं सम्यक्त्वं ॥ अन्वयार्थ :- (देवाणं) देवों के (देवगदी) देवगति होती है (सेस) शेष कथन (पज्जत्तभोगमणुसं वा) पर्याप्त भोग भूमिजमनुष्यों के समान है विशेषता यह है कि (भवणतिगाणं) भवनत्रिक अर्थात् भवनवासी व्यंतर, ज्योतिषी देव देवियों के और (कपित्त्थीणं) कल्पवासिनी देवियों के (74) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग में तेजोलेश्या का मध्यम अंश, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में तेजोलेश्या का उत्कृष्ट अंश एवं पद्मलेश्या का जघन्य अंश है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र इन छह स्वर्गों में पद्मलेश्या का मध्यम अंश है। सतार, सहस्रार में पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश एवं शुक्ल लेश्या का जघन्य अंश है । गाथा में "आणदतेरे' शब्द का प्रयोग किया गया अर्थात् आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नव ग्रैवेयक इन तेरह स्थानों में मध्यम शुक्ल लेश्या है इस प्रकार जानना चाहिये, एवं नव अनुदिश और पंच अनुत्तर विमानों में उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है। पुंवेदो देवाणं देवीणं होदि थीवेदं । भुवणतिगाण अपुण्णे असुहतिलेस्सेव णियमेण ||74|| पुंवेदो देवानां देवीनां भवति स्त्रीवेदः । भुवनत्रिकानां अपूर्णे अशुभत्रिलेश्या एव नियमेन ॥ अन्वयार्थ :- (देवाणं) देवों में (पुंवेदो) पुंवेद (देवीणं) देवियों में (थीवेद) स्त्रीवेद (होदि) होता है। (भुवणतिगाण) भवनत्रिक की (अपुण्णे) अपर्याप्तक अवस्था में (णियमेण) नियम से (असुहतिलेस्सेव) अशुभ तीन लेश्यायें ही पाई जाती हैं। कप्पित्थीणमपुण्णे तेऊलेस्साए मज्झिमो होदि। उभयत्थ ण वेभंगो मिच्छो सासणगुणो होदि ।।75।। कल्पस्त्रीणामपूर्णे तेजोलेश्यायाः मध्यमो भवति । उभयत्र न विभंगं मिथ्यात्वं सासादनगुणो भवति ।। अन्वयार्थ:- (कप्पित्थीणमपुण्णे) कल्पवासी स्त्रियों के अपर्याप्तक अवस्था में (तेऊलेस्साए) पीत लेश्या के (मज्झिमो) मध्यम अंश होते हैं। (उभयत्र) भवनत्रिकदेव, देवी और कल्पवासी देवीयों में (ण वेभंगो) विभंग ज्ञान नहीं होता है। (मिच्छो) मिथ्यात्व और (सासणगुणो) सासादन गुणस्थान होता है। सोहम्मादिसु उवरिमगेविज्जतेसु जाव देवाणं । णिव्वत्तिअपुण्णाणंण विभंग पढमविदियतुरियठाणा 76।। सौधर्मादिषु उपरिमग वेयकान्तेषु यावद्देवानां । निर्वृत्यपूर्णानां न विभंगं प्रथमद्वितीयतुर्यस्थानानि ॥ (75) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वयार्थ :- (सोहम्मादिसु ) सौधर्म स्वर्ग को आदि लेकर (उवरिमगेविज्जंतेसु) उपरिम ग्रैवेयक (जाव) तक के (देवाणं) देवों के ( णिव्वत्ति अपुण्णाणं) निवृर्त्य पर्याप्तक अवस्था में (विभंग) विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है और (पढ मविदियतुरियठाणा) प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ गुणस्थान होता है। संदृष्टि 28 देवगति भाव (33) सामान्य से देवगति में कुल 33 भाव होते है जो इस प्रकार है - सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, कुज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, पुंवेद, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान आदि के 4 होते है । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व 2 ( मिथ्यात्व अभव्यत्व) सासादन 3 ( कुज्ञान 3) मिश्र 0 अविरत 2 (असंयम, देवगति) भाव अभाव 26 ( कुज्ञान 3, दर्शन 2, 7 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, क्षायोपशमिक लब्धि 5, अवधिदर्शन) असंयम, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, | पारिणामिक भाव 3) 24 ( उपर्युक्त 26-2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 25 (मिश्रज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो लब्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व ) 28 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) (76) 9 ( उपर्युक्त 7+2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 8 (उपर्युक्त 9अवधिदर्शन) 5 ( कु ज्ञान 3, मिथ्यात्व अभव्यत्व) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 29 भवनत्रिक + कल्पवासी देवी भाव ( 30 ) पर्याप्त भवनत्रिक देव, देवी एवं कल्पवासी देवी इनके 30 भाव होते है । जो इस प्रकार है - सामान्य देवो के 33 भावो में से क्षायिक सम्यक्त्व, पद्म और शुक्ल लेश्या इसप्रकार तीन भाव कम करने पर शेष 30 भाव जानना चाहिए। इनके आदि के चार गुणस्थान होते है । दे. संदृष्टि 28 गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व 2 ( मिथ्यात्व अभव्यत्व) सासादन 3 ( कुज्ञान 3) मिश्र अविरत 0 2 (असंयम, देवगति) 24 ( कुज्ञान 3, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, | देवगति, कषाय 4, विवक्षित लिंग पीत लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3) 22 ( उपर्युक्त 24-2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) - 25 ( क्षायो. सम्यक्त्व औप सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, 23 ( उपर्युक्त 22 + अवधि दर्शन, 3 | मिश्रज्ञान, कुज्ञान 3) कुज्ञान) असंयम, देवगति, कषाय 4, विवक्षित लिंग 1, पीत लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) (77) अभाव 6 (सम्यक्त्व 2, ज्ञान 3, अवधि दर्शन) 8 ( उपर्युक्त 6 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 7 ( उपर्युक्त 8- अवधि दर्शन, 3 मिश्रज्ञान + 3 15 (कु ज्ञान 3, मिथ्यात्व |अभव्यत्व) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 30 भवनत्रिक निर्वृत्यपर्याप्तक भाव (25) भवनत्रिक देव देवियों की निर्वृत्यपर्यास अवस्था में 25 भाव होते है जो इस प्रकार है - कुमति ज्ञान, कुश्रुतज्ञान, चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, विवक्षित लिंग1, अशुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के दो होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 이 मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, |25 (उपर्युक्त ) अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) |23 (उपर्युक्त 25- | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) संदृष्टि नं. 31 कल्पवासी देवी निर्वृत्यपर्याप्तक भाव (23) कल्पवासी देवियों के अपर्याप्त अवस्था में 23 होते है जो इस प्रकार है - कुज्ञान 2, दर्शन2, क्षायो. लब्धि 5, असंयम, देवगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, पीत लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान आदि के दो होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव , अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, 23 (उपर्युक्त कथित) |0 अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) 21 (उपर्युक्त 23 - | 2 (मिथ्यात्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | अभव्यत्व) (78) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 32 सौधर्म - ऐशान स्वर्ग भाव (31) सौधर्म-ऐशान स्वर्ग के देवों के पर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - सम्यक्त्व 3, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, देवगति कषाय 4, पुल्लिंग, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 4 होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव - मिथ्यात्व2 (मिथ्यात्व, 24 (कुज्ञान 3, चक्षु, 17(सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व) अचक्षु दर्शन, क्षायो. | अवधिदर्शन) लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, असंयम, पुल्लिंग, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3) सासादन| 3 (कुज्ञान ) 22 (उपर्युक्त24 - 19(उपर्युक्त 7 + । मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिश्र 23 (मिश्रज्ञान 3, दर्शन 8 (उपर्युक्त 9 +कुज्ञान 3, क्षायो. लब्धि 5, |3- मिश्रज्ञान3, अवधि | देवगति, कषाय 4, दर्शन) पीतलेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, पुल्लिंग) अविरत 12 (देवगति असंयम) 26 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान ] 5 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, 13, दर्शन 3, क्षायो. अभव्यत्व) लन्धि 5, देवगति, कषाय 4, पीतलेश्या, पुल्लिंग असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व,भव्यत्व) (79) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ संदृष्टि नं. 33 सौधर्म - ऐशान स्वर्ग अपर्याप्तक भाव (30) सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में अपर्याप्त अवस्था में 30 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - सम्यक्त्व 3, कुशान 2, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3। गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और अविरत ये तीन होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार हैगुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व, | | 23 (कुज्ञान 2, चक्षु, 17 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्या ) |अचक्षु दर्शन, क्षायो | अवधिदर्शन) लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, पुल्लिंग, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन |2 (कुज्ञान 2 ) 21 (उपर्युक्त 23 - 19 (उपर्युक्त 7 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अविरत 2 (देवगति असंयम) |26 (उपर्युक्त 21- 14 (कुज्ञान 2, मिथ्यात्व, कुज्ञान 2, + सम्यक्त्व | अभव्यत्व) 3, ज्ञान 3, अवधि दर्शन) - (80) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संदृष्टि नं. 34 सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग भाव (32) सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में 32 भाव होते हैं । जो इस प्रकार हैं - सम्यक्त्व 3, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, मिथ्यात्व, पीत लेश्या, पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31, गुणस्थान मिथ्यात्व, आदि चार होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व, [25 (कुज्ञान 3, चक्षु, 17 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व) अचक्षु दर्शन, क्षायो | अवधिदर्शन) लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, मिथ्यात्व, पीत पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3) सासादन 3 (कुज्ञान 3) 23 (उपर्युक्त 25- 19 (उपर्युक्त 7 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिश्र 0 अविरत 2 (देवगति, असंयम) 24 (मिश्रज्ञान 3, दर्शन 8 (उपर्युक्त 9- कुज्ञान 3 3, क्षायो. लब्धि 5, |+ मिश्रज्ञान 3, देवगति, कषाय 4, पीत, अवधिदर्शन) पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) 127 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान | 5 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, 13, दर्शन 3, क्षायो. अभव्यत्व) लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, पीत, पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) (81) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 35 सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग अपर्याप्तक भाव (31) सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्ग में अपर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं । जो इस प्रकार हैं - सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, कुज्ञान 2, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, मिथ्यात्व, पीत पद्म लेश्या, पुल्लिंग, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और असंयत ये 3 होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व, | 24 (कुज्ञान 2, चक्षु, 17 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व) अचक्षु दर्शन, क्षायो | अवधिदर्शन) लब्धि 5, देवगति कषाय 4, मिथ्यात्व, पीत, पद्म लेश्या, अज्ञान, असंयम, पुल्लिंग, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3) भाव सासादन 2 (कुज्ञान 2) 22 (उपर्युक्त 24 - 19 (उपर्युक्त 7 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) अविरत | 2 (देवगति असंयम) 27 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान | 4 (कुज्ञान 2, मिथ्यात्व, 13, दर्शन 3, क्षायो. अभव्यत्व) लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, पीत, पद्म लेश्या, अज्ञान, पुल्लिंग, असंयम, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) (82) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.36 ब्रह्मादि छह स्वर्ग भाव (31) ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ , शुक्र और महाशुक्र स्वर्ग में पर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - इन स्वर्गों में भाव आदि का कथन सौधर्म ऐशान स्वर्ग के देवों के समान ही जानना चाहिए मात्र इन स्वर्गों में पीत लेश्या के स्थान पर पद्म लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - दे. संदृष्टि (32) सौधर्म - ऐशान स्वर्ग गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व - भाव अभाव सासादन मिश्र अविरत संदृष्टि नं. 