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भावार्थ - अनन्तानुबन्धी चार और दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों उपशम से जो सम्यग्दर्शन होता है वह औपशमिक सम्यग्दर्शन कहलाता है । इस सम्यग्दर्शन के दो भेदों का कथन अर्थात् प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन का प्राप्त होता है । उसमें प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने वाला जीव पञ्चेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, गर्भज, पर्याप्त और सर्व विशुद्ध जानना चाहिए ।
यह सम्यग्दर्शन चारों गतियों के जीवों के पर्याप्त अवस्था में होता है तथा चतुर्थ गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक पाया जाता है। तथा उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षयोपशम सम्यग्दर्शन से जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहते हैं । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर्याप्त मनुष्य व निर्वृत्यपर्याप्त वैमानिक देवों में ही होता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतादि से उपशान्तकषाय गुणस्थान पर्यन्त पाया जाता है। अप्रमत्त गुणस्थान में उत्पन्न करके, ऊपर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक जाकर फिर नीचे उतरते हुए असंयत गुणस्थान तक भी सम्भव है । जिन जीवों के श्रेणी के उतरते समय मरण हो जाता है ऐसे जीवों के ही देव गति की निर्वृत्यपर्याप्त अवस्था में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सम्भव है। तथा निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था के पूर्ण होते ही द्वितीयोपशम का सद्भाव पर्याप्त अवस्था में नहीं पाया जाता है ।
सक्करपहुदीणरये
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वणजोइसभवणदेवदेवीणं सेसत्थीणं पज्जत्तेसुवसम्मं वेदगं होइ ||47|| शर्कराप्रभृतिनरके वाणज्योतिष्क भवनदेवदेवीनां । शेषस्त्रीणां पर्याप्तेषु उपशमं वेदकं भवति ॥ अन्वयार्थ - (सक्करपहुदीणरये) शर्करा आदि पृथ्वी के नारकियों में अर्थात् दूसरी पृथ्वी से सातवीं पृथ्वी के नरक के नारकियों के तथा (वणजोइसभवणदेवदेवीणं ) व्यंतर, ज्योतिष्क वासी और भवनवासी देव देवियों के और (सेसत्थीणं) शेष सभी स्त्रियों के (पज्जत्तेसुवसम्मं) पर्याप्त अवस्था में ही उपशम सम्यक्त्व तथा (वेदगं) वेदक सम्यक्त्व (होइ) होता है ।
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