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तदपज्जत्तीसु हवे असुहतिलेस्सा हु मिच्छदुगठाणं। वेभंगं चण विज्जदि मणुवगदिणिरूविदा एवं ||7011 तदपर्याप्सिकासु भवेदशुभत्रिलेश्या हि मिथ्यात्वद्विकस्थानं । विभंगं च न विद्यते मनुष्यगतिर्निरूपिता एवं ॥ अन्वयार्थ - (तदपञ्जत्तीसु) भोग भूमिज निर्वृत्य पर्याप्तक स्त्रियों के अपर्याप्त अवस्था में (असुहतिलेस्सा) तीन अशुभ लेश्याएँ (मिच्छ दुगठाणं)मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। (च)
और (वेभंग) विभंगावधि ज्ञान (ण विज्जदि) नहीं होता है (एवं) इस प्रकार (मणुवगतिणिरुविदा) मनुष्यगति का निरूपण किया।
संदृष्टि नं. 27 भोगभूमिज स्त्री निर्वृत्यपर्याप्त (25) भोगभूमिज स्त्री के निर्वृत्यपर्यास अवस्था में 25 भाव होते है । जो इस प्रकार हैकुज्ञान 2, दर्शन 2, क्षायोपशमिक लब्धि 5, असंयम, मनुष्यगति, कषाय, स्त्रीवेद, अशुभ 3 लेश्या, अज्ञान, असिद्धत्व, मिथ्यात्व, पारिणामिक भाव 3। गुणस्थान मिथ्यात्व और सासादन ये दो होते है। गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति भाव
अभाव मिथ्यात्व 2(मिथ्यात्व 25 (उपर्युक्त) ० (उपर्युक्त)
अभव्यत्व) सासादन 2 (कुज्ञान 2) |23 (उपर्युक्त 25- 2 12 (मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
मिथ्यात्व, अभव्यत्व)
देवाणं देवगदी सेसं पज्जत्तभोगमणुसं वा । भवणतिगाणं कपित्त्थीणं ण हिखाइयं सम्मं |1|| देवानां देवगतिः शेषाः पर्याप्तभोगमनुष्यवत् ।
भवनत्रिकाणां कल्पस्त्रीणां न हि क्षायिकं सम्यक्त्वं ॥ अन्वयार्थ :- (देवाणं) देवों के (देवगदी) देवगति होती है (सेस) शेष कथन (पज्जत्तभोगमणुसं वा) पर्याप्त भोग भूमिजमनुष्यों के समान है विशेषता यह है कि (भवणतिगाणं) भवनत्रिक अर्थात् भवनवासी व्यंतर, ज्योतिषी देव देवियों के और (कपित्त्थीणं) कल्पवासिनी देवियों के
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