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नील शब्द का प्रयोग हुआ है । यहाँ यह अभिप्राय ज्ञात होता है कि चौथी पृथ्वी में तीसरी पृथ्वी की अपेक्षा अधिक संक्लेश रूप परिणाम होते हैं - इस अपेक्षा से आचार्य महाराज ने यहाँ पर "अति नील" शब्द प्रयोग किया है। अन्यथा अन्य आचार्यों प्रणीत ग्रन्थों सेमत-भिन्न होने की संभावना उत्पन्न होती है।
विदियादिसु छ सु पुढ विसु एवं णवरि असंजदट्ठाणे । खाइयसम्म णत्थि हु सेसं जाणाहि पुव्वं व ॥51|| द्वितीयादिषु षट्सु पृथिवीषु एवं णवरि असंयतस्थाने ।
क्षायिकसम्यक्त्वं नास्ति हि शेष जानीहि पूर्ववत् ॥ अन्वयार्थ - (एवं) इस प्रकार (विदियादिसु) दूसरी आदि (छसु) छह(पुढ विसु)पृथ्वियों में (णवरि) विशेषता यह है कि (असंजदाणे) असंयत गुणस्थान में (खाइयसम्म) क्षायिक सम्यक्त्व (णत्थि) नहीं होता है। (सेस) शेष कथन (पुव्वं व जाणाहि) पूर्ववत् अर्थात् प्रथम नरक के समान जानना चाहिए।
भावार्थ - दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों के असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता क्योंकि जिसने पूर्व में नरक आयु का बंध कर लिया ऐसे बद्धायुष्यकजीव का क्षायिक सम्यक्त्व होने पर प्रथम नरक से आगे जन्म नहीं होता है अतः क्षायिक सम्यक्त्व का सद्भाव दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक संभव नहीं है। दूसरीसे सातवीं पृथ्वी तक पर्याप्त अवस्था में उपशम एवं वेदक सम्यक्त्व हो सकता है।
सामण्णणारयाणमपुणाणं घम्मणारयाणं च । वेभंगुवसमसम्मंण हिसेसअपुण्णगेदुपढमगुणं ।।52।। सामान्यनारकाणामपूर्णानां घम्मानारकाणां च ।
वेभंगोपशमसम्यक्त्वं न हि शेषापूर्णके तु प्रथमगुणस्थानं । अन्वयार्थ - (सामण्णणारयाणमपुणाणं) सामान्य से नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में (च) तथा (घम्मणारयाणं) प्रथम नरक के नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में (वेभंगुवसमसम्म) विभंगावधि और उपशम सम्यक्त्व (ण हि) नहीं होता है (सेसअपुण्णगे) शेष अर्थात् दूसरी आदि
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