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________________ स्वर्ग में तेजोलेश्या का मध्यम अंश, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में तेजोलेश्या का उत्कृष्ट अंश एवं पद्मलेश्या का जघन्य अंश है। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र इन छह स्वर्गों में पद्मलेश्या का मध्यम अंश है। सतार, सहस्रार में पद्म लेश्या का उत्कृष्ट अंश एवं शुक्ल लेश्या का जघन्य अंश है । गाथा में "आणदतेरे' शब्द का प्रयोग किया गया अर्थात् आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और नव ग्रैवेयक इन तेरह स्थानों में मध्यम शुक्ल लेश्या है इस प्रकार जानना चाहिये, एवं नव अनुदिश और पंच अनुत्तर विमानों में उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है। पुंवेदो देवाणं देवीणं होदि थीवेदं । भुवणतिगाण अपुण्णे असुहतिलेस्सेव णियमेण ||74|| पुंवेदो देवानां देवीनां भवति स्त्रीवेदः । भुवनत्रिकानां अपूर्णे अशुभत्रिलेश्या एव नियमेन ॥ अन्वयार्थ :- (देवाणं) देवों में (पुंवेदो) पुंवेद (देवीणं) देवियों में (थीवेद) स्त्रीवेद (होदि) होता है। (भुवणतिगाण) भवनत्रिक की (अपुण्णे) अपर्याप्तक अवस्था में (णियमेण) नियम से (असुहतिलेस्सेव) अशुभ तीन लेश्यायें ही पाई जाती हैं। कप्पित्थीणमपुण्णे तेऊलेस्साए मज्झिमो होदि। उभयत्थ ण वेभंगो मिच्छो सासणगुणो होदि ।।75।। कल्पस्त्रीणामपूर्णे तेजोलेश्यायाः मध्यमो भवति । उभयत्र न विभंगं मिथ्यात्वं सासादनगुणो भवति ।। अन्वयार्थ:- (कप्पित्थीणमपुण्णे) कल्पवासी स्त्रियों के अपर्याप्तक अवस्था में (तेऊलेस्साए) पीत लेश्या के (मज्झिमो) मध्यम अंश होते हैं। (उभयत्र) भवनत्रिकदेव, देवी और कल्पवासी देवीयों में (ण वेभंगो) विभंग ज्ञान नहीं होता है। (मिच्छो) मिथ्यात्व और (सासणगुणो) सासादन गुणस्थान होता है। सोहम्मादिसु उवरिमगेविज्जतेसु जाव देवाणं । णिव्वत्तिअपुण्णाणंण विभंग पढमविदियतुरियठाणा 76।। सौधर्मादिषु उपरिमग वेयकान्तेषु यावद्देवानां । निर्वृत्यपूर्णानां न विभंगं प्रथमद्वितीयतुर्यस्थानानि ॥ (75) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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