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________________ आदिमणिरए भोगजतिरिए मणुवेसु सग्गदेवेसु । वेदगखाइयसम्मं पज्जत्तापज्जत्तगाणमेव हवे ||45|| आदिमनरके भोगजतिरश्चि मनुजेषु स्वर्गदेवेषु । 'वेदक क्षायिक सम्यक्त्वं पर्याप्तापर्याप्तकानामेव भवेत् ॥ अन्वयार्थ - (आदिमणिरए) प्रथम नरक में (भोगजतिरिए मणुवेसु) भोगभूमि के तिर्यञ्च व मनुष्यों के (सग्गदेवेसु) स्वर्ग के देवों के अर्थात् सौधर्मादि स्वर्ग के देवों में (पज्जत्तापज्जत्तगाणमेव ) पर्याप्त, अपर्याप्त अवस्था में (वेदगखाइयसम्मं ) वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व (हवे) होता है । भावार्थ- मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों में से मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति एवं अनन्तानुबन्धी क्रोधादि चार इन सात प्रकृतियों के क्षय से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं तथा इन्हीं सात प्रकृतियों के क्षायोपशम से जो सम्यग्दर्शन होता है उसे क्षायोपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं । ये दोनों सम्यग्दर्शन प्रथम नरक के नारकियों के भोग भूमिज तिर्यंच, मनुष्यों के तथा सौधर्मादि स्वर्ग के देवों के पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों अवस्थाओं में पाये जाते हैं विशेषता यह है कि प्रथम नरक में भोग भूमिज तिर्यंच एवं मनुष्यों के जो वेदक सम्यग्दर्शन कहा गया है उससे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दर्शन समझना चाहिए। यह कृतकृत्यवेदक सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक पाया है। पढ मुवमसम्मत्तं पज्जते होदि चादुगदिगाणं । विदिउवसमसम्मत्तं णरपज्जत्ते सुरअपज्नत्ते ||4611 प्रथमोपशमसम्यक्त्वं पर्यासे भवति चातुर्गतिकानां । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं नरपर्याप्ते सुरापर्याप्ते || अन्वयार्थ - ( पढ मुवसमसम्मत्तं) प्रथमोपशम सम्यक्त्व (चादुगदिगाणं) चारों गतियों के जीवों की (पज्जते ) पर्याप्त अवस्था में ही होता है । (विदिउवसमसम्मत्तं) द्वितीयोपशम सम्यक्त्व ( णरपज्जते) मनुष्यों के पर्याप्त अवस्था में (सुरअपज्जते) एवं देवों की अपर्याप्त अवस्था में (होदि) होता है । Jain Education International (30) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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