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(खाइयं) क्षायिक (सम्म) सम्यक्त्व (ण हि) नहीं होता है ।
भावार्थ - देवों के देव गति होती है शेष भाव पर्याप्त भोग भूमिज मनुष्य के समान है । भवनत्रिक देव देवियों में एवं कल्पवासी देवियों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है क्योंकि जिन जीवों ने क्षायिक सम्यग्दर्शन होने के पूर्व देवायु का बंध कर लिया है ऐसे मनुष्य देव पर्याय में उत्पन्न होने पर भी भवनत्रिक देव देवियों एवं कल्पवासी देवियों में उत्पन्न न होकर कल्पवासी देवों में ही उत्पन्न होते हैं ।
भवणतिसोहम्मदुगे तेउजहण्णं तु मज्झिमं तेऊ । साणक्कुमारजुगले तेऊवर पम्मअवरं खु || 72||
भवनत्रिकं सौधर्मद्विके तेजोजघन्यं तु मध्यमं तेजः । सनत्कुमारयुगले तेजोवरं पद्मावरं खलु ॥
अन्वयार्थः--(भवणति) भवनत्रिको के (तेउजहणणं) जघन्य पीतलेश्या (सोहम्मदुगे) सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में (मज्झिमं तेऊ) मध्यम पीत लेश्या (साणक्कुमारजुगले) सानत्कुमार युगल अर्थात् सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में (तेऊवर) उत्कृष्ट पीत और (पम्मअवरं खु) जघन्य पद्म लेश्या होती है ।
बह्माछक्के पम्मा सदरदुगे पम्मसुक्क लेस्सा हु । आणदतेरे सुक्क सुक्कुक्कसा अणुदिसादीसु ||73|| ब्रह्मषट् के पद्मा सतारद्विके पद्मशुक्ललेश्ये हि । आनत्रयोदशसु शुक्ला शुक्लोत्कृष्टा अनुदिशादिषु || अन्वयार्थ :- (बह्माछक्के) ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कातिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र कल्पों में (पम्मा) मध्यम पद्म लेश्या तथा (सदरदुगे) शतार और सहस्रार कल्प में (पम्मसुक्कलेस्सा) उत्कृष्ट पद्म और जघन्य शुक्ल लेश्या (आणद तेरे) आनत स्वर्ग को आदि लेकर तेरह स्थानों में अर्थात् आनत आदि चार और नव ग्रैवेयक में (सुक्का) मध्यम शुक्ल लेश्या (अणुदिसा दीसु) तथा अनुदिश और अनुत्तर विमानों में (सुक्कुक्कसा) परमशुक्ल लेश्या पाई जाती है ।
भावार्थ - भवनत्रिक में तेजोलेश्या का जघन्य अंश है, सौधर्म, ईशान
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