37 ब्रह्मादि छह स्वर्ग अपर्याप्त भाव (30) ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र और महाशुक्र स्वर्ग में 30 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - इनस्वों में भाव आदिका समस्त कथनसौधर्मयुगल की अपर्याप्त अवस्था के समान समझना चाहिए । मात्र पीत लेश्या के स्थान पर इन स्वर्गों में पद्म लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - दे. सौधर्म - ऐशान स्वर्ग अपर्याप्त संदृष्टि (33)। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव | अभाव । मिथ्यात्व सासादन अविरत Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.38 शतार युगल भाव (32) शतार, सहसार स्वर्ग में पर्याप्त अवस्था में 32 भाव होते हैं। शतार युगल के भावों का समस्त कथन सानत्कुमार युगल के समान ही जानना चाहिए। मात्र शतार युगल में पीत, पद्म लेश्या के स्थान पर पद्म शुक्ल लेश्या समझना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार है - दे. संदृष्टि (34) सानत्कुमार - माहेन्द्र स्वर्ग गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत संदृष्टि नं. 39 शतार युगल अपर्याप्त भाव (31) शतार, सहसार स्वर्ग में अपर्याप्त अवस्था में 31 भाव होते हैं। शतार सहसार स्वर्ग के भावों का समस्त कथन सानत्कुमार युगल अपर्याप्त अवस्था के समान ही जानना चाहिए । मात्र पीत, पद्म लेश्या के स्थान पर पद्म शुक्ल लेश्या समझना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार है - दे. संदृष्टि (35) सानत्कुमार - माहेन्द्र स्वर्ग अपर्याप्त गुणस्थान| भाव व्युच्छित्ति | भाव अभाव । मिथ्यात्व सासादन अविरत (84) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 40 आनतादि 13 स्वर्ग भाव (31) आनत, प्राणत, आरण, अच्युत एवं नौ ग्रैवेयक इन 13 स्वर्गों में 31 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - इनके भाव आदि का समस्त कथन सौधर्म युगल के ही समान है मात्र इन आनत आदि 13 में पीत लेश्या के स्थान पर शुक्ल लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - दे संदृष्टि सौ धर्म - ऐशान स्वर्ग (32) भाव अभाव गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत चार्ट नं. 41 आनतादि 13 अपर्याप्त भाव (30) आनतादि 13 की अपर्याप्त अवस्था में 30 भाव होते हैं जो इस प्रकार है - इनके भाव आदि का समस्त कथन सौधर्म युगल की अपर्याप्त अवस्था के ही समान है। मात्र पीत लेश्या के स्थान पर शुक्ल लेश्या समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है -दे. सौधर्म - ऐशान स्वर्ग अपर्याप्त (33) गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव - मिथ्यात्व सासादन अविरत (85) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुदिसु अणुत्तरेसु हि जादा देवा हवंति सद्दिट्ठी। तम्हा मिच्छ मभव्वं अण्णाणतिगंचण हि तेसिं।।7।। अनुदिशेषु अनुत्तरेषु जाता देवा भवन्ति सदृष्ट यः । तस्मान्मिथ्यात्वमभव्यत्वं अज्ञानत्रिकं च न हि तेषां ॥ अन्वयार्थः- (अणुदिसु) नवअनुदिशऔर (अणुत्तेरसु) पंच अनुत्तरों में (जादा) उत्पन्न (देवा) देव (हि) नियम से (सहिट्ठी) सम्यग्दृष्टि (हवंति) होते हैं (तम्हा) इसलिये (तेसिं) उनमें (हि) नियम से (मिच्छ मभव्वं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व और (अण्णाणतिगं) कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञान (ण) नहीं (हवंति) होते हैं। संदृष्टि नं. 42 अनुदिश आदि 14 भाव (26) नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन 14 स्थानों में 26 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, देवगति, कषाय 4, शुक्ल लेश्या, पुल्लिंग, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व और भव्यत्व । इन 14 स्थानों में नियम से सभी देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः इनके गुणस्थान एक 'अविरत सम्यग्दृष्टि (4) ही होता है । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व 0 26 (उपर्युक्त) अभाव इति गति मार्गणा (86) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एयक्खविगतिगक्खे तिरियगदीसंढकिण्हतियलेस्सा। मिच्छ कसायासंजममणाणमसिद्धमिदि एदे ।।78।। एकाक्षद्वित्र्यक्षे तिर्यग्गतिः षंढ कृष्णत्रिकलेश्याः । मिथ्यात्वकषायासंयम अज्ञानमसिद्धमित्येते ।। दाणादिकुमदिकुसुदं अचक्खुदंसणमभव्वभव्वत्तं । जीवत्तं चेदेसिं चदुरक्खे चक्खुसंजुत्तं ।।79।। दानादिकुमतिकुश्रुतं अचक्षुर्दर्शनमभव्यत्वभव्यत्वे । जीवत्वं चैतेषां चतुरक्षे चक्षुःसंयुक्तम् ।। अन्वयार्थ :- (एयक्खविगतिगक्खे) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय जीवों में (तिरियगदी) तिर्यंचगति (संढ किण्हतियलेस्सा) नपुसंकवेद, कृष्णादि तीन अशुभलेश्यायें (मिच्छ कसायासंजममणाणमसिद्धमिदि) मिथ्यात्व, चार कषाय, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व (ऐ)ये (चेदेसिं)और इनमें (दाणादिकुमदिकुसुदं) दानादि 5 लब्धियाँ, कुमति, कुश्रुतज्ञान, (अचक्खुदंसणमभव्वभव्वत्तम्) अचक्षुदर्शन, अभव्यत्व, भव्यत्व, (जीवत्त) जीवत्वयेसभीभाव पाये जाते हैं तथा (चदुरक्खे) चतुरिन्द्रिय जीवोंमें (चक्खुसंजुत्तं) चक्षुदर्शनसेसहित उपर्युक्त सभी भाव पाये जाते हैं। संदृष्टि नं. 43 एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय भाव (24) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय एवं त्रीन्द्रिय के 24 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - कुशान 2, अचक्षु दर्शन, क्षायो. लब्धि 5, तिथंच गति कषाय 4, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भावा अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 24 (उपर्युक्त) अभव्यत्व) - सासादन]0 22 (उपर्युक्त 24- 2 (मिथ्यात्व, | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | अभव्यत्व) (87) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि चार्ट नं. 44 चतुरिन्द्रिय भाव (25) चतुरिन्द्रिय के 25 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - कुशान 2, चक्षु अचक्षु दर्शन, क्षायो. लब्धि 5, तिथंच गति, कषाय 4, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते हैं । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव . अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व, | 25 (उपर्युक्त) अभव्यत्व) सासादन] 23 (25 उपर्युक्त . मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 12 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) - पंचेदिएसु तसकाइएसु दु सव्वे हवंति भावा हु। एयं वा पण काए ओराले णिरयदेवगदीहीणा ||801 पंचेन्द्रियेषु त्रसकायिकेषु तु सर्वे भवन्ति भावा हि । एकं वा पंचकाये औदारिके नरकदेवगतिहीनाः ।। अन्वयार्थ :- (पंचेदिएसु) पंचेन्द्रिय जीवों में (तसकाइएसु) तथा त्रसकायिकों में (हु) निश्चय से (सव्वे) सभी (भावा) भाव (हवंति) होते हैं। (पंचकाये) पाँच स्थावरों में (एयं वा) एकेन्द्रिय वत् सभी भाव जानना चाहिए और (ओराले) औदारिक काययोग में (णिरयदेवगदीहीणा) नरकगति और देवगति नहीं पाई जाती है। स्पष्टीकरण के लिए संदृष्टि 45-48 (88) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 45 पंचेन्द्रिय और त्रसकाय भाव (53) पंचेन्द्रिय और त्रसकाय में गुणस्थानवत् 53 भाव होते हैं । इनके व्युच्छित्ति आदि का कथन गुणस्थानवत् ही जानना चाहिए । गुणस्थान 14 होते हैं। इनकी संदृष्टि निम्न प्रकार है - दे. संदृष्टि । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व । 2 19 अभाव 34 सासादन 32 21 33 20 36 17 31 22 31 22 31 22 28 25 28 25 मिश्र अविरत देश संयम प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सवेद अनिवृत्तिकरणअवेद सूक्ष्मसाम्पराय उपशांत मोह क्षीण मोह सयोग केवली अयोग केवली 25 22 32 20 33 14 39 13 40 (89) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 46 पृथ्वी, जल एवं वनस्पति कायिक भाव ( 24 ) पृथ्वी, जल, वनस्पति कायिक के 24 भाव होते हैं । जो इस प्रकार 1 कुज्ञान 2, अचक्षु दर्शन, क्षायो. लब्धि 5, तिर्यंच गति; कषाय 4, नपुंसकलिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते हैं । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व 2 ( मिथ्यात्व, अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) 24 ( उपर्युक्त ) मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) 22. (उपर्युक्त 24 - मिथ्यात्व, अभव्यत्व) संदृष्टि नं. 47 अग्नि एवं वायु कायिक भाव ( 24 ) भाव 0 अनि एवं वायु कायिक के 24 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- कुज्ञान 2, अचक्षु दर्शन, क्षायो. लब्धि 5, तिर्यंचगति, कषाय 4, नपुंसक लिंग, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान एक मिथ्यात्व होता है । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति 24 ( उपर्युक्त ) (90) अभाव 2 ( मिथ्यात्व, अभव्यत्व) - अभाव Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव अभाव संदृष्टि नं. 48 औदारिक काययोग भाव (51) औदारिक काय योग में 51 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - 53 भावों में से नरक गति एवं देव गति कम करने पर 51 भाव शेष रहते हैं। गुणस्थान मिथ्यात्व आदि तेरह होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व 2 32 (कुज्ञान 3, दर्शन |10 (दे. संदृष्टि 1) (दे. संदृष्टि 10/2, क्षायो. लब्धि 5, मनुष्यगति, तियंच गति, लेश्या 6, कषाय4, लिंग 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन 3( " ) 30 (उपर्युक्त 32 - 1216. " ) मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिश्र (0) 20 ( " ) 17( " ) अविरत /- (अशुभ लेश्या 3, असंयम) 31 (उपर्युक्त 30 - कुज्ञान 3, + मिश्र ज्ञान, अवधि दर्शन) 34 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, गति 2, लेश्या 6, कषाय 4, लिंग 3, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 2) देश संयत 31 (उपर्युक्त 34+ (संयमासंयम, संयमासंयम - अशुभ तिर्यंचगति) लेश्या 3, असंयम)। | 20 (उपर्युक्त 17संयमासंयम + अशुभ लेश्या 3, असंयम) 31 (दे. संदृष्टि1) प्रमत्त विरत | 20 (उपर्युक्त 20- सराग संयम, मनःपर्ययज्ञान + संयमासंयम, तिर्यंचगति) (91) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अभाव गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अप्रमत्त (दे. संदृष्टि 10/31 (दे. संदृष्टि 1) विरत 20 ( उपर्युक्त ) अपूर्वकरण (0) 28( " ) 23 (उपर्युक्त 20 + पीत, पद्म लेश्या, क्षायो. सम्यक्त्व) (दे. संदृष्टि 10 | 28 ( दे. संदृष्टि 1) | 23 (23 उपर्युक्त) अनि. सवेद अनि. 36 " 1/25 ( " ) 26 (उपर्युक्त 25 +3 अवेद लिंग) सूक्ष्मसां-2( " )/22 ( पराय " ) उपशान्त | 2( मोह " ) 21 ( ". ) 29 (उपर्युक्त 26 + क्रोध मान, माया कषाय) .. 30 (उपर्युक्त 29 + सराग संयम, लोभ कषाय - औपशमिक चारित्र) 31 (उपर्युक्त 30 + औपशमिक चारित्र, औपशमिक सम्यक्त्व - क्षायिक चारित्र) - क्षीण मोह | 13 ( " ) 20 ( " ) सयोग केवली 14( " ) (शुक्ललेश्या क्षायिकदानादि 4 लब्धि , क्षायिक चारित्र, असिद्धत्व, मनुष्यगति, भव्यत्व) 37 (औपशमिक भाव 2, चार ज्ञान, 3 दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, सराग चारित्र, संयमासंयम, क्षायो.5 लब्धि, कृष्णादि 5 लेश्याएँ, लिंग 3, चार कषाय, तिर्यंचगति, मिथ्यात्व, असंयम, कुज्ञान 3, अज्ञान, अभव्यत्व) (92) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओरालं वा मिस्से ण हि वेभंगो सरागदेसजमं । मणपज्जवसमभावा साणे थीसंढ वेदछि दी |81| औदारिकवत् मिश्रे न हि विभंगं सरागदेशयमं । मनः पर्ययशमभावाः साने स्त्रीषंढ वेदच्छित्तिः ॥ अन्वयार्थ :- (मिश्र) औदारिक मिश्रकाययोग में (ओरालं वा ) औदारिक काययोग के समान भाव जानना चाहिए। विशेषता यह है कि (हि) निश्चय से (विभंगं) विभंगज्ञान (सरागदेशयमं) सरागसंयम और देश संयम (मणपज्जवसमभावा) मनः पर्ययज्ञान, औपशमिक सम्यकत्व और औपशमिक चारित्र, प्रथम गुणस्थान में नहीं पाया जाता है । (साणे) सासादन गुणस्थान में (थीसंठ वेदछि दी) स्त्रीवेद, नपुसंकवेद की व्युच्छि ति हो जाती है । भावार्थ - औदारिकमिश्र योग में देवगति, नरकगति, विभंगावधिज्ञान, सराग चारित्र, देशचारित्र, मन:पर्ययज्ञान, उपशम सम्यक्त्व और उपशमचारित्र ये आठ भाव नहीं होते हैं । अतः पैंतालीस भाव होते हैं । औदारिक मिश्रकाय योग में प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और तेरहवां ये चार गुणस्थान होते हैं । इसमें सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेद और नपुसंकवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है। अतः औदारिक मिश्र काययोग में चतुर्थ गुणस्थान में एक पुंवेद ही पाया जाता है । मिच्छाइट्ठिट्ठाणे सासणठाणे असंजदट्ठाणे । दुग चदु पणवीसं पुण सजोगठाणम्मि णवयछिदी ||82|| मिथ्यादृष्टि स्थाने सासादनस्थाने असंयतस्थाने । द्वौ चत्वारः पंचविंशतिः पुनः सयोगस्थाने नवकच्छित्तिः ॥ अन्वयार्थ :- (मिच्छा इट्ठि द्वाणे ) औदारिक मिश्र काययोग में मिथ्यात्व गुणस्थान में दो, (सासणठाणे) सासादन गुणस्थान में चार (असंजद ठाणे) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में (पणवीसं) पच्चीस की (पुण) पुनः (सजोगठाणम्मि) सयोग केवली गुणस्थान में (णवय छिदी) नौ भावों की व्युच्छित्ति होती है । (93) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.49 औदारिक मिश्रकाययोग भाव (45) औदारिक मिश्रकाययोग में 45 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - क्षायिक भाव 9, मति आदि तीन ज्ञान, कुमति, कुश्रुत ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, क्षायो. सम्यक्त्व तिर्यंच गति, मनुष्य गति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन, असंयत और सयोग केवली ये चार होते हैं। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व, 31 (कुमति, 14 (क्षायिक भाव 9, अभव्यत्व) कुश्रुतज्ञान, दर्शन 2, | ज्ञान 3, अवधि दर्शन, क्षायो. लब्धि 5, क्षायो. सम्यक्त्व) तिर्यंच गति, मनुष्य गति, कषाय,4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन |4 (कुज्ञान 2, 29 (उपर्युक्त 31 - 16 (उपर्युक्त 14 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) नपुंसकवेद) स्त्री, अविरत |25 (ज्ञान 3, 31 (क्षायिक सम्यक्त्व,| 14 (मिथ्यात्व, |दर्शन 3, क्षायो. ज्ञान 3. दर्शन 3, क्षायो.| अभव्यत्व, क्षायिक भाव लब्धि 5, लब्धि 5, क्षयो. | 8, कुज्ञान 2, स्त्री, क्षायो. सम्यक्त्व, तिर्यचगति, नपुंसक वेद ) सम्यक्त्व, मनुष्यगति, कषाय 4, कषाय 4, तिथंच गति, पुल्लिंग, लेश्या 6, अज्ञान असंयम, अज्ञान, पुल्लिंग, असिद्धत्व, पारिणामिक कृष्णादि 5,भाव 2 ) लेश्या, असंयम) (94) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव सयोग (शुक्ल |14 (क्षायिक भाव 9, | 31 (ज्ञान 3, कुज्ञान 2, केवली |लेश्या, दानादि असिद्धत्व, जीवत्व, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 4 क्षायिक भव्यत्व, मनुष्य गति, 5, क्षायो. सम्यक्त्व, लब्धि, शुक्ल लेश्या) कषायब, लिंग 3, लेश्या मनुष्यगति, 5, मिथ्यादर्शन, क्षायिक चारित्र, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, अभव्यत्व, तिर्यंच गति) भव्यत्व) वेगुव्वे णो संति हु मणपज्जुवसमसरागदेसजमं । खाइयसम्मत्तूणाखाइयभावाय तिरियमणुयगदी॥83।। वैगूर्वे नो सन्ति हि मनःपर्ययशमसरागदेशयमाः । क्षायिकसम्यक्त्वोनाः क्षायिकभावाश्च तिर्यग्मनुजगती ॥ अन्वयार्थ :- (वेगुव्वे) वैक्रियिक काययोग में (हि) निश्चय से (मणपज्जुवसमसरागदेसजम) मनः पर्ययज्ञान, उपशम चारित्र, सराग चारित्र, देशचारित्र, (तिरियमणुयगदी) तिर्यंचगति, मनुष्यगति, (खाइयसम्मत्तूणा खाइयभावाय) क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर शेष क्षायिक भाव (णो) नहीं (संति) होते हैं। स्पष्टीकरण के लिए निम्नलिखित संदृष्टि देखें। संदृष्टि नं. 50 वैक्रियिक काययोग भाव (39) वैक्रियिक काय योग में 39 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, क्षायो. सम्यक्त्व, नरक गति, देवगति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के चार होते हैं - (95) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व, | 32 (कुज्ञान 3, दर्शन 17 (उपशम सम्यक्त्व, अभव्यत्व) 2, क्षायो. लब्धि 5, क्षायिक सम्यक्त्व, नरकगति, देवगति, वेदक सम्यक्त्व, ज्ञान कषाय 4,लिंग 3 लेश्या 3, अवधिदर्शन) 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन 3 (कुज्ञान 3) 30 (उपर्युक्त 32- 9(उपर्युक्त 7 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिश्र 0 31 (उपर्युक्त 30 - 8 (उपर्युक्त 9 + कुज्ञान कुज्ञान3, + मिश्र ज्ञान | 3 - मित्र ज्ञान 3 - 3, अवधि दर्शन) अवधि दर्शन) अविरत 34 (ज्ञान 3, दर्शन 15(मिथ्यात्व, अभव्यत्व, (नरकगति, । 3, क्षायो. लब्धि 5, | कुज्ञान 3) देवगति, सम्यक्त्व 3, गति 2, अशुभ कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 3, लेश्या 6, असंयम, असंयम) असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 2) वेगुव्वं वा मिस्से ण विभंगो किण्हदुगछि दी साणे। संढं णिरियगदिपुणतम्हाअवणीयसंजदेखयऊ।।84|| विगूर्ववत् मिश्रे न विभंगं कृष्णाद्विकच्छित्तिः साने । पंढं नरकगतिं पुनः तस्मादपनीय असंयते क्षिपतु ॥ अन्वयार्थ :- (मिस्से) वैक्रियिक मिश्रकाय योग में (वेगुव्वं वा) (96) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैक्रियिक काय योग के समान भाव जानना चाहिए विशेषता यह है कि (ण विभंगो) विभंगावधिज्ञान नहीं होता है । (साने) सासादन गुणस्थान में (किण्हदुगछि दी) कृष्णद्विक कृष्णलेश्या व नील लेश्या की व्युच्छित्ति हो जाती है । (पुण) और वैक्रियिक काययोग में वर्णित भावों में (षंं) नपुंसक वेद और (णिरियगदि) नरकगति को (तम्हा अवणीय) उन में से अर्थात् सासादन गुणस्थान में से कम करके (असंजदे) चतुर्थ गुणस्थान में (खयऊ) मिला दो । भावार्थ- वैक्रियिक मिश्रकाययोग में मन:पर्यय ज्ञान, उपशम चारित्र, देशचारित्र, सरागचारित्र क्षायिक सम्यक्त्व से रहित 8 क्षायिक भाव, विभंगज्ञान ये 15 भाव न होने से 38 भाव होते हैं । वैक्रियिक मिश्रकायोग में मिश्र गुणस्थान नहीं होता है । सासादन गुणस्थान में कृष्ण नील लेश्या की व्युच्छित्ति हो जाती है । तथा सासादन गुणस्थान में नपुंसक वेद एवं नरक गति को घटाकर ये भाव असंयत गुणस्थान में मिलाना चाहिए। क्योंकि सासादन गुणस्थान में मरण करने वाला जीव नरक गति में उत्पन्न नहीं होता है । यदि कोई यहाँ यह शंका करे कि मिश्रकाय योग में चतुर्थ गुणस्थान में नपुंसक वेद एवं नरक गति का सद्भाव कैसे संभव है ? तो जिन जीवों ने संक्लेश परिणामों से मिथ्यात्व गुणस्थान में नरक आयु का बंध कर लिया बाद में केवली द्वय के पाद मूल में क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का प्रारंभ किया। ऐसे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों के वैक्रियिक मिश्रयोग में असंयत गुणस्थान में नपुंसकवेद तथा नरकगति का सद्भाव पाया जाता है । संदृष्टि नं. 51 वैक्रियिक मिश्रकाययोग भाव ( 38 ) वैक्रियिक मिश्रकाययोग में 38 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- सम्यक्त्व 3, कु ज्ञान 2, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, नरकगति, देवगति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन और अविरत ये तीन होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - (97) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, 31 (कुज्ञान2, दर्शन 2, 1 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व) क्षायो. लब्धि 5, लिंग | अवधिदर्शन) 3, लेश्या 6, कषाय 4, गति 2, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन 4(कुज्ञान 2, 27 (कुज्ञान2, दर्शन | 11 (मिथ्यात्व, कृष्ण नील 12, क्षायो. लब्धि 5, अभव्यत्व, सम्यक्त्व 3, लेश्या) देवगति, कषाय 4, ज्ञान 3, अवधि दर्शन, लिंग 2(स्त्री, पुरुष) नरकगति, नपुंसक लेश्या 6, असंयम, लिंग) अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 2) अविरत 10 32 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान |6 (कुज्ञान 2, लेश्या 2, 3, दर्शन 3, क्षायो. । मिथ्यात्व, अभव्यत्व) लब्धि 5, लिंग 3, गति 2, कापोतादि लेश्या, कषाय, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 2) नोट - चतुर्थ गुणस्थान में वैक्रियिक मिश्रकाय योग में स्त्री लिंग किस अपेक्षा से कहा गया है यह विचारणीय है। आहारदुगे होति हुमणुयगदी तह कसायसुहतिलेस्सा। पुंवेदमसिद्धत्तं अण्णाणं तिण्णि सण्णाणं 18511 आहारद्विके भवन्ति हि मनुष्यगतिः तथा कषायशुभत्रिलेश्याः। पुंवेदोऽसिद्धत्वं अज्ञानं त्रीणि सम्यग्ज्ञानानि ॥ दाणादियं च दसणतिदयं वेदगसरागचारित्तं । खाइयसम्मत्तमभव्वं ण परिणामाय भावा हु ।।86 ।। (98) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानादिकं च दर्शनत्रिकं वेदक सरागचारित्रम् । क्षायिकसम्यक्त्वमभव्यत्वं न पारिणामिके भावा हि ।। अन्वयार्थ :- (आहारदुगे) आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग में (मणुयगदी) मनुष्य गति (तह) तथा (कसायसुहतिलेस्सा) कषाय 4, तीन शुभ लेश्यायें, (पुंवेदमसिदत्त) पुरुष वेद, असिद्धत्व (अण्णाणं) अज्ञान (तिण्णि सण्णाणं) तीन सम्यग्ज्ञान (च) और (दाणादिय) क्षायोपशामिक दानादिक पाँच (दसणतियं) तीन दर्शन, (वेदगसरागचारित्तं) वेदक सम्यक्त्व, सराग चारित्र (खाइयसम्मत्तं) क्षायिक सम्यकत्व ये उपर्युक्त भाव पाये जाते हैं । (हि) निश्चय से (परिणामाय भाबा) पारिणामिक भावों में से (अभव्वं) अभव्यत्व (ण) नहीं पाया जाता हैं। - (0) संदृष्टि नं.52 आहारक काययोग भाव (27) आहारक काययोग में 27 भाव होते हैं । गुणस्थान प्रमत्त संयत मात्र ही होता है। संदृष्टि निम्नप्रकार से है - गुणस्थान| भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव प्रमत्त 2 (0) 27 (क्षायिक, संयत क्षयोपशम सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, शुभ लेश्या 3, पुवेद, सराग, संयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व ) विशेष - आहारक काययोग में 6 भावों की व्युच्छिति दर्शायी गई है - यह विषय विचारणीय है। (99) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मइये णो संति हु मणपज्जसरागदेसचारित्तं । वेभंगुवसमचरणं साणे थीवेदवोच्छेदो ॥४।। कार्मणे नो सन्ति हि मनःपर्ययसरागदेशचारित्राणि । विभंगोपशमचरणे साने स्त्रीवेदव्युच्छेदः ॥ अन्वयार्थ :- (कम्मइये) कार्मण काययोग में (मणपज्जसरागदेस चारित्त) मनःपर्ययज्ञान, सरागचारित्र, देशचारित्र, (वेभंगुवसमचरण) विभंगावधिज्ञान, उपशम चारित्र (हु) निश्चय से ये भाव (णो) नहीं (संति) होते हैं (साणे) और सासादन गुणस्थान में (थीवेदवोच्छे दो) स्त्री वेद की व्युच्छिति हो जाती है। विदियगुणे णिरयगदीणत्थिदुसा अत्थि अविरदेठाणे। दुतिउणतीसंणवयं मिच्छादिसुचउसुवोच्छेदो।।88।। द्वितीयगुणे नरकगतिः नास्ति तु सा अस्ति अविरते स्थाने। द्वित्र्येकानत्रिंशत् नवकं मिथ्यादिषु चतुषु व्युच्छेदः ।। __ अन्वयार्थ :- कार्मण काययोग में (विदियगुणे) सासादन गुणस्थान में (णिरयगदी) नरकगति (णत्थि) नहीं होती है। (अविरदे ठाणे) चतुर्थ गुणस्थान में (सा) वह नरकगति (अत्यि) होती है। (मिच्छादिसु) मिथ्यात्व गुणस्थान, सासादन गुणस्थान , अविरत सम्यग्दृष्टि और सयोगकेवली गुणस्थान में (दु तिउतीसंणवयं) दो, तीन, उनतीस और नौ भावों की क्रमशः (वोच्छेदो)व्युच्छिति होती है। संदृष्टि नं. 53 कार्मण काययोग भाव (48) कार्मण काययोग में 48 भाव होते हैं। वे इस प्रकार से जानना चाहिए - 53 भावों में से, उपशम चारित्र, मनःपर्ययज्ञान, कुअवधिज्ञान, संयमासंयम, सराग संयम ये पाँच भाव कम करें, शेष भावों की संख्या वहाँ सद्भावरूप से जानना चाहिए। गुणस्थान प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और 13 वा जानना चाहिए। संदृष्टि निम्न प्रकार से है - . (100) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, | 33 (कुज्ञान2, दर्शन 2, 15 (क्षायिक भाव 9, अभव्यत्व) क्षायो. लब्धि 5, गति ज्ञान 3, दर्शन 1, +, कषाय 4,लिंग 3, क्षायोपशमिक मिथ्यात्व, अज्ञान, सम्यक्त्व, उपशम असंयम, असिद्धत्व, लेश्या 6, जीवत्व, सम्यक्त्व) भव्यत्व, अभव्यत्व) सासादन |3 (कुज्ञान 2, 30 (उपर्युक्त 33 - स्त्रीवेद) मिथ्यात्व, अभव्यत्व, नरकगति) | 18 (उपर्युक्त 15 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व, नरकगति) असंयत 29 135 (उपर्युक्त 30 में से 3 13 (कुज्ञान 2, क्षायिक (द्वितीयोपशम कुज्ञान निकालना तथा | भाव 8, स्त्रीलिंग, सम्यक्त्व, क्षायो. ज्ञान 3, अवधि दर्शन 1,| मिथ्यात्व, अभव्यत्व) सम्यक्त्व, मति सम्यक्त्व 3, आदि 3 ज्ञान, नरकगति 1, जोड़ देना) दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, लेश्या क्रमशः 5, नरक, तिर्यच, देवगति, कषाय 4, लिंग 2, अज्ञान असंयम) सायिक सयोग |14 (क्षायिक 9, केवली (मनुष्यगति, मनुष्यगति, असिद्धत्व, शुक्ललेश्या, जीवत्व, दानादि लब्धि , भव्यत्व) सायिक जाति, शुक्ल 34 (सम्यक्त्व2, ज्ञान 3, कुज्ञान 2, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व, अभव्यत्व, गति 3, लिंग 3, कृष्णादि 5 लेश्या, कषाय 4) लेश्या , असिद्धत्व, भव्यत्व) (101) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्झिमचउमणवयणे खाइयदुगहीणखाइया ण हवे | पुण सेसे मणवयणे सव्वे भावा हवंति फुडं ||89|| मध्यमचतुर्मनोवचने क्षायिकद्विकहीनक्षायिका न भवन्ति । पुनः शेषे मनोवचने सर्वे भावा भवन्ति स्फुटं ॥ अन्वयार्थ :- (मज्झिम चउमणवयणे) मध्यम चार मनोयोग वचन योग अर्थात् असत्य मनोयोग, उभय मनोयोग, असत्य वचन योग, उभय वचन योग में (खाइयदुगहीणखाइया ण हवे) क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र को छोड़कर शेष क्षायिक भाव नहीं होते हैं । (पुण) पुनः (सेसे मणवयणे) शेष मनोयोगों व वचनयोगों में (सव्वे) सभी क्षायिक (भावा) भाव (हवंति) होते हैं । अर्थात् सत्य, अनुभय मनोयोग और सत्य, अनुभय वचनयोग में सभी भाव होते हैं । संदृष्टि नं. 54 सत्यानुभयमनोवचनयोग भाव ( 53 ) सत्यमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभय वचनयोग, इन चार योगों में त्रेपन भाव होते हैं । प्रथम गुणस्थान से लेकर 13 गुणस्थान पाये जाते हैं । भाव व्यवस्था गुणस्थानवत् जानना चाहिए। देखे संदृष्टि (1) गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव 1 2 3 4 5 6 7 8 9 सवेद 9 अवेद 10 11 12 13 2 3 0 6 2 0 3 0 3 3 2 2 13 9 34 32 33 36 31 31 31 28 28 25 22 21 20 14 (102) अभाव 19 222 2 2 2 2 2 2 223 2 21 20 17 22 22 25 25 28 31 33 39 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 55 असत्यानुभय मनोवचन योग भाव (46) असत्योभय मनोवचनयोग इन चार योगों में क्षायिक 7 भाव (क्षायिक 5 लन्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन) ये नहीं पायेजाते हैं - शेष 46 भाव पाये जाते हैं । अभाव भाव ज्ञात करने के लिए प्रत्येक गुणस्थान में कथित अभाव भावों में से 7 उपर्युक्त क्षायिक भाव कम देना चाहिए । यथा प्रथम गुणस्थान में अभाव भाव 19 उनमें कम करने पर 12 भाव प्राप्त होते हैं - इसी प्रकार शेष गुणस्थानों की प्रक्रिया जानना चाहिए। गुणस्थान प्रथम से 12 तक जानना चाहिए। संदृष्टि गुणस्थानवत् जानना चाहिए। दे. संदृष्टि (1) गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 9 सवेद 9 अवेद (103) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुंवेदे संढित्थीणिरयगदीहीणसेसओदइया । मिस्साभावा तियपरिणामा खाझ्यसम्मत्तउवसमसम्मं 19011 पुंवेदे षंढ स्त्रीनरकगतिहीनशेषौदयिकाः मिश्रा भावाः त्रिकपारिणामिकाः क्षायिकसम्यक्त्वमुपशमं सम्यक्त्वं ।। अन्वयार्थ :- (पुंवेदे) पुरुषवेद में (संढित्त्थीणिरयगदीहीण)नपुसंक वेद, स्त्रीवेद, नरकगति को छोड़कर सेसओदइया) शेष सभी औदयिक भाव होते हैं। (मिस्सा भावा) सभी क्षायोपशामिक भाव (तिय परिणामा) तीनों पारिणामिक भाव (खाइयसम्मत्तं उवसमं सम्म) क्षायिक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्व ये सभी भाव पाये जाते हैं। , इत्थीवेदे वि तहा मणपज्जवपुरिसहीण इत्थिजुदं । संढे वि तहा इत्थीदेवगदीहीणणिरयसंढजुदं ॥91।। स्त्रीवेदेऽपि तथा मनःपर्ययपुरुषहीनस्त्रीयुक्तं । षंढेऽपि तथा स्त्रीदेवगतिहीननरकषंढयुक्ताः ॥ अन्वयार्थ :- (इत्त्थी वेदे वि तहा) स्त्री वेद में उपर्युक्त सभी भावों में से (मणपज्जव-पुरिस हीण इत्थिजुदं) मनः पर्यय ज्ञान, पुरुष वेद को निकालकर स्त्री वेद को जोड़ देना चाहिए। इसी प्रकार(संढे वि तहा) नपुंसकवेद में स्त्रीवेदोक्त सभी भावों में (इत्थीदेवगदीहीणणिरयसंदजुदं) स्त्री वेद, देवगति को छोड़कर नरकगति, नपुंसकवेद और जोड़ देना चाहिए। संदृष्टि नं. 56 'वेद भाव (41) पुवेद में 41 भावों का सद्भाव पायाजाता है वे भाव इस प्रकार से संयोजित करना चाहिए। उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक 18 भाव, तिथंच, देव, मनुष्य गति, कषाय 4, पुल्लिंग, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिदत्व, पारिणामिक 3 | प्रथम गुणस्थान से नौवेगुणस्थानतक यहाँ गुणस्थान जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार जानना चाहिए (104) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 2 (मिथ्यात्व, 131 (कुज्ञान3, दर्शन 2,| 10 (ज्ञान 4, क्षायो. लब्धि 5, गति अभव्यत्व) | अवधिदर्शन, 3, कषाय 4, पुरुषवेद, सम्यक्त्व3, देशसंयम, मिथ्यात्व, अज्ञान, सराग चारित्र) असंयम, असिद्धत्व, लेश्या 6, भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व) 3 (कुज्ञान 3) 29 (उपर्युक्त 31. में से 12 (उपर्युक्त 10 में मिथ्यात्व, अभव्यत्व, मिथ्यात्व, अभव्यत्व, कम) जोड़ना) 30 (उपर्युक्त 29 में से | 11 (पूर्वोक्त 12 में से 3 कुज्ञान कम कर 3 मिश्र मिश्र ज्ञान, अवधिदर्शन ज्ञान 3, तथा कम करके 3 कुशान अवधिदर्शन जोड़ना) | जोड़ना) 5 (3 अशुभ 33 (पूर्वोक्त 30 + 3 | 8 (कुज्ञान3, मिथ्यात्व, लेश्या, सम्यक्त्व + 3 ज्ञान - 3 अभव्यत्व, सरागसंयम, असंयम, मिश्रज्ञान) संयमासंयम, मनः देवगति) पर्ययज्ञान) 129 (पूर्वोक्त 33 -3 12 (पूर्वोक्त.. (संयमासंयम, अशुभ लेश्या, | देशसंयम + 3 अशुभ तिर्यचगति) असंयम, देवगति + | लेश्या, असंयम, देशसंयम) देवगति) 6 . 0 129 (पूर्वोक्त 29 . |12 (पूर्वोक्त 12 • तिर्यंचगति, देशसंयम मनःपर्यय, सराग चारित्र + मनःपर्ययज्ञान, + तिथंचगति, सराग चारित्र) देशसंयम) |12 (पूर्वोक्त ) ३ (पीत, पद्म 29 (पूर्वोक्त ) लेश्या, वेदक सम्यक्त्व) (105) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 8 ० 126 (पूर्वोक्त 29-पीत, | 15 (पूर्वोक्त 12 + पीत पद्म लेश्या, वेदक पद्म लेश्या वेदक सम्यक्त्व) | सम्यक्त्व) 26 (पूर्वोक्त ) | 15 (पूर्वोक्त) 9 (सवेद)| 1 (वेद) 9 (अवेद) 3 (क्रोध मान, 25 (पूर्वोक्त 26 - माया) पुरुषवेद) । 16 (पूर्वोक्त 15 + पुंवेद) संदृष्टि नं.57 स्त्रीवेद भाव (40) स्त्री वेद में 40 भावों का सद्भाव जानना चाहिए ऊपर पुंवेद में जो 41 भाव कहे हैं उनमें से मात्र मनः पर्ययज्ञान कम देना चाहिए। शेष भाव सम्पूर्ण पुंवेदवत् जानना चाहिए । गुणस्थान प्रथम से नौ तक जानना चाहिए। भाव इस प्रकार से है - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक-सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक 17 भाव, तिर्यंच, देव, मनुष्यगति, कषाय 4, स्त्रीवेद, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव व्युच्छित्ति और भाव सदभाव में पुवेद की व्यवस्था जानकर, उसी सारणी का प्रयोग करना चाहिए। किन्तु अभाव भावों में पुवेद में कहे गये अभाव भाव से मनःपर्यय ज्ञान कम देना चाहिए। संदृष्टि निम्न प्रकार से है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अभाव 9(सवेद) 9(अवेद) (106) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.58 नपुंसकवेद भाव (40) नपुंसकवेद में 40 भावों का सद्भाव जानना चाहिए। पुंवेद में 41 भावों का जो अस्तित्व कहा गया है उसमें से मनः पर्यय ज्ञान कम कर देना चाहिए। तथा देवगति के स्थान पर नरकगति की संयोजना करना चाहिए। शेष भाव व्यवस्था पुंवेदवत् ही है। भाव इस प्रकार से हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक 17 भाव, तिर्यंच, मनुष्यगति, नरकगति, कषाय 4, नपुंसक वेद, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक 3 | गुणस्थान - प्रथम से नौ तक जानना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार से है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्तिा अभाव - भाव , 9(सवेद) 9(अवेद) कोहचउक्काणेक्के पगडी इदरा य उवसमं चरणां खाइयसम्मत्तूणा खाइयभावा य णो संति।।92।। क्रोधचतुष्काणां एका प्रकृतिः, इतराश्च उपशमं चरणं। क्षायिकसम्यक्त्वोनाः क्षायिकभावाश्च नो सन्ति ।। एवं माणादितिए सुहुमसरागुत्ति होदि लोहो हु । अण्णाणतिए मिच्छा-इट्ठिस्सयहोति भावाहु।।93।। एवं मानादित्रि के सूक्ष्मसराग इति भवति लोभो हि । अज्ञानत्रिके मिथ्यादृष्टेः च भवन्ति भावा हि ॥ अन्वयार्थ :- (कोहचउक्काणेक्के ) क्रोध चतुष्क में से विवक्षित एक कषाय (य) और (इदरा) अन्य तीन कषायें (उपशमं चरणं) उपशम (107) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र, (खाइयसम्मत्तूणा) क्षायिक सम्यक्त्वको छोड़कर खाइयभावा) शेष क्षायिक भाव (णो संति) ये विवक्षित कषाय में नहीं रहते हैं। (एवं) इसी प्रकार (माणादितिए) मानादित्रिक में भी जानना चाहिए। (सुहुमसरागुत्ति) सूक्ष्म सराग गुणस्थान में (हि) निश्चय से (लोहो) लोभ कषाय रहती है। (हु) निश्चय से (अण्णाणतिए) अज्ञानत्रिक में (मिच्छाइट्ठिस्स) मिथ्यादृष्टि के समान(भावा) भाव (होति) होते हैं। संदृष्टि नं.59 क्रोधमानमाया भाव (41) क्रोध, मान, माया इन तीनों कषायों में 41 भावों का सद्भाव जानना चाहिए। वे भाव इस प्रकार से हैं। औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक 18 भाव, गति 4, लिंग 3, कषाय 4 में से कोई एक विवक्षित कषाय, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व, गुणस्थान प्रथम से नौ तक जानना चाहिए। संदृष्टि मूलग्रन्थ में 40 भावों की बनाई हुई है। यह व्यवस्था किसी प्रकार बनती हुई प्रतीत नहीं हो रही है। मूल ग्रन्थ संदृष्टि के साथ 41 भावों की भाव रचना संदृष्टि निम्न प्रकार से है । क्रोध मानमाया भाव (40) मूल ग्रन्थ संदृष्टि गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव - अभाव 9 (सवेद) 9 अवेद (108) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभाव संदृष्टि नं.59 क्रोधमानमाया भाव (41) गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव 2(मिथ्यात्व, |31 (कुज्ञान3, दशन 2,| 10 (ज्ञान, दर्शन 1, अभव्यत्व) क्षायो. लब्धि 5, गति । 4, कषाय 1, लिंग3, सरागचारित्र, सम्यक्त्व मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, लेश्या 6, जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व) देशसंयम, 3) 3(कुज्ञान 3) |29 (उपर्युक्त 31- में से 12 (उपर्युक्त 10 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) | मिथ्यात्व, अमव्यत्व) 30 (उपर्युक्त 29 में से -J11 (पूर्वोक्त 12 - मिश्र कुज्ञान 3 + मिश्र ज्ञान | 3 ज्ञान, अवधिदर्शन 3, तथा अवधिदर्शन) | कम करके 3 कुशान जोड़ना) 6 (3 अशुभ 33 (पूर्वोक्त 30 + 3 (पूर्वोक्त 11-3 लेश्या, देवगति सम्यक्त्व, ज्ञान3-3 सम्यक्त्व) असंयम, मिश्र ज्ञान) नरकगति) 128 (पूर्वोक्त 33-3 |13 (पूर्वोक्त - (संयमासंयम, अशुभ लेश्या, देशसंयम + 3 अशुभ तिर्यचगति) नरकगति, देवगति, |लेश्या, नरक, देवगति असंयम + देशसंयम) | असंयम) 10 28 (पूर्वोक्त 28- 13 (पूर्वोक्त 13 -. तिर्यंचगति, मनःपर्ययज्ञान, सराग देशसंयम + चारित्र + तिर्यंचगति, मनःपर्ययज्ञान, सराग देशसंयम) चारित्र) 13 (पीत, पद्म |28 (पूर्वोक्त) | 13 (पूर्वोक्त) लेश्या, वेदक सम्यक्त्व) (109) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव [25 (पूर्वोक्त 28 - पीत, | 16 ( पूर्वोक्त 13 + पीत पद्म लेश्या, वेदक पद्म लेश्या, वेदक सम्यक्त्व) | सम्यक्त्व) 9 सवेद 3 (वेद तीन ) 25 (पूर्वोक्त ) 16 (पूर्वोक्त) 9 अवेद (क्रोधादि 22 (पूर्वोक्त 25 - 3 वेद)| 19 (पूर्वोक्त 16 + 3 तीनों में से वेद) विवक्षित एक) - संदृष्टि नं.60 लोभ कषाय भाव (41) लोभ कषाय में 41 भावों का सद्भाव जानना चाहिए। इसमें क्रोधादि 3 कषायों का अभाव और लोभ कषाय मात्र का सद्भाव जानना चाहिए। ये भाव इस प्रकार से हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सेम्यक्त्व, ज्ञान 4, दर्शन 3, कुज्ञान 3, क्षायो. लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, सराग चारित्र, संयमासंयम, गति 4, लोभ कषाय, लिंग 3, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व, लेश्या 6, जीवत्व, अभव्यत्व, भव्यत्व ये 41 भाव जानना चाहिए । लोभ कषाय में क्रोधादि 3 कषाय रहित 41 भाव की संयोजना करना चाहिए। शेष संदृष्टि क्रोधादि तीन कषायोंवत् जानना चाहिए। किन्तु इसमें प्रथम गुणस्थान से लेकर 10 गुणस्थान जानना चाहिए। संदृष्टि निम्न प्रकार से है - दे. क्रोध मानमाया जन्य संदृष्टि (59) । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | भाव अभाव 31 29 9 (सवेद) १ अवेद 10 (110) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 61 अज्ञानत्रय भाव 34 अज्ञानत्रय में 34 भाव होते है वे 34 भाव इस प्रकार है - कुज्ञान 3, दर्शन 2, क्षायो. लब्धि 5, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के दो होते है। