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________________ दुभि ति भ विग-त्ति दुग दुण्णितेरं च । इगि अड छे दो भावस्सऽजोगिअंतेसु ठाणेसु ॥ 35 | द्विक- त्रिक- नमः षट् - द्विक नभः - त्रि-नमः - द्वित्रिक - द्विका - द्वौ त्रयोदश च । अष्टौ छेदः भावस्यायोग्यन्तेषु स्थानेषु - एकः || अन्वयार्थ - (दुग) दो (तिग) तीन (णभ) शून्य (छ) छह (दुग) दो (भ) शून्य (ति) तीन (णभ) शून्य (विग त्ति) दो गुणस्थानों में तीन-तीन (दुग) दो (दुण्णि) दो (तेरं) तेरह (इगि) एक (च) और (अड) आठ (भावस्स ) भाव की (अजोगिअंतेसु ठाणेसु) अयोग केवल गुणस्थान पर्यन्त क्रमशः (छे दो) व्युच्छित्ति होती है। भावार्थ - इस गाथा में प्रथम गुणस्थान से अयोग केवली गुणस्थान तक भावों की व्युच्छित्ति का क्रम का निरूपण किया गया है। प्रथम गुणस्थान दो भावों की दूसरे सासादन में तीन भावों की, तीसरे गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है । चौथे गुणस्थान में छह भावों की, पाँचवे गुणस्थान में दो भावों की, छठवें प्रमत्त संयत गुणस्थान में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं होती है। सातवें में तीन भावों की, आठवें में किसी भी भाव की व्युच्छित्ति नहीं, नवमें में छह अर्थात् सवेद भाग के अन्त में तीनों वेदों की एवं अवेद भाग के अन्त में क्रोध, मान, माया की व्युच्छित्ति होती है। दसवें में दो, ग्यारहवें में दो, बारहवें में तेरह, तेरहवें में एक और चौदहवें में आठ भावों की व्युच्छित्ति होती है । विशेष - जो भाव जिस गुणस्थान तक पाया जाता है आगे के गुणस्थान में उसका अभाव हो जाता है उस भाव की उसी गुणस्थान के अन्त में व्युच्छित्ति समझना चाहिये । यथा - मिथ्यात्व भाव मिथ्यात्व गुणस्थान तक ही रहता है आगे दूसरे सासादन में इंसका अभाव है, अतः प्रथम गुणस्थान में मिथ्यात्व की व्युच्छित्ति हो जाती है । मिच्छे मिच्छ मभव्वं साणे अण्णाणतिदयमयदम्हि । किण्हादितिणि लेस्सा असंजमसुरणिरयगदिच्छे दो ॥ 36 | Jain Education International (16) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002685
Book TitleBhav Tribhangi
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2000
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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