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चारित्र (खाइयसम्मूणखाइया) क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर शेष क्षायिक भाव (ण हवे) नहीं होते हैं।
भावार्थ - नरक गति में तिर्यञ्च गति, मनुष्यगति, देवगति, तीन शुभ लेश्या, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सराग चारित्र, देशसंयम, मनःपर्ययज्ञान, उपशम चारित्र, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानादिपाँच लब्धियाँ, केवलज्ञान और केवल दर्शन ये बीस भाव नहीं होते हैं। शेष तेतीस भाव होते हैं वे तेतीस भाव इस प्रकार हैं - उपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, कुज्ञान 3, ज्ञान 3, दर्शन 3, क्षायोपशम लब्धि 5, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, नरकगति, क्रोधादि कषाय 4, नपुंसकवेद, अशुभ लेश्या 3, मिथ्यादर्शन, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, पारिणामिक भाव 3 । पढमदुगे कावोदा तदिए कावोदनील तुरिय अइनीला। पंचमणिरये नीला किण्णा य सेसगे किण्हा ||50॥
प्रथमद्विके कापोता तृतीये कापोतनीले तुर्येऽतिनीला।
पंचमनरके नीला कृष्णा च शेषके कृष्णा ॥ अन्वयार्थ - (पढ मदुगे)प्रथम और दूसरे नरक में (कावोदा) कापोत लेश्या (तदिए) तीसरे नरक में (कावोदनील) कापोत और नील लेश्या (तुरिय) चौथे नरक में (अइनीला) उत्कृष्ट नील लेश्या (पंचमणिरये) पाँचवें नरक में (नीला किण्णा) नील कृष्ण लेश्या (य) और (सेसगे) शेष नरकों में अर्थात् छठवें सातवें नरक में(किण्हा) कृष्ण लेश्या होती
है।
भावार्थ -पहली पृथ्वी में कापोत लेश्या का जघन्य अंश, दूसरी पृथ्वी में कापोत का मध्यम अंश, तीसरी पृथ्वी में कापोत का उत्कृष्ट अंश और नीललेश्या का जघन्य अंश, चौथी में नील का मध्यम अंश, पाँचवीं में नील का उत्कृष्ट अंशएवं कृष्णलेश्या काजघन्य अंश, छठी में कृष्णलेश्या का मध्यम अंश एवं सातवीं में कृष्ण लेश्या का उत्कृष्ट अंश पाया जाता
है।
इसमें विशेषता यह है कि उत्कृष्ट नील लेश्या पंचम नरक में ही होती है चौथे नरक में मध्यम नील लेश्या होती है किन्तु चौथी पृथ्वी में जो अति
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