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व, 134 (उपर्युक्त) अभव्यत्व) सासादन 3 (कुज्ञान 3) | 32(उपर्युक्त ) 2 (मिथ्यात्व अभव्यत्व). - अभाव - केवलणाणं दंसण खाइणदाणादिपंचकं च पुणो । कुमइति मिच्छमभव्वं सण्णाणतिगम्मिणो संति ॥94।। केवलज्ञानं दर्शनं क्षायिक दानादिपंचकं च पुनः । कुमतित्रिकं मिथ्यात्वमभव्यत्वं संज्ञानत्रिके नो सन्ति । अन्वयार्थ :- (सण्णाणतिगम्मि) सम्यग्ज्ञान त्रिक में (केवलणाणं दसणं) केवलज्ञान, केवल दर्शन,(खाइणदाणादिपंचकं) क्षायिक दानादि पांच लब्धि, (कुमइति) कुमति, कुश्रुत, विभंगावधिज्ञान(मिच्छमभव्वं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व (णो संति) नहीं होते हैं। संदृष्टि नं. 62 ज्ञानत्रय भाव (41) सम्यग्ज्ञान 3 में 41 भाव होते है जो इस प्रकार है औपशमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, ज्ञान, दर्शन3,लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, सरागसंयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अविरत आदि नौ होते है अर्थात् (4-12) . गुणस्थान भाव व्युच्छिति भाव अविरत 36 (गुणस्थानवत् दे. (गुणस्थानवत् संदृष्टि 1) दे. संदृष्टि 10 अभाव 5 (मनः पर्यय ज्ञान, संयमासंयम, सराग संयम, उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र) - (111) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 62 ज्ञानत्रय भाव (41) सम्यग्ज्ञान 3 में 41 भाव होते है जो इस प्रकार है औपशमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, सरागसंयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अविरत आदि नौ होते है अर्थात् (4-12) अभाव गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति देशसंयत 2 ( " ) | 31 ( भाव " ) । 10 (पूर्वोक्त 5+6 अविरत व्यु- संयमासंयम) प्रमत्त 314 " ) संयत 10 (संयमासंयम, नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति, अशुभ लेश्या 3 असंयम, उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र) अप्रमत्त संयत 10 (पूर्वोक्त) 3 31 (गुणस्था नोक्त) (गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि -10/ 0 अपूर्व- करण 28 ( " ) 13 (10 पूर्वोक्त +पीत पद्म लेश्या, वेदक सम्यक्त्व) 28 ( " ) | 13 (पूर्वोक्त) अनिवृ- 3 त्तिकरण | (गुणस्थानवत् सवेद दे. संदृष्टि ) 0/25 ( " ) अनिवृ- 30 " त्तिकरण अवेद 16 (पूर्वोक्त 13 +3 वेद) (112) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अभाव भाव " गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति सूक्ष्म- 12( " 22 ( सापराय उपशांत 20 " 21 ( मोह " 19 (पूर्वोक्त 16 + क्रोध, मान, माया) | 20 (पूर्वोक्त 19 + लोभ, सराग संयम - उपशम चारित्र) 21 (पूर्वोक्त 20 + औपशमिक भाव 2 - क्षायिक चारित्र) क्षीण 13( " )/20 ( " ) मणपज्जे मणुवगदी पुंवेदसुहतिलेस्सकोहादी । अण्णाणमसिद्धत्तंणाणति दसणतिचदाणादी 195।। मनः पर्यये मनुष्यगतिः पुंवेदशुभत्रिलेश्याक्रोधादयः । अज्ञानमसिद्धत्वं ज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं च दानादयः ।। वेदगखाइयसम्म उवसमखाइयसरागचारित्तं । जीवत्तं भव्वत्तं इदि एदे संति भावा हु ।।96।। वेदकक्षायिकसम्यक्त्वं उपशमक्षायिकसरागचारित्रं । जीवत्वं भव्यत्वमित्येते सन्ति भावा हि ॥ अन्वयार्थ :- (मणपज्जे) मनःपर्ययज्ञान में (मणुक्गदी) मनुष्यगति (पुंवेदसुहतिलेस्स कोहादी) पुरुषवेद, तीन शुभलेश्यायें, क्रोधादिचार कषाय (अण्णाणमसिद्धत्तं) अज्ञान, असिद्धत्व, (णाणति) ज्ञान तीनमतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान (दसणति) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधि दर्शन (च) और (दाणादी) क्षायोपशिक दानादिक 5 लब्धि (वेदगखाइयसम्म) वेदक सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व (उपसम खाइयसराग चारित्त) उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र, सराग चारित्र (जीवत्तं) जीवत्व, (भव्वत्त) भव्यत्व (इदि) इस प्रकार (एदे) ये (भावा) भाव (हु) निश्चय से (संति) होते हैं। भावार्थ -मनःपर्यय ज्ञान में जो उपशमसम्यक्त्व का सद्भाव नहीं कहा गया है वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा समझना चाहिए, क्योंकि (113) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनःपर्यय ज्ञान में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का सद्भाव पाया जाता है। संदृष्टि नं.63 मनःपर्यय ज्ञान भाव (30) मनःपर्यय ज्ञान में 30 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - उपशम चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, मति आदि 4 ज्ञान, दर्शन 3, क्षायोपशम लब्धि 5, सरागसंयम, क्षयो. सम्यक्त्व, मनुष्य गति, संज्वलन 4 कषाय, पुल्लिंग, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान प्रमत्तादि सात होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान| भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव प्रमत्त 28 (क्षायिक 2 (उप. चारित्र, क्षायिक सम्यक्त्व, मति आदि | चारित्र) 4 ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, सरागसंयम, क्षायो. सम्यक्त्व, मनुष्यगति, संज्वलन 4 कषाय, पुल्लिंग, शुभ लेश्या | 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व,भव्यत्व) अप्रत्त | 2 (उपर्युक्त) 3 (पीत, पद्म 28 (उपर्युक्त) लेश्या, क्षायो.सम्यक्त्वा अपू. 25 (28 उपरोक्त - पीत, 15 (2 उपर्युक्त + पीत पद्म लेश्या 2, क्षायो. | पद्म लेश्या 2. क्षायो. सम्यक्त्व) सम्यक्त्व) अनि. स. | 1 (पुल्लिंग) 25 (उपर्युक्त) 5 (उपर्युक्त) अनि.अ. 3 (क्रोध, मान, 24 (25 उपर्युक्त - 6 (5 उपर्युक्त + माया) पुल्लिंग) पुल्लिंग) (114) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति सू. 2 (लोभ, सराग संयम) उप. क्षीण. 1 ( उपशम चारित्र) भाव 21 ( क्षायिक सम्यक्त्व, 9 (उप. चारित्र, क्षायिक मति आदि 4 ज्ञान, दर्शन चारित्र, पीत, पद्म 3, क्षायोपशम लब्धि 5, लेश्या, क्षायो. सरागसंयम, मनुष्यगति, सम्यक्त्व, पुल्लिंग संज्वलन लोभ कषाय, क्रोध, मान, माया शुक्ल लेश्या, अज्ञान, कषाय) असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व ) 20 (उपर्युक्त 21. में से लोभ कषाय सराग संयम कम करना तथा उप. चारित्र जोड़ना ) 13 (मति आदि 20 ( क्षायिक चारित्र, 4 ज्ञान, दर्शन3, क्षायिक सम्यक्त्व, मति क्षायो लब्धि 5, आदि 4 ज्ञान, दर्शन 3, अज्ञान) क्षायो. लब्धि 5, मनुष्यगति, शुक्ल लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) अभाव 10 (उपर्युक्त 9 में से उप. चारित्र कम करना लोभ कषाय तथा सराग संयम जोड़ना) 10 (उपशम चारित्र, सराग संयम, क्षायो. सम्यक्त्व, कषाय 4, पुल्लिंग, पीत, पद्म, लेश्या) केवलणाणे खाइयभावा मणुवगदी सुक्कलेस्साइ । जीवत्तं भव्वत्तमसिद्धत्तं चेदि चउदसा भावा ||97|| केवलज्ञाने क्षायिक भावा मनुष्यगतिः शुक्ललेश्या । जीवत्वं भव्यत्वमसिद्धत्वं चेति चतुर्दश भावाः ॥ अन्वयार्थ - (केवलणाणे) केवलज्ञान में (खाइयभावा) क्षायिक भाव (मणुवगदी ) मनुष्यगति (सुक्क लेस्साइ) शुक्ललेश्या ( जीवत्तं) जीवत्व (भव्वत्तं) भव्यत्व (च) और (असिद्धत्तं) असिद्धत्व (इदि) इस प्रकार ( चउदसा ) चौदह (भावा) भाव जानना चाहिए। (115) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान में 14 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- क्षायिक भाव 9, मनुष्यगति, शुक्ललेश्या, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व गुणस्थान सयोग - अयोग के वली 2 होते हैं । संदृष्टि इस प्रकार है - - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति सयोग केवली 1. (शुक्ल लेश्या) अयोग 8 ( क्षायिक केवली दानादि 4 लब्धि, असिद्धत्व, भव्यत्व, जीवत्व, मनुष्यगति) संदृष्टि नं. 64 केवलज्ञान भाव 14 भाव 14 ( क्षायिक भाव 9, मनुष्यगति, शुक्ल लेश्या, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) 0 13 ( उपर्युक्त 14 में से 1 (शुक्ल लेश्या) शुक्ल लेश्या कम करने पर 13 शेष रहते हैं । ओदइया भावा पुण णाणति दंसणतियं च दाणादी । सम्मत्तति अण्णाणति परिणामति य असंजमे भावा ॥ 98|| औदयिका भावाः पुनः ज्ञानत्रिकं दर्शनत्रिकं च दानादयः । सम्यक्त्वत्रिकं अज्ञानत्रिकं पारिणामिकत्रिकं च असंयमे भावाः || अन्वयार्थ - (असंजमे) असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में (ओदयाभावा) औदयिक सभी भाव (पुण) पुनः (णाणति) ज्ञानत्रिक अर्थात् मतिज्ञान, श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान (दंसणतिय) चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधि दर्शन, (च) और (दाणादी) क्षायोपशमिक दानादिक 5 लब्धियां (सम्मत्तति) तीनों सम्यक्त्व, (अण्णाणति) कुमति, कुश्रुत विभङ्गावधिज्ञान ( परिणामति) पारिणामिक तीन (एदे) ये (भावा) भाव (संति) होते हैं। (116) अभाव Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभाव ... भावार्थ- संयममार्गणा के सात भेद हैं सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, संयमासंयम, असंयम असंयम मार्गणा में । गुणस्थान से 4 गुणस्थान तक ग्रहण किये गये हैं। अतः सभी यहाँ औदयिक भाव संभव हैं। संदृष्टि नं.65 असंयम भाव (41) असंयम मार्गणा में 41 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक, सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयोपशमिक लब्धि 5, वेदकसम्यक्त्व, गति, 4, कषाय 4, लिंग3, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान आदि के चार होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार हैं - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव मिथ्यात्व |2 (मिथ्यात्व |34 (गुणस्थानवत् दे. 17 (उपशम,क्षायिक अभव्यत्व) संदृष्टि 1) सम्यक्त्व, ज्ञान 3, अवधि दर्शन, क्षयोपशमिक सम्यक्त्व) सासादन 3(कुज्ञान 3) 32 ( " ) 9(उपर्युक्त 7 में मिथ्यात्व एवं अभव्यत्व जोड़ने पर 9 भाव) मिश्र 0 |33 ( " ) 8 (उपर्युक्त में अवधि दर्शन कम करने पर भाव) अविरत 6 (नरक, देव 36 ( " ) 5 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व गति, अशुभ कुज्ञान 3) लेश्या 3, असंयम) देसजमे सुहलेस्सतिवेदतिणरतिरियगदिकसाया हु । अण्णाणमसिद्धत्तं णाणतिदंसणतिदेसदाणादी ।।99।। देशयमे शुभलेश्यात्रिवेदत्रिनरतिर्यगतिकषाया हि । अज्ञानमसिद्धत्वं ज्ञानत्रिकदर्शनत्रिकदेशदानादयः ।। . (117) Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्वयार्थ - (देसजमे) देशचारित्र में (सुहलेस्सतिवेदति णरतिरियगदिकसाया) तीन शुभ लेश्यायें, तीनों वेद, मनुष्यगति, निर्यच गति, चारकषाय (अण्णाणमसिद्धत्तं) अज्ञान, असिद्धत्व, (णाणतिदसणति देसदाणादी) तीन ज्ञान, तीन दर्शन, क्षायोपशमिक दानादिक 5 लब्धियाँ (एदे ) ये (भावा) भाव (संति) होते हैं। टिप्पण- एक देश गुणों के प्रकट होने के कारण 'देसदाणादि' शब्द से क्षायोपशमिक भाव का ग्रहण करना चाहिए। संदृष्टि नं. 66 देशसंयम भाव (31) देशसंयम में 31 भाव होते हैं। जो इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान एक ही होता है । संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव देशसंयत 31 (उपर्युक्त कथित) जीवत्तं भव्वत्तं सम्मत्ततियं सामाइयदुगे एवं । तिरियगदिदेसहीणा मणपज्जवसरागजमसहियं ।।100॥ जीवत्वं भव्यत्वं सम्यक्त्वत्रिकं सामायिकद्विके एवं । तिर्यगतिदेशहीना मनःपर्ययसरागयमसहिताः ।। अन्वयार्थ - (सामाइयदुगे) सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापना चारित्र में (जीवत्तं) जीवत्व (भव्वत्तं) भव्यत्व (सम्मत्ततियं) तीनों सम्यक्त्व (एवं) और (तिरियगदि देसहीणा) तिर्यंचगति, देश चारित्र को छोड़कर (मणपज्जवसरागजमसहियं) मनः पर्यय ज्ञान, सरागसंयम सहित (एदे) ये (भावा) भाव (संति) होते हैं। भावों के नाम निम्नलिखित संदृष्टि में देखें। (118) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 67 सामायिक + छे दोस्थापना संयम भाव (31) सामायिक छे दोपस्थापना संयम में 31 भाव होते हैं । जो इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यकत्व, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, वेदक स., सरागसंयम, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान प्रमत्तादिक चार होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति . अभाव भाव 31 (उपर्युक्त कथित) | 31 ( " ) अप्र. 3(पीत, पद्म लेश्या, वेदक सम्यक्त्व) अपू. 28 (31- पीत, पद्म | 3 (पीत, पद्म लेश्या, |लेश्या, वेदक सम्य.) | वेदक सम्यक्त्व) 28 (उपर्युक्त ) | 3(उपर्युक्त ) अनि. स. 3(3 वेद) अनि. अवे. 3 (क्रोध, 25 (उपर्युक्त ) 28 - 1 6 (पीत, पद्म लेश्या, मान, माया) । | 3 वेद) वेदक सम्यक्त्व, लिंग 3) एवं परिहारे मण-पज्जवथीसंढहीणया एवं । सुहमे मणजुद हीणा वेदतिकोहतिदयतेयदुगा ॥