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________________ भावार्थ- दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी तक भवनबासी, व्यंतर, ज्योतिष्कवासी देव देवियों तथा शेष स्त्रियों के अर्थात् कल्पवासी देवियों, मनुष्यनियों तिर्यंचनियों के पर्याप्त अवस्था में ही उपशम तथा वेदक सम्यक्त्व होता है। अपर्याप्त अवस्था में नहीं, क्योंकि इन स्थानों में कोई भी जीव सम्यक्त्व सहित उत्पन्न नहीं होता है तथा भवनत्रिक, देवदेवी, कल्पवासी देवियों में उत्पन्न होने वाला जीव पूर्व पर्याय में सम्यक्त्व के साथ मरण नहीं करता है । कम्मभूमिजतिरिक्खे वेदगसम्मत्तमुवसमं च हवे । सव्वेसि सण्णीणं अपजत्ते णत्थि वेभंगो ||48 || कर्मभूमिजंतिरश्चि वेदक सम्यक्त्वमुपशमं च भवेत् । सर्वेषां संज्ञिनां अपर्याप्ते नास्ति विभंगः ॥ अन्वयार्थ - (कम्मभूमिजतिरिक्खे) कर्म भूमिज तिर्यञ्चों के (वेदगसम्मत्तमुवसमं च) वेदक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्व (हवे) होता है । (सव्वेसिं) सभी (सण्णीणं) संज्ञी जीवों के (अपजत्ते) अपर्याप्त अवस्था में (वेभंगो) विभंगावधि ज्ञान ( णत्थि ) नहीं होता है । 111 भावार्थ - कर्म भूमिज तिर्यंचों के पर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व होता है अपर्याप्त अवस्था में कोई भी सम्यक्त्व नहीं होता है पर्याप्त अवस्था में वेदक तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व ही होता है अन्य नहीं । संज्ञी जीवों के अपर्याप्त अवस्था में विभंगावधि ज्ञान नहीं होता है क्योंकि विभंगावधि. ज्ञान पर्याप्त अवस्था में ही होता है । रिये इयरगदी सुहले सतिथीपुंसरागदेसजमं । मणपज्नवसमचरियं खाइयसम्मूणखाइया ण हवे ||49|| नरके इतरगतयः शुभलेश्यात्रयस्त्रीपुं ससरागदेशयमं । मन:पर्ययशमचारित्रं क्षायिकसम्यक्त्वोनक्षायिका न भवन्ति ॥ अन्वयार्थ - (णिरये) नरक गति में (इयरगदी) नरकगति को छोड़कर अन्य तीन गति (सुहलेसति) तीन शुभ लेश्या अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या ( थी) स्त्री वेद (पुं) पुरुष वेद (सराग) सराग चारित्र (देसजमं) देशसंयम (मणपज्जवसमचरियं) मनः पर्यय ज्ञान उपशम (32) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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