101|| एवं परिहारे मनःपर्ययस्त्रीषंढ हीनका एवं । सूक्ष्मे मनोयुक्ता हीना वेदत्रिकक्रोधत्रितयतेजोद्विकाः ।। अन्वयार्थ - (एवं) इसी प्रकार (परिहारे) परिहारविशुद्धि चारित्र में उपर्युक्त सभी भाव (मण-पज्जवथीसंढहीणया)मनः पर्ययज्ञान, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद को छोड़कर जानना चाहिए । (एवं) इसी प्रकार (सुहमे) सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र में (मणजुद) मनः पर्यय ज्ञान को जोड़ना चाहिए और (वेदति कोहतिदयतेयदुगा) वेदत्रिक, क्रोधादि तीन कषायें, पीत और पद्म लेश्यायें (हीणा) कम कर देना चाहिए। (119) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 68 परिहारविशुद्धि संयम भाव (28) परिहार विशुद्धि संयम में 28 भाव होते हैं, जो इस प्रकार है - द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, सराग संयम, मनुष्यगति, कषाय4, पुरुषवेद, शुभ लेश्या3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व, गुणस्थान प्रमत्त और अप्रमत्त दो होते हैं। संदृष्टि निम्न प्रकार - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अभाव भाव 28 (उपर्युक्त) 28 (उपर्युक्त ) अ.प्र. 13 (पीत, पद्म, लेश्या, वेदक सम्यक्त्व) - - संदृष्टि नं. 69 सूक्ष्मसांपराय संयम भाव (22) सूक्ष्मसांपराय संयम में 22 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, सराग संयम, मनुष्यगति, सूक्ष्म लोभ, शुक्ल लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । इसमें एक 10वां गुणस्थान मात्र होता है। संदृष्टि इस प्रकार है - - । अभाव गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति । भाव 10 सूक्ष्म-10 22 (उपर्युक्त) सम्पराय -- जहखाइए वि एदे सरागजमलोहहीणभावा हु । उवसमचरणं खाइयभावा यहवंति णियमेण ||10211 यथाख्यातेऽपि एते सरागयमलोभहीनभावा हि । उपशमचरणं क्षायिक भावाश्च भवन्ति नियमेन ।। अन्वयार्थ - (जइखाइए वि) यथाख्यात चारित्र में उपर्युक्त सभी भाव (सरागजम लोहहीणभावा) सरागचारित्र, लोभ को छोड़कर(च) और (120) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (उपसमचरणं) उपशम चारित्र (खाइयभावा) क्षायिक भाव (णियमेण) नियम से (हंवति) होते हैं। भावार्थ -समस्त मोहनीय कर्म के उपशमया क्षयसे जो चारित्र होता है वहयथाख्यातचारित्र कहलाता है। यथाख्यात चारित्र में सरागसंयम और लोभ कषाय नहीं रहती है एवं उपशम चारित्र और क्षायिक भाव पाये जाते हैं। आचार्य महाराज ने 11 वें गुणस्थान में उपशम चारित्र तथा 12 वें गुणस्थान में क्षायिक चारित्र माना है। कारण यह है कि 11 वेंगुणस्थान के पूर्व सम्पूर्ण मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उपशम संभव नहीं हैं तथा 12 वें गुणस्थान के पूर्व मोहनीय कर्म की सम्पूर्ण प्रकृतियाँ का क्षय किसी प्रकार संभव नहीं है। इसी अभिप्राय को ग्रहण कर 11 वें उपशम चारित्र, उसके पूर्व 6-10 तक सराग चारित्र और 12, 13 व 14 वें क्षायिक चारित्र स्वीकार किया गया है। संदृष्टि नं. 70 यथाख्यात संयम भाव (29) यथाख्यात संयम में 29 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - औपशमिक भाव2, क्षायिक 9, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, मनुष्य गति, शुक्ल लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व। गुणस्थान उपशान्त मोह आदि चार होते हैं। संदृष्टि निम्न प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव उप. 12 (सम्यक्त्व | 21 (गुणस्थानवत् दे. 18 (क्षायिक चारित्र, औप. चा.) संदृष्टि 1) क्षायिक लब्धिऽ, केवल ज्ञान, केवल दर्शन) क्षीण. 13 20 ( " ) 9(औपशमिक भाव 2, (गुणस्थानवत् क्षायिक लब्धि, दे. संदृष्टि 1) केवलज्ञान, केवल दर्शन) सयोग 15 (औपशमिक भाव 2, चार ज्ञान दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, अज्ञान) अयोग ( " 13 ( " ) 16 (उपर्युक्त 15 + शुक्ल लेश्या = 16) (121) अभाव - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्खुजुगे आलोए खाइयसम्मत्तचरणहीणा दु। सेसा खाइयभावाणोसंतिहु ओहिदंसणे एवं ।।103|| चक्षुर्युगे आलोके क्षायिक सम्यक्त्वहीनास्तु । शेषाः क्षायिकभावा नो सन्ति हि अवधिदर्शने एवं ॥ तेसिं मिच्छमभव्वं अण्णाणतियं चणत्थि णियमेण। केवलदसण भावा केवलणाणेव णायव्वा ।।104 ॥ तेषां मिथ्यात्वं अभव्यत्वं अज्ञानत्रिकं च नास्ति नियमेन । के वलदर्शने भावा के वलज्ञानवत् ज्ञातव्याः ॥ अन्वयार्थ - (चक्खुजुगे) चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में (खाइयसम्मत्तचरणहीणा) क्षायिक सम्यक्त्व क्षायिक चारित्र को छोड़कर सेसा खाइयभावा) शेष क्षायिक भाव (णो संति) नहीं होते हैं (एव) इसी प्रकार (ओहि देसणे) अवधिदर्शन में जानना चाहिए तथा (तेंसि) उस अवधिदर्शन में (मिच्छमभव्वं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व (अण्णाणतियं) अज्ञानत्रिक (णियमेण) नियम से (णत्थि) नहीं होते हैं। (केवलदसण) केवेलदर्शन में (के वलणाणेण) केवलज्ञान के समान (भावा) भाव (णायव्वा) जानना चाहिये। संदृष्टि नं. 71 चक्षु-अचक्षुदर्शन भाव (46) चक्षु, अचक्षु दर्शन में 46 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं - औपशमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, कुज्ञान 3, ज्ञान 4, क्षायो. लब्धि 5, दर्शन 3, वेदक सम्यक्त्व, सरागसंयम, संयमासंयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान मिथ्यात्व आदि 12 होते हैं। स्पष्टीकरण के लिये देखें संदृष्टि 1। (122) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मि. 2 ( गुणस्थानवत् संदृष्टि 1) दे. संदृष्टि 1) 31 3 ( ) 32 ( सा. मिश्र अवि. देश. प्र. अप्र. उप. 0 ( क्षी. 6 ( 2( 0 अपू. अनि. 3 ( स. अनि. अ. 3 ( सू. 20 3 ( 0 2( | 13 ( 33 "" 37 33 33 33 33 33 "7 > > भाव 34 (गुणस्थानवत् दे. 33( 36 ( ) 31( 31( ) 31( 28 ( ) 28 ( ) 25 ( ) 22 ( ) 21 ( ) 20 ( 33 33 97 "" 37 "" 39 33 "" 33 37 "3 > > > > ) ' > > > > > > अभाव 12 अभाव भावों का कथन गुणस्थान में कहे गये अभाव भावों के समान ही है किन्तु विशेषता यह है कि 14 13 चक्षुअचक्षु दर्शन में क्षायिक 5 लब्धि, 10 केवल ज्ञान तथा केवल दर्शन इन सात भावों 15 15 का सद्भाव नहीं होता है अतः प्रत्येक गुणस्थान ये सात भाव अभाव में कम 15 रहते हैं । अर्थात् प्रथम गुणस्थान में 19 भाव अभाव रूप कहे है उन में से उपरोक्त 7 कम 18 करने पर 12 भाव बन जाते हैं । इसी प्रकार की प्रक्रिया शेष 18 21 24 गुणस्थानों में जानना चाहिये | अभाव के 25 नाम संदृष्टि 1 से जानना चाहिए । 26 संदृष्टि नं. 72 अवधि दर्शन भाव ( 41 ) अवधिदर्शन में 41 भाव होते हैं । जो इस प्रकार है - औपशमिक भाव 2, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, सराग संयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अविरत आदि नव होते हैं । (123) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव अविरत 36 (गुणस्थानवत् दे. | 5 (उपशम चारित्र, (गुणस्थानवत् संदृष्टि 1) क्षायिक चारित्र, मनः दे. संदृष्टि 1) पर्ययज्ञान, सराग संयम, संयमासंयम) देश 26 " 10 " ) 10 (उपशम चारित्र, संयम क्षायिक चारित्र, मनः पर्ययज्ञान, सराग संयम, अशुभ लेश्या 3, असंयम, नरकगति, देवगति) प्रमत्त ०. " ) 310 " ) 10 (उपशम चारित्र, विरत क्षायिक चारित्र, संयमासंयम, अशुभ लेश्या 3, असंयम, नरक गति, तिर्यच गति, देवगति अप्रमत्त |3( " )|31( " )| 10 (उपर्युक्त) विरत । अपूर्वकरण ( " )|28 ( " )|13 (उपर्युक्त 10 + पीत, पद्म लेश्या, वेदक सम्यक्त्व) अनि. स.30 " 28 ( " 013 (उपर्युक्त ) अनि. अ./3 ( " 25 ( " /16 (उपर्युक्त 13 + लिंग 2 " 22 " सूक्ष्म सा. )| 19 (उपर्युक्त 16 + क्रोध, मान, माया) उपशात 26 " ) |21( " ) | 20 (क्षायिक चारित्र, संयमासंयम, सरागसंयम, कृष्णादि 5 लेश्या, असंयम, कषाय, नरकादि 3 गति, लिंग ) (124) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति क्षीण 13 ("") सयोग 1 (शुक्ल लेश्या) केवली अयोग के वली 8 ( क्षायिक दानादिक 4 लब्धि, क्षायिक चारित्र, 20 ( मनुष्य गति, असिद्धत्व भव्यत्व ) भाव विशेष- पूर्व में आचार्य महाराज ने 3 गुणस्थान से है । किन्तु यहाँ चतुर्थगुणस्थान से माना है यह विषय विचारणीय है । 33 संदृष्टि नं. 73 केवल दर्शन भाव (14) केवलदर्शन में 14 भाव होते हैं जो इस प्रकार हैं- क्षायिक भाव 9, मनुष्यगति, शुक्ल लेश्या, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान अंत के दो होते हैं । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव > 14 ( उपर्युक्त ) अभाव 21 ( औपशमिक भाव 2, संयमासंयम, सराग 13 ( उपर्युक्त 14शुक्ल लेश्या) संयम, कृष्णादि लेश्या 5, असंयम, कषाय 4, नरकादि 3 गति, लिंग 3) अवधिदर्शन स्वीकार किया 0 1 ( शुक्ल लेश्या) किण्हतिये सुहलेस्सति मणपज्जुवसमसरागदेसजमं । खाइयसम्मत्तूणा खाइयभावा य णो संति ||105 || कृष्णत्रिके शुभलेश्यात्रिकमनःपर्ययशमसरागदेशयमाः । क्षायिक सम्यक्त्वोनाः क्षायिक भावाश्च नो सन्ति || अन्वयार्थ - ( किण्हतियं) कृष्णादिक तीन लेश्याओं में (खाइयसम्मत्तूणा) क्षायिक सम्यकत्व को छोड़कर (सुहलेस्सति) तीन (125) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभलेश्यायें (मणपज्जुवसमसरागदेसजम) मनः पर्ययज्ञान, औपशमिक चारित्र, सरागचारित्र, देश चारित्र (खाइयभावा) क्षायिक भाव (णो) नहीं (संति) होते हैं। भावार्थ -कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं में तीन शुभ लेश्यायें मनःपर्ययज्ञान, उपशम चारित्र, देश चारित्र, सरागचारित्र नहीं होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व के सिवाय 8, क्षायिक भाव नहीं होते हैं। इस प्रकार 15 भावों के न होने से 38 भाव होते हैं एवं गुणस्थान चार होते हैं। तीन अशुभलेश्याओंमें क्षायिक सम्यक्त्वका सद्भाव कर्मभूमिज मनुष्य के चतुर्थ गुणस्थान में, बद्धायुष्क मनुष्य जो भोगभूमि में मनुष्य अथवा तिर्यंच होने वाला हो उसके अपर्याप्तक अवस्था में जघन्य कापोत लेश्या के साथ तथा प्रथम नरक के क्षायिक सम्यग्दृष्टि नारकी के भी जघन्य कापोत लेश्या जानना चाहिए। इस प्रकार उपर्युक्त तीन अवस्थाओं में अशुभ लेश्याओं के साथ क्षायिक सम्यक्त्व संभव है। संदृष्टि नं. 74 कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें भाव (38) कृष्णादि तीन लेश्याओं में 38 भाव होते है जो इस प्रकार है -सम्यक्त्व 3, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षयो.लब्धि 5, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, कृष्णादि 3 में विवक्षित लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । गुणस्थान आदि के चार होते हैं संदृष्टि इस प्रकार है - नोट- भवनत्रिक देव में अपर्यास अवस्था में ही कृष्णादि लेश्या होती है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व 31 (कुज्ञान 3, दर्शन 2,17 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 3, अभव्यत्व) क्षायो. लब्धि 5, गति | अवधिदर्शन) 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) (126) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भाव मिश्र गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | अभाव सासादन | 4 (कुज्ञान 3, 129 (31- मिथ्यात्व, 9 (उपरोक्त 7+मिथ्यात्व, देवगति) अभव्यत्व) अभव्यत्व) 29 (29 पूर्वोक्त-3 9(9 पूर्वोक्त + 3 कु कुज्ञान देवगति +3 ज्ञान देवगति - 3 मिश्रज्ञान अवधि मिश्र ज्ञान, अवधि दर्शन) दर्शन) असंयत | 5 (लेश्या 3, | 32 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 6 (कुज्ञान 3, मिथ्यात्व, असंयम, 3,दर्शन 3, क्षयो. अभव्यत्व, देवगति) नरक गति) | लब्धि 5, नरकादि 3 गति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) ण हि णिरयगदी किण्हति सुक्कं उवसमचरित्त तेउदुगे। खाइयदसणणाणं चरित्ताणि हु खइयदाणादी 1106। न हि नरकगतिः कृष्णत्रिकं शुक्लं उपशमचारित्रं तेजोद्विके । क्षायिकदर्शनशानं चारित्रं हि क्षायिकदानादयः ॥ अन्वयार्थ - (तेजदुगे) पीत और पद्म लेश्या में (णिरयगदी) नरकगति, (किण्हति) कृष्णादि तीन अशुभलेश्यायें (सुक्कं) शुक्ललेश्या (उवसमचरित्त) उपशम चारित्र (खाइयदंसणणाणं) क्षायिक दर्शन, क्षायिक ज्ञान, (खाइयदाणादी) क्षायिक दानादिक (ण) नहीं (हुंति) होते हैं। भावार्थ -पीत और पद्म लेश्या में नरकगति, कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें, शुक्ल लेश्या, क्षायिक दर्शन, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानादिक 5 लब्धिये भाव नहीं पाये जाते हैं। . संदृष्टि नं. 75 पीत पद्म लेश्या भाव (39) पीत, पद्म लेश्या में 39 भाव होते है। जो इस प्रकार है - सम्यक्त्व 3, कुज्ञान 3, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षयो.लब्धि 5, · 3 गति (नरकगति रहित), कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 2, संयमासंयम, सरागसंयम, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 1 गुणस्थान आदि के सात होते है । संदृष्टि इस प्रकार है (127) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व 29 (कुज्ञान 3, दर्शन |10 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 4, | अभव्यत्व) 2, क्षयो. लब्धि 5, अवधिदर्शन, संयमासंयम, गति 3, कषाय 4, सराग संयम) लिंग3, लेश्या 2, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3) सासादन] 3 (कुज्ञान 3) |27 (उपर्युक्त 29 - | 12 (उपर्युक्त 10 + मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिश्र 10 | 28 (उपर्युक्त 27 - 11 (उपर्युक्त 12 + कुज्ञान कुज्ञान 3, + मिश्र 13 -मिश्र ज्ञान 3, ज्ञान 3, अवधिदर्शन) |अवधिदर्शन) असंयत | 2 (असंयम, 131 (सम्यक्त्व 3, ज्ञान 18 (कुज्ञान 3, मनःपर्यय देवगति) | 3, दर्शन 3, ज्ञान, संयमासंयम, सराग क्षयो.लब्धि 5, संयम, मिथ्यात्व, | तिर्यञ्चादि आदि 3 अभव्यत्व) गति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 2, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) देश संयमा2 (तिर्यचगति, 30 (उपर्युक्त 31 - 2 9 (उपर्युक्त 8+2 असंयम, संयमासंयम) (असंयम, देवगति - संयमासंयम) देवगति+संयमासंयम) 19 (उपर्युक्त 9+संयमासं. तिर्यंचगति -सराग संयम, मनःपर्यय ज्ञान) प्रमत्त 30 (पूर्वोक्त 30 + संयत संरागसंयम, मनःपर्ययज्ञान - देशसंयम, तिर्यचगति) अप्रमत्त । 13 (वेदक | 30 (पूर्वोक्त) सम्यक्त्व पीत, पद्म लेश्या) 9 (पूर्वोक्त) संयत (128) Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णो संति सुक्कलेस्से णिरयगदी इयरपंचलेस्सा हु । भव्वे सव्वे भावा मिच्छट्ठाणम्हि अभव्वस्स ||107।। नो सन्ति शुक्ललेश्यायां नरकगतिः इतरपंचलेश्या हि । भव्ये सर्वे भावा मिथ्यादृष्टि स्थाने अभव्यस्य ।। अन्वयार्थ - (सुक्कलेस्से) शुक्ल लेश्या में (णिरयगदी) नरकगति, (इयरपंचलेस्सा) शेषपाँचलेश्यायें (णो) नहीं (संति) होती हैं (भव्वे) भव्य जीवों के (सव्वे) सभी (भावा) भाव होते हैं (अभव्वस्य) अभव्य जीव के (मिच्छट्ठाणम्हि) मिथ्यात्व गुणस्थान में भावों के समान भाव जानना चाहिये। संदृष्टि नं. 76 शुक्ल लेश्या भाव (47) शुक्ल लेश्या में 47 भाव होते है। जो इस प्रकार है - औपशमिक भाव 2, क्षायिक १, मति आदि 4 ज्ञान, दर्शन 3, वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, सराग संयम, क्षायो. लब्धि 5, तिर्यंचादि तीन गति, कषाय 4 कुज्ञान 3, लिंग 3, शुक्ल लेश्या, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान आदि के तेरह होते है। शुक्ल लेश्या में सम्पूर्ण व्यवस्था सामान्य गुणस्थानोक्त है। केवल विशेषता यह है कि इसमें कृष्णादि 5 लेश्या एवं नरकगति का अभाव होने के कारण भाव, अभावादि में अन्तर आ जाता है संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिश्र मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, 28 (34 गुणस्थानवत् दे. 19 (गुणस्थानवत् दे, अभव्यत्व) संदृष्टि 1-6 (कृष्णादि संदृष्टि 1) लेश्या, नरकगति) सासादन ३ (कुज्ञान 3) 26 (32 गुणस्थानोक्त |21 (गुणस्थानवत् दे. |-6 (लेश्या 5, संदृष्टि 1) नरकगति) | 27 (33 गुणस्थानोक्त -[20 (गुणस्थानवत् दे. 6 (कृष्णादि 5 लेश्या संदृष्टि 1) नरकगति) अविरत | 2 (देवगति, 130 (36 गुणस्थानोक्त-1 17 (गुणस्थानवत् दे. असंयम) 16 पूर्वोक्त) संदृष्टि 1) (129) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति 2 ( तिर्यंचगति, संयमासंयम) संयमा संयम प्रमत्त संयत अप्रमत्त संयत अपूर्व करण अनि. सवे. अनि. अवे. सूक्ष्म. उप. क्षीण सयोग केवली 0 1 ( वेदक सम्यक्त्व) 0 2 ( 2 ( 3 ( गुणस्थानवत् 28 ( गुणस्थानवत् दे. दे. संदृष्टि 1) संदृष्टि 1) 3 ( 13 ( 19 33 "3 33 मनुष्यगति, असिद्धत्व भव्यत्व) भाव 29 ( 31 गुणस्थानवत् - 18 (22 गुणस्थानवत् - पीत पद्म लेश्या) 29 ( 31 गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि 1- पीत पद्म लेश्या) 29 (उपरोक्त ) 28 ( गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि 1 ) 9 (शुक्ल लेश्या, क्षायिक दानादि चार लब्धि, क्षायिक चारित्र, ) 25 ( ) 22 ( ) 21 ( ) 20 ( 14 ( "" 33 99 33 (130) > > > > } अभाव अशुभ 3 लेश्या, देव नरकगति) 18 ( गुणस्थानवत् 22 3 अशुभ लेश्या, नरकगति) 18 ( पूर्वोक्त) 19 ( गुणस्थानवत् 25 5 लेश्या, नरकगति) 19 ( पूर्वोक्त) 22 (28गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि 1 - लेश्या 5, नरकगति) 25 (31गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि 1 - लेश्या, नरकगति) 26 (32गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि 1 - लेश्या 5, नरकगति) 27 (33गुणस्थानवत् दे. संदृष्टि 1-6 पूर्वोक्त) 33 (39गुणस्थानवत् दे. | संदृष्टि 1-6 पूर्वोक्त) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.77 भव्य जीव (53) भव्य मार्गणा में भव्य जीवों के पूरे 53 भाव होते हैं। उसका कथन गुणस्थानवत् समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति । भाव अभाव 2 19 34 32 21 मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत olol 33. 20 36 17 - देशव्रत - 2 31 22 - 0 31 22 प्रमत्त संयत अप्रमत्त 31 22 + 28 25 अपूर्व करण अनिवृति करण सवेद भाग 28 25 अनि. अवेदभाग 25 28 सूक्ष्म. 22 21 32 उपशांत मोह क्षीणमोह 20 33 सयोग के. 14 39 - 13 40 अयोग के. टिप्पण :- भव्य जीवों में अभव्य भाव संभव नहीं है। किन्तु आचार्य महाराज के अनुसार जो सारणीग्रन्थ में उपलब्ध है। वही यहाँ दी गई है। यथार्थ में अभव्य भाव की संयोजना नहीं करना चाहिए। -सम्पादक (131) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.78 अभव्य जीव भाव (34) अभव्य जीव के 34 भाव होते है जो इस प्रकार - कुज्ञान 3, दर्शन 2, क्षयोपशम लब्धि 5, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 31 गुणस्थान एक मिथ्यात्व ही होता है संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | भाव अभाव मिथ्यात्व |0 34 (उपर्युक्त) नोट • मूल ग्रन्थ में 34 भावों की सारणी उपलब्ध है किन्तु अभव्य जीवों में भव्यजीव संभव नहीं है । अतः भव्यजीव को कम करके भावों की संयोजना करना चाहिये। मिच्छरुचिम्हि यजी (मा) वाचउतीसासासणम्हि बत्तीसा। मिस्सम्हि दु तित्तीसा भावा पुव्वत्तपरिणामा ||108|| मिथ्यारुचौ च भावा चतुस्त्रिंशत् सासने द्वात्रिंशत् । मिश्यावाचा मिश्रे तु त्रयस्त्रिंशत् भावाः पूर्वोक्तपरिणामाः ॥ अन्वयार्थ - (मिच्छरुचिम्हि) मिथ्यात्व गुण स्थान में (चउतीसा) चौतीस (भावा) भाव होते हैं । (सासणम्हि) सासादन गुणस्थान में (बत्तीसा) बत्तीस (मिस्सम्हि) मिश्रगुणस्थान में (तित्तीसा) तेतीस भाव होते हैं तथा इन सभी गुणस्थानों में (पुव्वत्तपरिणामा) पूर्वोक्त कहे गये परिणाम ही होते हैं। मिच्छ मभव्वं वेदगमण्णाणतियं च खाइया भावा॥ ण हि उवसमसम्मत्ते सेसा भावा हवंति तहिं ।।109।। मिथ्यात्वमभव्यं वेदकमज्ञानत्रिकं च क्षायिका भावाः। न हि उपशमसम्यक्त्वे शेषा भावा भवन्ति तत्र || अन्वयार्थ - (उवसमसम्मत्ते) उपशम सम्यकत्व में (मिच्छ मभव्वं) मिथ्यात्व, अभव्यत्व (वेदगमण्णाणतियं) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अज्ञान तीन (च) और (खाइयाभावा) क्षायिक भाव (ण) नहीं (हवंति) होते हैं (तहिं) वहाँ पर (सेसा) शेष (भावा) भाव होते हैं। भावार्थ - उपशम सम्यक्त्व में मिथ्यात्व, अभव्यत्व, वेदकसम्यक्त्व, (132) Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 अज्ञान, 9क्षायिक भाव नहीं होते हैं शेष 38 भाव होते हैं। आचार्य महाराज ने गाथा 96 और 109 में मनःपर्यय ज्ञान में उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया है किन्तु उपशम सम्यक्त्व में मनःपर्यय ज्ञान ग्रहण किया है इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध आता है यहाँ महाराज का यह अभिप्राय समझ में आता है कि जो मनःपर्यय ज्ञान में उपशम सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं किया गया है उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व समझना चाहिए क्योंकि मनःपर्यय ज्ञान एवं प्रथमोपशमसम्यक्त्व ये दोनों एक साथ होना संभव नहीं हैं। तथा जो उपशम सम्यक्त्व मेंमनःपर्यय ज्ञान का अभाव नहीं किया गया है अर्थात् सद्भावकहा गया है उससे द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसमझना चाहिए, क्योंकि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के साथ मनःपर्ययज्ञान होने में आगम से विरोध नहीं आता है। उवसमभावणेदे वेदगभावा हवंति एदेसिं । अवणिय वेदगमुवसमजमखाइयभावसंजुत्ता।।110॥ उपशमभावोना एते वेदक भावा भवन्ति एतेषां । अपनीय वेदकं उपशमयमक्षायिकभावसंयुक्ताः ।। अन्वयार्थ - वेदक सम्यक्त्व में (उपसमभावंणेदे) उपशम भावों को छोड़कर(वेदगभावा) क्षयोपशम भाव (हवंति) होते हैं। तथा (खाइय सम्मत्ते) क्षायिक सम्यक्त्व में उपर्युक्त भाव में से (वेदगं अवणिय) वेदक सम्यक्त्व को छोड़कर उपसमजमखाइयभावसंजुत्ता) उपशम चारित्र, क्षायिक भावों को मिलाकर उपर्युक्त (एदेसिं) शेष भाव होते हैं। विशेष -गाथा 110 के अन्वयार्थ में जो "खाइयसम्मत्ते" क्षायिक सम्यक्त्व पद का ग्रहण किया गया है । वह गाथा 111 के प्रथम चरण से ग्रहण किया जानना चाहिए। खाइयसम्मत्तेदे भावा ससहम्मि ? केवलं णाणं । दंसण खाइयदाणादिया ण हवंति णियमेण ||111॥ . क्षायिक सम्यकत्वे एते भावाः संशिनि के वलं ज्ञानं । दर्शनं क्षायिक दानादिका न भवन्ति नियमेन ।। अन्वयार्थ - (ससहम्मि) संज्ञी जीवों में (णियमेण) नियम से (केवलं (133) Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणं दंसण) केवलज्ञान, केवल दर्शन, (खाइयदाणादिया) क्षायिक दानादि (एदे भावा) ये भाव (ण) नहीं (हवंति) होते हैं। भावार्थ -संज्ञी जीवों में केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दानादि पाँच, ये 7 भाव नहीं होते हैं क्योंकि ये सातों भाव तेरहवें गुणस्थान में प्रकट होते हैं और तेरहवें गुणस्थान में भाव मन का अभाव होने के कारण तेरहवें आदि गुणस्थान वर्ती जीवसंज्ञी असंज्ञी के व्यवहार से रहित होते हैं। भाव मन के सद्भाव के कारण बारहवें गुणस्थान तक ही संज्ञी का व्यवहार देखा जाता संदृष्टि नं.79 मिथ्यात्व भाव (34) सम्यक्त्व मार्गण में मिथ्यात्व मे 34 भाव होते है ये 34 भाव मिथ्यात्व गुणस्थान के भावों के समान ही है । दे. संदृष्टि । गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति मिथ्यात्व 0 भाव अभाव संदृष्टि नं.80 सासादन भाव (32) सासादन में सासादन गुणस्थान के समान ही 32 भावो का कथन समझना चाहिए। दे. संदृष्टि । गुणस्थान भाव व्युच्छित्तिा भाव अभाव मिथ्यात्व | 32 संदृष्टिनं.81 मिश्र भाव (33) मिश्र का कथन मिश्र गुणस्थान के समान ही समझना चाहिए। दे. संदृष्टि 1 गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति | भाव अभाव 2 . मिथ्यात्व 0 (134) Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं.82 उपशम सम्यक्त्व भाव (38) उपशम सम्यक्त्व में 38 भाव होते हैं जो इस प्रकार है - औपशमिक भाव 2, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, संयमासंयम, सराग संयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व भव्यत्व, जीवत्व। गुणस्थान अविरत आदि। होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव 1-6 अविरत 16 (नरक गति, 34 (उपशम सम्यक्त्व, | 4(उपशम चारित्र, देव गति |ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो| मनःपर्यय ज्ञान, असंयम, लब्धि 5, गति 4, कषाय संयमासंयम, सराग 4, लिंग 3, लेश्या 6, | चारित्र) | अशुभ लेश्या असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, भव्यत्व, जीवत्व) देशसंयम | 2(संयमासंयम 19 (पूर्वोक्त 4+6 अविरत तिर्यचगति) अविरत भाव व्यु.-संयमासयम) भावव्यु.+संयमासंयम) प्रमत्त 29 (उपशम सम्यक्त्व, | 19(उपशम चारित्र, संयत ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षायो. संयमासंयम, नरकादि 3 लब्धि 5, सराग संयम, | गति, अशुभ 3 लेश्या, मनुष्यगति, कषाय 4, असंयम) लिंग 3, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्व, भव्यत्व,जीवत्व) अप्रमत्त |2 (पीत, पद्म | 29 (उपर्युक्त ) | 9 (उपर्युक्त) संयत लेश्या) अपूर्व [27 (उपर्युक्त 29-पीत, | 11 (9 पूर्वोक्त+ पीत करण पद्म लेश्या) पद्म लेश्या) अनि. क. | 3 (लिंग 3) 27 (पूर्वोक्त) 11 (पूर्वोक्त) सवेदभाग अनि. क. 3 (क्रोध 24 (27 - लिंग 3) 14 ( उपर्युक्त 11+ लिंग अवेद आदि 3 भाग कषाय) (135) Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति सूक्ष्मसा. 2 (लोभ, सराग चारित्र) उप. मोह 2 (औपशमिक भाव 2) गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति असंयत 6 (अशुभ लेश्या 3, असंयम, नरक गति, देव गति) देशसंयत 2 भाव (संयमासंयम, तिर्यचगति) 21 ( उपर्युक्त 24 - कषाय 3) टिप्पण :- मनः पर्यय ज्ञान का अभाव प्रथमोपशम सम्यक्त्व के साथ है द्वितीयोपशम के साथ नहीं । 20 (पूर्वोक्त 21 + उपशम चारित्र - लोभ, सराग चारित्र) संदृष्टि नं 83 वेदक सम्यक्त्व भाव (37) वेदक सम्यक्त्व में 37 भाव होते हैं। जो इस प्रकार है- वेदक सम्यक्त्व, ज्ञान 4, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, संयमासंयम, सराग संयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व । गुणस्थान असंयत आदि चार होते हैं। संदृष्टि निम्न प्रकार से है - भाव 34 (ज्ञान 3, दर्शन 3, वेदक सम्यक्त्व, क्षायो. लब्धि 5, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) 29 (ज्ञान 3, दर्शन 3, वेदक सम्यक्त्व संयमासंयम, क्षायो. लब्धि 5, मनुष्य गति, तिर्यश्च गति, कषाय 4, लिंग 3, 3 शुभ लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) अभाव 17 ( उपर्युक्त 4 + कषाय 3) (136) 18 (17-उपशमचारित्र + (लोभ, सराग चारित्र) अभाव 3 (मनःपर्यय ज्ञान, संयमासंयम, सराग संयम ) 8 (मनः पर्यय ज्ञान, अशुभ लेश्या 3, संयमासंयम, नरक, देव गति, असंयम ) Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति| भाव अभाव प्रमत्त 29 (ज्ञान, दर्शन 3, |8 (अशुभ लेश्या 3, संयत वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम, नरकादि 3 सराग संयम, क्षायो. | गति, असंयम) लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3, शुभ लेश्या 3, अज्ञान, असिद्धत्वजीवत्व, भव्यत्व)) - संदृष्टि नं. 84 क्षायिक सम्यक्त्व भाव (46) क्षायिक सम्यक्त्व में 46 भाव होते है । जो इस प्रकार से है - उपशम चारित्र, क्षायिक भाव १, ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 5, संयमासयम, सराग संयम, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, भव्यत्व, जीवत्व । गुणस्थान चौथे को आदि लेकर 11 होते हैं। संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव अविरत 16 (नरक गति |34 (क्षायिक सम्यक्त्व, 12 (औपशमिक चारित्र, |देव गति, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो.| क्षायिक भाव 8, अशुभ लेश्या लिब्धि 5, गति 4, कषाय मनःपर्यय ज्ञान, 3, असंयम) 14, लिंग 3, लेश्या 6, संयमासंयम, सराग असंयम, अज्ञान, चारित्र) | असिद्धत्व, भव्यत्व, जीवत्व) देशसंयत 2 29 (उपर्युक्त 17 (उपर्युक्त 12(संयमासंयम, 34+संयमासंयम-6 संयमासयम + 6 अविरत अविरत की भाव |तिर्यचगति) की भाव व्युच्छिति) व्युच्छिति) प्रमत्त 29 (क्षायिक सम्यक्त्व, | 17 (नरकादि 3 गति, संयत ज्ञान, दर्शन 3, क्षायो.| अशुभ लेश्या 3, लब्धि 5, मनुष्यगति, कषाय 4, लिंग 3, शुभ असंयम, संयमासंयम, लेश्या 3, अज्ञान, औपशमिक चारित्र, असिद्धत्व,भव्यत्व, क्षायिक भाव) जीवत्व) (137) Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव अप्रमत्त | 2 (पीत, पद्म 29 (प्रमत्त संयतोक्त)/ 17 (प्रमत्त संयतोक्त) संयत लेश्या ) अपूर्व 27 (उपर्युक्त 29-पीत, | 19 (उपर्युक्त 17 +पीत, करण पद्म लेश्या) पद्म लेश्या) अनिवृत्ति 3 (लिंग 3,) |27 (अपूर्व करणोक्त) | 19 (अपूर्वकरणोक्त) क.सवेद भाग अनि.क. | 3 (क्रोध, 24 (पूर्वोक्त 27-3 | 22 (पूर्वोक्त 19 +3 अवेद भाग मान, माया) |लिंग) लिंग) 25 (22 पूर्वोक्त + कषाय सूक्ष्मसा |2 (लोभ, 21 (24 पूर्वोक्त सराग चारित्र) | कषाय 3) उपशांत |1 (औप. चा.) | 120 (21पूर्वोक्त मोह +औपशमिक चा.. लोभ, सराग चारित्र) 26 (25 पूर्वोक्त -औप. चा.+लोभ, सराग चा.) | क्षीण मोह 13 (ज्ञान 4, 20 (गुणस्थानोक्त दे. | 26 (26 पूर्वोक्त-क्षायिक दर्शन 3, क्षयो. संदृष्टि 1) चारित्र+औप. चा.) लब्धि 5, अज्ञान) सयोग 1(शुक्ल 14 (गुणस्थानोक्त दे. | 32 (औप. चारित्र, ज्ञान के वली | लेश्या) संदृष्टि 1) 4, दर्शन. 3, क्षायो. लब्धि 5, संयमासंयम, सराग संयम, तीन गति, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 5, अज्ञान असंयम) अयोग | |13 (गुणस्थानोक्त दे. | 33 (32 पूर्वोक्त +शुक्ल के वली (गुणस्थानोक्त संदृष्टि 1) लेश्या) दे. संदृष्टि 1) (138) Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 85 संज्ञी जीव भाव (46) संज्ञी जीव के 46 भाव होते है। जो इस प्रकार है 53 भावो में से केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिक लब्धि 5 इन 7 क्षायिक भावो से कम शेष 46 भाव होते है गुणस्थान आदि के 12 होते है इसमें भाव व्यु. और भावों का कथन गुणस्थान के समान जानना चाहिए। अभाव भाव को ज्ञात करने के लिए प्रत्येक गुणस्थान में कथित अभाव भावों में से 7 उपर्युक्त क्षायिक भाव कम कर देना चाहिए । यथा प्रथम गुणस्थान में अभाव भाव 19 होते हैं। उनमें 7 कम करने पर 12 अभाव भाव । गुण में जानना चाहिए । इसी प्रकार सभी गुणस्थानों संयोजना करे। संदृष्टि इस प्रकार - - गुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति भाव अभाव मिथ्यात्व |2(गुणस्थानवत् | 34 (गुणस्थानवत् दे. 12 (गुणस्थानोक्त 19 - दे. संदृष्टि 1) |संदृष्टि 1) 7 क्षायिक भाव) सासादन 3 ( " 32 ( " ) 14 (" 21 - 7 क्षायिक भाव) मिश्र 10 ( " ) 33 ( " ) | | 13 (20 अविरत 6 ( " 36 ( " ) 10 (32 देशसंयत 2 ( " ( " ) |15 (22 प्रमत्त 10( " ) ( " ) |15 (" 22 ") संयत अप्रमत्त |3( " 31 ( " 15 ( 22 ... ." संयत अपू. क. ( " )/28 ( " ) 18 (25 अनि. क.30" ) 28 ( " |18 ( 25 सवेद भाग अनि. क.13( " ) 25 ( " ) 21 ( 28 -") अवेद भाग सूक्ष्म. 2 ( " 22 ( " ) | 24 ( 31 .") उपशांत 2 ( " ) 21 ( " ) 25 ( 32 .") मो. . क्षी. मो. 13 ( " 20 ( " ) | 26 ( 33 ") .(139) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरियगति लिंगमसुहतिलेस्सकसायासंजममसिद्धं । अण्णाणं मिच्छत्तं कुमइदुगं चक्खुदुगं च दाणादी ।।112।। तिर्यग्गतिः लिङ्गं अशुभत्रिकलेश्याकषायासंयमा असिद्धत्वम् । अज्ञानं मिथ्यात्वं कुमतिद्विकं चक्षुर्द्विकं च दानादयः ।। तियपरिणामा एदे असण्णिजीवस्स संति भावा हु। आहारेऽखिलभावामणपज्जवसमसरागदेसजमं ।।13।। त्रिकपारिणामिका एते असंज्ञिजीवस्य सन्ति भावा हि। आहारेऽखिलभावा मनः पर्ययशमसरागदेशयमं ।। वेभंगमणाहारे णो संति हु सेसभावगणणा य । विच्छित्ति गुणट्ठाणा कम्मणकायम्हि वणीदव्वा।।114।। विभंगमनाहारे नो संति हि शेषभावगणना च । विच्छित्तिः गुणस्थानानि कार्मणकाये वर्णितव्यानि ॥ अन्वयार्थ - (असण्णिजीवस्स) असंज्ञीजीवके (तिरियगदि) तिर्यंच गति (लिंगमसुहतिलेस्स कसायासंजमसिद्धं) तीनो लिंग, अशुभ तीन लेश्यायें चार कषायें, असंयम, असिद्धत्व, अज्ञान, मिथ्यात्व (कुमइदुग) कुमति, कुश्रुत ज्ञान, (चक्खुदुर्ग) चक्षु दर्शन, अचक्षुदर्शन (दाणादी) क्षायोपशमिक दानादिक 5 लब्धियां (च) और (तियपरिणामा) तीनो पारिणामिक भाव (एदे) ये सभी (भावा) भाव (संति) होते हैं। (आहारे) आहारक मार्गणा में (अखिलभावा) सभी भाव पाये जाते हैं। (अणाहारे) अनाहारक मार्गणा में (मणपज्जवसमसरागदेसजमं) मनः पर्यय ज्ञान, उपशम चारित्र, सराग चारित्र, देश चारित्र (वेभंग) विभंगावधि (णो) नहीं (संति) होते हैं। (य) और (सेसभावगणणा) शेष भावों की संख्या और (विच्छित्ति) भावों की व्युच्छित्ति तथा (गुणट्ठाणा) गुणस्थान (कम्मण कायम्हि) कार्मण काययोग में (वणी दवा) वर्णित किये गये हैं। (140) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदृष्टि नं. 86 असंज्ञी भाव (27) असंज्ञी जीव के 27 भाव होते है । गुणस्थान आदि के दो होते हैं 27 भाव इस प्रकार है- कुज्ञान 2, दर्शन 2, क्षायो. लब्धि 5, तिर्यचगति, कषाय 4, लिंग 3, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यात्व, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व पारिणामिक भाव 3 | संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छि ति भाव मिथ्यात्व | 2 (मिथ्यात्व |27 (उपर्युक्त) अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) |25-(उपर्युक्त 27- 2 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व) मिथ्यात्व, अभव्यत्व) - अभाव चार्ट नं. 87 आहारक भाव (53) आहार मार्गणा में आहारक जीव के पूरे 53 भाव पाये जाते हैं । गुणस्थान आदि के तेरह होते है इसका कथन गुणस्थान के समान जानना चाहिए । संदृष्टि इस प्रकार है-' दे. संदृष्टि (1) गुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति । भाव अभाव मिथ्यात्व 2 19 सासादन 13 132 21 मिश्र 33 20 36 17 अविरत 16 देश संयम प्रमत्त संयत 31 22 31 31 22 अप्रमत्त संयत अर्पू.क. अनि.क. सवेद भाग 10 2: 25 , 28 25 (141) Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अभाव गुणस्थान | भाव व्युच्छित्ति | भाव अनि. 3 क.अवेद | सूक्ष्म. उपशांत - 113 क्षीण मोह संयोग के वली संदृष्टि नं. 88 अनाहारक मार्गणा भाव (48) अनाहारक मार्गणा में 48 भाव होते है जो इस प्रकार है - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक भाव 9, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, कुमति, कुश्रुत ज्ञान, दर्शन 3, क्षयो. लब्धि 5, क्षयोपशम सम्यक्त्व, गति 4, कषाय 4, लिंग 3, लेश्या 6, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 | गुणस्थान मिथ्यात्व, सासादन, असंयत, सयोग केवली ये चार होते है। संदृष्टि इस प्रकार है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव । अभाव मिथ्यात्व 2 (मिथ्यात्व, 3 (कुज्ञान 2, दर्शन 2 | 15 (उपशम सम्यक्त्व, अभव्यत्व) क्षयोपशम लब्धि 5, गति क्षायिक भाव 9, 4, कषाय 4, लिंग 3, |क्षयोपशम सम्यक्त्व, लेश्या 6, मिथ्यात्व, ज्ञान 3, अवधि दर्शन) असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक माव 3) सासादन 3 (कुज्ञान 2, 30 (उपर्युक्त 33- 18 (उपर्युक्त स्त्री वेद) मिथ्यात्व, अभव्यत्व, 15+मिथ्यात्व, अभव्यत्व, नरकगति) नरकगति) (142) Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति असंयत 29 (उपशम सयोग केवली सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायो. लब्धि 15, क्षयोपशम सम्यक्त्व, गति 3, कषाय 4, लिंग 2, लेश्या 5, असंयम, अज्ञान) 9 ( क्षायिक दानादि 4 लब्धि, क्षायिक चारित्र शुक्ल लेश्या भव्यत्व, असिद्धत्व मनुष्यगति) भाव 35 ( क्षायिकसम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्व, क्षयोपशम सम्यक्त्व, क्षयो. लब्धि 5, ज्ञान 3, दर्शन 3, गति 4, कषाय 4, लिंग 2, लेश्या 6, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 2) 14 ( क्षायिक भाव 9, मनुष्यगति, शुक्ल लेश्या, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व) 'अभाव 13 ( क्षायिक भाव 8, मिथ्यात्व, अभव्यत्व, स्त्रीवेद, कुज्ञान 2 ) टिप्पण :- •अनाहारक मार्गणा में सासादन गुणस्थान में नरक गति का अभाव रहता है स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति सासादन गुणस्थान में ही हो जाती है । तथा उपशम सम्यक्त्व से द्वितीयोपशम ग्रहण करना चाहिए । 34 (औपशमिक सम्यक्त्व, क्षयो. लब्धि 5, क्षायो. सम्यक्त्व, ज्ञान 3, दर्शन 3, गति 3, कषाय 4, लिंग 3, कुज्ञान 2, लेश्या 5, मिथ्यात्व, असंयम, अभव्यत्व, 'अज्ञान) अरहंतसिद्धसाहूतिदयं जिणधम्मवयणपडि माओ । जिणणिलया इदि एदे णव देवा दिंतु मे बोहिं ||115|| अर्हत्सिद्धसाधुत्रितयं जिनधर्मवचनप्रतिमाः I जिननिलया इत्येते नव देवा ददतु मे बोधिं ॥ अन्वयार्थ (अरहंतसिद्धसाहू तिदयं) अर्हत सिद्ध और तीन साधु परमेष्ठी अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और साधु ( जिणधम्मवयण पडि माओ ) जिनधर्म, जिन वचन जिन प्रतिमा (जिणणिलया) जिन चैत्यालय (एदे) ये (णव) नव (देवा) देवता (में) मुझे (बोहिं) बोधि अर्थात् रत्नत्रय (दिंतु) दे । (143) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति गुणन्तु तान् मुना प्रकार (गुणासहित इदि गुणमग्गणठाणे भावा कहिया पबोहसुयमुणिणा। सोहंतु ते मुणिंदा सुयपरिपुण्णा दु गुणपुण्णा ||116|| इति गुणमार्गणास्थाने भावा कथिता प्रबोधश्रुतमुनिना। शोधयन्तु तान् मुनीन्द्राः श्रुतपरिपूर्णास्तु गुणपूर्णाः ।। अन्वयार्थ - (इदि) इस प्रकार (गुणमग्गणठाणे) गुणस्थान और मार्गणास्थानों में (पबोहसुयमुणिणा) प्रबोध सहित श्रुतमुनि ने (भावा) भाव (कहिया) कहे। यदि कहीं त्रुटि रह गई हो तोते) उनको (गुणपुण्णा) गुणपूर्ण और (सुयपरिपुण्णा) श्रुत से परिपूर्ण (मुणिंदा) मुनीन्द्र (सोहंतु) शुद्ध करें। इति मुनि-श्रीश्रुतमुनि-कृता भावत्रिभंगी समासा (144) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Frivate Persona se to e org N.S. Printer & Publishers (Delhi) Ph.3285932